बांग्लादेश में ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ अल्पसंख्यकों के लिए काला क़ानून

बांग्लादेश में ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ (अब वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट) वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों विशेषकर हिंदुओं के लिए किसी काले क़ानून से कम नहीं है। इससे प्रभावित लोगों का मानना है कि यह अधिनियम बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यकों को उनकी ज़मीन-जायदाद से बेदख़ल करने का हथियार बन चुका है। बावजूद इसके मौजूदा शेख हसीना सरकार इस मामले को लेकर गंभीर नहीं दिखतीं,जबकि बांग्लादेश के अल्पसंख्यक उनकी पार्टी अवामी लीग के परंपरागत वोटर माने जाते हैं।

बांग्लादेश में ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ की वजह से लाखों हिंदुओं को अपनी जमीनों से हाथ धोना पड़ा है। इसकी तस्दीक मशहूर अर्थशास्त्री व ढाका विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अबुल बरकत के शोध से भी होती है। रिपोर्ट के मुताबिक, वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट की वजह से बांग्लादेश में 1965 से 2006 के दौरान अल्पसंख्यक हिंदुओं के स्वामित्व वाली 26 लाख एकड़ भूमि दूसरों के क़ब्ज़े में चली गई।

बांग्लादेश में ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ की गाज वहां रहने वाले बौद्ध समुदाय पर भी गिरी है। चटगांव डिवीजन के अंतर्गत बंदरवन, रंगामाटी और खग्राछारी में 22 प्रतिशत बौद्ध समुदाय की भूमि इस क़ानून की भेंट चढ़ गई। साल 1978 में यहां बौद्ध धर्म को मानने वालों के पास 70 फीसदी भूमि थी, लेकिन साल 2009 में यह घटकर 41 प्रतिशत रह गई।  (‘डिप्रिवेशन ऑफ हिंदू माइनॉरिटी इन बांग्लादेश लिविंग विथ वेस्टेड प्रॉपर्टी’ नामक किताब की प्रस्तावना में यह चिंता बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रिटायर्ड मोहम्मद ग़ुलाम रब्बानी और प्रोफेसर अबुल बरकत प्रकट करते हैं। वह लिखते हैं-

शत्रु संपत्ति कानून (वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट) की वजह से अल्पसंख्यकों ख़ासकर हिंदुओं की 26 लाख एकड़ जमीन दूसरों के कब्जे में चली गई।

साल 1965 में तत्कालीन पाकिस्तान सरकार ने ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ बनाया था। भारत के साथ जंग में हुई हार के बाद यह क़ानून अमल में लाया गया। इसके तहत 1947 में पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत गए लोगों की अचल संपत्तियों को ‘शत्रु संपत्ति’ घोषित कर दिया गया।

मुक्ति युद्ध के बाद 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ मुज़ीबुर्रहमान ने ‘एनेमी प्रॉपर्टी एक्ट’ का नाम बदलकर ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ कर दिया।

जातीय संसद यानी नेशनल असेंबली में पारित विधेयक भाषण में उन्होंने कहा था, ‘भारत और बांग्लादेश दो स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र हैं। बांग्लादेश के निर्माण में भारत के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। इसलिए जब बांग्लादेश और भारत आपस में बंधु हैं तो शत्रु संपत्ति क़ानून का कोई औचित्य नहीं है।’

15 अगस्त 1975 को शेख़ मुज़ीब की राजधानी ढाका स्थित उनके निवास पर हत्या कर दी गई। लिहाज़ा बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यकों की बेहतरी का जो ख्वाब उन्होंने देखा था उसे काफ़ी आघात पहुंचा।

शेख हसीना का शासन

अवामी लीग के बाद क्रमश: इक्कीस वर्षों तक बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जातीय पार्टी की सरकारें रहीं। इस दौरान वहां रहने वाले अल्पसंख्यकों की अचल संपत्तियां खुर्द-बुर्द होती रहीं। दो दशक बाद 23 जून 1996 को अवामी लीग सत्ता में आई और शेख़ हसीना प्रधानमंत्री बनीं। अपने कार्यकाल के आखिरी साल 2001 मे उन्होंने ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’ में बदलाव कर इसका नाम ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ कर दिया। अवामी लीग सरकार के इस फ़ैसले का मक़सद बांग्लादेश में रहने वाले अल्पसंख्यकों को उनकी अचल संपत्तियों का लाभ दिलाना था।

इस संशोधित क़ानून के तहत अल्पसंख्यकों की ज़ब्त की गई ज़मीनों से संबंधित मुक़दमे का फ़ैसला 90 दिनों में और 180 दिनों के भीतर याचिकाकर्ताओं को उक्त भूमि पर दख़ल-क़ब्ज़ा दिलाने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन अक्टूबर, 2001 में बांग्लादेश जातीय संसद (नेशनल असेंबली) के चुनाव में बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) दोबारा हुकूमत में आई और ख़ालिदा जिय़ा प्रधानमंत्री बनीं। बीएनपी सरकार ने ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ में पिछली सरकार द्वारा किए गए प्रावधानों को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

हिंदुओं से जुड़े मुक़दमे

जनवरी 2009 में अवामी लीग फिर सत्ता में आई और प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की अगुवाई वाली सरकार ने ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ को दोबारा प्रभावी बनाने का फ़ैसला किया। साल 2013 में इस बाबत हर जि़ले में फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित की गई। ताकि अपनी ज़मीन से बेदख़ल हो चुके अल्पसंख्यकों को उनकी संपत्ति वापस मिल सके। हालांकि इस समय ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ से जुड़े कऱीब 10 लाख अल्पसंख्यकों ख़ासकर हिंदुओं के मुक़दमे बांग्लादेश के विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। बांग्लादेश भूमिहीन किसान समिति के महासचिव सुबल सरकार बताते हैं, ‘अवामी लीग की सरकार ने एनेमी प्रॉपर्टी एक्ट में काफ़ी तब्दीली की, लेकिन अल्पसंख्यकों को जितना फ़ायदा मिलना चाहिए उतना नहीं मिला है।’

‘ये क़ानून वैसे लोगों के लिए मुफ़ीद बन गई है, जो अल्पसंख्यकों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं। सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए,वरना वह दिन दूर नहीं जब बांग्लादेश में अल्पसंख्यक पूरी तरह भूमिहीन हो जाएंगे।’ बांग्लादेश कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के महासचिव मोहम्मद बदरूल आलम ‘वेस्टेड प्रॉपर्टी रिटर्न एक्ट’ में अभी तक हुए बदलावों को अल्पसंख्यकों के हितों के लिए नाक़ाफी मानते हैं। उनका कहना है, ‘एनेमी प्रॉपर्टी एक्ट या वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट बनाने का मतलब है किसी समुदाय विशेष के हितों की अनदेखी करना। इस तरह के काले क़ानून को पूरी तरह से ख़त्म करने का साहस सरकार को दिखाना चाहिए।’

बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में

बांग्लादेश कृषक फेडरेशन  के महासचिव ज़ायद इक़बाल ख़ान बताते हैं, ‘साल 1971 के मुक्ति युद्ध के समय काफ़ी संख्या में बांग्लादेशी हिंदू भारत में बस गए। उनमें ज्यादातर लोगों के चाचा, भाई और बहन बांग्लादेश छोडक़र नहीं गए। यहां रहने वालों की ज़मीनें उनके पुरखों के नाम पर हैं। ऐसे में उनकी संपत्ति को वेस्टेड प्रॉपर्टी घोषित कर बेदख़ल करना नाइंसाफ़ी है। साल 1965 में ‘शत्रु संपदा अधिनियम’ लागू होने वक्त पाकिस्तान था, लेकिन 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भारत की मदद और उनके हज़ारों सैनिकों के बलिदान का क्या यही प्रतिफल है।’ ‘डिप्रिवेशन ऑफ हिंदू माइनॉरिटी इन बांग्लादेश लिविंग विथ वेस्टेड प्रॉपर्टी’ नाम से आई किताब की प्रस्तावना में बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस (रिटायर्ड) मोहम्मद गुलाम रब्बानी ने भी लिखा है,

‘शत्रु संपत्ति अधिनियम की वजह से बांग्लादेशी हिंदू कितने परेशान हैं, इस बात का एहसास मुझे उस वक्त हुआ जब मैं साल 1969 में ढाका हाईकोर्ट में वकालत कर रहा था। मेरे पास तीन हिंदू भाईयों से जुड़ा एक मामला आया। उनमें एक भाई 1952 में भारत चला गया। बाकी दो भाई नौगांव जि़ले में रह गए। राजशाही डिवीजन के अधिकारियों ने भारत गए उस व्यक्ति की ज़मीन को  वेस्टेड प्रॉपर्टी घोषित कर दिया।

नतीज़तन उन्होंने हाईकोर्ट में मुक़दमा दायर किया। इस मामले में उस हिंदू परिवार की जीत हुई और उन्हें वापस ज़मीन का क़ब्ज़ा मिल गया। दूसरा मामला बोगरा जि़ले का था। यहां एक हिंदू कारोबारी की चावल और ऑयल मिलें थी। साल 1962 में वह कारोबारी भारत चले गए, लेकिन उनके दो सगे भतीजे बांग्लादेश में ही रहने का फ़ैसला किया। सरकार ने उनकी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ घोषित कर दिया। पीडि़त पक्ष ने हाईकोर्ट में मुक़दमा किया और कई वर्षों बाद उन्हें जीत मिली।’ जस्टिस रब्बानी लिखते हैं, ‘बांग्लादेश में इस तरह के लाखों मुक़दमे अदालतों में लंबित हैं। वहां चंद ऐसे मामलों में जीत कोई मायने नहीं रखता। लिहाज़ा सरकार और न्यायपालिका को इस क़ानून के ख़ात्मे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए,क्योंकि यह क़ानून अमानवीय और असंवैधानिक है।’

जाली दस्तावेज़ों के सहारे ज़मीनों पर क़ब्ज़ा

दक्षिण बांग्लादेश स्थित बरिसाल डिवीजन अंतर्गत दश्मिना उप-जि़ले में हिंदुओं की अच्छी संख्या है। अस्सी वर्षीय विभूति रंजन चक्रवर्ती बताते हैं, ‘डेढ़ सौ वर्षों से उनका परिवार यहां रहता है। विभाजन से पहले दश्मिना गांव में उनके संयुक्त परिवार में सत्तर बीघा ज़मीन थी। लेकिन 1947 में उनके दो भाइयों ने भारत जाने का फ़ैसला किया। कुछ वर्षों तक भाइयों के हिस्से की ज़मीन उनके क़ब्ज़े में रही,लेकिन 1965 में शत्रु संपत्ति क़ानून बनने के बाद सरकार ने उसे एनिमी प्रॉपर्टी घोषित कर दिया। बिना चास कई वर्षों तक ज़मीन परती रही,लेकिन 1971 में स्थानीय मुसलमानों ने फज़ऱ्ी क़ागज़ात के ज़रिए ज़मीनों पर क़ब्ज़ा कर लिया। फि़लहाल वे सात बीघा ज़मीन के दख़लकार हैं और इसी से वह अपने परिवार का गुजारा करते हैं।

उत्तम चक्रवर्ती का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। 1947 से पहले उनके बाप-दादा झालोकाठी जि़ले में रहते थे। 1946 के नोआखाली दंगे की आग उनके गांव तक पहुंच गई। गांव के ज़्यादातर हिंदू अपना घर-बार छोडक़र भारत चले गए। लेकिन उनका परिवार दश्मिना आकर बस गया। झालोकाठी में उनके सौ बीघा ज़मीन पर ग़ैर-हिंदुओं ने क़ब्ज़ा कर लिया। एक मंदिर में पुजारी उत्तम चक्रवर्ती के पास चार बीघा ज़मीन है। उनके परिवार में उनकी पत्नी मिनाली चक्रवर्ती और दो छोटे बच्चे हैं।

बरिसाल स्थित दत्तापाड़ा गांव निवासी मेघना तालुकदार के संयुक्त परिवार में कभी डेढ़ सौ बीघा जमीन थी.बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के बाद उनके कई परिजन भारत चले आए,लेकिन उनके पति और उनके दो भाई बरिसाल में ही रहने का फैसला किया। भारत गए उनके परिजनों की जमीनों को सरकार ने वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट घोषित कर दिया। मेघना बताती हैं, उनकी जमीनों को वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट के तहत जब्त करना एक गलत फैसला है,क्योंकि उनके परिजन भारत जाने के समय अपने हिस्से की भूमि उनके नाम कर दी थी।

राजधानी ढाका से ढाई सौ किलोमीटर दूर नौगांव (पूर्व में राजशाही जिला) स्थित है अतरई।  छह हजार की आबादी वाले इस गांव में करीब सौ घर हिंदुओं के हैं। पैंसठ वर्षीय कालीकांत मंडल के पांच बीघा जमीन है। वह बताते हैं, पहले यहां हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी बराबर थी। बंटवारे के समय अतरई समेत राजशाही के ज्यादातर संपन्न हिंदू भारत चले गए। पश्चिम बंगाल में उनका कोई रिश्तेदार नहीं था,इसलिए उनका परिवार यहीं रहना मुनासिब समझा।

1971 के मुक्ति युद्ध में पाकिस्तानी सेना द्वारा हिंदू बहुल जिलों क्रमश: खुलना,राजशाही,रंगपुर एवं चट्टोग्राम (चटगांव) में बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया गया। जान बचाने के लिए काफी संख्या में यहां के हिंदुओं ने भारत में शरण ली,जिनमें उनके चाचा और दो चचेरे भाई भी शामिल थे। उनके हिस्से की जमीन पर कई वर्षों तक उन्होंने खेती की,लेकिन साल 1990 में उक्त भूमि पर खेती नहीं करने का सरकारी फरमान सुनाया गया। कस्टोडियन की तरफ से मुझे एक नोटिस भी मिला। कालीकांत के मुताबिक, सरकारी आदेश का पालन करते हुए उन्होंने अपने परिवार की जमीन पर कोई दावा-दलील नहीं किया। लेकिन कुछ वर्षों बाद स्थानीय लोगों ने उस जमीन पर कब्जा कर लिया।

चुनावों में अल्पसंख्यकों को लुभाने की कोशिश

पिछले साल दिसंबर में संपन्न हुए बांग्लादेश जातीय संसद (नेशनल असेंबली) के चुनाव में सत्ताधारी अवामी लीग और मुख्य विपक्षी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में अल्पसंख्यक हितों को खास तरजीह दी थी। अवामी लीग को वैसे भी हिंदुओं की हितैषी पार्टी मानी जाती है और हिंदू मतदाता भी अवामी लीग के मजबूत वोट बैंक माने जाते हैं। अपने मेनिफेस्टो में अवामी लीग ने सत्ता में आने पर ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग’ गठित करने का वादा किया था। जबकि बेगम खालिदा जिया के नेतृत्व वाली ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी’ ने अपने घोषणा-पत्र में ‘अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय’ बनाने का वादा किया था। चुनाव में बीएनपी और उसके सहयोगी दलों ने कुल बारह अल्पसंख्यकों को उम्मीदवार बनाकर हैरान जरूर किया था। वहीं सत्ताधारी अवामी लीग ने 18 अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा था,जिनमें पंद्रह हिंदू, दो बौद्ध और एक ईसाई थे। अवामी लीग के सभी अल्पसंख्यक उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे। जनवरी 2020 में अवामी लीग सरकार को एक साल पूरे हो जाएंगे। लेकिन राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग बनाने का जो वादा प्रधानमंत्री शेख हसीना ने किया था,वह अभी तक पूरा नहीं हो सका। पिछले साल जातीय संसद के चुनाव के समय बांग्लादेश हिंदू-बौद्ध-क्रिश्चियन एकता परिषद अवामी लीग सरकार को पांच-सूत्रीय ज्ञापन सौंपा था। उक्त ज्ञापन में वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट की वजह से अपनी जमीन गवां चुके अल्पसंख्यकों को वापस दखल-कब्जा दिलाने की मांग की गई थी। साथ ही सरकार वैसे नेताओं पर कार्रवाई करे,जिनके ऊपर अल्पसंख्यकों की संपत्ति हड़पने के आरोप लगे हैं।

कहानी रंगपुर के ज़मींदार की

1947 के विभाजन के समय भारत और पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान दोनों तरफ़ से लाखों लोगों का पलायन हुआ। वे अपनी चल-अचल संपत्तियों को छोड़ महफूज ठिकाने की तलाश में निकले। जयपुर में रहने वाले सुधेंदु पटेल का परिवार भी उन्हीं लोगों में एक है।

वह बताते हैं, ‘उनके पिता केशवलाल पटेल बांग्लादेश के रंगपुर डिवीजन में नामी ज़मींदारों में शुमार थे। रंगपुर डिवीजन स्थित पार्बतीपुर,नीलफामारी,लालमुनीरहाट और कुडीग्राम के कई मौज़ों में उनकी ज़मींदारी थी। नि:संतान होने की वजह से उनके मामा नंदलाल पटेल ने अपनी ज़ायदाद कऱीब 2200 बीघा ज़मीन केशवलाल पटेल के नाम कर दी।

बंटवारे के समय ज्यादातर रिश्तेदार पूर्वी पाकिस्तान से बनारस आ गए। कई लोगों ने मेरे पिता को भारत जाने की सलाह दी, लेकिन वे जमींदारी का मोह नहीं छोड़ सके। मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फ़ातिमा जिन्ना की पार्टी से वे रंगपुर से चुनाव भी लड़े। 1971 में जब बांग्लादेश बना उसके बाद भी वह रंगपुर में ही रहे। हालांकि,इस बीच उनकी आधी ज़मीनें सीलिंग एक्ट में चली गईं और शेष ज़मीन एनिमी प्रॉपर्टी घोषित हो गई। बुढापे और बीमारियों की वजह से 1984 में वह बनारस आ गए। दो साल बाद 1986 में उनका देहांत हो गया। रंगपुर में जिस ज़मींदारी की वजह से उन्होंने अपने परिवार को छोड़ दिया। उनके मरने के बाद उनकी सारी ज़मीनों पर स्थानीय लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया।

संतोष कुमार सरकार बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। मूलत: रंगपुर के रहने वाले सरकार ने केशवलाल पटेल की ज़मीनों को सीलिंग और वेस्टेड पॉपर्टी एक्ट से मुक्त कराने के लिए कई वर्षों तक मुक़दमा भी लड़ा। लेकिन पटेल की मृत्यु के बाद उनके परिवार के किसी सदस्यों ने कोई रूचि नहीं दिखाई। वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट से जुड़े कई मुक़दमों की पैरवी कर रहे संतोष कुमार सरकार बताते हैं, केस नंबर 604/2017 सुंदर मुखोपाध्याय वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार एवं केस नंबर 655/ 2013 महेंद्रनाथ बैरागी वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार में उनके मुव्वकिलों की जीत हुई। इस फ़ैसले को बांग्लादेश सरकार ने अपीलेट ट्राइब्यूनल में चुनौती दी, लेकिन यहां भी फ़ैसला उनके पक्ष में रहा।

न्यायिक आदेश के बावजूद उनके मुव्वकिलों को ज़मीन पर दख़ल-क़ब्ज़ा नहीं मिल पाया है। उनके मुताबिक़,बांग्लादेश में वेस्टेड प्रॉपर्टी से जुड़े फ़ैसलों का तब तक कोई महत्व नहीं है,जब तक कि पीडि़त पक्षकारों को उनकी ज़मीनों पर शांतिपूर्ण क़ब्ज़ा न मिल जाए। संतोष कुमार सरकार कहते हैं, बांग्लादेश से हिंदुओं के पलायन की सबसे बड़ी वजह वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट है। एनिमी प्रॉप्रटी एक्ट लागू होने से पहले यानी 1961 में बांग्लादेश में 18 फ़ीसद हिंदू थे। लेकिन 1981 में इनकी संख्या घटकर 12 फ़ीसद रह गई और 2001 की जनगणना के अनुसार यहां महज़ 10 फ़ीसद हिंदू रह गए हैं। इस लिहाज़ से देखें तो 1964 से 2001 के दौरान 8.1 मिलियन हिंदू बांग्लादेश से पलायन कर गए।