बदले-बदले से‘सरकार…’

बात छह महीने पुरानी है. बीते 15 अगस्त की. स्वतंत्रता दिवस के मुख्य समारोह में झंडा फहराने के बाद हेमंत सोरेन बिना किसी पूर्व सूचना के राजधानी रांची के बड़ा तालाब इलाके में बने एक अनाथ आश्रम में पहुंच गए. सुरक्षाधिकारी चेताते रहे कि वहां जाने के लिए थोड़ा वक्त तो दें! लेकिन मुख्यमंत्री इसके मूड में नहीं थे. आंचल शिशु आश्रम नामक उस अनाथालय में उनके अचानक पहुंचने से बच्चे खुश थे और संचालक हैरत में. हेमंत वहां पहुंचते ही बच्चों से बात करने में खो गए. एक-एक कर सभी बच्चों से घंटों बतियाते रह गए. फिर उन्होंने आश्रम संचालक से पूछा कि क्या परेशानी है. बताया गया कि जगह कम है. बच्चों को रहने में परेशानी होती है. हेमंत ने कहा, ‘वादा नहीं करते हैं, कोशिश करेंगे.’ वर्षों से किसी तरह जुगाड़ तकनीक पर चलने वाले उस आश्रम को 20 दिन के अंदर एक नया भवन मिल गया. उसे नेत्रहीन विद्यालय के एक हिस्से में स्थानांतरित कर दिया गया. इस आश्रम से हेमंत का इतने तक का ही नाता नहीं रहा. कुछ दिनों बाद जब मुख्यमंत्री आवास में उनके बेटे के जन्मदिन पर छोटा-सा आयोजन हुआ तो उसमें शहर और राज्य के ‘गणमान्यों’ के बजाय आश्रम के ही बच्चों को प्राथमिकता के तौर पर बुलाया गया.

दूसरा वाकया सितंबर के पहले हफ्ते का है. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन दो-तीन दिन के लिए मुंबई गए हुए थे. मुंबई से लौटते ही वे एयरपोर्ट से सीधे अपने कार्यालय पहुंचे. उन्होंने तुरंत आदेश दिया कि किसी भी हाल में आठ सितंबर को गुवा गोलीकांड में शहीद हुए आंदोलनकारियों के परिजनों को नौकरी देनी है. गुवा गोलीकांड आठ सितंबर,1980 को हुआ था. उसमें 11 आंदोलनकारी मारे गए थे. उसे झारखंड का जालियांवाला कांड कहा जाता है. हेमंत के निर्देश पर आठ आंदोलनकारियों के परिजनों का पता लगाया गया और उन्हें नौकरी दे दी गई. यह एक ऐसा मसला था जिस पर झारखंड बनने के बाद से ही सभी सरकारों द्वारा बातें तो होती थीं लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाती थी.

कहने-सुनने में ये दो घटनाएं सामान्य लग सकती हैं लेकिन कोई राजनेता बिना वोटबैंक मजबूत करने की मंशा से ऐसी कवायद करे तो इस पर हैरानी स्वाभाविक है. हैरान इस पर भी हुआ जा सकता है कि अपने निर्माण के समय से अक्सर गलत वजहों से चर्चा में आने वाले राज्य में पहली बार मुख्यमंत्री को कुछ ऐसे काम करते हुए भी देखा जा रहा है और चर्चित हो रहा है. झारखंड के 38 वर्षीय नौजवान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन राहुल गांधी, अखिलेश यादव जैसी राजनेताओं की उसी पीढ़ी से हैं जिसे राजनीति विरासत में मिली. लेकिन जैसा कि ऊपर की दो घटनाएं बताती हैं, कुछ मायनों में वे इस पीढ़ी से अलहदा भी दिख रहे हैं. सिर्फ यही नहीं. कभी-कभी तो प्रचलित राजनीति के लोकाचारों से विपरीत भी उनके कुछ काम अब चर्चा में आ रहे हैं. इसका एक और सटीक उदाहरण भी छह माह पहले का ही है. यह घटना उनके अपने क्षेत्र संथाल परगना की है. तब हेमंत सोरेन दुमका के मसलिया प्रखंड में बतौर मुख्यमंत्री एक अस्पताल भवन का उद्घाटन करने पहुंचे थे. वहां सारी तैयारियां पूरी थीं लेकिन मुख्यमंत्री ने वहां पहुंचकर भी अस्पताल भवन का उद्घाटन करने से मना कर दिया. अस्पताल भवन में भारी अनियमितता हुई थी. मुख्यमंत्री ने अस्पताल का उद्घाटन तो नहीं ही किया तुरंत वहां के उपायुक्त को संबंधित अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज करके कार्रवाई करने का आदेश दे दिया.

इस साल जुलाई में जब हेमंत सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बने थे तो कहा जा रहा था कि अपने पिता शिबू सोरेन की विरासत की वजह से उन्हें कुर्सी मिली है और जैसे-तैसे सरकार चलाकर वे अपने मन की यह मुराद भी पूरी कर लेंगे. यदि छवि को राजनीति में सबसे बड़ी चुनौती मान लिया जाए तो हेमंत के लिए इसे बदलना सबसे बड़ा काम था. लेकिन बीते छह महीने में चाहे-अनचाहे उनकी कार्यशैली कुछ ऐसा जाहिर करती रही है कि अपनी, पार्टी की और राज्य की छवि बदलने के लिए वे कई स्तरों पर एक साथ काम कर रहे हैं. शायद उन्हें इस बात का अहसास है कि अगर बनी-बनाई लीक को वे तोड़ने में कामयाब नहीं हो सके तो फिर उनका आगे का राजनीतिक करियर भी भंवरजाल में फंस सकता है.

हेमंत कहते हैं, ‘ मैं जानता हूं कि मुझे कम समय मिला है और इतने दिनों में मैं कम से कम व्यवस्था में सुधार नहीं कर सका, कार्यसंस्कृति नहीं बदल सका तो फिर कोई मतलब नहीं होगा मेरे मुख्यमंत्री बनने का.’ हेमंत से हम उनकी प्राथमिकता के बारे में पूछते हैं तो उनका जवाब होता है, ‘ बिजली, सड़क, पानी को मैं सरकार की प्राथमिकता नहीं मानता. यह तो सरकारों का पहला काम है. मेरी प्राथमिकता है कि लोगों को अहसास हो कि झारखंड में सरकार भी काम कर सकती है और लोग अपनी बात सरकार के पास रख सकते हंै.’

हेमंत जब यह बात कह रहे होते हैं तो सिर्फ बड़ी-बड़ी बातों की तरह यह लगता भी नहीं क्योंकि छह माह के कार्यकाल में उन्होंने यह साबित करने की कोशिश भी की है. वे कभी पैदल ही बाहर निकल पड़ते हैं. कभी खुद गाड़ी चलाकर दफ्तर पहुंच जाते हैं और तो और अपनी ही सरकार में भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने में भी उन्हें कभी हिचक नहीं होती. मुख्यमंत्री सचिवालय से निकलते समय अपने प्रधान सचिव के दफ्तर में खुद पहुंचकर मीटिंग करने में भी उन्हें संकोच नहीं है. मुख्यमंत्री के साथ रहने वाले हिमांशु शेखर चौधरी बताते हैं, ‘ हेमंत यह सब सहज और स्वाभाविक रूप से करते हैं. पैदल चलने, अचानक कहीं जाने के पहले वे मीडिया को सूचित करने को कभी नहीं कहते. प्रचार की भूख नहीं है उनमें.’

हेमंत का ऐसा ही सहज व्यवहार उनसे बात-मुलाकात के दौरान भी दिखता है. हेमंत घंटों बतियाते हैं लेकिन जब तक राज्य के मसले पर बात होती है पूरी गंभीरता से जवाब देते हैं और जैसे ही सवाल-जवाब का सिलसिला खत्म होता है, चट हमसे कैमरा मांग हमारी ही तस्वीरें उतारने लगते हैं. चहकते हुए कहते हैं, ‘कैमरे का बहुत शौक है हमें.’  हम उनसे पूछते हैं और क्या-क्या शौक हंै. वे बताते हैं, ‘खुद से ड्राइव करने का. खाना बनाने का.’ पूछने का हमारा क्रम जारी रहता है और उनके बताने का भी,’ आगे नहीं बताऊंगा, आप सुनकर हंसेंगे.’ वे बोलने से रुकते नहीं, ‘कॉमिक्स पढ़ने का. समय एकदम नहीं मिलता लेकिन मौका मिलता है तो अपने बच्चों के कॉमिक्स को गायब कर पांच-दस मिनट में फटाफट एक निपटा देता हूं.’  इन्हीं बातों के बीच गंभीर होते हुए हेमंत बात आगे बढ़ाते हैं, ‘एकदम कॉमन मैन की तरह, स्वाभाविक अंदाज में रहने का मन करता है. जब जहां जी में आए, चला जाऊं. अगर कहीं जाने में देर हो रही हो तो खुद से गाड़ी निकालूं, चल दूं. बहुत कम दूरी पर जाना हो तो पैदल चल दूं…! हमेशा ही जनता की ओर से व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की आदत रही है. अब खुद पर व्यवस्था बदलने की जिम्मेवारी है तो सोचता हूं कि जनता बनकर उनके ही नजरिये से चीजों को देखूं और बदलाव की कोशिश करूं.’

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हालांकि हेमंत के विरोधी उन्हें रोज-ब-रोज निशाने पर लेते हैं और कहते हैं कि सरकार ने छह महीने पूरे कर लिए हैं लेकिन कोई काम होता नहीं दिखता. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा के नेता बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि यह सरकार खुद के ही शासन में कह रही है कि रजिस्ट्री ऑफिस में भ्रष्टाचार है. बिना पैसे का काम नहीं होता. चहुंओर भ्रष्टाचार है तो सरकार को खुद ही इस्तीफा दे देना चाहिए. हेमंत इसके जवाब में कहते हैं, ‘हां, जो गलत हो रहा है उसे गलत ही कहूंगा और सुधारने की कोशिश करूंगा. कौन क्या कहता है, मैं इस पर ध्यान देना नहीं चाहता. मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फ बात नहीं करता. सरकार को कार्यभार संभाले जब 100 दिन ही हुए थे उसी बीच 64 कर्मचारियों व अधिकारियों पर हमने कार्रवाई कर दी थी. 10 लोगों को निलंबित किया गया था. मैंने प्राथमिकताएं तय की हैं और उसके अनुसार काम करूंगा. मैं उन नेताओं में से नहीं हूं जो झारखंड को गरीब और पिछड़ा कहे जाने पर खुश होकर केंद्र से पैकेज बढ़वाने के लिए खुश हो जाऊं. केंद्र से हमें अपना हक चाहिए लेकिन मुझे इस बात का भी अफसोस होता है कि आखिर वह झारखंड जिसके संसाधन से पूरा देश अमीर हो रहा है, पिछड़े राज्यों की सूची में प्राथमिकता के साथ क्यों मौजूद है!’

हेमंत जब यह बात बता रहे होते हैं तो कुछ दिनों पहले की एक-दो और घटनाएं हमारी स्मृति में उभरती हैं. दरअसल उन्होंने करीब दो महीने पहले कोल इंडिया लिमिटेड को साफ-साफ चेताया था कि कंपनी की लीज खत्म हो चुकी है और दो दशक पहले झारखंड सरकार का तीन हजार करोड़ रुपये बकाया था. सूद जोड़कर कुल राशि12 हजार करोड़ रुपये की होती है. राज्य को  पहले वह मिले और कोल कंपनियां सुनिश्चित करें कि लीज पर जमीन लेने के बाद जनता के साथ मजाक नहीं होगा तभी बात आगे बढ़ेगी. हेमंत ने कोल इंडिया से जब यह जवाबतलब शुरू किया तो लोग हैरत में भी पड़े कि कांग्रेस के सहयोग से ही सरकार चला रहे हैं और केंद्र की कांग्रेसी सरकार से ही लड़ाई छेड़ने के मूड में हैं. हेमंत कहते हैं, ‘सरकार रहे न रहे, इसकी बहुत परवाह नहीं लेकिन जितने दिन रहूंगा, राज्य की बेहतरी के लिए कुछ करने की कोशिश करूंगा.’ यह मुख्यमंत्री की अपनी बात है जिसे उनके विरोधी मानने को तैयार नहीं. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा के अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘माफियाओं-भ्रष्टाचारियों के गठजोड़ के सहयोग से यह सरकार बनी है, इसलिए उन्हें संरक्षण भी मिल रहा है.’ सरकार के साथ ही हेमंत पर बीते दिनों में व्यक्तिगत आरोप भी लगे हैं. उनमें से एक यह है कि उप-मुख्यमंत्री बनते ही हेमंत सोरेन ने मैनहर्ट प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक कंपनी के लिए 21.40 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत करके करीब 13 करोड़ रुपये का घोटाला किया था. झारखंड पीपुल्स पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष सूर्य सिंह बेसरा के मुताबिक रांची शहर के लिए सीवरेज-ड्रेनेज परियोजना के निर्माण के लिए मैनहर्ट प्राइवेट लिमिटेड की नियुक्ति की गई थी. परियोजना की प्राक्कलन राशि 9 करोड़ 25 लाख 80 हजार रुपये थी. योजना कई वर्ष से लंबित थी लेकिन उपमुख्यमंत्री बनते ही हेमंत सोरेन ने इस योजना के तहत 21 करोड़ 40 लाख रुपये की राशि सिंगापुर की कंपनी मैनहर्ट प्राइवेट लिमिटेड के लिए मंजूर कर दी. इस तरह उन्होंने 13 करोड़ रुपये का घोटाला किया. बेसरा ने हेमंत पर यह आरोप भी लगाया था कि उन्होंने रांची के अरगोड़ा प्रखंड में 44 लाख की लागत से एक प्लॉट अपनी पत्नी कल्पना मुमरू के नाम से खरीदा था. जमीन की डीड में कल्पना मुमरू के पति हेमंत सोरेन के स्थान पर पिता का नाम और उनके बारीपदा, उड़ीसा स्थित आवास का पता लिखा गया है. बकौल बेसरा, ‘उड़ीसा के आदिवासी ने रांची के आदिवासी की जमीन कैसे खरीदी. यह तो यहां के कानून का उल्लंघन है. साथ ही चुनाव आयोग को दिए गए शपथ पत्र में भी उन्होंने इस संपत्ति का उल्लेख नहीं किया है.’ बेसरा का कहना है कि वे चुनाव आयोग से हेमंत की सदस्यता रद्द करने की मांग करेंगे. अब ये आरोप सच हैं या नहीं लेकिन एक बात जरूर है कि किसी ने भी सरकार या मुख्यमंत्री को इन आरोपों के आधार पर अदालत में अब तक नहीं घसीटा है.

इन आरोपों से बचने और अपनी छवि बचाने-बनाने के अलावा हेमंत के सामने बाधाएं और भी हैं. एक मुश्किल तो आए दिन उन्हें उनके पिता की तरफ से झेलनी पड़ती है. झारखंड मुक्ति मोर्चा के सुप्रीमो शिबू सोरेन ही कभी-कभी ऐसे बयान दे देते हैं जिसकी सफाई हमेशा हेमंत को देनी पड़ती है. पिछले दिनों शिबू सोरेन ने अचानक ही कह दिया कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से सीटों को लेकर कोई समझौता नहीं हुआ है. यह सवाल बवाल खड़ा करने के लिए काफी था. कांग्रेस आक्रामक होने लगी. हेमंत को तुरंत सफाई देनी पड़ी कि कांग्रेस से दस-चार का समझौता हुआ है. कुल 14 सीटों में से दस पर कांग्रेस लड़ेगी और चार सीटों पर उनकी पार्टी झामुमो.

unnamedइसके अलावा सरकार के स्तर पर भी हेमंत को कुछ ऐसे फैसले लेने हैं जो उनके राजनीतिक भविष्य के लिए निर्णायक साबित होंगे. हेमंत झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हैं और उनकी पार्टी की पहचान झारखंडी पहचान वाली रही है. राज्य में स्थानीय नीति को लेकर सालों से बहस चलती रही है. हर बार चुनाव में यह एक बड़ा मुद्दा होता है. हेमंत खुद इस पर बयान देकर, बयान बदलकर फेरे में फंस चुके हैं. हेमंत को साफ-साफ तय करना होगा कि आखिर स्थानीयता को लेकर झारखंड में नीति क्या होगी. यह करना इस नौजवान मुख्यमंत्री के लिए आसान नहीं होगा. हालांकि वे कहते हैं कि जिसके पास भी खतियान (जमीन के मालिकाना हक के दस्तावेज) होगा वह झारखंडी होगा. हेमंत को सरना कोड (धर्मांतरित आदिवासियों के बजाय अपने ही रीति-रिवाजों को मानने वाले आदिवासियों को कानूनी रूप से आदिवासी होने की मान्यता देना) लागू करने पर भी नीति तय करने का दबाव है और यह काफी विवादित मुद्दा है. उन पर आदिवासियों की जमीन खरीद से जुड़े कानूनों छोटानागपुर टीनेंसी एक्ट व संताल परगना टीनेंसी एक्ट के बाबत एक नीति तय करने का भी दबाव होगा. इन सभी मसलों पर हेमंत कहते हैं, ‘मेरे जेहन में सब बातें हैं. एक-एक कर सब पर बात करेंगे.’

जहां तक राजनीतिक चुनौतियों की बात है तो मुख्यमंत्री की राह यहां भी आसान नहीं है. हेमंत ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस से दस-चार का समझौता तो कर लिया है लेकिन इससे उनके दल में फूट पड़ने की संभावना पैदा हो सकती है. कई नेता ऐसे हैं जो लोकसभा चुनाव लड़ने की उम्मीद में थे. अब उनकी पार्टी चुनाव ही नहीं लड़ेगी तो वे किसी दूसरे दल में भी छलांग लगा सकते हैं. हेमंत को भी इस बात का अंदाजा है. हमारे इस सवाल पर कि इस समय जब लोकसभा चुनाव की लड़ाई  नरेंद्र मोदी बनाम अन्य जैसी होती जा रही है तो उनकी पार्टी की क्या रणनीति रहेगी,  हेमंत हंसते हुए जवाब देते हैं, ‘हम तो कांग्रेस के साथ ही लड़ेंगे. बाकि दूसरे मॉडलों की बात मत कीजिए जिनकी आजकल धूम है.  मेरे पास अभी उतना अनुभव नहीं है. मैं अभी देश की राजनीति में उतना दिमाग नहीं लगाता.’

तो इस समय उनके सामने जो चुनौतियां हैं वे अनुभव की कमी होने से हैं? इसके जवाब में हेमंत कहते हैं, ‘हां, अनुभव का अपना महत्व है लेकिन काम करने से ही तो अनुभव आता है. वैसे मैं अचानक राजनीति में नहीं आया हूं. विधायक रहा हूं.  राज्यसभा भी गया. चुनाव में हार का सामना किया. अपने पिता को बचपन से राजनीति करते हुए देखा है. मुझे याद है कि एक समय ऐसा भी था जब मेरे पिता को देखते ही गोली मारने का आदेश था. वे घर आते और रात में ही लालटेन-लाठी लेकर निकल जाते. हम लोग दरवाजे से खड़े होकर लालटेन की रोशनी खत्म होने तक उन्हें देखते रहते थे. यह सब भी हमारे राजनीति के अनुभव का हिस्सा है. हमने बहुत करीब से और संघर्ष करके राजनीति के सबक सीखे हैं.’

हेमंत के छह माह कार्यकाल के बाबत विरोधियों से बात होती है तो वे निशाने पर लेते ही हैं लेकिन कोई ठोस कारण नहीं गिना पाते. जहां तक हेमंत की बात है तो फिलहाल राज्य और उनकी पार्टी के अतीत को देखते हुए सकारात्मक बदलावों को स्थायी मानना मुश्किल है. फिर भी उनकी छह माह की सरकार उजली और बदली तो नजर आ ही रही है.
(निराला के सहयोग के साथ)