फिर बढ़ रहा खाप पंचायतों का दबदबा

***FILE PHOTO*** Sisoli: In this file photo dated 11th Sept., 2013, is seen Bhartaiya Kisan Union President Naresh Tikait addresses the Baliyan Khap panchayat apealing people to maintain peace in the wake of Mujaffarnagar riots, in Sisoli. Supreme Court today, has termed it 'absolutely illlegal', Khap panchayat's interference to stop two consenting adults from marrying each other. PTI Photo (PTI3_27_2018_000141B)

देश की राजधानी दिल्ली में तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों का आन्दोलन पिछले क़रीबन 10 महीने से जारी है। हालाँकि किसानों का कहना है कि आन्दोलन को पूरा एक साल हो गया है। लेकिन सरकार जानबूझकर आन्दोलन को छोटा और कम समय का बताने की कोशिश कर रही है।

कुल मिलाकर अभी तक किसानों को शान्त करने में विफल रही है। दोनों पक्षों के बीच कई दौर की बातचीत के बाद भी सरकार की ओर से उदासीन रवैये को देखते हुए किसानों के समर्थन में खाप पंचायतें पूरी तरह उतर चुकी हैं। खाप की रणनीति से किसान आन्दोलन को संजीवनी मिल रही है। आमजन भले ही सीधे-सीधे किसान आन्दोलन में शरीक़ नहीं हो पा रहे हों, लेकिन अधिकतर लोग आन्दोलन का समर्थन करते हैं।

पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर में किसान महापंचायत और हाल ही में बाग़पत में जयंत चौधरी की रस्म पगड़ी में तमाम खाप पंचायतों का शिरकत करना और जयंत चौधरी को समर्थन देना जताता है कि खाप पंचायतें जो पिछले दिनों कुछ कुंद और कमज़ोर पड़ती नज़र आ रही थीं, वे पुन: मज़बूती के साथ उभरी हैं। लम्बे समय से देश की राजधानी दिल्ली में चल रहे किसान आन्दोलन से खाप पंचायतों का जुडऩा जताता है कि खाप पंचायतों का अस्तित्व आज भी कहीं-न-कहीं मज़बूती के साथ खड़ा है। यूँ तो खाप पंचायतों में तमाम 36 जातियाँ होती हैं; लेकिन इसमें अधिक प्रभाव जाट समाज का ही दिखायी पड़ता है। लगातार हो रही किसान पंचायतों में खाप पंचायतें पहले से ज़्यादा मुखर और मज़बूत होकर आगे आयी हैं।

खाप पंचायतों के विषय में ऐतिहासिक दृष्टि से बात की जाए, तो खाप पंचायतें पारम्परिक हैं और कई तरह की होती हैं। कई बार अपने फ़ैसलों को लेकर वे काफ़ी उग्र भी नज़र आती रही हैं। जबकि इन्हें कोई आधिकारिक और संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं है। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी चोब सिंह वर्मा कहते हैं कि मुगल-काल से उत्तर भारत के जाटों की खाप पंचायतें एक सामाजिक ग्राम्य गणतंत्र रही हैं। उत्तर मुगल-काल में जब अफ़ग़ानी आक्रांता थोड़े-थोड़े अंतराल पर सिंध पार करके पंजाब को रौंदते हुए सशस्त्र बलों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ते थे; तब अपनी स्त्रियों, बच्चों और सम्पत्ति की रक्षा के लिए जाटों ने समूह बनाने शुरू किये थे। उस समय खापों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने के लिए प्रशासनिक इकाई के रूप में खापों को मान्यता मिली थी। प्रारम्भ में ये समूह गोत्र पर आधारित थे। जाटों में गोत्र व्यवस्था उतनी ही पुरानी है, जितनी कि जाति व्यवस्था। अपना डीएनए ख़ास बनाये रखने के लिए जाट अपने बच्चों के शादी-ब्याह ऐसे दूसरे गोत्रों में करते हैं, जिनसे उनकी माँ और पिता के गोत्र न टकराते हों। इस व्यवस्था से उनका सामाजिक विस्तार भी होता गया और समानता व एकता की भावना भी बलवती होती गयी। हालाँकि बाद के दिनों में गोत्र विशेष के छोटे-मोटे विवादों का निपटारा इनकी खाप पंचायतों में होने लगा, जिनमें विवाद भी रहे।

इतिहास गवाह है कि खाप चौधरियों ने समाज के वजूद को हमेशा मज़बूत किया है। खाप का ढाँचा पिरामिडीय आकार का रखा गया है। नज़दीकी भाई अपना कुटुंब बनाते हैं, कुटुंब मिलकर थोक (पट्टी) निर्मित करते हैं। थोक मिलकर थाम्बा गठित करते हैं, और अन्त में उस गोत्र के थाम्बे मिलकर खाप का गठन करते हैं। सभी खापें मिलकर एक सर्वखाप का गठन करती हैं। कंडेला में यही सर्वखाप पंचायत हुई थी। वैसे सबसे बड़ी सर्वखाप पंचायत (जिसके इस समय नरेश टिकैत प्रमुख हैं) सन् 1936 में बालियान खाप के मुख्यालय सोरम गाँव में हुई थी। उसमें किसानों ने महात्मा गाँधी के आह्वान पर देश की आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढक़र हिस्सा लेने का फ़ैसला किया था।

एक बात समझने की ज़रूरत है। जाटों की नज़र में ज़मीन बहुत ही मूल्यवान होती है। एक जाट कितने भी महँगे बंगले में रहता हो। विदेश में रहता हो। एलीट क्लब का सदस्य हो। करोड़ों के पैकेज वाला वेतन पाता है। परन्तु दूसरों से बातचीत में अपने पास गाँव में पैतृक ज़मीन होने की बात पर वह बड़ा ही गौरवान्वित महसूस करता है, जो उसके ज़मीन से जुड़े होने का प्रमाण है।

खाप ग्रामीणों का संगठन होता है, इसलिए उनके पास किसान नेता व राजनेता अपना मनोबल, संख्या बल और शक्ति प्रदर्शन हासिल करने जाते हैं। ग्रामीण किसान भावुक और भोले-भाले होते हैं और आसानी से भावनाओं में बह जाते हैं। इसी का फ़ायदा राजनीतिक दल उठा लेते हैं। नेता खापों के किसी काम नहीं आते, लेकिन उनका समर्थन ज़रूर अपने सियासी दल में जान फूँकने के लिए लेते रहते हैं। खाप पंचायत एक पुरातन व्यवस्था है, जिसमें एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं। ये पंचायतें पाँच गाँवों से लेकर सैंकड़ों गाँवों की भी हो सकती हैं।

उदाहरण स्वरूप हरियाणा की मेहम और उत्तर प्रदेश की बालियान बहुत बड़ी खाप पंचायत है। कई ऐसी और भी पंचायतें हैं। जो गोत्र जिस इलाक़े में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा दबदबा होता है। कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं। लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में अधिक चलती है। जैसे कि आपने पिछले दिनों देखा चौधरी नरेश टिकैत को पंचायत में इसलिए इतना अधिक महत्त्व मिला, क्योंकि उनकी खाप पंचायत के हिसाब से उनका बालियान गोत्र सबसे बड़ा है। बहरहाल खाप पंचायत चलाने का तरीक़ा यह है कि सभी ग्रामीणों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएँ या न आएँ। और जो भी फ़ैसला लिया जाता है, उसे सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला माना जाता है और सभी को बाध्य तरीक़े से मान्य होता है। जानकार बताते हैं कि सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की ही थीं। विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा और राजस्थान के देहाती इलाक़ों में भूमिदार जाटों की। प्रशासन और राजनीति में इनका ख़ासा प्रभाव है। जनसंख्या भी ये काफ़ी ज़्यादा हैं। इन राज्यों में जाट एक प्रभावशाली जाति है और इसीलिए उसका दबदबा भी है। हाल-फ़िलहाल में खाप पंचायतों का प्रभाव और महत्त्व घटता दिखायी पड़ रहा था। क्योंकि ये तो पारम्परिक पंचायतें हैं और संविधान के मुताबिक निर्वाचित पंचायतें आ गयी हैं। ज़ाहिर है खाप पंचायत का नेतृत्व गाँव के बुज़ुर्गों और प्रभावशाली लोगों के पास होता है।

सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और पत्रकार जसबीर सिंह मलिक कहते हैं कि चौधरियों की चौधराहट ख़त्म करने के लिए चौधरी दोषी नहीं हैं और न खाप पंचायतें दोषी हैं, बल्कि आज की संकुचित मानसिकता की पढ़ी-लिखी जमात ही दोषी है; जो अपने आपको ज़्यादा योग्य समझती है। जबकि उसे खाप के विषय में कुछ भी नहीं मालूम। समाज की पढ़ी-लिखी जमात ने साबित करना चाहा था कि चौधरियों का पतन हो चुका है। कुछ पढ़े-लिखे और राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भी अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए खाप चौधरियों के ख़िलाफ़ खड़े हुए, जिन्होंने चौधरियों को नुक़सान पहुँचाने का काम किया है।

हालाँकि आज किसान आन्दोलन ने सिद्ध कर दिया कि खाप पंचायतों और उनके चौधरियों में आज भी उतना ही दम है, जिसके लिए वे जाने जाते हैं। जबकि कुछ राजनीति और प्रशासन के साथ खड़े होकर किसान आन्दोलन के अग्रणियों को ख़त्म करने की फ़िराक़ में थे, उसी दिन खाप चौधरी खड़े हुए तो सरकार व प्रशासन क़दम पीछे हटाने के लिए मजबूर हुए और किसान आन्दोलन का वजूद क़ायम हुआ।

कुछ लोगों ने खाप पंचायतों की इस व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए या कहें कि इन्हें ख़त्म करने के लिए चौधरी, मुखिया, प्रधान, सरपंच जैसे शब्दों को अलग करके एक कोशिश भी की, लेकिन इसके बावजूद खापों का अस्तित्व बरक़रार रहा। खाप और उनके चौधरी हमेशा प्रजातंत्र में विश्वास रखते आये हैं। दुनिया के किसी भी हिस्से में जहाँ भी प्रजातंत्र / लोकतंत्र है, उसके प्रचारक और प्रसारक खापें और खापों के प्रधान ही रहे हैं।

खाप पंचायत के आधार व्यवस्था, बेदाग़ छवि, प्रजातंत्र, इंसानियत, भाईचारे में विश्वास और पञ्च (पंच) परमेश्वर जैसे मज़बूत और न्यायिक शब्द हैं। इसलिए खाप पंचायतें समाज को बेहतर समझने वाली रही हैं। खाप पंचायतों की निष्पक्ष व्यवस्था धर्म और ऊँच-नीच के भेद-भाव को नहीं मानती। इसमें समाज के हर तबक़े को विचार रखने का हक़ है। इसलिए इसमें सभी 36 बिरादरियों को शामिल किया गया है। यह एक ऐसी पुरातन व्यवस्था है, जिसके ज़रिये समाज के सही और ईमानदार लोगों के हक़ में फ़ैसले लिए जाते रहे हैं। कुछ एक विवावित फ़ैसलों ने खाप पंचायतों पर से लोगों का विश्वास कम ज़रूर किया है, लेकिन यह एक ऐसी निष्पक्ष व्यवस्था रही है, जहाँ अमीर-ग़रीब, मज़दूर-ज़मीदार से लेकर राजा-महाराजा तक सभी को बराबर माना जाता रहा है और एक नज़र से देखा जाता रहा है।

समाज के हक़ों के लिए खाप पंचायतों का हुकूमतों से संघर्ष भी बहुत पुराना है, जो आज भी बरक़रार है। इसकी ताक़त और बानगी का अनुमान मौज़ूदा किसान आन्दोलन से लगाया जा सकता है। इतिहास गवाह है, जब-जब हक़ और सच के लिए आवाज़ उठाने की ज़रूरत पड़ी है, खाप पंचायतों ने हमेशा आगे आकर मोर्चा सँभाला है और अपने तथा दबे-कुचलों के हक़ों के लिए हुकूमतों को झुकने पर मजबूर किया है।

मेरी जानकारी में आता है कि खापें कभी भी किसी भी सरकार के सामने कभी नहीं झुकीं। खाप व्यवस्था ने राजा-महाराजाओं को भी निष्पक्ष इंसाफ़ के लिए मजबूर किया है। खाप पंचायत एक ऐसी निष्पक्ष व्यवस्था है, जिसको कोई बदल नहीं पाया और भविष्य में भी इसकी ऐसी कोई बड़ी सम्भावना भी दिखायी नहीं देती।

बहरहाल खाप पंचायतें दबे-कुचले लोगों और किसानों पर हो रहे सरकारी अत्याचार से किस तरह किस हद तक निपट पाती हैं और सरकार को झुकाने में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, यह तो आगामी विधानसभा चुनावों में ही पता चल सकेगा, जो आने वाला समय ही बताएगा। फ़िलहाल खाप पंचायतें एकजुट होकर इस लड़ाई को लडऩे के लिए आगे आ चुकी हैं और सरकार को चुनौती भी दे चुकी हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)