फटा पोस्टर निकली ‘हीरोइन’

स्वीडन में कुछ महीने पहले एक नई तरह की रेटिंग शुरू हुई है. इसका मकसद यह है कि जिस तरह फिल्मों में सेक्स, हिंसा और अभद्र भाषा या गालियों पर सेंसर द्वारा शिकंजा कसा जाता है, उसी तरह उन फिल्मों को भी नहीं बख्शा जाएगा जिनमें महिलाओं के रोल कमज़ोर दिखें या उनके किरदार में किसी भी तरह का पक्षपात नजर आए. नियम के मुताबिक ‘ए’ रेटिंग पाने के लिए फिल्म को बेकडेल टेस्ट पास करना होगा. यह टेस्ट कहता है कि फिल्म में कम से कम दो महिला किरदार होने चाहिए जो आपस में ‘पुरुष’ के अलावा किसी और विषय पर बात करें. मज़ेदार बात ये है कि इस टेस्ट में ‘लॉर्ड ऑफ द रिंग्स’, ‘स्टार वॉर्स’ और ‘पल्प फिक्शन’ जैसी लोकप्रिय फिल्में भी फेल हो गईं.

ब्रिटेन के अखबार ‘दि गार्डियन’ के मुताबिक ऑस्कर 2014 की सबसे प्रबल दावेदार ‘ग्रैविटी’ भी इस टेस्ट में पास नहीं हो पाई. इसके बावजूद कि इस फिल्म में अभिनेत्री सैंड्रा बुलक ने एक वैज्ञानिक की मुख्य भूमिका निभाई थी जिसके सभी साथी अंतरिक्ष में मारे जाते हैं और वह अकेले ही धरती पर लौटने में कामयाब हो पाती है. पूरी फिल्म इस महिला वैज्ञानिक के धरती पर सुरक्षित पहुंचने की उठापटक को दिखाती है. पूरी फिल्म में सिर्फ सैंड्रा हैं और अभिनेता जॉर्ज क्लूनी का एक छोटा सा रोल है. फिर भी फिल्म बेकडेल टेस्ट में फेल हो गई. आलोचकों का कहना है कि आखिरी पलों में इस महिला वैज्ञानिक को अपने एक पुरुष साथी (जॉर्ज क्लूनी) का ही ख़्याल आता है जो उसे इस मुसीबत से बाहर निकालने का रास्ता दिखाता है और इस लिहाज से असली हीरो सैंड्रा नहीं जॉर्ज हुए, भले ही वे फिल्म में थोड़ी देर के लिए ही क्यों न आए हों.

खैर, ये रेटिंग स्वीडन के सिनेमा घरों के लिए ही है और महिलाओं के चित्रण को लेकर ये टेस्ट कितना सही है या गलत, इसे लेकर अलग अलग स्तर पर बहस भी जारी है. इस मुद्दे पर अपनी बात रखने वालों के पास कई सवाल हैं. मसलन क्या स्त्रीवादी विचारों का डंका पीटने वाली फिल्में ही सही कहानी कहती हैं या फिर वे फिल्में बेहतर हैं जो स्त्री को ‘स्त्री’ ना दिखाकर एक आम इंसान की तरह अपनी कहानी कहने और सुनने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती हैं? जैसे ‘हैरी पॉटर’ सीरिज़ की किरदार हरमाइनी जो अक्सर अपने दोनों दोस्तों को अपनी बुद्धिमानी और चतुरता के बल पर मुसीबत से बाहर निकालती है, उस समझ के बलबूते पर जो किसी स्त्री या पुरुष के फेर में नहीं पड़ती.

हालांकि ऐसी किसी कसौटी को भारतीय सिनेमा की सबसे लोकप्रिय धारा बॉलीवुड के संदर्भ में देखना काफी दिलचस्प भी हो सकता है और विवादास्पद भी. भारत में बहुत पहले से कला और व्यावसायिक सिनेमा को अलग अलग देखा जाता रहा है. आज जरूर इन दोनों के बीच की लकीर धुंधली होती जा रही है, लेकिन लोकप्रिय फिल्मों में स्त्रियों के मुद्दे और नायिका को दी जाने वाली भूमिकाओं को लेकर अलग अलग विचारधाराएं पनपती रही हैं. बॉलीवुड में शुरु से एक फार्मूला चला जिसके तहत सिनेमा मतलब एक नायक, एक नायिका और खलनायक. बदलते दौर के साथ नायक और खलनायक के बीच की दूरी खत्म हुई और एंटी हीरो को लाया गया. यहां खास बात ये भी थी कि पुरुष शासित समाज में ज्यादातर पुरुष केंद्रीय फिल्में ही बनी, लेकिन उन्हें नैतिकता का पाठ अक्सर नारी पात्रों द्वारा ही पढ़ाया गया. इन सबके बीच कुछ ही फिल्में ऐसी बनीं जिन्होंने दर्शकों को ये बताया कि हीरो या अभिनेता के बगैर भी सिनेमा मनोरंजक लग सकता है.

आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर ‘गुलाब गैंग’ और ‘क्वीन’  रिलीज़ हो रही हैं. पर्दे पर इन दोनों ही फिल्मों की कमान अभिनेत्रियों ने ही संभाली है और दोनों ही फिल्मों में नायक के नाम पर कोई बड़ा नाम नहीं है. इससे पहले इम्तियाज़ अली की ‘हायवे’ में सिर्फ एक फिल्म पुरानी आलिया भट्ट, वीरा के लीड रोल के साथ काफी न्याय करती नज़र आईं.

हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. 1937 में फिल्मकार वी शांताराम द्वारा बनाई गई ‘दुनिया ना माने’ में अभिनेत्री शांता आप्टे ने एक ऐसी स्त्री की भूमिका निभाई थी जो पिता के उम्र के विधुर से अपनी शादी का जमकर विरोध करती है. ये कहना गलत नहीं होगा कि पूरी फिल्म में शांता अपने संवाद और अभिनय से छाई रही.

शांताराम की एक और फिल्म ‘दहेज’ भी काफी चर्चित रही थी. फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे अपनी किताब ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’ में इस फिल्म के एक सीन का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं – फिल्म में नायिका के पिता अपना सब कुछ बेचकर दहेज का सामान जुटाते हैं और अपने बेटी से कहते हैं कि वो देहज का सामान ले आए हैं. नायिका कहती है कि पिताजी आप एक चीज लाना भूल गए. पिता पूछते हैं क्या ? नायिका कहती है ‘कफन ’ और मर जाती है. सिनेमाघरों में इस दृश्य पर महिला दर्शक चीख पड़ी थी. कुछ शहरों में महिलाएं बेहोश भी हो गईं थी. इस फिल्म के प्रभाव से दहेज विरोधी नियम की पहल की गई और बिहार जैसे कुछ प्रांतों में नियम लागू भी किया गया.

30 से लेकिर 60 के दशक में दहेज, सीमा, जोगन, मदर इंडिया जैसे लोकप्रिय फिल्मों ने नायिका के किरदार की अहमियत को बरकरार रखा. लेकिन 70 के दशक में ‘एंग्री यंग मैन’ के आने के बाद हीरोइन का काम जैसे इस ‘मैन’ के गुस्से को शांत करने का ही रह गया था. इस दौरान महिलाओं की कहानी या उनको अच्छे या दमदार रोल देने का बीड़ा मानो आर्टहाउस सिनेमा ने ही उठा लिया था. ‘मिर्च-मसाला’, ‘भूमिका’, ‘हज़ार चौरासी की मां’ जैसी कई फिल्मों में अभिनेत्रियों ने अपने काम का लोहा मनवाया, वहीं उस दौर के कमर्शियल सिनेमा में हीरोइन ज्यादातर रोने, नाच-गाने और हीरो को ढांढस बंधाने के काम आती रही.

ellहीरो की गैर मौजूदगी
लेकिन पिछले कुछ सालों से आर्ट और कमर्शियल सिनेमा के बीच मिटती दूरी की वजह से ऐसी फिल्में दोबारा थिएटर हॉल में लोगों का ध्यान खींच रही हैं जो बीच के दशक में रडार से गायब हो चुकी थी. ‘कहानी’, ‘द डर्टी पिक्चर’,‘सात खून माफ’ या ‘नो वन किल्ड जेसिका’ जैसी फिल्मों में नायक की कम या गैर मौजदूगी ने शायद ही दर्शकों को परेशान किया हो. अनेक प्रयोगों से गुज़र रहे बॉलीवुड में अब हीरोइन भी धीरे-धीरे मनोरंजन में आगे की सीट लेती जा रही है. मसलन कुछ महीने पहले आई ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ को लें जिसमें शाहरुख खान के होने के बावजूद दीपिका पादुकोण की पीठ ज्यादा थपथपाई गई. कई समीक्षकों का कहना था कि यदि इस फिल्म में से दीपिका को हटा दिया जाए तो इसमें देखने लायक कुछ नहीं बचेगा.

बॉलीवुड में इस नई शुरुआत का सहरा अभिनेत्री विद्या बालन के सिर बांधा जाता है जिन्होंने ये साबित कर दिया कि बगैर जीरो फिगर बनाए या किसी बड़े हीरो के साथ के बिना भी दर्शकों के दिल पर राज किया जा सकता है. लेकिन अपनी फिल्म के लिए अभिनेत्रियों पर इस तरह का भरोसा दिखाना आसान नहीं है. गुलाब गैंग में अपने समय की दो मशहूर कलाकार – जूही चावला और माधुरी दीक्षित को पहली बार एक साथ दिखाने वाले निर्देशक सौमिक सेन बताते हैं कि इस फिल्म के लिए निर्माता ढूंढना आसान काम नहीं था. कई निर्माताओं ने उनकी फिल्म को इसलिए नकार दिया क्योंकि उनकी कहानी में कोई नायक नहीं था. इसके पीछे की वजह बताते हुए सौमिक कहते हैं कि बॉलीवुड में ऐसा हमेशा नहीं होता ना कि महिलाओं को लेकर एक पूरी मसाला फिल्म बनाई जाए इसलिए एक नए निर्देशक के तौर पर उनके पास ऐसा कोई पुराना और सफल मॉडल भी नहीं था जिसका तकाजा निर्माताओं को दिया जा सकता.

वैसे ये हाल सिर्फ हिंदी नहीं हॉलीवुड फिल्मों का भी है. अमरीकी पत्रिका ‘दि अटलैंटिक’ के मुताबिक 2013 की सबसे चर्चित फिल्म ‘ग्रैविटी’ के निर्देशक अलफान्सो कुआरों पर भी स्टूडियो का काफी दबाव था कि वे अपनी फिल्म में एक प्रेम-प्रसंग डालें और अंत में महिला वैज्ञानिक को अंतरिक्ष से धरती पर कोई बचाकर लाया जाए. लेकिन निर्देशक ने इस दबाव के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया.

जोखिम कौन उठाए
भारत में दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री है जहां हर साल 1100 से भी ज्यादा फिल्में बनाई जाती हैं. यह आंकड़ा अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री से दो गुना और ब्रिटेन से 10 गुना ज्यादा है. इनमें से लगभग 200 फिल्में अकेले बॉलीवुड में बनती हैं और बॉक्स ऑफिस पर आगे रहने की होड़ में यहां तमाम तरह के गठजोड़ किए जाते हैं. ऐसे में मुनाफा कमाने के जमे जमाए फॉर्मूले से हटकर नायिका प्रधान फिल्म को बनाने का जोखिम उठाना बॉलीवुड में अब भी आसान नहीं है. ट्रेड विशेषज्ञ कोमल नाहटा कहते हैं, ‘आज से पांच छ साल पहले तक किसी ‘हीरोइन-लीड’ वाली फिल्म का आयडिया सुनकर ही कह दिया जाता था कि फिल्म चलने ही नहीं वाली है, जनता ये देखेगी ही नहीं. अब काफी कुछ बदल गया है, कहानी जैसी फिल्में बन रही हैं. लेकिन माहौल इतना भी नहीं बदला है कि अक्षय कुमार, ऋतिक रोशन या सलमान खान की फिल्मों के व्यवसाय से टक्कर ली जा सके. इतना ज़रुर हुआ है कि अगर सीमित बजट में हीरोइन को लीड में लेकर कोई फिल्म बनाई जाए तो वह ठीक-ठाक मुनाफा कमा सकती है. इतनी स्वीकृति तो मिली है.’

ऐसे में विद्या बालन की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर नज़र रखने वालों को हैरान कर दिया है. उनकी फिल्म   ‘द डर्टी पिक्चर’ के अकेले हिंदी संस्करण का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन करीब 80 करोड़ रहा. वहीं 2012 को महिला दिवस के मौके पर ही रिलीज़ हुई विद्या की फिल्म ‘कहानी’ ने बेहद ही ढीली शुरुआत के बाद तीन हफ्ते में भारतीय और विदेशी बाज़ारों में करीब 70 करोड़ का व्यवसाय किया था. कोमल मानते हैं कि विद्या द्वारा चुने गए विषय उनकी फिल्मों को औरों से अलग बनाते हैं. वे कहते हैं, ‘वैसे भी अगर कहानी तगड़ी हो तो शुरुआती हिचिकचिहाट झेलने के बाद फिल्म रफ्तार पकड़ ही लेती है. डर्टी पिक्चर में तीन हीरो थे लेकिन याद सबको विद्या बालन ही है.’

विद्या भी मानती हैं कि पहले ज्यादातर फिल्में पूरी तरह हीरो पर आधारित होती थी और उसके चलने ना चलने का दारोमदार हीरो पर ही रहता था इसलिए उनकी फीस भी ज्यादा होती है. लेकिन अब फॉर्मूला बदल रहा है और इसके शायद इंड्स्ट्री की सोच भी.

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आने वाली फिल्म ‘शादी के साइड इफेक्ट्स’ के लिए विद्या बालन ने फरहान अख़्तर से ज्यादा फीस मांगी थी. ये सही है कि बीते समय में विद्या समेत प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर और कटरीना कैफ ने 2 से 7 करोड़ के बीच का आंकड़ा छू लिया है लेकिन इंडस्ट्री के खान, कुमार और देवगन की बराबरी करने के लिए उन्हें अब भी काफी दूरी पाटनी है.

सिर्फ औरत का ‘दर्द’ क्यों ?
इसमें कोई दो राय नहीं कि सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं, विश्व सिनेमा ने अपने-अपने तरीके से औरतों की तकलीफों और उनके मुद्दों को अपनी फिल्मों में जगह दी है, लेकिन नारीवादियों का एक वर्ग शिकायत करता है कि फिल्मों में औरतों की तकलीफों का डंका ही क्यों पीटा जाता है.  बेलडेक टेस्ट की ही तरह फिल्मों में स्त्रियों के चित्रण पर ज़ोर देने वाले एक और टेस्ट का नाम ‘माको मोरी’ है जो 2013 में आई अमरीकी फिल्म ‘पैसेफिक रिम’ के एक महिला किरदार के नाम पर रखा गया है. इस टेस्ट का मानदंड है कि फिल्म में कम से कम एक महिला किरदार हो जो नायक की स्टोरी को सहारा न देकर, अपनी एक अलग कहानी को लेकर फिल्म में आगे बढ़े.

कंगना रानौत की फिल्म ‘क्वीन’ ऐसी ही एक फिल्म है. इस फिल्म के निर्देशक विकास बहल मानते हैं कि क्वीन, किसी औरत के दुख-दर्द को बयां नहीं करती बल्कि ये तो किसी पुरुष की कहानी भी हो सकती है. विकास के अनुसार महिलाएं मर्दों से ज्यादा अच्छा मनोरंजन कर सकती हैं और इसलिए वे चाहते थे कि उनकी फिल्म को एक औरत ही कहे जबकि उसके एक पुरुष के ज़रिए दिखाए जाने की भी पूरी गुंजाइश थी. फिल्मों में नायिका के लिए गढ़ी जाने वाली भूमिका को लेकर विकास कहते हैं, ‘पर्दे पर औरतों को अबला, बेचारी और दुखियारी दिखाना बंद किया जाना चाहिए. उनके पास बताने, सुनने, सुनाने के लिए और कई बातें हैं जिन्हें पर्दे पर मज़ेदार तरीके से दिखाया जा सकता है. औरतों से जुड़े मुद्दों को नकारा नहीं जाना चाहिए लेकिन उनके उस पहलू को भी तो दिखाया जाए जो किसी भी तरह के ‘स्त्री-पुरुष वाद’ से परे हो.’

पिछले साल आई फिल्म ‘अय्या’ ऐसी ही एक लड़की की कहानी थी जिसे एक दक्षिण भारतीय लड़के की तरफ ‘शारीरिक’ आकर्षण हो जाता है. हालांकि फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर हवा निकल गई थी लेकिन हिंदी सिनेमा में शायद कभी कभार ही ऐसा होता है जब पुरुष को ‘उपभोग की वस्तु’ की तरह प्रस्तुत किया जाए.

हालांकि सिनेमा के जानकार प्रकाश रे को लगता है कि हिंदी फिल्मों में शुरु से ही महिलाओं की भावनाओं का ख़्याल रखा गया है और ये कहना गलत होगा कि सिर्फ उनकी तकलीफों का ही बखान किया गया है. ‘आवारा’ फिल्म का गाना ‘दम भर जो उधर मुंह फेरे, ओ चंदा मैं उनसे प्यार कर लूंगी’ या फिर 1957 में ‘नया दौर’ का ‘उड़े जब जब ज़ुल्फें तेरी, कंवारियों का दिल धड़के’ जैसे गीत काफी साफगोई से एक औरत के दिल की बात कह रहे हैं.

सिनेमा को समाज का आईना मानने वाले रे मानते हैं कि सिनेमा से किसी तरह के समाज-सुधार की उम्मीद करना अन्याय होगा. वे कहते हैं, ‘आजादी से पहले और उसके बाद जिस तरह भारतीय समाज में धीरे धीरे बदलाव आए हैं और हमारा लोकप्रिय सिनेमा भी उसी की नव्ज़ को पकड़कर आगे बढ़ रहा है. इसलिए औरतों के संदर्भ में भी सिनेमा उतना ही प्रगतिशील या पिछड़ा हो सकता है जितना हमारा समाज है.’

बदलते दौर के साथ सिनेमा का चेहरा भी बदल रहा है. पर्दे के पीछे निर्देशन से लेकर एडिटिंग, कास्टिंग और मेक-अप तक औरतें धीरे-धीरे ही सही, लेकिन मजबूती के साथ कब्ज़ा जमाती जा रही हैं. जहां तक पर्दे पर दिखने वाले चेहरों की बात है तो उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब क्वीन, कहानी या गुलाब गैंग जैसी नायिका प्रधान फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर लोगों का ध्यान खींचने के लिए किसी महिला दिवस का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा.

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