प्रियंका गांधी: देश में लिंगभेद का सबसे बड़ा प्रतीक?

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बात तकरीबन 27 साल पुरानी है. नाइजीरिया के एक स्कूल ने क्लास मॉनीटर बनाने के लिए यह नियम बनाया कि क्लास में फर्स्ट आने वाले बच्चे को ही मॉनीटर चुना जाएगा. खड़े होकर अपने सहपाठियों की निगरानी करना और शोर मचाने वालों के नाम ब्लैक बोर्ड पर लिखना नौ साल की एक बच्ची को भी खूब रोमांचित करता था. उसने जमकर मेहनत की और क्लास में फर्स्ट आ गई. इसके बावजूद कक्षा में दूसरे स्थान पर आने वाले एक लड़के को मॉनीटर बना दिया गया. इस फैसले को लेकर टीचर की दलील थी कि क्लास की मॉनीटर लड़की नहीं बल्कि लड़का होना चाहिए. इस तरह उस बच्ची का सपना परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. लेकिन चीमामंदा गोजी अदिची नाम की यह बच्ची अब एक मशहूर लेखिका बन चुकी है और अपने लेखन से अफ्रीकी साहित्य के पाठकों पर गहरी छाप भी छोड़ चुकी है. दर्जन भर से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी अदिची को प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने पिछले साल दुनिया की सौ प्रभावशाली महिलाओं में भी शामिल किया. किंतु मॉनीटर न बन पाने की वह टीस आज भी अदिची के मन में जिंदा है.

लड़की और लड़के में भेदभाव करने वाली तमाम जमातों के लिए अदिची की ये उपलब्धियां एक बड़ा सबक हो सकती हैं. बहुत संभव है कि इससे सीख लेकर बहुत सारे लोग भेदभाव से परे काम भी कर रहे हों. लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक परिवार को शायद इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. कई लोगों के मुताबिक एक लंबे समय से यह परिवार दूसरे दर्जे वाले लड़के को पहले दर्जे की हकदार लड़की के आगे तवज्जो देने पर तुला हुआ है. पिछले एक दशक से राहुल गांधी को आगे लाने की जैसी कोशिशों में कांग्रेस पार्टी और उसकी सर्वेसर्वा सोनिया गांधी लगी हुई हैं, उसे देखते हुए अगर एक निष्पक्ष नजर प्रियंका गांधी की तरफ डाली जाए तो कुछ लोगों को वे नाइजीरियाई लेखिका की कहानी चरितार्थ करती भी लग सकती हैं.

हालांकि प्रियंका गांधी ने अब तक ऐसी कोई परीक्षा पास नहीं की है जिसमें उन्हें राहुल गांधी से आगे आंका गया हो लेकिन यह भी उतना ही सच है कि ऐसी किसी परीक्षा में उन्हें अब तक बैठने भी तो नहीं दिया गया है. इसके बावजूद उन्होंने जो कुछ अब तक किया है उसमें तमाम लोग इस बात के संकेत तलाशते हैं कि यदि मौका मिला होता तो वे राजनीति में राहुल से  बीस साबित हुई होतीं. आज की सच्चाई यह है कि एक राजनीतिक शख्सियत के रूप में उनके और राहुल गांधी के बीच एक बहुत बड़ी लकीर है जबकि उम्र के मामले में उनमें सिर्फ दो साल का मामूली अंतर ही है. पार्टी में नंबर दो बनाए जाने और मनमोहन सिंह के इनकार के बाद जहां राहुल आगामी लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस का चेहरा घोषित हो चुके हैं, वहीं प्रियंका के हिस्से इस बार भी अमेठी और रायबरेली ही हैं. उस पर भी विडंबना यह कि यहां भी वे खुद के बजाय राहुल और मां सोनिया की राजनीतिक जमीन को ही सींचेंगी.

भारतीय राजनीति में मौजूद परिवारवाद पर ब्रिटिश लेखक पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी किताब ‘इंडिया अ पोट्रेट’ में गजब की तहकीकात की है. उनका शोध बताता है कि 2009 में चुने गए 40 साल तक की उम्र वाले 66 सांसदों में से दो तिहाई का ताल्लुक किसी न किसी राजनीतिक परिवार से है. अकेले कांग्रेस सांसदों को लेकर वे लिखते हैं कि पार्टी का हर ग्यारहवां सदस्य परिवारवाद की जमीन पर ही उगा है. अपनी किताब में महिलाओं के बारे में उनका लिखना है कि 70 फीसदी महिलाएं परिवारवाद की सीढ़ी चढ़कर ही संसद तक पहुंची हैं. वंशवाद की इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करते हुए कुछ प्रमुख राजनीतिक कुनबों की बात की जाए तो मुलायम सिंह यादव से लेकर वर्षों से व्हील-चेयर पर बैठे करुणानिधि तक ने अपनी राजनीतिक जागीर में बेटियों और यहां तक कि बहुओं और पोतियों तक का हिस्सा तय किया है. इसके अलावा पंजाब के बादल खानदान से लेकर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले मणिपुरी संगमा भी महिला सदस्यों को राजनीति में पूरे तामझाम के साथ उतार चुके हैं. लेकिन गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी में सिर्फ बेटे राहुल गांधी को ही इस आरक्षण का सुपात्र समझा गया है.

आज से तकरीबन दो दशक पहले ही पत्रकारों ने प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने को लेकर सवाल पूछने की शुरुआत कर दी थी. तब सोनिया खुद भी सक्रिय राजनीति में नहीं आई थीं. बताया जाता है कि इस तरह के सवालों पर वे हर बार यही कहती थीं कि ‘राहुल और प्रियंका जब खुद चाहेंगे राजनीति में आ जाएंगे.’ फौरी तौर पर देखा जाए तो यह एक रस्मी जवाब लग सकता है, लेकिन गौर से देखने पर इसमें छिपे अर्थ को समझा जा सकता है. एक लंबे समय तक कांग्रेस को कवर करने वाले और कांग्रेस व सोनिया गांधी पर दो किताबें लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई इस बारे में बताते हैं, ‘सिर्फ और सिर्फ प्रियंका गांधी पर केंद्रित सवालों के जवाब में भी सोनिया अक्सर राहुल गांधी का नाम जोड़ देती थीं. इस तरह साफ मालूम पड़ता है कि तब से ही सोनिया की दिलचस्पी प्रियंका के बजाय राहुल में ज्यादा रही है.’ इसके अलावा राशिद एक और वाकया सुनाते हैं, ‘प्रियंका के राजनीति में आने को लेकर गंभीर अंदाज में पूछे गए सवालों पर एक बार तो सोनिया ने लगभग नाराज होते हुए यह तक कह दिया था कि, ‘क्या आपको नहीं मालूम कि उनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं.’

हालांकि किदवई को सोनिया के इस जवाब में प्रियंका के साथ भेदभाव जैसा कुछ नहीं लगता, लेकिन राहुल के प्रति उनके झुकाव को वे नकारते भी नहीं हैं. अगर हाल के समय की कुछ खास घटनाओं पर बारीक नजर डाली जाए तो तस्वीर थोड़ी और साफ हो सकती है.

पिछले दिनों प्रियंका गांधी ने पार्टी के बहुत ही खास और बड़े नेताओं के साथ दिल्ली में एक बैठक की. राहुल गांधी की गैरमौजूदगी में हुई इस मुलाकात की भनक जैसे ही खबरनबीसों को लगी, तमाम समाचार चैनलों पर उनके सक्रिय राजनीति में उतरने की खबरें फ्लैश होने लगीं. इस खबर का प्रवाह इतना था कि अमेठी से लेकर रायबरेली और इलाहाबाद तक के कांग्रेसियों का रक्त हिलोरें मारने लगा. प्रियंका को राजनीति में लाने के दबे-ढके हामी रहे कुछ बड़े कांग्रेसी नेता इसके बाद टीवी पर आकर उनके पक्ष में बोलने-बतियाने भी लगे. ये प्रियंका के सक्रिय राजनीति में उतरने को पार्टी के लिए शुभ संकेत बता रहे थे. समाचार चैनल इस खबर को प्राइम टाइम के लिए पकाने में जुटे ही थे कि इसका जोरदार खंडन हो गया. कांग्रेस के मीडिया प्रभारी और राहुल गांधी की टीम के अहम सदस्य अजय माकन ने फौरन प्रेस के सामने साफ कर दिया कि प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में उतरने को लेकर उठी खबरें कोरी अफवाह थीं. उन्होंने यह भी कहा कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं उतरेंगी.

इसी तरह की एक और घटना पिछले साल अक्टूबर में भी हुई थी. तब इलाहाबाद के फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में लगे कुछ पोस्टरों और होर्डिगों ने मीडिया का ध्यान बिल्कुल ऊपर वाली घटना की तरह अपनी ओर खींचा था. इन होर्डिंगों में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की परंपरागत सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए प्रियंका गांधी का आवाहन किया गया था. सोनिया गांधी की बीमारी और राहुल के कंधों पर बढ़ती जिम्मेदारी का तर्क देकर प्रियंका को आगे लाए जाने की मांग इन होर्डिंगों में की गई थी. खबर फैलते ही आनन-फानन में न केवल सारे होर्डिंग उतार दिए गए बल्कि इन्हें लगाने वाले कार्यकर्ताओं को भी अनुशासनहीनता के जुर्म में टांग दिया गया.

लेकिन राहुल गांधी के समर्थन में होने वाली इस तरह की गतिविधियों की पड़ताल की जाए तो मामला एकदम सर के बल खड़ा दिखता है. चाहे 2006 के हैदराबाद अधिवेशन में उन्हें पार्टी का महासचिव चुने जाने की मांग हो या फिर हाल ही में मिशन 2014 का मुख्य चेहरा बनाने की कवायद, उनके पक्ष में उठने वाली लगभग सभी मांगों को उनकी इच्छानुसार लगातार पूरा किया जाता रहा है. हाल ही में दागी नेताओं पर अध्यादेश लाने के केंद्र सरकार के फैसले के बाद जब राहुल ने इसे कूड़ेदान में जाने लायक बताया तो पार्टी के नेता भी उनकी हां में हां मिलाते दिखे. इससे पहले यही नेता इस अध्यादेश की जोरदार हिमायत कर चुके थे. इस मुद्दे पर सरकार और प्रधानमंत्री की खूब फजीहत हुई मगर अध्यादेश को पारित नहीं किया गया. इस तरह देखा जाए तो प्रियंका के मामले में पैरवी करने वाले कार्यकर्ताओं को जहां पार्टी द्वारा निष्कासित किया गया वहीं खुल कर सरकार की खिलाफत करने के बावजूद न तो राहुल को और न ही राहुल-राग गाने वाले कांग्रेसियों को कभी भी कुछ भी कहा गया. बल्कि इस तरह की घटनाओं को राहुल गांधी की बढ़ती लोकप्रियता बता कर इनका ढोल ही पीटा गया.

priyanka_gandiप्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने की कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की मांग तथा इन पर पार्टी की प्रतिक्रियाएं दो अहम सवालों को जन्म देती हैं. पहला यह कि आखिर प्रियंका गांधी के राजनीति में आने की मांग समय-समय पर क्यों उठती रही है? और दूसरा यह कि इसके बावजूद प्रियंका को खुल कर राजनीति के मैदान में न उतारने की वजह क्या है?

वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई की मानें तो इस बात से शायद ही किसी को एतराज होगा कि कांग्रेस के अंदर प्रियंका को चाहने वाली एक अच्छी-खासी जमात मौजूद है. वे कहते हैं, ‘राहुल के मुकाबले प्रियंका को बेहतर मानने वाली यह जमात मन ही मन इस बात को भी स्वीकार कर चुकी है कि उनकी अगुआई में पार्टी को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. लिहाजा प्रियंका को आगे लाया जाना चाहिए. लेकिन राहुल गांधी के प्रति सोनिया के लाड़ और अन्य कांग्रेसियों की ‘यस मैडम’ वाली संस्कृति को देखते हुए यह जमात खुल कर अपनी बात रखने का साहस नहीं कर पाई है.’ किदवई की बातों को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं, ‘प्रियंका के पक्ष में कुछ कांग्रेसियों का झुकाव पहले से ही रहा है और राहुल गांधी के नाकाम दिखने के बाद से यह झुकाव खुल कर बाहर निकलना चाहता है. यही वजह रही कि राहुल को 2014 का टीम लीडर बनाए जाने के बावजूद प्रियंका को आगे लाए जाने की बातें सामने आईं. लेकिन यह भी सच है कि इस खबर का खंडन होते ही कांग्रेसी फिर से राहुल-राग गाने लगे हैं.’

अजय बोस की बातें बहुत हद तक सही मालूम पड़ती हैं क्योंकि इस प्रकरण पर बात करने के लिए तहलका ने जब कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से बात करनी चाही तो उन्होंने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए कि ‘प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने की मांग उनके समर्थकों की निजी भावना है.’ वरिष्ठ कांग्रेसी सत्यव्रत चतुर्वेदी भी इस मसले पर बच कर निकलने वाली मुद्रा में जबाव देते हैं, ‘प्रियंका पहले ही राजनीति में आने से इनकार कर चुकी हैं, इसलिए इन मांगों को उतनी गंभारता से नहीं लिया जाना चाहिए.’ बकौल सत्यव्रत अगर प्रियंका के पक्ष में उठी मांगों को गंभीरता से लिए जाने की जरूरत नहीं है तो फिर इन मांगों का इतनी तेजी के साथ खंडन क्यों किया गया?

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘जिस तरह तैराकी का मुकाबला जीतने के लिए तरणताल में उतरना जरूरी होता है उसी तरह राजनीति में सफल होने के लिए आपको लगातार हलचल बनाए रखने की जरूरत होती है. हाल की कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो राहुल गांधी सक्रियता के उस जरूरी पैमाने को सिर्फ छूते भर दिखे हैं. उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो वे अचानक ही लंबे समय के लिए यहां से गायब हो जाते हैं. इसके अलावा एक और गौर करने वाली बात यह है कि भले ही उनका आगाज 2004 में हो गया था लेकिन पार्टी उपाध्यक्ष का पद उन्होंने अब जाकर लिया है. देखा जाए तो नौ साल की यह समयावधि एक तरह से शून्य ही पैदा करती है. इसके अलावा संसद में भी उनकी भूमिका न के बराबर ही रही है. यह भी एक बहुत बड़ा कारण हो सकता है जिसके चलते कांग्रेस के अंदर कई मौकों पर प्रियंका-प्रसंग छिड़ता रहा है क्योंकि इस बात में कोई दो राय नहीं कि पहली नजर में ही देखने पर प्रियंका गांधी को लेकर स्वाभाविक नेत्री का भाव  पैदा होता है.’

ऐसे में यह सवाल की काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि जरूरत होने के बावजूद प्रियंका को खुल कर राजनीति के मैदान में न लाने की वजह क्या है. ‘साफ है कि कांग्रेस की प्राथमिकता राहुल गांधी को ही मुख्य मुकाबले में बनाए रखने की है.’  अजय बोस कहते हैं, ‘राहुल को लेकर कांग्रेस की आसक्ति का आलम यह है कि पार्टी पहले ही उन्हें भाजपा के पीएम कैंडीडेट नरेंद्र मोदी के मुकाबले लाने से बचती रही है. इसके अलावा अरविंद केजरीवाल के आने से भी पार्टी के लिए खासी दिक्कतें पैदा हो चुकी हैं. इसलिए इन हालात में अगर प्रियंका खुल कर मैदान में आती हैं तो उन्हें राहुल गांधी के विकल्प के तौर पर ही देखा जाएगा.’ नीरजा चौधरी भी इन बातों से सहमति जताते हुए कहती हैं, ‘ऐसे समय में जबकि कांग्रेस बहुत ही मुश्किल दौर में है प्रियंका के आते ही ऐसा होना अवश्यंभावी हो जाएगा.’

अब सवाल यह उठता है कि प्रियंका का कांग्रेस की राजनीति में समांतर केंद्र बनना क्या राहुल के लिए पार्टी और सरकार में परम पद की संभावनाएं पहले धुंधली और फिर ध्वस्त भी कर सकता है. और क्या इसी वजह से प्रियंका को राजनीति में न लाने का निर्णय इतनी मजबूती से लिया गया है? इन सवालों का आशय ठीक से समझने के लिए इन दोनों भाई-बहनों के राजनीतिक दमखम की तुलना जरूरी हो जाती है.

राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर बात करें तो 2004 के आम चुनावों के जरिए उन्होंने राजनीति में कदम रखा था. लेकिन नेहरू-गांधी परिवार के झंडाबरदार के तौर पर लान्च किए गए राहुल तब से लेकर अब तक कोई खास असर नहीं डाल पाए हैं. यूपीए सरकार के दोनों कार्यकालों में उन्होंने कोई ऐसा पद नहीं संभाला जिससे उनके प्रशासनिक कौशल का आकलन हो सके. इसके अलावा जिस संगठन को मजबूती देने के नाम पर वे अन्य अहम जिम्मेदारियों से बचते रहे उस संगठन की स्थिति भी पिछले कुछ सालों में हुए विधान सभा चुनावों ने साफ कर दी है. कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड को छोड़कर अधिकांश राज्यों में पार्टी की हार ही हुई है. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो राहुल गांधी द्वारा खुद चुनावी कमान संभाले जाने के बावजूद 2012 के चुनाव में उनकी पार्टी चौथे नंबर से ऊपर नहीं बढ़ सकी. इतने समय तक संगठन को मजबूत करने के बाद भी पार्टी को प्रदेश में अपने बूते अच्छे प्रत्याशी तक नहीं मिल सके थे और उसने जी खोल कर दूसरी पार्टियों के बागियों को अपने यहां टिकट दिए थे. इसके साथ ही कुछ दिनों पहले पांच में से चार राज्यों में हुई हार को लेकर भी वे सवालों के घेरे में आ चुके हैं. कहा जाता है कि इन राज्यों की चुनावी रणनीति उनकी निगरानी में ही बनाई गई थी. इस तरह देखा जाए तो उनको लेकर कांग्रेस के अंदर खुसर-फुसर तो हुई ही साथ ही विपक्ष को भी उन्हें ‘खुली मुट्ठी’ कहने का वाजिब हक मिल गया.

पिछले दिनों नई दिल्ली में कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ. कांग्रेस उपाध्यक्ष की हैसियत से राहुल गांधी ने यहां ऐसा जोरदार भाषण दिया कि कांग्रेसियों की धमनियां हरकत करने लगीं. सोनिया गांधी ने भी कहा कि इस भाषण को सुनने से रह जाना बहुत कुछ मिस कर जाने जैसा है. सोशल मीडिया से लेकर तमाम टीवी बहसों में भी राहुल के इस मेकओवर की खूब सराहना हुई. स्मृति पटल पर बहुत सारा जोर डालने के बाद भी यह याद नहीं पड़ता कि इससे पहले राहुल गांधी के किसी भी भाषण को इतनी सराहना कब मिली थी. बताया जाता है कि राहुल के इस भाषण की मुख्य पटकथा निर्देशक प्रियंका गांधी थीं. भाषण देते हुए राहुल गांधी जिस तरह जोश से भरी भाव  भंगिमाएं दिखा रहे थे, बहुत लोगों को वह प्रियंका गांधी की बॉडी-लैंग्वेज से मेल खाता दिखता है. नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘इस भाषण के जरिए राहुल गांधी जिस तरह फ्रंट फुट पर खेल रहे थे वह बहुत हद तक प्रियंका की शैली से मेल खाता दिख रहा था.’ वैसे भी 2004 में अमेठी से पहली बार लोकसभा का नामांकन दाखिल करने से लेकर पिछले साल जयपुर में पार्टी के उपाध्यक्ष बनने जैसी राजनीतिक गतिविधियों को देखें तो प्रियंका हर जगह राहुल के साथ दिखती रही हैं. इसके अलावा हर साल राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर उनके समाधिस्थल वीरभूमि जाने या फिर क्रिकेट मैच का आनंद लेने किसी स्टेडियम पहुंचने जैसी व्यक्तिगत गतिविधियों में भी वे राहुल के आस-पास ही रहती हैं. एक तरह से कहा जा सकता है कि राहुल गांधी अपना लगभग हर कदम प्रियंका के सानिध्य में ही रखते आए हैं. ऐसे में बहुत संभव है एआईसीसी में दिए गए राहुल के भाषण की नीति-नियंता प्रियंका ही रही होंगी. राशिद किदवई भी इस बात से इनकार नहीं करते. वे कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी जिस दृढ़ मिजाज के लिए जानी जाती रही हैं वह इस भाषण के जरिए राहुल में भी दिखाई दिया.’

भाई के मुकाबले प्रियंका गांधी का राजनीतिक कौशल तौलने के बहुत सारे उदाहरणों के बीच 1999 के उस दौर में जाना भी जरूरी हो जाता है जब सोनिया गांधी ने पहली बार संसदीय चुनाव में कदम रखा था. कर्नाटक के आदिवासी बहुल वेल्लारी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ रही सोनिया के खिलाफ तब भाजपा ने फायरब्रांड नेत्री सुषमा स्वराज को मैदान में उतारा था. शानदार भाषण शैली और विशुद्ध भारतीय महिला वाली छवि की बदौलत सुषमा स्वराज, सोनिया के खिलाफ विदेशी मूल के मुद्दे पर सवार होकर शुरुआती बढ़त हासिल कर चुकी  थीं. लेकिन चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में प्रियंका गांधी ने सोनिया के पक्ष में उतर कर सुषमा समेत पूरी भाजपा का जायका बिगाड़ दिया. प्रियंका गांधी ने वेल्लारी में धुआंधार तरीके से रोड-शो किए और सोनिया गांधी भारी-भरकम अंतर से वह चुनाव जीत गईं.

चुनावी राजनीति के दांव-पेंचों को गहराई से समझने वाले विश्लेषक इस जीत को बहुत हद तक प्रियंका गांधी के सम्मोहन से जोड़ते हैं. अजय बोस कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व में जिस तरह का आत्मविश्वास उस दौरान वेल्लारी की जनता ने देखा वह उसका मन जीतने के लिए एकदम कारगर साबित हुआ.’ इस तरह देखा जाए तो लोकतंत्र में जनता के मन में छा जाने की पहली परीक्षा  प्रियंका ने तभी पास कर ली थी. इसी तरह का अविस्मरणीय प्रदर्शन उन्होंने उस साल रायबरेली में भी किया. भाजपा प्रत्याशी अरुण नेहरू पर किये गए उनके भावुक हमले ने तब वहां भी चुनाव का रुख बदल दिया था. कांग्रेस प्रत्याशी कैप्टन सतीश शर्मा के समर्थन में प्रियंका ने एक चुनावी सभा में लोगों से शिकायती लहजे में पूछा कि उनके पिता राजीव गाधी को धोखा देने वाले अरुण नेहरू को उन्होंने रायबरेली में घुसने कैसे दिया. प्रियंका के भावुक भाषण के बाद कांग्रेस वहां से न केवल चुनाव जीती बल्कि अरुण नेहरू चौथे स्थान पर सिमट भी गए.

लेकिन प्रियंका गांधी के राजनीतिक कौशल का और भी परिष्कृत रूप अभी सामने आना बाकी था. 2004 के लोकसभा चुनाव में इसकी भी शुरुआत हो गई. इन चुनावों के जरिए प्रियंका ने अमेठी और रायबरेली में राहुल और सोनिया के चुनाव प्रबंधन की कमान पूरी तरह अपने हाथों में ले ली. बतौर स्टार प्रचारक प्रियंका ने दोनों संसदीय क्षेत्रों में रोड शो तो किए ही, साथ ही रैलियों के जरिए भी लोगों से संवाद कायम किया. राहुल गांधी के पक्ष में उनके भाषण और प्रचार करने का तरीका तब देखते ही बनता था. सुरक्षा घेरे की परवाह किए बिना महिलाओं से घिरी प्रियंका की तस्वीरें टीवी और अखबारों के जरिए देश के कोने-कोने में पहुंचीं तो उनकी छवि का दायरा अमेठी और रायबरेली से निकलकर अखिल भारतीय होता दिखने लगा था. इसके बाद 2009 के चुनावों में भी मां और भाई के चुनाव अभियान की ड्राइविंग सीट पर वे ही रहीं. इस बार के चुनाओं के लिए भी वे बहुत पहले ही कमर कस चुकी हैं. 2013 के विधानसभा चुनाओं में पार्टी को अमेठी और रायबरेली में करारी हार मिली थी. लेकिन पिछले एक साल से लगातार यहां आकर प्रियंका ने पार्टी संगठन के ढीले पुर्जों को कस दिया है. इसी क्रम में उन्होंने इस बार ब्लाक और जिला स्तर के पदाधिकारियों का चुनाव खुद साक्षात्कार लेकर किया. इस तरह देखा जाए तो संगठन की मजबूती के लिए आवश्यक बुनियादी पहलुओं की पहचान करने का गुण प्रियंका की राजनीतिक काबिलियत को खुद ही बयान कर देता है.

जानकारों के मुताबिक प्रियंका गांधी का सहज और स्पष्ट रवैया भी राहुल गांधी के मुकाबले उन्हें बीस साबित करता है. राशिद किदवई कहते हैं कि किसी मुद्दे पर अपनी बात रखने को लेकर जहां राहुल गांधी अक्सर असहज नजर आते हैं वहीं प्रियंका की राय शीशे की तरह साफ होती है. वे उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘अपने पहले टीवी इंटरव्यू के दौरान राहुल गांधी से नरेंद्र मोदी द्वारा उन्हें शहजादा कहे जाने पर उनकी प्रतिक्रिया चाही गई. इधर-उधर की बातें करते हुए वे इस सवाल से ही बच गए. जबकि इन्हीं नरेंद्र मोदी द्वारा एक बार कांग्रेस को बूढ़ी पार्टी बताने पर प्रियंका की प्रतिक्रिया ने सबको लाजवाब कर दिया था. स्वाभाविक उत्साह से लबरेज प्रियंका का सवालिया जवाब था – ‘क्या मैं आपको बूढ़ी दिखती हूं?’ नीरजा चौधरी इसे प्रियंका गांधी के नैसर्गिक आत्मविश्वास और वाक्पटुता का अद्भुत संयोजन बताती हैं. वे कहती हैं कि प्रियंका गांधी के विचारों की साफगोई उनके व्यवहार में भी साफ झलकती है जबकि राहुल गांधी की करनी और कथनी में आपको कई तरह के विरोधाभास देखने को मिल जाएंगे.

नीरजा की बातों के जरिए अगर राहुल की करनी और कथनी का अंतर निकाला जाए तो सचमुच में उदाहरणों का ढेर खड़ा किया जा सकता है. एक बहुत बड़े विरोधाभास का जिक्र किया जाए तो कुछ दिनों पहले दागियों के चुनाव लड़ने संबंधी अध्यादेश को फाड़कर राहुल गांधी ने साफ-सुथरी राजनीति को अपनी प्रतिबद्धता बताया था. लेकिन बिहार के राजनीतिक परिदृश्य से लंबे समय से गायब अपनी पार्टी को वे उन्हीं लालू की लालटेन के सहारे ढूंढ़ने की तैयारी में हैं जो इस अध्यादेश के खारिज होने का पहला शिकार बने थे. इसके अलावा एक उदाहरण खुद प्रियंका गांधी का भी है. राजनीति में प्रतिभाशाली महिलाओं और युवाओं को प्रोत्साहित करने की बात करने के बावजूद राहुल गांधी कई मोर्चों पर इसके उलट काम करते दिखे हैं. महिलाओं को आगे करने का एक अजब उदाहरण तो इसी साल राजस्थान के विधानसभा चुनाव में देखने को मिलता है. यहां कांग्रेस पार्टी ने 80 साल की एक बुजुर्ग महिला को विधानसभा का टिकट थमा दिया था. ऐसे में सवाल यह भी है कि अगर वंशवाद राहुल के लिए कोई समस्या नहीं है तो फिर उनकी टीम में प्रियंका गांधी का नाम क्यों नहीं हैं. युवाओं और महिलाओं के सशक्तीकरण का राग गाने वाले राहुल क्या यह नहीं जानते कि प्रियंका गांधी युवा भी हैं, महिला भी और प्रतिभाशाली भी?

अब तक की इस समाचार कथा से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रियंका पार्टी में कम से कम कुछ समय के लिए ही सही राहुल के लिए एक समांतर सत्ता केंद्र बन सकती हैं और ज्यादा से ज्यादा अपनी नैसर्गिक क्षमताओं से उन्हें पीछे धकेल सकती हैं. इसीलिए शायद उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने का जोखिम नहीं उठाया जा रहा. लेकिन यह जोखिम तो केवल राहुल गांधी के लिहाज से हो सकता है पार्टी के लिहाज से नहीं. दबे-ढके पार्टी के बहुत-से कार्यकर्ताओं-नेताओं और खुले तौर पर तमाम राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि प्रियंका के आने का कुछ न कुछ फायदा तो पार्टी को मिलेगा ही. यह फायदा तात्कालिक होगा या दूरगामी, यह उनकी राजनीतिक क्षमताओं पर निर्भर करेगा.

इसके बाद भी यदि प्रियंका को कांग्रेस की सक्रिय राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया जा रहा है तो इसमें कुछ लोगों को सोनिया का राहुल के प्रति अत्यधिक झुकाव या लाड़ दिखाई दे सकता है और कुछ लोगों को नाइजीरियाई लेखिका अदिची की कहानी की छाप. सोनिया गांधी हमेशा यही चाहेंगी कि राहुल गांधी को हर संभव मौका दिया जाता रहे. वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं, ‘भारत और इटली दोनों देशों में लंबे समय से ‘मेल सेंट्रिक’ राजनीति ही होती रही है.’

कुछ लोग राहुल के बड़े होने को भी प्रियंका को सक्रिय राजनीति में मौका न दिए जाने के कारण के तौर पर देखते हैं. लेकिन यह भी सच है कि यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है. बल्कि खुद गांधी-नेहरू कुनबे में ही संजय गांधी राजनीति में राजीव गांधी से पहले सक्रिय हो चुके थे. इसके अलावा मौजूदा दौर में भी तमिलनाडु के बुजुर्ग करुणानिधि जहां छोटे बेटे स्टालिन को उनके बड़े भाई आलागिरी से आगे कर चुके हैं वहीं लालू यादव भी बड़े बेटे तेज प्रताप के बजाय उनसे छोटे तेजस्वी यादव को ही आगे करने का संकेत दे चुके हैं. स्टालिन और तेजस्वी के पक्ष में उनके पिताओं का मानना है कि उनमें अपने बड़े भाइयों से ज्यादा मास अपील है. लेकिन क्या प्रियंका और राहुल के मामले में भी ऐसा ही नहीं है?

हालांकि इस मसले पर प्रियंका की खुद की अपनी राय भी है जिसका जिक्र किए बगैर यह बहस अधूरी होगी. राजनीति में आने को लेकर पूछे गए सवालों पर खुद प्रियंका कई बार साफ इनकार कर चुकी हैं. लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने ऐसे ही एक सवाल के जवाब में यह भी कहा है कि जैसा राहुल कहेंगे वे वैसा ही करेंगी. और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा भी समय आने पर उनके राजनीति में आने की बात कह चुके हैं. राशिद किदवई भी प्रियंका की ‘न’ को अंतिम सत्य की तरह नहीं देखते, ‘भले ही प्रियंका लाख मना करती रहें लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति में उनकी दिलचस्पी है. क्योंकि पिछले लंबे समय से अमेठी और रायबरेली में रहकर भाई और मां का चुनावी अभियान संभालकर वे एक तरह से राजनीति ही कर रही हैं.’

किदवई की बातों में दम नजर आता है. अगर प्रियंका राजनीति को लेकर वास्तव में विरक्ति पथ पर होंती तो फिर पिछले एक दशक से इन दोनों लोकसभा क्षेत्रों में जिला और ब्लाक स्तर के पदाधिकारियों तक का चुनाव करने में इतनी दिलचस्पी क्यों दिखातीं? बेशक इसे सोनिया और राहुल के पक्ष में उनकी तरफ से किया जाने वाला काम बताया जा सकता है जो बहुत हद तक सही भी है, लेकिन ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या सोनिया और राहुल गांधी बिना प्रियंका के अपने इन किलों को फतह नहीं कर सकते. अगर ये दोनों नेता राजनीति में न आने के प्रियंका के फैसले का इतना ही सम्मान करते हैं तो फिर जबरदस्ती अपने मतलब के लिए उन्हें बैसाखी बनाने का क्या औचित्य है? सवाल तो यह भी है कि चुनावी सफर में हांफ रहे इन दोनों दिग्गजों को अगर प्रियंका ही आक्सीजन मुहैया करा रही हैं तो फिर प्रियंका को खुद अपने और पूरी पार्टी के लिए भी दौड़ क्यों नहीं लगानी चाहिए?

प्रियंका की राय की बात करते समय इस पर विचार करना भी महत्वपूर्ण है कि सोनिया गांधी भी पहले राजनीति में आना नहीं चाहती थीं. यहां तक कि उन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी से भी राजनीति में नहीं आने का आग्रह किया था. लेकिन बावजूद इसके सच यही है कि राजीव और सोनिया दोनों ही राजनीति में आए. इसी तरह देखा जाए तो राहुल गांधी भी कई मौकों पर राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के भूतपूर्व अनुभवों को साझा करते रहे हैं. ऐसे में अगर प्रियंका भी राजनीति में आने को लेकर ना-नुकर जैसा भाव दिखा रही हैं तो उसे अंतिम सत्य क्यों माना जाना चाहिए?

ऐसा नहीं है कि प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आ जाने के बाद उनके हिस्से में सिर्फ और सिर्फ जय-जयकार ही आएगी. जानकारों का मानना है कि उनके राजनीति में उतरते ही राबर्ट वाड्रा के बहाने विपक्ष निश्चित तौर पर उनका आक्रामक इस्तकबाल करेगा. अजय बोस कहते भी हैं, ‘पिछले एक साल के दौरान राबर्ट वाड्रा की जो छवि सामने आई है निश्चित रूप से वह प्रियंका के आड़े ही आएगी.’ नीरजा चौधरी भी इस पर आशंका जताते हुए कहती हैं, ‘प्रियंका के राजनीति में उतरने से राबर्ट वाड्रा के मामले फिर से चर्चा में आ जाएंगे.’ लेकिन प्रियंका को लेकर क्या इस तरह की कोई दलील कांग्रेस पार्टी दे सकती है? अतीत बताता है कि अपने नेताओं पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों का पार्टी सिर्फ खंडन ही नहीं करती बल्कि उन्हें पारितोषिक भी देती रही है. दो साल पहले सामने आया सलमान खुर्शीद प्रकरण इसका सटीक उदाहरण है. अक्टूबर, 2012 में सलमान खुर्शीद पर अपनी संस्था के जरिए विकलांगों के लिए मिली सरकारी मदद में घपला करने का आरोप लगा था. इसके बाद उनके इस्तीफे की जोरदार मांग भी उठी थी. लेकिन तब कांग्रेस न केवल उनका समर्थन करती दिखी बल्कि  उन्हें प्रोन्नति देकर उन्हें विदेश मंत्रालय सौंप दिया. इसके अलावा कई राज्यों में भी कांग्रेस की सरकार चला रहे नेता भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी अभयदान पर चल रहे हैं. आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर भी माना जा रहा है कि जरूरत पड़ने पर पार्टी चारा घोटाले में दोषी साबित हो चुके लालू समेत कई दागियों के साथ गलबहियां कर सकती है. इसके अलावा वाड्रा से जुड़ा हो-हल्ला तो पिछले दो-तीन साल से ही शुरू हुआ है. जबकि प्रियंका को उससे काफी पहले ही राजनीति में लाया जा सकता था.

बहरहाल प्रियंका को लेकर धड़कने वाले कांग्रेसियों का एक धड़ा मानता है प्रियंका का राजनीति में आना तय है. नाम न बताने की शर्त पर एक बड़े नेता कहते हैं कि राहुल गांधी के जादू का खर्च होना जिस तरह से इन चुनावों में तय लग रहा है उसके बाद कांग्रेस को प्रियंका की तरफ देखना ही होगा. यदि इन नेता महोदय की बात सच मान ली जाए तो यह भी मानना होगा कि ऐसी हालत में प्रियंका को ढेर सारी चुनौतियों से एक साथ रूबरू होना पड़ेगा. तब राहुल की सारी असफलताओं का जवाब देने और नया समाधान खोजने के अलावा कांग्रेसियों की उम्मीदों से भरी पोटली भी उनके सिर पर ही होगी.