प्रियंका की सक्रियता से विरोधी बेचैन!

प्रियंका गाँधी पिछले कुछ महीनों से अचानक बहुत सक्रिय हो गयी हैं। नागरिकता कानून और एनआरसी के िखलाफ छात्र आन्दोलन को यदि सबसे ज़्यादा राजनीतिक समर्थन किसी से मिला है, तो वो प्रियंका गाँधी ही हैं। उनकी इस सक्रियता से विरोधी बेचैन हैं। इसी को रेखांकित करती राकेश रॉकी की यह रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी जब नागरिकता कानून विरोधी कानून के प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा के पीडि़त परिवार से मिलने पहुँचीं, तो बसपा प्रमुख मायावती ने टिप्पणी की कि कांग्रेस महासचिव को राजस्थान के अस्पताल में जान गँवाने वाले बच्चों के परिजनों से भी मिलना चाहिए। उससे पहले ‘भगवा’ को लेकर उनकी टिप्पणी पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरफ से भी प्रियंका को लेकर ब्यान आया। इसके बाद कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई ने पीएम मोदी के गृह क्षेत्र वाराणसी के संस्कृत कॉलेज के छात्र चुनाव में सभी सीटें जीतकर सबको चौंका दिया।

कांग्रेस के भीतर इन टिप्पणियों को लेकर उत्साह है; क्योंकि पार्टी के रणनीतिकार मानकर चल रहे हैं कि प्रियंका की सक्रियता को नोटिस किया जा रहा है। प्रियंका भले उत्तर प्रदेश की प्रभारी हों, उनकी सक्रियता दिल्ली में भी दिख रही है। नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन के दौरान वे छात्रों के बीच तो गयी ही हैं, ट्वीट के ज़रिये मोदी सरकार पर लगतार हमला भी बोल रही हैं। इससे पहले प्रचार के लिए वे झारखंड भी गयी थीं। देखा जाये तो प्रियंका गाँधी नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन के दौरान राहुल गाँधी के मुकाबले प्रियंका गाँधी कहीं ज़्यादा सक्रिय दिखी हैं। इस सक्रियता के चलते प्रियंका गाँधी को ज़बरदस्त मीडिया अटेंशन भी मिली है, जिससे पार्टी में उत्साह है। यह चर्चा रही है कि यदि राहुल गाँधी नहीं माने, तो कांग्रेस का ज़िम्मा प्रियंका गाँधी के कन्धों पर डाला जा सकता है। लिहाज़ा प्रियंका की इस सक्रियता को इसके पूर्वाभ्यास के रूप में देखा जा रहा है।

तहलका की जानकारी के मुताबिक, प्रियंका गाँधी को िफलहाल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ज़मीन मज़बूत करने का ज़िम्मा पार्टी की तरफ से मिला है। उन्हें विधानसभा चुनाव से पहले संगठन को सक्रिय करना है, जो पिछले वर्षों में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुँच चुका है। निश्चित ही उनके आने के बाद उत्तर प्रदेश में मृत पड़ी कांग्रेस में काफी सक्रियता दिखने लगी है और कार्यकर्ताओं में उत्साह है। बहुत ज़्यादा सम्भावना है कि यदि प्रियंका सफल रहीं, तो अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी उन्हें यूपी में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आगे कर सकती है।

प्रियंका का 10 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी जाना इस बात का संकेत है कि वे सीधे-सीधे बड़े नेताओं से भिडऩे के लिए तैयार हैं। प्रियंका गाँधी की सक्रियता से उत्तर प्रदेश में दूसरे राजनीतिक दलों में बेचैनी दिखने लगी है। हाल में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बसपा प्रमुख मायावती की उन्हें लेकर टिप्पणियाँ इस बात की गवाह हैं।

यह भी दिलचस्प है कि भाजपा प्रियंका के नाम के साथ गाँधी शब्द का इस्तेमाल नहीं करती बल्कि वाड्रा शब्द ही इस्तेमाल करती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि प्रियंका राबर्ट वाड्रा की पत्नी हैं, कांग्रेस कार्यकर्ता और आम लोग भी उनमें दादी इंदिरा गाँधी की छवि देखते हैं। लिहाज़ा प्रियंका के साथ गाँधी उपनाम का इस्तेमाल ज़्यादा प्रचलित हैं। फिर भी प्रियंका खुद अपने नाम के साथ वाड्रा शब्द का इस्तेमाल करती हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश कभी राजनीति के लिहाज़ से कांग्रेस के लिए बहुत उपजाऊ रहा है। लेकिन फिर ऐसा सिलसिला बना कि धीरे-धीरे कांग्रेस चौथे पायदान पर जा पहुँची। बसपा और सपा के हिस्से में उसका ज़्यादातर वोट बैंक खिसक गया। प्रियंका इसी वोट बैंक को वापस लाने की जी-तोड़ कोशिश करने में जुट गयी हैं। वे कितनी सफल होती हैं, यह तो आने वाले महीनों में ही ज़ाहिर हो पाएगा।

उत्तर प्रदेश से बाहर की बात की जाए, तो प्रियंका की सक्रियता युवाओं को साथ जोडऩे की दिख रही है। छात्र आन्दोलन उनकी सक्रियता के केंद्र में दिख रहा है और वे पूरी ताकत से उनका समर्थन कर रही हैं। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ संवाददाता को बताया कि जनवरी के दूसरे हफ्ते जब िफल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण जेएनयू में आन्दोलनकारी छात्रों के बीच अपनी िफल्म ‘छपाक’ के प्रोमोशन के बहाने पहुँची थीं, तो कांग्रेस के उनके समर्थन में ब्यान के पीछे प्रियंका गाँधी ही थीं। यही नहीं, उन्होंने ही आनन-फानन कांग्रेस शासित राज्यों में दीपिका की िफल्म को टैक्स फ्री करने का सुझाव दिया था, जिसे तुरन्त लागू किया गया। दीपिका के समर्थन के पीछे प्रियंका गाँधी की यह सोच थी कि दीपिका के जेएनयू आने पर भाजपा के विरोध का गलत संदेश युवाओं में गया है।  इसके पीछे तर्क यह रहा कि कहीं भी जाना दीपिका का मौलिक अधिकार है और इसका विरोध कर भाजपा गलत कर रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दीपिका का विरोध हिन्दूवादी संगठनों तक ही सीमित रहा और आम लोगों ने इसे लेकर कोई विपरीत टिप्पणी शायद ही की। इसके बाद भाजपा के नेता भी इस मुद्दे पर खुलकर बोलने से परहेज़ करते दिखे।

युवाओं पर प्रियंका गाँधी का फिक्स एक रणनीति के ही तहत है। पिछले दोनों लोकसभा चुनावों में युवाओं का भाजपा, खासकर पीएम मोदी को भरपूर समर्थन मिला है। लेकिन हाल के नागरिकता कानून और एनआरसी के विरोध में हर वर्ग के युवाओं के सामने आने से भाजपा में जो बेचैनी फैली है, प्रियंका उसे भुनाना चाहती हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि युवाओं का उनके प्रति आकर्षण रहा है। इसलिए प्रियंका ने पूरी तरह युवाओं पर फोकस कर दिया है। वे रोज़गार से लेकर देश की खराब आर्थिक हालत पर फोकस कर यह बता रही हैं कि बसे बुरा असर युवाओं पर ही पड़ेगा। इसमें कोई शक नहीं कि रोज़गार की हालत बेहद खराब है और लाखों युवाओं का रोज़गार पिछले दो-तीन साल में चला गया है।

इसके अलावा युवाओं में इस बात को लेकर भी आक्रोश है कि आन्दोलन करने पर उन्हें भाजपा के नेता देशविरोधी, मुसलमानों का विरोध और पाकिस्तान समर्थित आन्दोलन बता देते हैं। उनका मानना है कि नागरिकता कानून और एनआरसी के िखलाफ आन्दोलन में हर धर्म और वर्ग के छात्र शामिल हो रहे हैं। लिहाज़ा इसे मुसलामानों का आन्दोलन बता देना गलत है और छात्रों में इससे गुस्सा बढ़ रहा है। मोदी सरकार के लिए इसे चिन्ता का बड़ा कारण माना जा सकता है। कांग्रेस और प्रियंका गाँधी भी इसे समझ यहीं हैं, लिहाज़ा उन्होंने छात्रों के आन्दोलन पर काफी ज़्यादा फोकस कर रखा है। आन्दोलन को लेकर कांग्रेस पूरी तरह छात्रों के साथ दिख रही है। प्रियंका उत्तर प्रदेश और दिल्ली, दोनों जगह, छात्रों को लेकर बहुत ज़्यादा सक्रिय हो चुकी हैं। ट्वीट से लेकर व्यक्तिगत उपस्थिति को वे सुनिश्चित कर रही हैं, जिससे विरोधियों में निश्चित ही बेचैनी है। उनके प्रियंका पर राजनीतिक आक्रमण वाले बयान ज़ाहिर करते हैं कि प्रियंका की सक्रियता और लोगों से मिल रहे समर्थन से उनमें बेचैनी है। हालाँकि, इस सबके बावजूद प्रियंका के सामने बड़ी चुनौती है। कांग्रेस का भले देश भर में वोट बैंक हो, आजकी तारीख में कांग्रेस को सक्रिय कर भाजपा के मुकाबले लाना कोई छोटी चुनौती नहीं है।

यूपी में प्रियंका की मुश्किलें

यूपी की प्रभारी के नाते प्रियंका की बड़ी चुनौतियाँ हैं। पिछले चार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने देश के सबसे बड़े लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में क्रमश: 10 (1999), 09 (2004), 21 (2009) और 02 (2014) जीती हैं। साल 1985 में कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा 82 (85 में से) और 1977 और 1998 में एक भी सीट नहीं जीती। मई, 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा फिर सबसे ताकतवर पार्टी के रूप में उभरी, जिससे कांग्रेस जैसे दलों के लिए वोट जुटाना मुश्किल हो गया। उसे सिर्फ एक सीट मिली, जबकि भाजपा को 62, बीएसपी को 10 और एसपी को 5 लोकसभा सीटें मिलीं।

साल 1999 में उतर प्रदेश के विभाजन के बाद उत्तराखंड बना और उत्तर प्रदेश की लोक सभा सीटें 85 से 80 हो गयीं। साल 2014 के लोक सभा चुनाव में, जब ब्रांड मोदी के प्रचंड लहर चली, तो भाजपा 42.30 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 71 सीटें जीत गयी। जाहिर है इस प्रचंड एकतरफा लहर में दूसरों के हिस्से भला

क्या बचता? बसपा को एक भी सीट नहीं मिली और वोट मिले 19.60 फीसदी। सपा को सीटें मिलीं 5 और वोट फीसद रहा 22.20, जबकि कांग्रेस को सीटें मिलीं 2 और उसका वोट प्रतिशत 7.50 रहा। हालाँकि, वह तब सपा-बसपा के मुकाबले बहुत कम सीटों पर लड़ी थी।

अल 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को वोट मिले 49.56 फीसदी, जबकि बसपा दूसरे नम्बर पर रही और उसे 19.26 फीसदी वोट मिले। सपा को 17.96 फीसदी वोट मिले। अब अगर कांग्रेस की बात करें, तो उसे महज़ 6.31 फीसदी वोट मिले। वोटों का कुल जोड़ देखें, तो यह थे 54 लाख, 57 हज़ार, 269 वोट। इस लिहाज़ से देखें, तो  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनौती कोई छोटी नहीं है। क्योंकि सबकी नजर प्रियंका गाँधी पर है, यह ज़िम्मा उनका है कि कोई कमाल करके कांग्रेस को फिर से खड़ा कर दें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में आधार है; लेकिन वो दूसरे दलों की तरफ जा चुका है। प्रियंका उसे वापस कांग्रेस में ला पाती हैं; तभी कांग्रेस को वहाँ नया जीवन मिल सकता है। बहुत से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि यह लक्ष्य मुश्किल ज़रूर है, असम्भव नहीं। कांग्रेस का एक सोया समर्थक वर्ग उत्तर प्रदेश क्या देश भर में आज भी है। हवा बनी तो कांग्रेस की लॉटरी निकलते देर नहीं लगेगी। ऐसे ही उभार के चलते 2009 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस 21 सीटें जीत गयी थी। इससे यह तो ज़ाहिर हो जाता है कि जनता में अभी भी कांग्रेस का नाम है और वह उसे वापस भी ला सकती है।

प्रियंका के सक्रियता पर बसपा प्रमुख मायावती का बयान इसलिए भी मायने रखता है कि उनके पास आज जो वोट है वह कांग्रेस से ही छिटक कर वहाँ गया है। इसमें दलितों, पिछड़ों से लेकर मुस्लिम वोट तक शामिल है। प्रियंका की सक्रियता से यह वोट बैंक कांग्रेस की तरफ आ सकता है लिहाज़ा मायावती प्रियंका को चुनौती देती  दिखती हैं। सपा ने भले प्रियंका के िखलाफ कभी कोई बयान नहीं दिया, उनकी सक्रियता से चिन्ता, तो उसमें भी है। सपा के पास भी बड़ा मुस्लिम समर्थक वर्ग है। पिछड़े और यादव भी उसे समर्थन करते हैं। कांग्रेस से दरअसल, यूपी ही नहीं पश्चिम बंगाल तक में परहेज़ रहता है; क्योंकि टीएमसी जैसे दल का जन्म भी कांग्रेस की ही कोख से हुआ है। यह सभी क्षेत्रीय दल जानते हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर कांग्रेस जनता को भा गयी, तो उनकी अपनी स्थिति राज्यों में गड़बड़ा जाएगी। यह सभी दल क्षेत्रीय होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति बनाये रखना चाहते हैं। हालाँकि सच यह भी है कि उनकी इस महत्त्वाकांक्षा से लोक सभा चुनाव में वोट का बँटवारा हो जाता है, जो सीधे-सीधे भाजपा को लाभ देता है। यदि 2007 के विधानसभा चुनाव की बात की जाए, तो बसपा को 206, सपा को 97, भाजपा को 51 और कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। इसी तरह 2012 के चुनाव में सपा को 29.15, बसपा को 25.91, भाजपा को 15 और कांग्रेस को 11.63 फीसद वोट विधानसभा चुनाव में मिले थे और इन दलों को क्रमश: 224, 80, 47 और 28 सीटें मिली थीं।  इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 39.7, बसपा को 22.2, सपा को 22.0 जबकि कांग्रेस को 6.2 फीसद वोटों के साथ क्रमश: 312, 19, 47 और 7 सीटें मिलीं। प्रियंका कैसे इस 6.2 फीसदी जैसे कमजोत आंकड़े को बड़े आंकड़े में तब्दील कर पाती हैं, यही बड़ा सवाल है। उनमें क्षमता है लेकिन इसकी परीक्षा होना अभी बाकी है।

प्रियंका की सक्रियताएँ

यूपी हिंसा में पुलिस फायङ्क्षरग में मारे और घायल लोगों से मिलने मुजफ्फरनगर और मेरठ गयीं।

बिजनौर जाने की कोशिश के दौरान पुलिस ने रोक लिया।

सीएए के विरोध में जेल गये समाजिक कार्यकर्ता एसआर दारापुरी के घर गयीं।

इण्डिया गेट के सामने धरने पर बैठीं।

यूपी में पीडि़तों से मिलने स्कूटर पर बैठीं। उनका चालान भी कटा; क्योंकि  वह बिना हेल्मेट के थीं। उन्होंने पुलिस पर उनसे धक्का-मुक्की करने का आरोप लगाया, जो देश में चर्चा बना।

जेएनयू में छात्र गुटों में झड़प के बाद घायल छात्रों और शिक्षकों का हाल जानने  आधी रात को एम्‍स के ट्रामा सेंटर पहुँचीं।

वाराणसी गयीं। संस्कृत कॉलेज चुनाव में जीते एनएसयूआई पदाधिकारियों से  भी मिलीं।

चुनौतियाँ कम नहीं

राहुल गाँधी के अध्यक्ष रहते तीन विधानसभा चुनाव- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़  जीतकर कांग्रेस ने 2014 के चुनाव में मिली हार की धूल झाडक़र अच्छी शुरुआत की थी, जो 2019 के लोक सभा चुनाव में फिर निराशा में बदल गयी। हालाँकि, भाजपा को भी देखें, तो उसका ग्राफ राज्यों के विधानसभा में नीचे आ रहा है, जो कांग्रेस और प्रियंका के लिए उम्मीद जगाता है। उन्हें टीवी में भी काफी स्पेस मिल रहा है। हालाँकि, 2019 के चुनाव में जिस तरह अमेठी में उनके भाई राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए स्मृति ईरानी से हार गये, उससे कांग्रेस को यूपी में निश्चित ही बड़ा झटका लगा जिससे उबरना अभी बाकी है। हालांकि, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्य भाजपा के हाथ से निकल जाने के बाद कांग्रेस में उत्साह तो बड़ा ही है। झारखंड में उसकी सीटें 6 से 16 पहुँच गयीं और महाराष्ट्र में उसके विधायक मंत्री बन गये। दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और साल के आिखर में बिहार में भी। दोनों ही जगह कांग्रेस के लिए बहुत ज़्यादा सम्भावनाएँ नहीं दिखतीं। दिल्ली में आप मज़बूत दिख रही है, जबकि बिहार में कांग्रेस गठबन्धन का ही हिस्सा भर है, अपना कुछ उसके पास नहीं। दिल्ली में प्रियंका प्रचार करेंगी, इसके संकेत हैं। लोकसभा में भी कुछ गिनी चुनी सीटों पर उन्होंने चुनाव प्रचार किया था। तब कांग्रेस के लिए संतोष की यही बात रही थी कि वोटों के हिसाब से भाजपा के बाद वह दूसरे नम्बर पर रही थी। विधानसभा चुनाव में पहले नम्बर पर आना उसके लिए बहुत मुश्किल दिखता है।