प्रहसन एक पूर्व प्रधानमंत्री की मौत का

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क्या राजीव गांधी हत्याकांड में न्याय हुआ है? इस घटना के 23 साल बाद भी शायद इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं दिया जा सकता. 26 दोषियों को फांसी की सजा से शुरू हुआ यह न्यायिक मामला अब सभी दोषियों की रिहाई का राजनीतिक मामला बन चुका है. पिछले 23 साल के सफर में कई बार इस मामले में न्याय की परिभाषाएं बदली, कई बार फैसले आए, कई बार अपील हुई और कई बार अंतिम फैसले भी आए. लेकिन राजनीतिक दांव-पेचों ने उन्हें अंतिम नहीं रहने दिया. यह मामला आज भी न्यायालय में है और अपना अंतिम न्याय लिखे जाने का इंतजार कर रहा है. आज न्याय की मांग पीड़ितों के लिए नहीं बल्कि दोषियों के लिए होने लगी है जबकि यह मामला असल में उन 18 लोगों को न्याय दिलाने का था जिनकी इन दोषियों ने हत्या कर दी थी. लोक स्मृति में धुंधली हो चुकी इस हत्याकांड से जुड़ी बातें और घटनाक्रम मिलकर एक दिलचस्प सिलसिला बनाते हैं. न्यायालय के फैसलों, जांच आयोगों और समितियों की रिपोर्टों, हजारों पन्नों के दस्तावेजों, संबंधित लोगों के बयानों और साक्षात्कारों के आधार पर इसे समझते हैं.

राजीव गांधी हत्याकांड के पूरे मामले को समझने के लिए जरूरी है कि इसकी शुरुआत आजादी से की जाए. भारत की नहीं, श्रीलंका की आजादी से. इस मामले में श्रीलंका के इस इतिहास की इतनी अहमियत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में इसे विस्तार से लिखा है. भारत की आजादी के अगले ही साल श्रीलंका आजाद हुआ था. तब इसे सीलोन कहा जाता था. आजादी से पहले हजारों तमिल लोगों को श्रीलंका के चाय बागानों में मजदूरी के लिए लाया गया था. भारत से गए इन तमिलों को भारतीय-तमिल कहा जाता था जबकि वहां पहले से रह रहे तमिलों को श्रीलंकन-तमिल या जाफना-तमिल कहते थे. श्रीलंका में बहुसंख्यक आबादी बौद्ध धर्म को मानने वाले सिंहला लोगों की थी और तमिल भाषियों को लगातार उनकी उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था. आजादी के बाद भारतीय तमिलों से वोट देने का अधिकार भी छीन लिया गया. श्रीलंका की लगभग 23 प्रतिशत आबादी तमिलों की थी. इतनी बड़ी आबादी से वोट देने का अधिकार छीना जाना एक बड़ा झटका था. समय के साथ स्थितियां खराब होती गईं. 1956 में श्रीलंका सरकार ने घोषणा कर दी कि देश की एक मात्र आधिकारिक भाषा सिंहला होगी. सरकार के इस फैसले से तमिल भाषी लोगों को सरकारी नौकरी मिलना भी लगभग असंभव हो गया. इसके बाद 1972 में बने श्रीलंका के संविधान में बौद्ध धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित कर दिया गया. साथ ही सिंहला लोगों को बहुसंख्यक होने के बावजूद भी हर जगह वरीयता और आरक्षण दिया जाने लगा. धीरे-धीरे तमिल लोग नौकरियों से लेकर शिक्षा तक हर क्षेत्र में हाशिये पर धकेल दिए गए.

इस भेद-भाव का नतीजा यह हुआ कि अंततः तमिलों ने हथियार उठा लिए. उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में तमिलों के कई छोटे-छोटे संगठन बनने शुरू हुए. एक तमिल युवा वेलुपिल्लई प्रभाकरन ने भी अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘तमिल न्यू टाइगर्स’ नाम का एक संगठन बनाया. उस वक्त प्रभाकरन सिर्फ 18 साल का था. धीरे-धीरे यह संगठन मजबूत होने लगा. पांच मई, 1976 को प्रभाकरन ने इसका नाम बदल कर ‘लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम’ कर दिया. इसे आम तौर से लिट्टे नाम से जाना जाने लगा. 1980 का दशक आते-आते लिट्टे सबसे मजबूत, अनुशासित और  बड़ा तमिल आतंकवादी संगठन बन गया. लिट्टे ने उस वक्त के सभी छोटे संगठनों को या तो अपने साथ शामिल कर लिया या खत्म कर दिया. श्रीलंका में भारत के उच्चयुक्त रहे एनएन झा एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘लिट्टे ने उन सभी तमिल नेताओं को भी समाप्त कर दिया जो बातचीत में विश्वास रखते थे. प्रभाकरन तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन गया था.’ लिट्टे जितना मजबूत गुरिल्ला लड़ाई में था उतना ही मजबूत उसका संचार तंत्र भी था. लगभग 30 साल तक लिट्टे और श्रीलंका से जुड़े विषयों पर लिखते रहे वरिष्ठ पत्रकार श्याम टेकवानी के अनुसार लिट्टे का लंदन में मीडिया हेडक्वाटर था. लिट्टे द्वारा हर खबर यहां पहुंचा दी जाती थी. लंदन स्थित यह मुख्यालय इन ख़बरों को प्रेस विज्ञप्ति के रूप में सभी अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और प्रकाशकों को भेज देता था. इस कारण लिट्टे जल्द ही दुनिया भर में मशहूर हो गया.

श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे भेदभाव के कारण तमिलनाडु के लोग उनके प्रति सहानुभूति रखते थे. इस कारण भारत पर तमिलों की मदद करने का भारी दबाव था. प्रभाकरन तमिलों का एकमात्र प्रतिनिधि बन चुका था. उसने भारत से मदद मांगी. भारत इसके लिए तैयार हो गया. तमिलनाडु तथा श्रीलंका में तमिल छापामारों को भारत सरकार द्वारा प्रशिक्षण दिया जाने लगा. इस बात का खुलासा सबसे पहले इंडिया टुडे पत्रिका के रिपोर्टर शेखर गुप्ता ने किया. एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, ‘भारत सरकार लिट्टे के लोगों को सैन्य ट्रेनिंग दे रही थी. तमिलनाडु में तो यह एक खुले रहस्य की तरह था. इसकी जानकारी वहां सबको थी लेकिन सबको शायद यही स्वीकार  था इसलिए कोई इस पर लिख नहीं रहा था.’ लिट्टे को भारत से पूरी मदद मिल रही थी. ट्रेनिंग, हथियार, बम, पेट्रोल, वायरलेस, दवाइयां, कपड़े सब कुछ भारत द्वारा उन्हें दिया जाने लगा था.

मजबूत संचार तंत्र के कारण लिट्टे को दुनिया भर के तमिलों से भी मदद मिलने लगी थी. प्रभाकरन लगातार मजबूत हो रहा था. 23 जुलाई, 1983 को प्रभाकरन ने श्रीलंकाई सेना के खिलाफ पहला बड़ा कदम उठाया. लिट्टे ने श्रीलंका के 13 सैनिकों की हत्या कर दी. इसके साथ ही श्रीलंका में नरसंहारों और खूनी संघर्ष का सबसे वीभत्स दौर शुरू हो गया. पूरे श्रीलंका में तमिल विरोधी दंगे भड़क गए. लेखक एमआर नारायणस्वामी इन दंगों के बारे में कहते हंै, ‘जुलाई 1983 में श्रीलंका में जब तमिलों को मारा जा रहा था तो वहां की सरकार इसमें पूरी तरह से मिली हुई थी. उग्रवादियों के हाथ में वोटर लिस्ट थी और वे तमिलों को घर-घर जाकर मार रहे थे. सेना की गाड़ियों में उग्रवादी घूम रहे थे और पुलिस सब कुछ देख रही थी.’ दंगों के इस दौर को ‘ब्लैक जुलाई’ कहा गया. इसके बाद से श्रीलंका में गृह युद्ध की शुरुआत हुई. हजारों की संख्या में तमिल शरणार्थी भारत आने लगे. यहीं से अलग तमिल राष्ट्र- ‘ईलम’ की भी मांग तेज हो गई. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा के शब्दों में, ‘ब्लैक जुलाई से पहले ज्यादा लोग अलग राष्ट्र की मांग से सहमत नहीं थे. लेकिन इसके बाद तो तमिलों के मन में यह बात बैठ गई कि अलग हुए बिना न्याय नहीं हो सकता.’ लिट्टे तो पहले से ही ईलम की मांग कर रहा था. इस घटनाक्रम से इस मांग को व्यापक जनसमर्थन मिल गया.

ब्लैक जुलाई के बाद से लिट्टे और श्रीलंकाई सेना के बीच लगातार मुठभेड़ होती रही. इनमें दोनों तरफ के सैकड़ों लोग हर रोज मारे गए. भारत अब भी लिट्टे की पूरी मदद कर रहा था. तमिलनाडु में लिट्टे की सक्रियता बढ़ती जा रही थी और राज्य सरकार न सिर्फ उसे नजरंदाज कर रही थी बल्कि उसका समर्थन भी कर रही थी. नवंबर 1986 में तमिलनाडु पुलिस ने कुछ ईलम संगठनों पर छापा मारकर कई हथियार, वायरलेस और अन्य अवैध समान बरामद किए. इसके विरोध में प्रभाकरन मद्रास में भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसने हथियार तो नहीं लेकिन अपने वायरलेस और संचार साधन वापस करने की मांग की. मीडिया ने भी इस मामले को खूब हवा दी. अंततः सरकार ने उसे जूस पिलाते हुए जब्त समान वापस कर दिया. इसके बाद तो तमिलनाडु में पहले से ही प्रसिद्ध प्रभाकरन की तमिलों में भगवान सरीखी छवि बन गई.

उधर, श्रीलंका में गृह युद्ध जारी था और इसमें हजारों लोग मारे जा चुके थे. श्रीलंका और भारत सरकार के बीच इसे रोके जाने को लेकर बातें भी चल रही थी. 1987 में यह तय किया गया कि भारत और श्रीलंका के बीच एक शांति समझौता किया जाएगा. नटवर सिंह उस वक्त विदेश राज्य मंत्री थे. एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, ‘मैं और पी चिदंबरम साहब प्रभाकरन से मिले. हमने उन्हें समझाने की बहुत कोशिशें की लेकिन वे ईलम की मांग पर कोई समझौता करने तो तैयार नहीं थे. हमने उन्हें कहा कि ईलम का बनना मुमकिन नहीं है, इसे भूल जाओ. उन्होंने कहा कि मैं ईलम को नहीं भूल सकता.’

इसके बाद 28 जुलाई, 1987 को प्रभाकरन को राजीव गांधी से मिलने बुलाया गया. इस मुलाकात के बाद प्रभाकर ने प्रेस को बयान दिया और कहा, ‘प्रधानमंत्री तमिलों की समस्या समझते हैं और इस दिशा में काम कर रहे हैं. हम प्रधानमंत्री के इस रुख से संतुष्ट हैं.’ लेकिन प्रभाकरन ने खुलकर इस समझौते से संबंधित कोई भी बयान नहीं दिया. इसके अगले ही दिन राजीव गांधी श्रीलंका पहुंचे और राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने के साथ शांति समझौते पर दस्तखत कर दिए.

भारत और श्रीलंका के बीच हुआ यह समझौता कितना घातक होने वाला था इसके संकेत जल्द ही मिलने लगे. समझौते पर किए गए राजीव गांधी के दस्तखत की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उन पर जानलेवा हमले की कोशिश हुई. यह हमला श्रीलंका में ही हुआ और हजारों लोगों की मौजूदगी में हुआ. समझौते के अगले दिन राजीव गांधी को श्रीलंका सेना द्वारा सैनिक सलामी दी जा रही थी. राष्ट्रपति जयवर्धने के साथ राजीव गांधी सलामी ले रहे थे कि तभी सबसे आगे पंक्ति में खड़े एक श्रीलंकाई सैनिक ने उन पर बंदूक के बट से हमला कर दिया. खुद को संभालते हुए राजीव गांधी नीचे झुक गए जिस कारण उनके सिर पर चोट नहीं आई. बंदूक का यह वार उनकी गर्दन और कंधे पर जाकर लगा. सारे देश ने इस घटना को दूरदर्शन के माध्यम से देखा. इस हमले के कुछ साल बाद सोनिया गांधी ने कहा था कि ‘उस हमले के बाद राजीव लंबे समय तक न तो अपना कंधा पूरी तरह से उठा पाते थे और न ही उस करवट सो पाते थे.’

समझौते के दिन प्रभाकरन दिल्ली में ही था. पूर्व उच्चायुक्त एनएन झा का मानना है कि ‘प्रभाकरन कभी भी इस समझौते के पक्ष में नहीं था. लेकिन उस पर भारत का दबाव था इसलिए उसने कुछ समय तक इसका खुलकर विरोध नहीं किया.’ समझौते के अनुसार भारत से एक विशेष सैन्य दल भी श्रीलंका भेजा जाना था. इस दल को ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ (आईपीकेएफ) कहा गया. समझौते वाले दिन ही आईपीकेएफ को भी श्रीलंका रवाना कर दिया गया. इसका काम था लिट्टे से आत्मसमर्पण करवाना. प्रभाकरन ने आईपीकेएफ को लिख कर दिया कि वह आत्मसमर्पण के लिए तैयार है. आईपीकेएफ के कमांडर रहे दीपेंदर सिंह ने अपनी किताब में इसका जिक्र करते हुए लिखा है, ‘अन्य आतंकी संगठनों के मुकाबले लिट्टे बड़े ही सुनियोजित तरीके से आत्मसमर्पण कर रहा था. वे हमें समय बताते थे और ठीक समय पर उनके ट्रक हथियार लेकर पहुंच जाते थे.’

लेकिन समझौते के तीन हफ्ते बाद ही 21 अगस्त को लिट्टे ने हथियारों का समर्पण बंद कर दिया. प्रभाकरन ने आईपीकेएफ के अधिकारियों को बताया कि भारतीय खुफिया विभाग लिट्टे के विरोधी संगठनों को हथियार दे रहे हैं. इस कारण लिट्टे अब समर्पण नहीं करेगा.

प्रभाकरन ने जब हथियार डालने से इनकार कर दिया तो श्रीलंका में मौजूद भारतीय अधिकारियों की एक बैठक बुलाई गई. इस बैठक में प्रभाकरन को भी बातचीत के लिए बुलाया गया था. जेएन दीक्षित उस वक्त भारत के उच्चायुक्त थे और यह बैठक उन्हीं की अध्यक्षता में होनी थी. आईपीकेएफ के मेजर जनरल रहे हरकीरत सिंह एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘इस मीटिंग से एक रात पहले मुझे उच्चायुक्त दीक्षित साहब का फोन आया था. उन्होंने मुझे कहा कि जनरल, कल जब प्रभाकरन मीटिंग में आए तो आप उसे गोली मार देना. मैंने जनरल दीपेंदर सिंह से इस बारे में बात की और फिर दीक्षित साहब को जवाब दिया कि हम फौजी हैं, हम कभी भी पीठ पर गोली नहीं मारते.’ यह मीटिंग हुई और प्रभाकरन इसमें शामिल भी हुआ. लेकिन अब तक लिट्टे ने जो उम्मीदें भारत से लगा रखी थी वे टूटने लगी थी. तमिल लोगों को जिस तरह से बसाया जा रहा था उससे लिट्टे समर्थक संतुष्ट नहीं थे. आईपीकेएफ द्वारा भी तमिलों पर अत्याचार की बातें सामने आ रही थी. इसके विरोध में 15 सितंबर को थिलीपन नाम का एक लिट्टे सदस्य भूख हड़ताल पर बैठ गया. उसका कहना था कि न तो समझौते की बातों पर अमल हो रहा है और न ही भारत सरकार अपनी भूमिका निभा रही है. 12 दिनों कि भूख हड़ताल के बाद थिलीपन की मौत हो गई. इस मौत ने एक बार फिर से लिट्टे में बदले की आग को हवा दे दी. यह मामला अभी शांत भी नहीं हुआ था कि एक और हादसा हो गया. अक्टूबर के पहले हफ्ते में श्रीलंका सेना ने लिट्टे के 17 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया. इन्हें पूछताछ के लिए कोलंबो ले जाया जाने लगा. लिट्टे ने इनकी रिहाई के लिए भारत सरकार से मांग की. भारत सरकार ने लिट्टे की इस मांग पर कोई तेजी नहीं दिखाई. इस बीच इन गिरफ्तार सदस्यों में से 12 लोगों ने सायनाइड खाकर आत्महत्या कर ली. थिलीपन की मौत से भड़की आग में इस हादसे ने घी का काम किया. इसके बाद लिट्टे ने भारत और आईपीकेएफ को भी अपना दुश्मन मान लिया. कुछ दिन के भीतर ही लिट्टे ने आईपीकेएफ के 11 सैनिकों को जिंदा जलाकर मार डाला.

यहां से लिट्टे और आईपीकेएफ आमने-सामने आ गए. जो सेना भारत से शांति बहाली के लिए गई थी अब वही युद्ध में लग गई. आठ अक्टूबर को भारतीय जनरल ने आईपीकेएफ को लिट्टे पर खुले हमले के आदेश दे दिए. इस दिन के बाद से प्रभाकरन लगभग ढाई साल तक भूमिगत रहा.

भारत में राजीव गांधी द्वारा आईपीकेएफ को श्रीलंका भेजे जाने का विरोध होने लगा. संसद से लेकर सड़कों तक प्रदर्शन और रेल रोको आंदोलन तक हुए. देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा था कि श्रीलंका में भारतीय सेना के जवान मारे जा रहे थे और राजनीतिक दल सेना का ही विरोध कर रहे थे. 1989 में सत्ता परिवर्तन हुआ और राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद से हट गए. नए प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आते ही आईपीकेएफ को वापस बुलाने को फैसला किया. 24 मार्च 1990 को आईपीकेएफ का अंतिम बेड़ा श्रीलंका से वापस लौट आया. आईपीकेएफ के कुल 1248 जवान श्रीलंका में मारे गए थे लेकिन इस दौरान आईपीकेएफ ने लिट्टे को बहुत हद तक सीमित कर दिया था.

इसके बाद से भारत में राजनीतिक समीकरण लगातार बदल रहे थे. राजीव गांधी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावनाएं थी. इस बीच अगस्त 1990 में राजीव गांधी का एक साक्षात्कार अमृत बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुआ. इसमें उन्होंने भारत-श्रीलंका शांति समझौते का समर्थन किया था और अखंड श्रीलंका की बात कही थी. इस समझौते के कारण लिट्टे का ईलम का सपना टूट रहा था. लिट्टे को डर था कि राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना उनके लिए घातक सिद्ध हो सकता है लिहाजा उसने उनकी हत्या का षड्यंत्र रचना शुरू किया. इस षड्यंत्र के मुख्य पात्र थे लिट्टे चीफ प्रभाकरन, लिट्टे की खुफिया इकाई के मुखिया पोट्टू ओम्मान, महिला इकाई की मुखिया अकीला और सिवरासन. सिवरासन ही राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र का मास्टरमाइंड भी था. राजीव गांधी का साक्षात्कार प्रकाशित होने के एक महीने बाद ही उनकी हत्या करने के उद्देश्य से लिट्टे के आतंकियों की पहली टुकड़ी शरणार्थी बनकर भारत आई. इसके बाद कुल सात अलग-अलग टुकड़ियों में लोग आए और उन्होंने भारत में अलग-अलग जगह अपने ठिकाने बनाए. इन लोगों को हत्याकांड से पहले और उसके बाद छुपने के लिए जगह तलाशने का काम भी सौंपा गया था. इनमें से दो आरोपितों जयकुमार और रोबर्ट पयास के ठिकानों पर वायरलेस लगाए गए. यहां से लगातार जाफना संदेश भेजे जाते थे. पत्रकार राजीव शर्मा द्वारा लिखी गई किताब ‘बियोंड द टाइगर्स: ट्रैकिंग राजीव गांधीज असैशिनेशन’ में यह भी लिखा गया है कि भारतीय नौसेना और रॉ ने राजीव गांधी की हत्या से संबंधित ये संदेश पकड़ भी लिए थे, लेकिन इनको हत्या के कई महीनों बाद ही डिकोड किया जा सका.

इस षड्यंत्र को अंजाम देने वालों में से एक था मुरुगन. वह जनवरी 1991 में भारत आया. यहां आकर वह नलिनी के परिवार के साथ उसके घर पर ठहरा. नलिनी तब एक निजी कंपनी में नौकरी करती थी और अपने परिवार से अलग रहती थी. मुरुगन से मिलने के बाद नलिनी की उससे नजदीकियां बढ़ी और उन्होंने बाद में शादी कर ली. मुरुगन ने नलिनी को बताया कि सिवरासन श्रीलंका से दो लड़कियों को लेकर आने वाला है और नलिनी को उन्हें अपने साथ रखना होगा. 1 मई, 1991 को सिवरासन लिट्टे के सबसे समर्पित और इस षड्यंत्र के सबसे महत्वपूर्ण लोगों को लेकर भारत आया. इनमें मानव बम धनु और उसकी सहेली सुबा सहित कुल नौ लोग शामिल थे. सुबा और धनु भारत आकर नलिनी से मिलीं. नलिनी को उनके साथ उनके अभिभावक की तरह रहने की जिम्मेदारी दी गई थी. इसी बीच सुबा ने नलिनी को बताया कि आईपीकेएफ ने तमिलों पर बहुत अत्याचार किए हैं. सुबा ने उसे यह भी बताया कि भारतीय सेना के जवानों ने सात तमिल लड़कियों का बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी. श्रीलंका में तमिलों पर हुए अत्याचार की बातें बताते हुए सुबा और धनु ने नलिनी को बताया कि इसके लिए राजीव गांधी जिम्मेदार हैं. बताया जाता है कि इसके बाद से नलिनी के मन में भी राजीव गांधी के प्रति बदले की भावना पैदा हो गई.

सिवरासन ने भारत आने के बाद धनु और सुबा को ट्रेनिंग भी दी. सात मई को मद्रास में वीपी सिंह की सभा होने वाली थी. सिवरासन इस रैली में धनु, सुबा और नलिनी को लेकर गया ताकि वे एक पूर्व प्रधानमंत्री के सुरक्षा घेरे में जाकर उसे माला पहनाने का अभ्यास कर सकें. नलिनी, मुरुगन, पेरारिवलन और हरी बाबू भी इनके साथ ही सभा में गए थे. वीपी सिंह के मंच पर आने से पहले सुबा और धनु ने उन्हें माला पहनाई. अपनी ट्रेनिंग में मिली इस सफलता से दोनों लड़कियों के इरादे और भी ज्यादा मजबूत हो गए. उन्होंने अगले ही दिन जाफना संदेश भिजवाया कि अब उनका आत्मविश्वास बहुत मजबूत है और वे इसी महीने में अपना उद्देश्य पूरा कर लेंगी. 11 मई को नलिनी धनु के साथ टेलर के पास गई और उसके लिए नया सलवार-कुर्ता सिलवाया. यह कपड़े इस मकसद से ढीले सिलवाए गए थे कि इनमें विस्फोटक छिपाए जा सकें.

19 मई 1991 के अखबारों में राजीव गांधी का चुनावी कार्यक्रम प्रकाशित हुआ. यहीं से सिवरासन को मालूम हुआ कि 21 मई को राजीव गांधी श्रीपेरंबदूर आने वाले हैं. यह मौका वह चूकना नहीं चाहता था. उसने नलिनी से जगह के बारे में मालूम किया और उसे 21 मई को आधे दिन की छुट्टी लेने को कहा. 20 मई को सिवरासन ने पेरारिवलन को बैटरी खरीदने को कहा और साथ ही उससे एक कैमरे का रोल भी मंगवाया.

इसके बाद वह दिन आया जिसका इन लोगों को इंतजार था. सिवरासन ने सुबा और धनु को अंतिम उद्देश्य के लिए तैयार होने को कहा. धनु ने अपने शरीर में विस्फोटक लगाए और वही नया सिलवाया सलवार-कुर्ता पहन लिया. इसके बाद सिवरासन ने अपने एक साथी को ऑटो लेने भेजा और साथ ही उसे निर्देश दिए कि ऑटो को घर के नजदीक नहीं लाना है. यहां से सिवरासन, धनु और सुबा ऑटो लेकर नलिनी के घर पहुंचे. सुबा ने नलिनी को उनकी मदद करने के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि ‘धनु आज राजीव गांधी को मारकर इतिहास बनाने जा रही है.’

लगभग पांच बजे सिवरासन के साथ ही ये तीनों महिलाएं पास के एक बस स्टॉप पर पहुंचीं. यहां हरी बाबू पहले से ही एक कैमरे और एक माला लिए मौजूद था. सभी पांचों लोग यहां से श्रीपेरंबदूर के लिए बस से रवाना हुए. लगभग 7.30 बजे ये लोग उस स्थान पर पहुंच गए जहां राजीव गांधी की सभा होनी थी. सिवरासन ने नलिनी को बताया कि उसे हर समय धनु और सुबा के साथ रहना है और इस बात का ध्यान रखना है कि कोई भी उन्हें उनकी श्रीलंकाई भाषा के कारण पहचान न ले. साथ ही उसने नलिनी को यह भी समझया कि हत्या के बाद वह सुबा को लेकर पास में बनी इंदिरा गांधी की मूर्ति के पास आ जाए और वहां दस मिनट तक उसका इंतजार करे. इसके बाद नलिनी, सुबा और धनु महिलाओं के लिए आरक्षित जगह पर बैठ गए.

राजीव गांधी के पहुंचने से कुछ समय पहले घोषणा हुई कि जो भी लोग उन्हें माला पहनाना चाहते हैं वे एक पंक्ति में खड़े हो जाएं. सिवरासन ने धनु को उसकी जगह से उठाया और उसे लेकर मंच के पास चला गया. वहां एक 14 साल की बच्ची और उसकी मां भी मौजूद थे. कोकिला नाम की यह बच्ची राजीव गांधी को हिंदी में एक कविता सुनाने वाली थी. हरी बाबू भी मंच के पास ही मौजूद था. वह एक पत्रकार के रूप में वहां मौजूद था. उसका काम था इस पूरे हत्याकांड की तस्वीरों को कैद करना. कुछ ही देर में राजीव गांधी वहां पहुंच गए. इस पर धनु ने सिवरासन और सुबा को वहां से हट जाने का इशारा कर दिया. राजीव गांधी कोकिला नाम की उस बच्ची से मिलने को रुके. कोकिला के लिए राजीव गांधी के चेहरे की वह मुस्कान उनकी जिंदगी की आखिरी मुस्कान थी. अगले ही पल एक धमाका हुआ और चारों तरफ सिर्फ लाशें, खून, चीख और आंसू पसर गए.

राजीव गांधी सहित कुल 18 लोगों की इस धमाके में मौत हो गई और कई लोग घायल हुए. धनु के साथ ही इस षड्यंत्र में शामिल हरी बाबू की भी मौत हो गई. हरी बाबू का काम फोटो खींचने का था. लिट्टे के हर ऑपरेशन की तस्वीरें और वीडियो बनाई जाती थी. ऐसा दो कारणों से होता था. पहला, लिट्टे के अन्य सदस्यों को इन तस्वीरों के आधार पर असल घटनाओं का उदाहरण देते हुए ट्रेनिंग देना. और दूसरा, जब ईलम अलग राष्ट्र बने तो इसके संघर्ष में जान गंवाने वाले क्रांतिकारियों के बारे में आने वाली पीढ़ियों को बताया जा सके. लेकिन लिट्टे की यही दूरगामी सोच इस मामले में उसके गले का फंदा बनी. हरी बाबू की लाश के साथ  पुलिस ने यह कैमरा बरामद किया जो इस षड्यंत्र को बेनकाब करने में सबसे अहम साबित हुआ.

हत्याकांड के तीन दिन बाद ही इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई. इसके बाद गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ. एक महीने के भीतर ही नलिनी और मुरुगन जैसे मुख्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया. सिवरासन और सुबा सहित कई आरोपितों ने गिरफ्तारी से पहले ही आत्महत्या कर ली. सीबीआई ने पूरे एक साल में मामले की जांच पूरी की और विशेष न्यायालय में आरोपपत्र दाखिल कर दिया. इसमें कुल 41 लोगों को इस हत्याकांड का आरोपी बताया गया था. इनमें से 12 लोगों की मौत हो चुकी थी, तीन फरार थे और बाकी 26 गिरफ्तार कर लिए गए थे. फरार में प्रभाकरन, पोट्टू ओम्मान और अकीला शामिल थे.

इस हत्याकांड में एक पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के प्रभावशाली नेता की मौत हुई थी. इसलिए इस हत्याकांड का राजनीतिक होना और इस हत्याकांड पर राजीनति होना दोनों ही स्वाभाविक थे. न्यायालय में चल रहे मामले के साथ ही हत्या के एक हफ्ते बाद ही एक जांच आयोग भी बना दिया गया था. जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता वाले इस आयोग का काम था राजीव गांधी की सुरक्षा में हुई चूक की जांच करना. कुछ समय बाद ही जस्टिस वर्मा से इस हत्याकांड के पीछे के षड्यंत्र की भी जांच करने को कहा गया.उन्होंने यह जांच करने से इनकार कर दिया और अपनी जांच को सुरक्षा में हुई चूक तक ही सीमित रखने की बात कही. इसके बाद यह काम जस्टिस मिलाप चंद जैन को दिया गया. 23 अगस्त, 1991 को जैन आयोग का गठन हुआ. यह आयोग कई तरह के विवादों में घिरता रहा. कभी सीबीआई के दस्तावेजों की जांच को लेकर तो कभी न्यायालय की प्रक्रिया में बाधा बनने संबंधी सवाल जैन कमीशन पर लगतार होते रहे. जैन कमीशन तब सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बना जब इसकी अंतरिम रिपोर्ट लीक हुई. इस रिपोर्ट में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणानिधि की भी राजीव गांधी की हत्या में भूमिका होने की बात कही गई थी. रिपोर्ट में बताया गया था कि तमिलनाडु सरकार तब भी लिट्टे को पूरी तरह समर्थन कर रही थी जब भारत और श्रीलंका के बीच समझौता हो चुका था और भारतीय सेना लिट्टे के खिलाफ लड़ रही थी. रिपोर्ट के अनुसार करुणानिधि जब 1989 में मुख्यमंत्री बने तो इसके बाद प्रदेश में लिट्टे की हर अवैध गतिविधि को नजरअंदाज किया जाने लगा और लिट्टे की सक्रियता यहां काफी बढ़ गई. जैन रिपोर्ट में करुणानिधि पर सबसे गंभीर आरोप खुफिया विभाग की दो रिपोर्ट्स के आधार पर लगाए गए हैं. 1990 में लिट्टे ने मद्रास में एक तमिल संगठन के नेता पद्मनाभ और उसके 15 अन्य साथियों की हत्या कर दी थी. इन हत्याओं के नौ दिन बाद खुफिया  विभाग ने दो रिपोर्ट जमा की थी. इनमें से एक रिपोर्ट में बताया गया कि ‘मुख्यमंत्री नातेसन (एक लिट्टे नेता) को बता रहे हैं कि अपनी गतिविधियों और छिपने के ठिकानों की जानकारी पहले ही देते रहना ताकि पुलिस को ऐसी जगहों से दूर रखा जा सके.’ इसके साथ ही इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि मुख्यमंत्री ने पद्मनाभ के गद्दार होने की बात भी कही थी. साथ ही जैन कमीशन की रिपोर्ट में तमिलनाडु के गृह सचिव का एक बयान भी है जो करुणानिधि पर गंभीर सवाल करता है. गृह सचिव नागराजन का बयान है, ‘पद्मनाभ की हत्या के बाद राज्य के डीजीपी ने मुझे बताया कि मुख्यमंत्री ने निर्देश दिए हैं कि पुलिस को तब तक इस मामले में आरोपितों को ढूंढने में दिलचस्पी दिखाने की कोई जरूरत नहीं है जब तक मुख्यमंत्री लौटकर आगे के निर्देश नहीं देते.’ पद्मनाभ हत्याकांड इसलिए भी ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि इसे भी उन्हीं लोगों ने अंजाम दिया था जिन्होंने बाद में राजीव गांधी की हत्या की. जैन कमीशन ने राजीव गांधी हत्याकांड में सीबीआई द्वारा की गई जांच पर भी सवाल खड़े किए थे और कई मुद्दों पर पुनः जांच की बात कही थी. लेकिन जैन कमीशन पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि इसकी रिपोर्ट बहुत हद तक राजनीतिक रूप से प्रभावित थी और इस रिपोर्ट का लीक होना भी सुनियोजित था.

जैन कमीशन की रिपोर्ट पूरी होने तक न्यायालय की कार्रवाई भी पूरी हो चुकी थी. इस मामले को आतंकवादी प्रवृति का मानते हुए सभी आरोपितों पर टाडा कानून लागू किया गया था. इस कानून के अनुसार पुलिस के सामने दिया गया इकबालिया बयान भी न्यायालय में स्वीकार्य होता है. लिहाजा इन सभी आरोपितों के बयान इस मामले में बहुत अहम साबित हुए. इनके अलावा लगभग एक हजार गवाहों के लिखित बयान, 288 गवाहों से जिरह, 1477 दस्तावेजों जिनकी कुल संख्या 10000 से ज्यादा थी, 1,180 नमूनों एवं सबूतों और वकीलों के हजारों तर्कों के बाद विशेष न्यायालय ने सभी 26 दोषियों को हत्या और षड्यंत्र का दोषी पाया और सबको मौत की सजा सुना दी. विशेष न्यायालय के अनुसार यही इस मामले में न्याय था.

इस फैसले को चुनौती देने सभी आरोपित सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे. यहां तीन जजों की बेंच को यह मामला सौंपा गया. विशेष न्यायालय के फैसले के एक साल बाद ही इस मामले में न्याय की परिभाषा पूरी तरह से बदल गई. सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि विशेष अदालत का फैसला न्याय नहीं बल्कि ‘न्यायिक नरसंहार’ है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने 1999 में इन 26 में से 19 लोगों को रिहा कर दिया. कोर्ट ने इन सभी को हत्या और षड्यंत्र का दोषी नहीं माना और कहा कि जो अपराध इन पर बनते थे उनकी सजा ये लोग आठ साल जेल में रह कर पूरी कर चुके हैं. तीन अन्य आरोपितों के अपराध को भी कम गंभीर पाते हुए न्यायालय ने उनकी फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया. नलिनी, मुरुगन, संथन और पेरारिवलन के अपराध को ही कोर्ट ने अक्षम्य मानते हुए फांसी की सजा सुनाई. इस फैसले में एक जज रहे जस्टिस थॉमस नलिनी की फांसी को माफ करने पक्ष में थे. लेकिन दो-एक के बहुमत से उसकी फांसी बरक़रार रही.
गिरफ्तार होने के कुछ महीनों बाद ही नलिनी की एक बेटी हुई थी. यह बेटी काफी समय तक जेल में उसके साथ ही रही. जस्टिस थॉमस द्वारा नलिनी की फांसी माफ करने का एक कारण यह भी था कि उसकी एक छोटी बेटी थी और  यदि मुरुगन और नलिनी दोनों को फांसी होती तो यह बच्ची अनाथ हो जाती. सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सोनिया गांधी व्यक्तिगत तौर पर राष्ट्रपति से मिलीं और उनसे नलिनी की फांसी माफ करने की अपील की. साल 2000 में दया याचिका को मंजूर करते हुए नलिनी की फांसी माफ कर दी गई. जेल से बाहर रहते हुए नलिनी ने राजीव गांधी की हत्या की कुख्याति प्राप्त की तो जेल में रहते हुए एक कीर्तिमान भी अपने नाम किया. वह जेल में रहते हुए एमसीए की पढ़ाई पूरी करने वाली पहली भारतीय बन गई है. यह भी एक संयोग ही है कि उसे अपनी यह डिग्री ‘इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय’ से मिली है.

नलिनी की फांसी माफ होने के बाद इस मामले में तीन ही आरोपित फांसी की राह पर रह गए थे. इन्होने राष्ट्रपति के सामने 2000 में दया याचिका दाखिल की. इस दया याचिका पर 11 साल बाद फैसला लिया गया. भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा फांसियां माफ करने वाली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इनकी फांसी को माफ नहीं किया. उन्हें इन तीन आरोपितों को मौत की सजा देना ही न्याय लगा. 2011 में राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज हो जाने के बाद इन तीनों आरोपितों को फांसी देने के लिए नौ सितंबर 2011 का दिन तय किया गया. लेकिन अब मद्रास उच्च न्यायालय ने इसे अन्याय माना और इस पर रोक लगा दी. मामला एक बार फिर से सर्वोच्च न्यायलय में पहुंच गया. फरवरी 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह माना कि अब फांसी देना सही नहीं है क्योंकि इनकी दया याचिका को 11 साल तक लंबित रखा गया था. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन तीन आखिरी आरोपितों की भी फांसी माफ कर दी गई. इस फैसले के अगले ही दिन तमिलनाडु सरकार ने जेल में कैद सभी सात आरोपितों को रिहा करने की घोषणा भी कर दी. लेकिन केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया और यह मामला फिर से न्याय तलाशता हुआ सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया.

न्याय की किताबी परिभाषाओं से इतर यदि व्यावहारिकता देखी जाए तो न्यायालय का फैसला ही न्याय माना जाता है. इस तरह से 18 लोगों की हत्या के इस मामले में जो भी और जब भी हुआ न्याय ही हुआ है. 26 लोगों को फांसी होना भी न्याय था, 19 लोगों का बरी होना भी न्याय था, चार लोगों को फांसी होना भी न्याय था और सबकी फांसी माफ होना भी न्याय था. अब बाकी सात लोगों पर फैसला चाहे रिहाई का आए या आजीवन कारावास का, जो भी फैसला होगा वह न्याय ही होगा.