प्रमाण पत्र नहीं मज़हब

मज़हबों (धर्मों) को लोगों ने ईश्वर तक पहुँचने का प्रमाण-पत्र मान लिया है। यह बात लोगों की अपने-अपने मज़हबों में गहन आस्था से साबित होती है। मज़हबों में फँसे लोग इतने डरे हुए होते हैं कि उन्हें इस दायरे से बाहर झाँकने की हिम्मत तक नहीं होती, उन्हें पतन का डर सताता है। उन्हें लगता है कि अगर वे अपने मज़हब के दायरे से बाहर गये, तो उन्हें ईश्वर तो मिलेगा ही नहीं, उल्टा नरक (जहन्नुम) में ज़रूर जाना पड़ेगा। यह बात अधिकतर लोगों को उनके धर्मगुरु बताते हैं, अथवा इस तरह की कहानियाँ-कथाएँ सुनाकर डरा देते हैं। धर्म का रास्ता दिखाने वालों की बात मानें, तो ऐसा लगता है मानो धर्म से बाहर जाते ही आप इतने नीचे गिर जाएँगे कि फिर कोई आपको उठाने वाला मानो होगा ही नहीं। यहाँ तक कि ईश्वर भी नहीं; क्योंकि वह आपसे नाराज़ हो जाएगा। यही वे लोग हैं, जो आपको दूसरे मज़हब के लोगों के विचारों को आसपास भी नहीं भटकने देना चाहते। जो लोग इनके इशारों पर चलने लगते हैं, उन पर धीरे-धीरे कट्टरता हावी होने लगती है। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने अपने मज़हब को छोड़ा या उसकी बग़ावत की, तो वे कहीं के नहीं रहेंगे।

दरअसल यह डर बचपन से ही हर व्यक्ति के अन्दर उसके परिवार और समाज की तरफ़ से पैदा कर दिया जाता है। यही वजह है कि कोई इंसान बुद्धिमान होकर अपने मज़हब की ख़ामियाँ जानते हुए भी उसका प्रतिकार नहीं कर पाता और दूसरे किसी मज़हब की अच्छाई को स्वीकार नहीं कर पाता। लेकिन जो समझदार हैं, वे अपनी मर्ज़ी से या सोच-विचार करके ही किसी चीज़ को स्वीकार अथवा अस्वीकार करते हैं। भले ही ऐसे लोगों को उनके मज़हब के लोग, परिजन, पड़ोसी या फिर समाज के लोग कुछ भी मानें। या उनका विरोध करें।

सवाल यह है कि जो लोग यह कहते या बताते हैं कि मज़हब के बिना किसी का उद्धार नहीं है। क्या ऐसे लोग बताएँगे कि जो लोग संसार की मोहमाया छोडक़र, मज़हबों का भेदभाव भुलाकर, अच्छे-बुरे और ऊँच-नीच का भेदभाव त्यागकर कहीं दूर पहाड़ों या कंदराओं में ईश्वर की खोज में चले जाते हैं; क्या उन्हें ईश्वर नहीं मिलता होगा? और ऐसे लोग जो मज़हबी दायरों में बँटे हुए हैं। दिन-रात मज़हबों में बताये नियमों का पालन करते हैं; क्या वे आश्वस्त कर सकते हैं कि उन्हें ईश्वर मिलेगा-ही-मिलेगा? ऐसे लोग क्या यह बताएँगे कि अगर कोई पहुँचा हुआ सन्त-महात्मा-पीर-फ़क़ीर उनके सामने आ जाए, तो क्या वे उसका आशीर्वाद पाने के लिए लालायित नहीं होंगे? भले ही वह उनके मज़हब का न हो, तो भी!

कई लोगों के मन में इस समय यह सवाल उठ रहा होगा कि अगर वे अपने मज़हब को छोड़ दें, तो फिर ईश्वर को पाने का क्या उपाय है? इसका सीधा-सा उत्तर यह है- ऐसे लोगों के लिए कर्मयोग का मार्ग है। कर्मयोग अर्थात् मन और नीयत साफ़ रखो। किसी को सताओ मत। किसी का नुक़सान मत करो। ईमानदारी और मेहनत की रोटी खाओ। हो सके, तो दूसरों की मदद करो। किसी का बुरा मत करो। मन में किसी के लिए भी भेदभाव, घृणा, बैर, विद्वेष और ईष्र्या मत रखो। जब भी मन हो या समय हो निर्मल मन से सब कुछ भूलकर ईश्वर का ध्यान करो। भले ही एक सेकेंड उसे याद करो; लेकिन जब उस अनन्त का ध्यान करो, तो बाक़ी सब भुला दो। यहाँ तक कि अपने आप को भी भुला दो। वह निश्चित ही आपकी वृत्ति, ध्यान, मन, चित्त और स्मृति में प्रकाशित होता महसूस होगा और आपका मार्गदर्शन करता नज़र आएगा।

रावण ने मरते समय लक्ष्मण से कहा था कि ईश्वर को अगर पाना है, तो या तो उससे इतना प्रेम करो कि उसके अलावा कोई दूसरा आपको न दिखे। या फिर उससे इतनी नफ़रत करो कि उसे आपका वध करने के लिए स्यवं पृथ्वी पर आना पड़े। इन दोनों ही स्थितियों में तुम्हें निश्चित ही ईश्वर मिलेगा। लेकिन लोग न तो पूरी तरह संसार से मोह त्याग पाते हैं। न स्वजनों से आशक्ति, जिसे वे प्रेम समझते हैं; का त्याग कर पाते हैं। न ही ईश्वर से इतना प्रेम कर पाते हैं कि संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाएँ। और न ही कोई इतनी नफ़रत कर पाता है कि ईश्वर स्वयं उसे मारने अवतरित हो जाए। लेकिन जो लोग मज़हबों को नहीं छोडऩा चाहें, वे क्या करें? वे मज़हबों में रहें; लेकिन किसी से घृणा, भेदभाव, ईष्र्या और द्वेष न करें। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मज़हब ही उद्धार का द्वार हैं। जीव का उद्धार अथवा अनुद्धार तो उसके अंत:करण की शुद्धि-अशुद्धि और कर्मों पर निर्भर है। अगर किसी के कर्म ग़लत हैं और तन, मन व बुद्धि पापों से कलुषित हैं, तो उसे कोई भी मज़हब ईश्वर तक नहीं पहुँचा सकता। अन्त में मेरा एक दोहा है :-

मन के अन्दर ईश्वर, बाहर खोजें लोग।

ढोंग किये वो कब मिले, मिले जगाये जोग।।’