प्रतिरोध का प्रारब्ध

बात कुछ माह पहले की है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पाकिस्तान की यात्रा पर गए थे. पाकिस्तान में उनकी गतिविधियां अखबारों में छप रही थीं. वैसे नीतीश के जाने के पहले और बिहार से पाकिस्तान के लिए रवाना होते ही हवा में बात तैरने लगी थी कि बिहार की मुस्लिम राजनीति साधने वे पाकिस्तान गए हैं. मीडिया की छौंक ने इसे थोड़ा बल दिया. खबरें छपीं कि नीतीश को इस दौरे से बिहार में अपने मुस्लिम वोट बैंक के मजबूत होने की उम्मीद है और शायद यही वजह है कि वे गृह सचिव आमिर सुब्हानी और राज्य अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष नौशाद अहमद को भी साथ ले जा रहे हैं. खबरें यह भी छपीं कि नीतीश पाकिस्तान में भी बहुत लोकप्रिय हैं. फिर जिस दिन नीतीश की भारत वापसी थी उस दिन पाकिस्तान की संसद में लालू प्रसाद यादव का नाम उछल गया. वहां एक सांसद ने कहा कि पाकिस्तान में रेल की हालत खराब है और अगर यह नहीं संभल पा रही तो दुरुस्त करने के लिए लालू प्रसाद यादव को बुलाकर इसे सौंप देना चाहिए. फिर क्या था- राजद और जदयू के छुटभैये नेता आपस में भिड़ंत करने लगे. जदयू नेताओं ने कहा, ‘देखिए हमारे नीतीश पाकिस्तान में कितने लोकप्रिय हैं.’ राजद की ओर से महासचिव व राज्यसभा सांसद रामकृपाल यादव जैसे नेता बोले, ‘यह तो पता ही चल गया कि नीतीश के वहां रहते ही हमारे नेता लालू प्रसाद की जयकार हुई.’

पता नहीं पाकिस्तान में बिहार के इन दोनों दिग्गज नेताओं में कौन ज्यादा लोकप्रिय है, वहां किसकी ज्यादा मांग है, कोई मांग है भी या नहीं, लेकिन बिहार के राजनीतिक अखाड़े में इस बात पर भी बे-सिर-पैर वाली बहस संकेत देती है कि मुस्लिम राजनीति को लेकर द्वंद्व के दौर से गुजर रहे बिहार के नेता 16.5 प्रतिशत वाले गणित को जितना संभव हो अपनी ओर आकर्षित करने में लगे हुए हैं.

बिहार की राजनीति में यह 16.5 प्रतिशत वाला गणित मुस्लिम आबादी का है जिसे लेकर इन दिनों क्या नीतीश, क्या लालू, क्या भाजपा और क्या दूसरे दल, तरह-तरह के खेल खेलने की कोशिश में लगे दिखते हैं. लालू प्रसाद मुस्लिम-यादव यानी माई समीकरण को साधकर राजनीति करने वाले सबसे चतुर नेता माने जाते थे लेकिन पिछले दो चुनावों से नीतीश कुमार ने इस समीकरण को दरकाकर मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में सफलता पाई है. नीतीश ने मुस्लिमों में से भी पसमांदा राजनीति को थोड़ा खाद-पानी देकर एक बड़े हिस्से को साधा और दो चुनावों में भाजपा के साथ रहते हुए भी मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब रहे. लालू अब दुविधा में हैं कि वे क्या करें. वे जानते हैं कि अगर वे पसमांदा मुस्लिमों के पक्ष में बात करेंगे तो माना जाएगा कि वे नीतीश की नकल कर रहे हैं और यदि वे इस राजनीति को खारिज करेंगे तो एक बड़े समूह का एक बड़ा हिस्सा उनसे छिटका रह सकता है क्योंकि मुस्लिमों में भी पसमांदा समूह की आबादी करीब 80 प्रतिशत है. यह समूह अब अपने हक की बात करता है और उसके मन में यह चेतना विकसित हो चुकी है कि मुसलमानों के नाम पर अब तक हुई राजनीति का सारा फायदा अगड़े मुसलमानों को मिला. दुविधा के दौर से गुजर रहे लालू प्रसाद इसलिए बार-बार नीतीश कुमार की तुलना संघ परिवार और भाजपा की गोद में खेलने वाले बच्चे से करते हैं और जब पसमांदा का सवाल आता है तो धीरे से यह कहकर निकल जाना चाहते हैं कि मुस्लिम एक हैं.

लेकिन यह दुविधा अकेले लालू की नहीं है. नीतीश कुमार खुद भी मुस्लिम राजनीति को लेकर अपने ही बुने ताने-बाने में फंसते दिखते हैं. बिहार में नीतीश ने मुस्लिम समुदाय को सत्ता में जो हिस्सेदारी दी है उसमें से अधिकांश अब भी अगड़े मुसलमानों के हाथों में ही है. नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में दो मंत्री परवीन अमानुल्लाह और शाहीद अली खान मुस्लिम कोटे से हैं और दोनों ही अगड़े समूह से आते हैं. इसी तरह हज कमिटी का चेयरमैन भी इमारत-ए-शरिया के सचिव मौलाना अनिसुर रहमान कासमी को बनाया गया जो अगड़े समूह से ही आते हैं. और भी कई पद हैं जिन पर अगड़े मुसलमानों का ही प्रतिनिधित्व है. हालांकि इसकी भरपाई के लिए नीतीश ने दूसरे पासे भी फेंके हैं. उनकी पार्टी में राज्यसभा से दो मुस्लिम सांसद अली अनवर और साबिर अली हैं जो पिछड़े समूह से आते हैं. लेकिन जानकारों के मुताबिक यह काफी नहीं और इनका असर विधानसभा चुनावों में नहीं होगा, यह नीतीश भी जानते हैं और उनके दल के दूसरे नेता भी.

[box]नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक में हर बार नीतीश कुमार से हाथ मिलाते हुए तस्वीर खिंचवाने वाले मोदी ने इस बार नीतीश से दूरी बनाकर ही रखी[/box]

इसके लिए नीतीश कुमार ने पिछले कुछ सालों से एक तीसरा रास्ता भी तलाश लिया है. यह रास्ता है गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध का. इससे गाहे-बगाहे ऐसी स्थिति भी बनती है जिससे लगता है कि अब भाजपा-जदयू की यारी ही टूट जाएगी और नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश सच में अलग राह अपना लेंगे. अब सवाल उठता है कि क्या नीतीश कुमार को यह भरोसा है कि यदि वे नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा से अलग होने तक का दांव खेलें तो वे मुस्लिम राजनीति को पूरी तरह साध लेने में सफल हो जाएंगे. और यह भी कि भाजपा से अलग होने पर उनका जो नुकसान होगा उसकी भरपाई उनके इस दांव से हो जाएगी?

यह खुद नीतीश कुमार और उनके संगी-साथी भी जानते हैं कि यह इतना आसान नहीं कि सिर्फ मोदी के नाम पर भाजपा से कुट्टी कर लेने से पूरा मुस्लिम मत उनके पाले में आ जाए. इसकी वजह यह है कि तमाम विडंबनाओं के बावजूद लालू प्रसाद मुस्लिमों के एक हिस्से के लिए संभावनाओं का केंद्र बने हुए हैं. तो सवाल उठता है कि आखिर क्यों नीतीश कुमार अपने ही राजनीतिक समूह के एक नेता नरेंद्र मोदी से इस कदर भड़के नजर आते हैं. क्यों वे उनके नाम पर भाजपा से नाता तोड़ देने तक का संकेत बार-बार देते रहते हैं? क्या इसलिए कि मोदी पर गुजरात दंगे का दाग है? अगर एक बड़ी वजह यह है तो नीतीश कुमार का यह तर्क सबको सीधे-सीधे हजम नहीं होता. नीतीश कुमार के संगी साथी प्रेम कुमार मणि समेत कई नेता पूछते हैं कि जब गुजरात दंगा हुआ था तो केंद्र में नीतीश कुमार ही रेल मंत्री थे. गुजरात का दंगा रेल के जरिए ही भड़का था. लेकिन तब नीतीश कुमार न तो गुजरात झांकने गए थे और न ही उन्होंने खुलकर नरेंद्र मोदी की आलोचना की थी. कुछ लोग यह भी पूछते हैं कि यदि मोदी ने एक बार भी गुजरात दंगों के लिए आज तक माफी भी नहीं मांगी तो नीतीश कुमार भी क्यों उसी राह के राही बने.

2011 में फारबिसगंज में पुलिस फायरिंग में पांच अल्पसंख्यकों के मारे जाने की घटना के बाद वे भी एक बार भी वहां झांकने तक नहीं गए और न कभी किसी ठोस कार्रवाई की कोशिश करते हुए दिखे. वरिष्ठ पत्रकार सरूर अली कहते हैं, ‘ नीतीश  को न तो भाजपा से परहेज रहा है, न ही उन्हें अकाली दल, शिव सेना जैसे दलों के साथ गठबंधन बनाने में कभी कोई हिचक रही है और वे खुद को धर्मनिरपेक्ष नेता भी बनाए रखने की जिद में लगे हुए हैं, यह बात किसे समझ में नहीं आती.’ नीतीश कुमार जब-जब नरेंद्र मोदी का विरोध करते हैं, एक खेमे से ये सवाल उठते हैं और जवाब जदयू के नेता भी नहीं दे पाते.

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तब सवाल घूम-फिरकर फिर वहीं आ जाता है कि आखिर क्यों नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को राजनीतिक तौर पर दुश्मन नंबर एक बनाए रखना चाहते हैं. नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की समानता गिनाते हुए पूर्व सांसद व वरिष्ठ समाजवादी नेता डॉ रामजी सिंह कहते हैं, ‘दोनों पिछड़े वर्ग से आते हैं, दोनों राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की छतरी तले ही राजनीति कर रहे हैं, दोनों अपने-अपने राज्य में विकास पुरुष के रूप में जाने जाते हैं. फिर क्यों दोनों में इस कदर दूरी बरतने की राजनीति होती है, समझ में नहीं आता.’

दूरी बरतने की राजनीति पर जो बात डॉ रामजी सिंह कहते हैं लोग उसका नमूना बार-बार देख चुके हैं. चुनाव प्रचार के लिए भी नरेंद्र मोदी को बिहार न आने देने की जिद, नरेंद्र मोदी के साथ वाला पोस्टर लगने पर भाजपा नेताओं के साथ प्रस्तावित भोज टाल देना या कोसी राहत कोष में गुजरात से मिले पैसे को लौटा देने वाली बात तो पुरानी हो चली है. हाल ही में जब नरेंद्र मोदी गुजरात में फिर से विजयी हुए तो देश भर के नेताओं ने औपचारिकता निभाते हुए उन्हें शुभकामनाएं दीं, लेकिन नीतीश कुमार ने खुद को इस औपचारिकता से दूर रखा. हालांकि इसका बदला मोदी ने भी लगे हाथ ही लिया. बीते महीने जब दिल्ली में नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक हुई तो नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों ही वहां पहुंचे, लेकिन हर बार नीतीश कुमार से हाथ मिलाते हुए तसवीर खिंचवाने वाले नरेंद्र मोदी ने इस बार उनसे दूरी बनाकर ही रखी. बात यहीं खत्म नहीं हुई. जब नीतीश ने बहुत पहले से ही 17 मार्च को दिल्ली में अधिकार रैली की घोषणा कर रखी थी तो मोदी ने भी उसी रोज मुंबई में युवाओं की एक रैली रख दी है. जानकार बताते हैं कि यह मीडिया स्पेस मारने की कोशिश है. मोदी मीडिया के लिए ज्यादा आकर्षण का केंद्र होते हैं. जाहिर-सी बात है कि जब दोनों नेताओं का संबोधन एक ही दिन, दो बड़े शहरों में होगा तो एक हद तक मीडिया में कवरेज से भी तय होगा कि राजनीतिक हस्ती के तौर पर किसका वजन ज्यादा है. हालांकि खबर लिखे जाने तक मोदी की मुंबई रैली रद्द हो चुकी थी. इसके पीछे की वजह बताई गई कि महाराष्ट्र सूखे की चपेट में है इसलिए पार्टी ने रैली रद्द करने का फैसला लिया गया है. लेकिन खबरें आईं कि नीतीश ने इसके लिए आग्रह किया था ताकि जदयू की रैली का रंग फीका न पड़े.

बिहार में नीतीश कुमार सबसे बड़े नेता हैं इसमें संदेह नहीं, लेकिन हालिया दिनों में या यूं कहें कि वर्तमान सरकार की दूसरी पारी में जब से भाजपा पहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरी है तब से नरेंद्र मोदी की उपस्थिति भी राज्य में तेजी से बढ़ती जा रही है. कुछ माह पहले वे वरिष्ठ भाजपाई नेता कैलाशपति मिश्र की मृत्यु के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने बिहार आए थे और उस मातमी माहौल में भी कुछ भाजपाइयों ने नारे लगा दिये थे कि देश का पीएम कैसा हो, नरेंद्र मोदी जैसा हो…! शोकपूर्ण आयोजन में कुछ भाजपाई नेताओं द्वारा छेड़े गए इस राग को खुराफाती मगज की उपज माना गया. लेकिन बिहार में रहने वाले लोग जानते हैं कि बिहार में कुछ भाजपाई नेताओं द्वारा नरेंद्र मोदी की जय-जयकार यदि खुराफाती मगज की उपज भर है तो इसे बार-बार दुहराया जा रहा है. और जो दुहराते रहे हैं वे सरकार में मजबूती से मंत्री के ओहदे के साथ विराजमान भी हैं. इससे साफ होता है कि यह सब भाजपा बहुत ही सोच-समझकर कर रही है.

नरेंद्र मोदी की उपस्थिति कुछ भाजपाई नेताओं की बयानबाजी के जरिए ही बिहार में नहीं दिखती बल्कि अब तो राजधानी पटना की सड़कों पर मोदी के पोस्टर भी मौके-बेमौके लगाए जाने लगे हैं. इस बार तो मोदी का जन्मदिन भी बिहार में सार्वजनिक समारोह करके मनाया गया. अब यह भी कहा जा रहा है कि अप्रैल में पटना में भाजपा की ओर से प्रस्तावित हुंकार रैली में भी मोदी आएंगे. हालांकि कुछ माह पहले जब बिहार में डॉ सीपी ठाकुर को हटाकर मंगल पांडेय को भाजपा अध्यक्ष के पद पर बिठाया गया तो कयास लगे कि इसमें नीतीश कुमार की भी भूमिका रही है, क्योंकि भाजपा अध्यक्ष रहते हुए ठाकुर जब-तब नीतीश पर वाक्प्रहार  करते रहते थे. और मोदी का गुणगान तो वे नियमित तौर पर करते ही रहते थे. राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव कहते हैं, ‘नीतीश ने ही बदलवाया है भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को ताकि मोदी-मोदी का जाप न होता रहे. लेकिन एक मोदी से बचकर और संघ परिवार की गोदी में बैठकर नीतीश कुमार दोहरी राजनीति कर रहे हैं.’

कुछ लोग कह सकते हैं कि लालू प्रसाद यह बात विरोधी राजनीति के तहत कह रहे हैं, लेकिन इसमें एक हद तक सच्चाई भी है. जब से नीतीश नरेंद्र मोदी से नफरत की राजनीति कर रहे हैं तब से समानांतर रूप से संघ परिवार की बिहार में गतिविधियां भी बढ़ती जा रही हैं. जानकारों के मुताबिक भाजपा भी शातिर चाल चलते हुए नीतीश के दांव से ही उन्हें मात देने की तैयारी में लगी हुई है. छोटी-मोटी और जिला स्तरीय गतिविधियों को छोड़ भी दें तो संघ परिवार के कुछ बड़े और चर्चित आयोजन भी पिछले कुछ साल में बिहार में ही हुए. नागरिक अभिनंदन के तहत पटना के गांधी मैदान में संघ का बड़ा आयोजन हो चुका है. बीते साल राजगीर में संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो चुकी है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का 58वां राष्ट्रीय अधिवेशन भी पटना में ही हुआ. सिमरिया में अर्धकुंभ कराने में संघ परिवार की ही परोक्ष भूमिका रही. पिछले ही साल पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के सभागार में तीन दिन तक सांस्कृतिक सम्मेलन के नाम पर अशोक सिंघल, उमा भारती, सुब्रमण्यम स्वामी जैसे दिग्गज नेताओं की मौजूदगी में नरेंद्रानंद जैसे संत पहुंचे और खुलेआम सांप्रदायिक और भड़काऊ भाषण देते रहे. कुछ समय पहले सूर्य नमस्कार का आयोजन भी पटना में डंके की चोट पर हुआ, जिस पर बाद में नीतीश कुमार यह दिखाने की कोशिश में लगे रहे कि इसकी जानकारी उन्हें नहीं थी. ऐसे ही कई आयोजन संघ परिवार की ओर से निरंतर बिहार में हो रहे हैं और यह सब जानते हैं कि यह सब छिप-छिपाकर नहीं बल्कि सरेआम हो रहा है.

[box]पसमांदा मुस्लिमों के एक बड़े हिस्से को साधकर नीतीश दो चुनावों में भाजपा के साथ रहते हुए भी मुस्लिम मतदाताओं को खींचने में कामयाब रहे[/box]

यानी नीतीश कुमार भले ही नरेंद्र मोदी से परहेज करें लेकिन संघ परिवार की इन गतिविधियों से उन्हें कोई  परहेज नहीं. नीतीश के पुराने संगी रहे और पूर्व चर्चित सांसद डॉ एजाज अली कहते हैं, ‘भाजपा के साथ रहेंगे और कहेंगे  कि वे धर्मनिरपेक्ष हैं तो यह कैसे मानें. अब मुसलमान उनके साथ इतनी आसानी से नहीं जाने वाले. मसला एक मोदी का नहीं बल्कि और भी कई हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘संघ परिवार की इकाइयों को अपने आयोजन करने की छूट देकर उसकी भरपाई करने के लिए नीतीश इन दिनों खानकाहों (मुसलमान फकीरों या धर्म-प्रचारकों के ठहरने या रहने का स्थान) पर चादरपोशी करने और दरियादिली के साथ उन्हें पैसा बांटने में लगे हुए हैं. लेकिन इसके पीछे की सच्चाई सब जानने लगे हैं.’

यह सच भी है. नीतीश कुमार अलग-अलग तरीके से बिहार की मुस्लिम राजनीति को साधे रहने की जुगत में लगे हुए हैं जिनमें से एक प्रमुख अभियान नरेंद्र मोदी का विरोध है. लेकिन अब इस एक जरिए से पूरी राजनीति को साधना इतना आसान नहीं रह गया है. नीतीश, मोदी का जितना विरोध कर रहे हैं, मोदी बिहार के गैर मुस्लिम समूह में उतनी ही तेजी से मजबूत होते दिख रहे हैं. जानकारों के मुताबिक परोक्ष तौर पर ही सही, भाजपा इस तैयारी में भी है कि नरेंद्र मोदी को वह बार-बार पिछड़े-अतिपिछड़े समूह का नेता बनाकर भी पेश करे.

उधर, सस्ती लोकप्रियता की इस राजनीति के बीच बिहार के मुसलमानों के अपने सवाल हैं जिनके जवाब वे चाहते हैं. पसमांदा मुस्लिम महाज के महासचिव नूर हसन आजाद कहते हैं, ‘बिहार के मुस्लिम सिर्फ नरेंद्र मोदी के फेरे में फंसे हुए नहीं हैं. वे जानना चाहते हैं कि जिस बिहार में करीब सवा लाख करघे चला करते थे, उसमें अब 17 हजार ही क्यों चालू हालत में रह गए हैं. इस पेशे से सबसे ज्यादा तो मुसलमान ही जुड़े हुए थे. करघों के लिए जो सस्ती बिजली दिये जाने का वादा था वह क्यों पूरा नहीं हुआ. क्यों बच्चे-बच्चियों को प्रशिक्षित करने के लिए शुरू हुईं हुनर, औजार जैसी योजनाओं की दुर्गति हो रही है? मकतब खोले जाने का प्रस्ताव था, वह क्यों गति नहीं पकड़ पा रहा? कई जगहों पर मुस्लिमों की हत्या हो रही है. उस पर सरकार कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं कर रही? क्यों दरभंगा, मधुबनी से निर्दोष नौजवानों को आतंकवाद के नाम पर पकड़कर ले जाए जाने पर भी नीतीश वैसी उफानी राजनीति नहीं करते जैसी दूसरे मसलों पर करते हैं.’

नूर हसन ऐसे ही कई सवाल करते हैं. ये सवाल बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के विरोध की जो राजनीति नीतीश परवान चढ़ाने में लगे हुए हैं, वह शायद उनके लिए कारगर फॉर्मूला साबित न हो. मुस्लिम रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ फिरोज मंसूरी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी का विरोध कर दिखावे की राजनीति करते हैं लेकिन उनके राज में मुसलमानों की जान, जबान और नान, तीनों पर हमला बढ़ा है. फारबिसगंज से लेकर तमाम घटनाएं इसकी गवाही दे चुकी हैं. उनकी नई नीति की वजह से उर्दू शिक्षकों का पद खाली रह गया.’ सामाजिक कार्यकर्ता नैयर फातमी के मुताबिक कुछ समय तक तो बिहार के मुसलमानों को मुगालता रहा कि नीतीश कुमार सच में नरेंद्र मोदी और सांप्रदायिक राजनीति के विरोधी हैं लेकिन अब वह दूर हो गया है. वे कहते हैं, ‘नीतिगत स्तर पर भाजपा से ही शिकायत है तो उसके साथ सत्ता में रहकर और उसी दौरान मोदी विरोध की राजनीति कर वे क्या कहना चाहते हैं, समझ नहीं आता.’ उर्दू के प्राध्यापक प्रो. सफदर इमाम कहते हैं कि मुसलमान को सामाजिक-आर्थिक विकास में हिस्सेदारी चाहिए, लेकिन नीतीश कुमार के राज में मुसलमानों के साथ लोकप्रिय राजनीति की कवायद ज्यादा हो रही है.’ पटना में मोटरसाइकिल मैकेनिक व कारोबारी अब्दुल रशीद भी कुछ ऐसी ही राय रखते हैं. संकेत साफ है कि सिर्फ मोदी विरोध का कार्ड खेलकर नीतीश मुस्लिम वोटों के प्रति आश्वस्त नहीं हो सकते. बल्कि हो सकता है इससे उन्हें नुकसान ही हो जाए. पत्रकार सरूर अहमद कहते हैं, ‘मोदी विरोध से नीतीश का अपना भला हो न हो, भाजपा के पक्ष में गैर-मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण तेजी से होगा.’

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