प्रकृति की ओर लौटते लोग

कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए देश में लगा लॉकडाउन मई में भले ही खत्म हो जाए, लेकिन यह लॉकडाउन देश में कई बड़े बदलाव कर जाएगा। यह ऐसे बदलाव हैं, जो लोगों को बहुत पहले ही कर लेने चाहिए थे, लेकिन स्वार्थवश किसी ने नहीं किये। अब जब कोरोना वायरस के भय से लोग घरों में दुबकने को मजबूर हो गये हैं, तब उनकी सोच में भी काफी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। ऐसे ही तमाम बदलावों पर तहलका ने विचार किया है, जो हो रहे हैं या होने की सम्भावना है। जानिए, कौन-कौन से हैं ये बदलाव :-

बदलाव प्रकृति में ही नहीं, बल्कि मानव की प्रवृत्ति में भी निहित है। कई बार इंसान समय की माँग को देखते हुए बदलाव करता है, तो कई बार उसे विपरीत परिस्थतियों के आगे मजबूर होकर बदलाव करना पड़ता है। इस बार भी कोरोना वायरस के भयंकर प्रकोप के चलते लोग जीवन मूल्यों को बदलने के लिए विवश होते दिख रहे हैं। घरों में रहने को मजबूर लोग इसे प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम मानकर परम्परागत जीवन मूल्यों से जुडऩे पर अब चर्चा करने लगे हैं। कुछ लोग सामान्य ग्रामीण जीवन की ओर लौट भी रहे हैं। इससे जीवन साधारण सही, पर सम्भव है कुछ सुरक्षित हो सके।

प्रकृति से जुडऩे में ही फायदा

कोरोना वायरस के भय से लोगों में यह संदेश गया है कि प्रकृति से छेड़छाड़ और उसके उजाड़ से आिखरकार मानव समाज को ही इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। इसलिए अगर जीवन चाहिए, तो प्रकृति से जुड़कर रहना होगा। ग्रामीण क्षेत्र में लौटना पड़ेगा। लोग ऐसा कर भी रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि रोज़ी-रोटी के लिए पिछले दिनों दूर-दराज से दूसरे राज्यों और शहरों में बसे अधिकतर लोग अपने घरों की ओर पलायन कर चुके हैं और अब शहर आना नहीं चाहते। लॉकडाउन से पहले ही दिल्ली से अपने गाँव लौट चुके रवि चौहान कहते हैं कि उन्होंने बहुत अच्छा किया, नहीं तो वह बुरी तरह फँस जाते। फिलहाल तो वह अपने घर पर आराम से हैं। हालाँकि घर पर सिवाय खेती-बाड़ी के पैसा कमाने के बहुत अच्छे संसाधन नहीं हैं, लेकिन वे सुरक्षित हैं। जीवन रहेगा, तभी कुछ कर पाएँगे। अगर सब सही रहा, तो शहर में फिर नौकरी कर लेंगे। मगर यहाँ खेतों में भी काम है। इसलिए उनके पास कुछ तो काम है ही।

इसी तरह विनायक राजहंस, जो कभी मीडिया संस्थान में नौकरी करते थे; अब गाँव में जाकर बस गये हैं। विनायक आजकल फेसबुक पर ‘प्रकृति की ओर लौटो’ नाम से एक कॉलम भी लिख रहे हैं, जिसका उद्देश्य लोगों को यही बताना है कि प्रकृति की सुरक्षा में ही मनुष्य की सुरक्षा निहित है।

यहाँ बताना ज़रूरी हैं कि पिछले डेढ़ दशक से आधुनिक जीवनशैली छोड़कर कई विदेशी जंगलों में आदिवासियों की तरह जीवन जी रहे हैं। इन लोगों के बारे में पिछले समय से काफी चर्चा भी रही है। ये सभी लोग अच्छे-खासे पैसे वाले हैं, लेकिन जंगल में रहते हैं और मोबाइल फोन आदि का इस्तेमाल भी नहीं करते। इनका कहना है कि अगर इंसानों को बचना है, तो प्रकृति से जुड़कर आदिवासियों की तरह रहना होगा।

शहर नहीं लौटना चाहते कई श्रमिक

जो लोग लॉकडाउन के समय में परेशानी उठाकर अपने-अपने घरों को लौटे हैं, उनमें बहुत-से लोग अब शहरों की ओर लौटना नहीं चाहते। इनमें अधिकतर लोग ऐसे हैं, तो अब शहरों में आने से साफ-साफ मना कर रहे हैं। हरियाणा की एक कम्पनी में नौकरी करने वाले देवेंद्र कुमार और उनके तीन साथी लॉकडाउन के बाद मकान मालिक द्वारा निकाल दिये गये। ऐसे में ये लोग अपने घर (उत्तर प्रदेश) लौटने को मजबूर थे। इन लोगों ने जब घर जाना चाहा, तो रास्ते में पुलिसकर्मियों से पिटाई भी खायी और भूखे-प्यासे खेत-खलियानों से होकर करीब साढ़े चार सौ-पाँच सौ किलोमीटर पैदल चले, जिसमें इन लोगों को पाँच दिन से अधिक का समय लगा। जान जोखिम में डालकर अपने घर लौटने वाले ये लोग बताते हैं कि जीवन का सबसे बुरा वक्त उन्होंने देखा। मन में कई बार आ रहा था कि अब ज़िन्दा नहीं पहुँच पाएँगे, पर हम लोगों ने हिम्मत नहीं हारी और चलते रहे। सड़क पर चले, तो पुलिस ने पीटा। इसलिए खेतों और रेल की पटरियों को रास्ता बनाया।

देवेंद्र ने बताया कि वे चार साथी थे और उन्हें रास्ते में तीन लोग उनके क्षेत्र के और मिल गये थे, जिससे उनकी हिम्मत बँधी रही और वे छटे दिन अपने घर पहुँचे। उन्होंने बताया कि घर पहुँचकर वे बेहोश हो गये थे और फिर कई दिन बीमार रहे। उनके पैर भी सूज गये थे।

लॉकडाउन खुलने के बाद वापस नौकरी पर लौटने के बारे में पूछने पर देवेंद्र कहते हैं कि अब वह कभी नौकरी करने बाहर नहीं जाएँगे, भले ही उनका जीवन अभावों में गुज़र जाए। देवेंद्र कहते हैं कि अगर उनकी मृत्यु हो जाती, तो उनके बूढ़े माँ-बाप और बच्चे तो जीते-जी मर जाते।

घरवापसी को उताबले हैं शहरों में फँसे लोग

रोज़गार के लिए अनगिनत लोग अपना गाँव, कस्बा या शहर ही नहीं, बल्कि राज्य तक छोड़ देते हैं। दिल्ली में ऐसे लोगों की भरमार है, जो दूसरे राज्यों से आकर यहाँ रहते हैं। शिवा भी दिल्ली में रहते हैं और आजकल लॉकडाउन के चलते यहीं फँसे हुए हैं। शिवा कहते हैं कि लॉकडाउन खुलते ही वे अपने घर चले जाएँगे। घर पर उनके छोटे भाई-बहिन और माता-पिता हैं। इसलिए वे अपनी ज़िन्दगी खतरे में नहीं डाल सकते। वहीं बिहार के रहने वाले सतीश पाण्डेय कहते हैं कि अब वह अपने शहर में ही नौकरी करेंगे, भले ही पैसा कम मिले। अब वह इतनी दूर नहीं रहेंगे। अगर उन्हें अपने शहर में नौकरी नहीं भी मिली, तो अपना ही कोई छोटा-मोटा काम करेंगे। लेकिन अब घर जाएँगे, तो दिल्ली नहीं आएँगे। यहाँ पर अगर उन्हें कुछ हो जाए, तो कौन देखेगा? ऐसे ही अनेक लोग हैं, जो दिल्ली में छोटे-मोटे धन्धे करते थे; अब अपने गाँव लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं। मयूर विहार फेस-3 में किराये पर रहने वाला राजा नाम का एक युवक मोमोज बेचने का कार्य करता था।

लॉकडाउन के बाद से घर पर बैठा है। राजा का कहना है कि अब जल्दी से उसका काम नहीं चलने वाला, इसलिए लॉकडाउन खुलते ही वह गाँव चला जाएगा। क्योंकि यहाँ मकान का किराया देने के अलावा उसे खोमचा लगाने की जगह का किराया और एक लड़के को वेतन देना होता है। अब उसका काम चौपट पड़ा है, ऐसे में मकान का किराया और नौकरी पर साथ रखे लड़के का खर्चा उसे ही भरना पड़ता है, जिसे वह बहुत दिनों तक वहन नहीं कर सकता। इससे तो अच्छा है कि गाँव में जाकर रहे और वहीं कुछ करे।

शहरों में बढ़ेगी दिक्कत

बाहर के शहरों में काम करने वाले करोड़ों लोग लॉकडाउन परेशान तो हैं ही, कोरोना वायरस से भी भयभीत हैं। लोगों में इस भय और भूखों मरने की स्थिति ने उन्हें अपने-अपने घर लौटने को मजबूर कर दिया है। लाखों लोग पलायन कर भी चुके हैं और लाखों लोग लॉकडाउन खुलने का इंतज़ार कर रहे हैं। इन लोगों में अधिकरतर मज़दूर और छोटे-मोटे काम करने वाले लोग हैं। हालाँकि केंद्र सरकार ने ‘जो जहाँ है, वहीं रहे’ वाली नीति अपनाते हुए लोगों को एक राज्य से दूसरे राज्य न जाने की हिदायत दी है। लेकिन जो लोग किसी भी कीमत पर अपने घरों को लौटना चाहते हैं, उन्हें रोकना इतना आसान भी नहीं होगा।

ऐसे में यह साफ है कि आने वाले समय में बड़े शहरों, खासकर दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों में मज़दूरों और छोटे-मोटे काम करने वालों की भारी तादाद में कमी होने वाली है। इससे इन शहरों की चरमरायी आॢथक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩा तय है। क्योंकि अधिकतर संस्थानों को चलाने में श्रमिक वर्ग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इतना ही नहीं शहरों में फल-सब्ज़ी बेचने से लेकर अन्य छोटे-मोटे स्वरोज़गार करने वाले भी पलायन कर जाएँगे, तो न केवल दैनिक उपभोग की वस्तुएँ कम मिलेंगी, बल्कि महँगी भी बिकेंगी।

नौकरों पर निर्भरता में आयी कमी

अगर आपके घर नियमित काम करने वाला नौकर किसी दिन नहीं आये, तो सम्भव है कि आप खुद ही अपना काम करने को मजबूर होंगे। लेकिन यदि वह कभी न आये और उस समय आपको दूसरा नौकर न मिले, तब तो आपको अपना काम करना ही पड़ेगा; खासतौर पर वह काम, जिसे न करने पर आपको नुकसान उठाना पड़े। लॉकडाउन के बाद ऐसा देखने को मिल रहा है।

अनेक लोग, जिनके घरों में आया (मेड), चपरासी, सफाईकर्मी नियमित आते थे; अब नहीं आ पा रहे हैं। ऐसे में लोग खुद अपना काम कर रहे हैं। घरों के कार्य ही नहीं, व्यासायिक कार्य भी बहुत-से लोगों को अब खुद करने पड़ रहे हैं। बड़े किसानों के साथ भी यही हो रहा है। यह बात अच्छी भी है, क्योंकि हर राज्य के बड़े किसान, खासकर पंजाब के तकरीबन 80 फीसदी किसान खुद से काम नहीं करते थे। दरअसल, बड़े स्तर पर खेती-बाड़ी होने के चलते इन किसानों को मज़दूरों और बँटाईदारों पर निर्भर रहने की आदत रही है। इन मज़दूरों में कुछ तो नौकरी पर रख लिये जाते हैं, लेकिन अधिकतर मज़दूर फसल पकने और जुताई, बुआई, निकाई-गुड़ाई करने के दौरान दिहाड़ी मज़दूरी पर बुलाने पड़ते हैं। लेकिन इस बार रबी की फसलें कटने के दौरान ही लॉकडाउन हो गया।

लॉकडाउन के चलते बड़े किसानों को मज़दूर नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में कई बड़े किसानों ने अपना काम खुद ही करना शुरू कर दिया है। एक समय था जब पंजाब के किसान अपने हाथ से खेती करते थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सिख परिवारों के अधिकतर लोग या तो विदेश चले गये या कोई व्यवसाय करने लगे या सरकारी नौकरियाँ करने लगे। ऐसे में घर में संख्या कम होने के चलते बचे हुए लोग खेती मज़दूरों से करवाने लगे। इन मज़दूरों में 90 फीसदी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और दूसरे राज्यों के होते हैं। ये वे मज़दूर हैं, जो काम के समय ही पंजाब और दूसरे राज्यों में जाते हैं और ठीकठाक पैसा कमाकर अपने राज्यों को लौट जाते हैं। इस बार लॉकडाउन के चलते उनका काम पर लौटना नामुमकिन ही है, ऐसे में बड़े किसान, खासकर सिख खेती का काम खुद ही करने लगे हैं।