प्याज की बढ़ती कीमतों के पीछे का खेल

प्याज की कीमतों में हालिया बढ़ोतरी साथ ही सरकारी संस्थानों की ओर से आयी प्रतिक्रियाओं अर्थ-व्यस्था और कारोबार पर मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य में पड़ताल करने की ज़रूरत है। देश के जानकार लोग समझते हैं कि प्याज की कमी अचानक नहीं आयी है। सितंबर से नवंबर के बीच हुई ज़ोरदार बारिश से देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक राज्य महाराष्ट्र के प्याज के खेतों में पानी भर जाने से फसल को बहुत नुकसान हुआ। इसलिए महाराष्ट्र भर की अनाज मंडियों में प्याज की फसल (खरीफ) की पैदावार कम होने के संकेत मिले और इसमें कमी आयी।

विडंबना यह है कि इसी दौरान विपरीत विचारधारा वाले राजनीतिक दलों की महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व के गठबंधन और परिणामों के बाद अपने अपना गणित बैठाने में लगे रहे। अगर प्याज की खरीद और वितरण की योजना उसी समय बनाते और इसमें अधिक ध्यान देते इससे फसल पैदावार करने वालों की आजीविका बच जाती साथ ही प्याज के दाम भी आसमान नहीं छूते। शहरी लोगों को सस्ती प्याज खरीदने के लिए पर्याप्त समय मिला और बहुत से लोगों को यह पता भी था कि आने वाले समय में प्याज की िकल्लत हो सकती है, जिससे इसके दामों में इज़ाफा मुमकिन है। दुर्भाग्य से, आम आदमी की चिन्ता वास्तविक मुद्दे पर यह होनी चाहिए कि किस तरह से उत्पादक के साथ ही उपभोक्ताओं को भी सरकारों की ओर से संकट में डाल दिया गया है।

राजनीतिक दल चुनावी घोषणा-पत्र में किसानों के कल्याण के लिए लम्बे दावे करते हैं। न्यूनतम आय, किसानों का कर्ज़ माफ करना और बेहतर पारिश्रमिक का वादा हर दलों द्वारा किया जाता है। किसानों की समस्याओं के स्थायी समाधान को शामिल करने के लिए, किसी भी राजनीतिक दल ने उपाय नहीं किये हैं। वर्तमान परिदृश्य में देखें तो महाराष्ट्र के अधिकांश किसान, जिनकी फसलों को नुकसान हुआ था, उन्होंने कई सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों से कर्ज़ लिया हुआ था। सरकार के ही अनुमान के अनुसार, प्याज की खरीफ की फसल 30-40 प्रतिशत खराब हो गयी। वास्तविक नुकसान इससे भी •यादा हो सकता है; क्योंकि सरकारी सर्वेक्षण में अपनायी जाने वाली कार्यप्रणाली में ऐसे किसान छूट जाते हैं, जो सरकार की एजेंसियों के तय मापदंडों में फिट नहीं बैठते हैं।

महाराष्ट्र में एक छोटा किसान भी 12 हज़ार से 18 हज़ार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से पट्टा लेता है और इसमें सिंचाई का खर्च भी अलग हो सकता है। चूँकि पट्टे के पैसे का भुगतान अग्रिम करना होता है। इसलिए एजेंटों को कमीशन भी देना पड़ता है। अगर 25-30 प्रतिशत ही फसल खराब हो गयी, तो किसान कर्ज़ की भरपाई उस फसल की पैदावार से नहीं कर सकता है। किसान फसल के खराब हो जाने के बाद जो कर्ज़ भरते हैं, तो कभी-कभी ब्याज की राशि मूल राशि से भी •यादा हो जाती है। फसल के नुकसान के कारण अन्य मौसम के बाद एक बार कर्ज़ जमा करते हैं और कभी-कभी ब्याज का बोझ मूल राशि से अधिक हो जाता है।

कुछ राज्यों में किसान कर्ज़ माफी की घोषणा सरकारें करती हैं पर इसका फायदा पहुँचने वालों की संख्या सीमित रहती है। कर्ज़ माफी के नाम पर खर्च की जाने वाली राशि को सिंचाई नेटवर्क और फसल कटाई के बाद के ज़रूरी ढाँचे के तौर पर लगाया जाना चाहिए। मसलन, इस साल प्याज के मामले को लें जहाँ पर इसकी फसल खराब हो जाने से कटाई के बाद वहाँ पर किसान के पास कुछ पैदावारी का विकल्प नहीं रहता। कम पानी के चलते फसल की कमज़ोर पैदावार या फिर बहुत •यादा पानी भर जाने के कारण पैदा होने वाली फसल को खरीद एजेंसियाँ लेने से इन्कार कर देती हैं। ऐसे मामले में किसान सिर पर हाथ रखकर विलाप करने को मजबूर होता है। नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे कृषि कार्यों से जुड़े लोगों के कृयाण के लिए ऐसी व्यवस्था बनाएँ, ताकि इस तरह की स्थिति में अच्छे से निपटा जा सके।

तहलका से बात करते हुए महाराष्ट्र के किसान और शेतकारी संगठन के पूर्व अध्यक्ष गुनवंत पाटिल ने कहा कि सरकार या तो फसल बचाने के लिए काम करे या फिर बाज़ार से भी एकदम अलग हो जाए। शहरी उपभोक्ताओं के विरोध की आशंका के बीच सरकार किसानों के मामले में लूट-खसोट की तरह खेलती है। ‘जब कीमत में गिरावट होती है, तो किसानों को भारी नुकसान होता है। लेकिन सरकार उस वक्त चुप बैठी रहती है। ठीक इसके विपरीत जब इनके दाम आसमान छूने लगते हैं, तो सरकार वहीं ची•ों विदेशों से खरीदकर बाज़ार को मुहैया कराती है। हर कोई जानता है इसमें बिचौलिया कमायी करता है, जो किसी को भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। किसानों के लिए कोई अतिरिक्त कमायी का साधन नहीं है। अपनी प्रति एकड़ लागत को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं, भले ही हमें अपेक्षाकृत अधिक कीमत मिले; क्योंकि पैदावार ही कम हुई है। हमारी फसल को ग्रेडिंग और छँटाई के बाद खरीदा जाता है और अधिक नमी के कारण खरीदार लेने से इन्कार कर देते हैं। इस प्रकार हमारी प्रति एकड़ आय कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा निर्धारित औसत आय से भी काफी कम रहती है। अगर मौसम की मार से फसल प्रभावित होती है, तो ऐसा लग सकता है कि किसान प्रति किलोग्राम पैदावार के हिसाब से नुकसान झेलता है।’

वर्तमान के जो हालात हैं, वे माँग और आपूर्ति के अनुकूल नहीं है। महाराष्ट्र के किसान पछले 80 साल से इससे जूझ रहे हैं। हमारे विरोध के बाद समस्या पर बात हो रही है और राजनीतिक दलों ने प्याज की कीमतों के चलते सत्ता तक खो दी है; लेकन इस सबके बावजूद किसी ने दीर्घकालीन समाधान खोजने और उनके लागू करने के प्रयासों पर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया है। किसान एक उत्पादक है; लेकिन वह बाज़ार के खेल से वािकफ नहीं है। उसे भविष्य में उसकी कीमत के रुझानों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है। प्याज रखे रहने से खराब हो जाती है, इसलिए उनको बाज़ार में बेचना उनकी मजबूरी भी होती है; क्योंकि भंडारण के लिए उनके पास गोदाम जैसी व्यवस्था नहीं होती है।

उत्तर प्रदेश के भारतीय किसान यूनियन के एक वरिष्ठ नेता धर्मेंद्र मलिक के अनुसार, कीमतों में अचानक तेज़ी आ जाने से व्यापारी वर्ग को ही फायदा होता है। उन्होंने कहा कि वस्तुओं की ऑन-लाइन ट्रेडिंग की शुरुआत ने मूल्य निर्धारण तंत्र को परेशानी में डाल दिया है। चूँकि कमोडिटी अधिनियम में वस्तुओं की डिलीवरी अनिवार्य नहीं है, वर्चुअल लेन-देन किसानों के संकट को बढ़ा दिया है। ऑनलाइन ट्रेडिंग से बाज़ार में कृत्रिम चीज़ों की भरमार से इसकी दरों में व्यापक बदलाव दिखता है। आगे ऐसी ट्रेडिंग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए; क्योंकि चीज़ों की कीमतों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। किसानों के संकट के पीछे भारतीय कमोडिटी बाज़ार की अनियमितता को •िाम्मेदार कहा जा सकता है। दुनिया के अन्य हिस्सों में सरकार द्वारा तय न्यूनतम मूल्य पर निश्चित प्रीमियम तय करके ही व्यापारी को दिया जाता है। लेकिन हमारे देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय है, साथ ही उसी दौरान बाज़ार में वही चीज़ क्या भाव बिक रही, इसकी जाँच करने की व्यवस्था नहीं है।  उन्होंने कहा कि व्यापारियों को होने वाले मुनाफे के लिए निगरानी प्रणाली होनी चाहिए। पिछले पाँच वर्षों में कर सुधारों के डिजिटलीकरण और रोल आउट के बावजूद, बिचौलिये छोटे किसानों से माल लेकर मुनाफा कमा रहे हैं। जब हम लोग •यादा पैदावार होने का सामना करते हैं, तो फिर तो वह चीज़ बेहद सस्ते दाम में बेचनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में सरकार की ओर से कई सहयोग नहीं मिलते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में प्याज की पैदावार होती है और यह फसल दिसंबर अंत और जनवरी तक बाज़ार में आ जाएगी। वहीं केंद्र सरकार ने जो अभी प्याज आयात करने के आदेश दिये हैं, वह भी उसी वक्त आएगी, ऐसे में आवक बढ़ जाएगी। फिर किसान को मजबूरन आयातित प्याज सस्ती मिलने के चलते न्यूनतम दरों पर बेचना होगा। क्या राजनीतिक दल इसकी व्याख्या कर सकते हैं?

8 जनवरी को ग्रामीण भारत बंद

120 से अधिक किसान संगठनों का एक छत्र संगठन अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने 8 जनवरी, 2020 को किसानों की माँगों को लेकर केंद्र सरकार की उदासीनता और निष्क्रियता के विरोध में ‘ग्रामीण भारत बंद’ का आह्वान किया है। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के वरिष्ठ नेता अविक साहा ने बताया कि वस्तुओं के निर्यात और आयात पर सरकार के आकस्मिक फैसलों ने वैश्विक बाज़ार में भारत के िखलाफ धारणा बना दी है। इस तरह किसानों के उत्पादों के आयात-निर्यात के मौकों ने हमारे किसानों को नुकसान पहुँचाया है।

साहा ने कहा कि पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि कोई समस्या है, इसके बाद ही समाधान के बारे में सोचने पर विचार किया जा सकता है। उन्होंने खेद जताया कि सरकार यह मानती है कि कोई समस्या ही नहीं है। सरकार की इस बेरुखी ने अर्थ-व्यवस्था को गिरा दिया है। इस समस्या का समय रहते निदान ज़रूरी है अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।