पॉक्सो के बावजूद त्वरित न्याय नहीं

किसी भी क़ानून का मूल्यांकन करने के लिए एक दशक यानी 10 साल का वक़्त पर्याप्त होता है। देश में 10 साल पहले बच्चों को यौन शोषण सम्बन्धित अपराधों के मामलों में जल्दी न्याय दिलाने के लिए पॉक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस) अधिनियम-2012 लागू हुआ। इस अधिनियम के तहत 18 साल से कम आयु के बच्चों को यौन अपराधों, यौन शोषण, अश्लील सामग्री से सुरक्षा देने और उसके हितों की रक्षा के लिए लाया गया। इस क़ानून के ज़रिये नाबालिग़ बच्चे के प्रति होने वाले ऐसे अपराधों के मामलों में कार्रवाई की जाती है। क़ानून के अनुसार, ऐसे मामलों के निपटारे केस दर्ज होने की तारीख़ से एक साल के भीतर निपटा देने चाहिए, ताकि पीडि़त बच्चे को त्वरित इंसाफ़ मिल सके। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है?

सवाल कई हैं। मसलन, क़ानून क्या कहता है और ज़मीनी स्तर पर इसका अमल कितने फ़ीसदी हो रहा है? न्याय न होने के क्या कारण हैं? क्या सरकार ने न्यायिक व्यवस्था का संगठनात्मक ढाँचा उतना मज़बूत व समर्थ बना दिया है, जो त्वरित इंसाफ़ के लिए ज़रूरी है? इस सन्दर्भ में हक़ीक़त क्या है? इसका विश्लेषण हाल ही में जारी स्वतंत्र थिंक टैंक ‘विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी’ की पहल ‘जस्टिस एक्सेस एंड लॉवरिंग डीलेज इन इंडिया’ की रिपोर्ट ‘पॉक्सो का एक दशक’ में किया गया है। यह रिपोर्ट बताती है कि यौन शोषण के मामलों में सज़ा पाने वाले दोषियों से तीन गुणा ज़्यादा संख्या बरी होने वालों की है। अर्थात् किसी एक मामले में आरोपी दोषी पाया जाता है, तो तीन मामलों में आरोपी बरी हो रहे हैं। सन् 2016 में 60 फ़ीसदी ऐसे मामले एक साल में निपटाये गये; लेकिन अब 20 फ़ीसदी भी नहीं निपट रहे। देश में आंध्र प्रदेश ऐसा राज्य है, जहाँ बाल यौन शोषण के अपराधी सबसे अधिक बरी हो रहे हैं और केरल में सबसे कम। यह हक़ीक़त काफ़ी चिन्ताजनक और सरकारों व न्याय प्रणाली के लिए शर्मनाक स्थिति से रू-ब-रू कराती है।

विश्व बैंक के डाटा ‘एविडेंस फॉर जस्टिस रिफॉर्मर्स’ कार्यक्रम के सहयोग से यह अध्ययन किया गया है। इस रिपोर्ट में नवंबर, 2012 से लेकर फरवरी, 2021 तक की अवधि देश के 28 राज्यों के 468 ज़िलों के सर्वे का अध्ययन किया गया है। अध्ययन के दौरान लगभग चार लाख पॉक्सो मामलों से सम्बन्धित आँकड़े इकट्ठे किये गये और लम्बित मामलों व निपटाये जा चुके मामलों का पैटर्न समझने के लिए 2.31 लाख मामलों का विश्लेषण किया गया। आँकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक मामले लम्बित हैं। उत्तर प्रदेश में नंवबर, 2012 से लेकर फरवरी, 2021 के बीच पॉक्सो के तहत जितने मामले दर्ज किये गये उनमें से तीन-चौथाई यानी 77.77 फ़ीसदी मामले लम्बित हैं। उत्तर प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल में 74.6 फ़ीसदी मामले लम्बित हैं, तो बिहार में 67.6 फ़ीसदी मामले अभी तक लटके हुए हैं। वहीं महाराष्ट्र में 60.2 फ़ीसदी, गुजरात में 51.5 फ़ीसदी, कर्नाटक में 45.5 फ़ीसदी, हरियाणा में 41.4 फ़ीसदी, झारखण्ड में 38.6 फ़ीसदी, पंजाब में 36 फ़ीसदी, चंडीगढ़ में 35 फ़ीसदी, आंध्र प्रदेश में 33.5 फ़ीसदी, राजस्थान में 24.9 फ़ीसदी और तमिलनाडु में 19.7 फ़ीसदी पॉक्सो के मामले लम्बित हैं।

हालाँकि तमिलनाडु में अध्ययन की अवधि के दौरान जितने मामले दर्ज किये गये, उनमें से 80.2 फ़ीसदी मामलों का निपटारा कर दिया गया और रिपोर्ट लिखे जाने तक 19.7 फ़ीसदी मामले ही लम्बित बचे थे। ‘पॉक्सो एक दशक’ नामक इस अध्ययन में कहा गया है कि पॉक्सो के तहत किसी एक मामले में दोषी साबित हुआ, तो तीन मामलों में आरोपी को बरी कर दिया गया। दोषसिद्धि की तुलना में बरी किये जाने की दर काफ़ी अधिक रही।

यह अध्ययन इस बात का भी $खुलासा करता है कि आंध्र प्रदेश में पॉक्सो अधिनियम के तहत सबसे अधिक आरोपी बरी हो रहे हैं। अर्थात् बरी होने वाले आरोपियों का औसत दोषी ठहराये जाने वाले आरोपियों से सात गुना अधिक है। उसके बाद पश्चिम बंगाल है, जहाँ यह औसत पाँच गुना अधिक है। केरल इकलौता ऐसा राज्य है, जहाँ यह अन्तर बहुत कम है। केरल में 16.49 फ़ीसदी मामलों में दोषी साबित हुआ, तो 20.5 फ़ीसदी मामलों में अपराधी छूट गये यानी उनका अपराध साबित नहीं हो सका। कुल मिलाकर यह अध्ययन इस पर रोशनी डालता है कि कुल मामलों में से महज़ 14 फ़ीसदी मामलों में आरोपी दोषी ठहराये गये, जबकि 43 फ़ीसदी मामलों में आरोपी सुबूतों के अभावों या अन्य क़ानूनी पेचीदगियों के चलते बरी हो गये। वहीं 43 फ़ीसदी मामले लम्बित हैं या दूसरी अदालतों में स्थानांतरित कर दिये गये।