पैमाना कुछ तो सवाल हैं

उस सुबह सूरज के उगने के साथ मैं उतरी थी सीढिय़ों से। दबे पाँव। सामने थोड़ी ही दूर पर चाँदी-सी चमकती चौड़ी सडक़ थी। पहली और आखरी बार मैंने उस घर को विदा कहा। मेरे माँ-बाप को किसी ज़रूरी काम से गाँव जाना पड़ा। उन्होंने उसकी हिफाज़त में मुझे वहाँ छोड़ा। ‘आप तो टीवी में काम करते हैं! क्या मेरी कहानी सबको बताएँगे? क्या उसको सज़ा मिलेगी? लेकिन मेरे माँ-बाप ट्यूशन करते हैं। उनके और मेरे पास रुपये नहीं हैं। मेरी कहानी में धुआँ उड़ाने वाली पार्टी नहीं है। आपके अलावा अभी कोई और जानता नहीं। कोई नेता या पार्टियाँ नहीं हैं। हत्या या आत्महत्या का एंगल भी नहीं है। पर मैं सुन्दर हूँ…, सब कहते हैं। क्या मेरी भी कहानी टीवी पर आएगी? क्या मिल सकेगी उसे सज़ा?’

आज तकरीबन तीन महीने से भी ज़्यादा समय से तमाम टीवी चैनेल और अखबारों की खास खबर बालीवुड अभिनेता की हत्या-आत्महत्या की गुत्थी में उलझी है। मामले की पेचीदगी इतनी कि खूब व्याख्या हुई, जिसमें विभिन्न पार्टियों के राजनेता शामिल रहे। उनके कोरस गान पर दो राज्यों के मुख्यमंत्री भी उलझे। आिखर मामले की जाँच सीबीआई को सौंप दी गयी। दूसरी दो जाँच एजेंसियाँ भी इस पूरे मामले की पड़ताल करने में जुट गयीं। भारतीय मीडिया इस पूरे मामले की तहकीकात में जुटा रहा। जाँच जारी है और राजनीतिक तकरार बढ़ चुकी है।

मुम्बई के पूर्व कमिश्नर और अनुभवी पुलिस अधिकारी जूलियस रिबेरो इस कांड मामले की जाँच में सीबीआई, आईबी और नारकोटिक्स महकमों की जाँच में शामिल होने पर कुछ नहीं कहते। लेकिन मुम्बई पुलिस की पड़ताल को वे उचित मानते हैं। मीडिया ट्रायल पर हँसते हुए कहते हैं कि उन्हें भी जाँच के दायरे मेें लाना चाहिए। सभी टीवी चैनेल और अखबार, जो इस जाँच के काम में अतिरिक्त उत्साह दिखा रहे हैं; उनकी भूमिका जाँची जाए और सुशांत सिंह राजपूत मामले में जो कहानियाँ विभिन्न भाषाई चैनेलों ने प्रसारित की हैं, उनकी पड़ताल गहराई से हो, तो काफी कुछ सामने आए। मीडिया का क्या धर्म है और उसका पालन क्यों ज़रूरी है? यह भी फिर और साफ होगा।

देश की प्रेस कॉन्सिल ऑफ इंडिया ने पहले ही इस पूरे मामले की खबरें टीवी पर और अखबारों को देने वालों को नसीहत दी है कि वे इस पूरे मामले में ज़्यादा उत्साह से रिपोटिंग न करें। लेकिन इस संस्था को मीडिया खास महत्त्व नहीं देता। देश के सूचना प्रसारण मंत्रालय ने भी कोई हिदायत जारी नहीं की है।

दरअसल बालीवुड का यह कांड एक ऐसा चटपटा मसाला है, जो टीवी से दर्शकों को दूर नहीं जाने देता। एक हिट व्यावसायिक फिल्म के लिए ज़रूरी है- रोमांस, हत्या-आत्महत्या की पहेली, मादक ड्रग का कारोबार, नायक के परिवार में कलह, फिर इस मामले की जाँच-पड़ताल में दो बड़े राज्यों के नेताओं में तकरार, अदालत का पूरे मामले को सीबीआई के हवाले करना, मीडिया की मामले की पेचीदगियों को बड़े ही सनसनीखेज़ तरीके से पेश करने की बेसब्र ललक में पूरे संवेदनशील मामले को अत्यंत रोमांचक बना दिया है। तथ्यों की उचित पड़ताल न होने से भाषाई टीवी और अखबारों की अपनी तटस्थता पर सवालिया निशान लग रहे हैं।

देश के एक अखबार में समाचार ब्यूरो सँभालने वाले वी.पी. डोभाल कहते हैं कि आमतौर पर अपराध की बीट देखने वाले संवाददाता से यह अपेक्षा रहती है कि उसने पूरे वाकये को निगरानी (सर्विलॉन्स), पारस्परिक सह-सम्बन्ध (को-रिलेशन) और सम्प्रेषण (ट्रांसमिशन) के लिहाज़ से जाँचा-परखा है या नहीं। यदि ऐसा नहीं है, तो पत्रकार को गलत खबर देने के आरोप में सज़ा दी जा सकती है। संविधान निर्माताओं ने मीडिया की ताकत का अनुमान करते हुए ही धारा-19 और उसके तहत कई व्यवस्थाएँ दी हैं। अपराधी को अपनी बात कहने का मौका मिले और संचार माध्यम ‘ट्रायल ऑफ मीडिया’ ईमानदारी से करे, तो उनके सुझाये मुद्दों को सरकारी जाँच एजेंसियाँ जाँच के दायरे में ले लेती हैं। ज़रूरत यह है कि पूरे मामले को स्कैंडल का रूप लेने से बचाना। न्याय में दखल नहीं, बल्कि जाँच के काम में निष्पक्षता ज़्यादा ज़रूरी है। यानी न्यायपालिका बिना किसी बाधा के वह स्थिति बना पाये कि यह अहसास हो कि हाँ, न्याय वाकई हुआ। हर आरोपी को सही न्याय पाने का अधिकार है। उसे प्रभावित करने पर मानहािन भी सम्भव है। मीडिया ने पहले भी कुछ महत्त्वपूर्ण आपराधिक कांडों में बेहताशा दिलचस्पी ली। ऐसे मामलों में प्रियदर्शनी मट्टू, जेसिका लाल, नीतीश कटारा, विजाल जोशी, आरुषि तलवार आदि प्रमुख हैं। मीडिया को हमेशा सूचना देने का ही काम करना चाहिए और सूचना देने वाले पुख्ता होने चाहिए। ‘मीडिया ट्रायल’ का मतलब यही होता है कि पूरे मामले की उचित तरीके से छानबीन हो। अपराधी होने का जिन पर आरोप है, वे भी अपनी बात कह सकें; उनकी ठीक से सुनवाई हो। हाल-फिलहाल जिस तरह से भारतीय टीवी चैनेल और अखबारों में एक युवा अभिनेता की मौत की छानबीन का मुद्दा मीडिया में कवर हो रहा है। उसमें उलझाव ज़्यादा है। विभिन्न चैनेल में पधारे विशेषज्ञ जब अपनी राय देते हैं, तो लगता नहीं कि उनकी राय के पीछे भी कहीं कोई आधार (कोई घटना) है। वे वही कहते हैं, जो मीडिया से मिली खबर और उनका अनुभव होता है। फिर इस मामले में सूचना का ही हैं। जो प्रमाण कतई नहीं, सिर्फ सूचना स्रोत हैं। आधार हवाट्स एप संदेश, टेलिफोन रिकॉर्ड और पूरे मामले में नित्य-प्रति उपलब्ध वीडियो रिकार्डिंग। निष्पक्ष जाँच-एजंसियाँ भी यही कहती हैं। इससे इन्कार करती हैं; लेकिन तहकीकात जारी है।

सवाल उठता है कि क्या जाँच एजेंसियों, अपने सवाल या अनुमान जाँच के दौरान संवाददाताओं को देती हैं। क्या यह उचित है? क्या मीडिया विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली ऐसी तमाम असामयिक हादसों पर फोकस करता रहा है और क्या आगे भी करेगा। देश विभिन्न मोर्चों मसलन स्वास्थ्य, सीमाई तनाव, आर्थिक बदहाली और प्राकृतिक विपदाओं से खासा जूझ रहा है। लेकिन इन घटनाओं को वह प्रमुखता मीडिया में नहीं मिली, जो देश की प्रगति के लिहाज़ से भी ज़रूरी हैं। शायद टीवी चैनल और अखबारों को अपनी रेटिंग-रेवेन्यू के लिहाज़ से यह ज़रूरी नहीं जान पड़ा। लेकिन अब उस लडक़ी को क्या जवाब दिया जाए, जिसे जवाब चाहिए। देखिए वही लडक़ी जो खुद को सुन्दर बता रही थी। कार के बंद शीशे से इशारे में टाटा करती निकल गयी।