पूँछ पकड़कर बैठे लोग

यह बड़ी ही दिलचस्प बात है कि हम इंसान पूँछ पकड़कर बैठे हैं। यानी सही मायने में न तो हमें धर्म का मतलब पता है और न ही हम ईश्वर को समझ पाये हैं। हँसी आती है कि लोग मज़हबी पूँछों के सहारे भवसागर को पार करने की चाहत रखते हैं। कई सन्तों ने इसेमूर्खता कहा है।

सन्त कबीर कहते हैं :-

कबीर इस संसार को समझाऊ कितनी बार

पूँछ तो पकड़े भेड़ की, उतरा चाहवे पार

सन्त कबीर ने मज़हबों की तुलना भेड़ की पूँछ से की है और यह समझाने का प्रयास किया है कि जिस तरह भेड़ की पूँछ पकड़कर समुद्र पार नहीं हो सकता, उसी तरह मज़हबों के सहारे, वह भी उनको समझे या उन पर पूरी तरह अमल किये बगैर ईश्वर तक पहुँचना नामुमकिन है।

इतना ही नहीं, वह तो यहाँ तक कहते हैं :-

 आये एको देश ते, उतरे एको घाट

समझो का मत एक है, मूरख बाराबाट

सन्त कबीर अलग-अलग मज़हबों में बँटे संसार के लोगों को समझाने का प्रयास करते हैं कि एक ही जगह से सब आये हैं और एक ही घाट सबको उतरना है अर्थात् सभी को मौत के मुँह में समाकर उसी एक ईश्वर तक जाना है, इस बात को समझें तो सब एक ही मत यानी मज़हब के लोग हैं, लेकिन मूर्खों ने बाराबाँट कर रखा है। अर्थात् आपस में कई हिस्सों में बँट गये हैं।

गुरु नानक देव कहते हैं :-

अवर अल्लाह नूर ओ पाया, कुदरत के सब बन्दे

एक नूर ते सब जग उपजा, कोउन भले को मन्दे

हमने-आपने सबने एक ही अल्लाह का नूर (तेज़) पाया है, इसलिए हम सब उस एक ही परमात्मा के बन्दे (संतान) हैं। यहाँ कोई बड़ा या छोटा नहीं है। लेकिन हम फिर भी एक-दूसरे से बैर पालते हैं, एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहते हैं, एक-दूसरे की ज़िन्दगी छीनने, एक-दूसरे का सुख-चन छीनने में भरोसा करते हैं और इसी के चलते एक-दूसरे से इतनी नफरत करते हैं कि हमेशा एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते हैं। इसीलिए तो सन्त कबीर दास ने अपनी खीझ कुछ इस तरह से उतारी है :-

 उधर से अन्धा आवता, इधर से अन्धा जाय

अन्धे को अन्धा मिला, तो रस्ता कौन बताय

अर्थात् कबीर दास जी ने मज़हबी दायरों में बँटे हम सब लोगों को अन्धा बताते हुए कहा है कि इधर से एक अन्धा (अज्ञानी अर्थात् एक मज़हब को मानने वाला) जा रहा है और उधर से एक अन्धा (अज्ञानी अर्थात् दूसरे मज़हब को मानने वाला) आ रहा है। दोनों ही तो अन्धे (अज्ञानी) हैं, तो रास्ता कौन किसे बताए?

वास्तव में बड़े ही आश्चर्य की बात है कि हम सब संसार से पुण्य कमाकर स्वर्ग जाने की चाहत मज़हबों को मान लेने भर से रखते हैं। जबकि यह बात जानते हुए भी स्वीकार नहीं करते कि केवल मज़हब के सहारे हमारा कल्याण नहीं हो सकता, क्योंकि अगर मज़हबों के सहारे हमें ईश्वर की प्राप्ति हो जाती, तो हमें कर्मों और मज़हबी बातों पर अमल करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मज़हब तो पौष्टिक आहार से भरी वह थाली है, जिसे सिर पर ढोने से कोई फायदा नहीं होने वाला। इस थाली में रखे भोजन को हमें अंगीकार करके खाना होगा यानी मज़हबी बातों को अमल में लाना होगा, तभी उनका फायदा हमें मिलेगा। इसके लिए सबसे पहली चीज़ हमें यही स्वीकार करनी पड़ेगी कि ईश्वर केवल और केवल एक है। मुझे ऐसी ही एक कहानी याद आती है, जो हमें यह सीख देती है कि किताब चाहे विद्यालय के कोर्स की हो या मज़हब की, उनका फायदा तभी हो सकता है, जब हम उनमें दिये ज्ञान को आत्मसात् करते हैं, अन्यथा वे सामने रखे उस थाली के भोजन की ही तरह बेकार साबित होंगी, जिसकी पौष्टिकता और स्वाद दूर से देखने पर हमारे किसी काम नहीं आ सकता। कहानी कुछ इस प्रकार  है:- एक सरकारी विद्यालय में एक बच्चा अपनी किताबों को बहुत सहेजकर रखता था। उसे किताबों से इतना प्यार था कि वह उनका पन्ना भी पलटना पसन्द नहीं करता था कि कहीं पन्ने मैले न हो जाएँ। इसी तरह वह किताबों का सम्मान भी इतना करता था कि उन्हें बार-बार चूमता था और अगर गलती से भी उसकी किताबें कोई दूसरा छू लेता, तो वह उससे झगड़ा करता, अगर किताबें पैरों में लग जातीं तो वह उनसे माफी माँगता। आखिर जब परीक्षा हुई, तो वह फैल हो गया। यह कहानी मेरी दादी मुझे बचपन में सुनाकर पढऩे के लिए प्रोत्साहित करती थीं।

कहानी छोटी है, लेकिन इसका सार बिल्कुल वैसा ही है, जैसा मज़हबी किताबों को मानने वालों का। हम सब इसी तरह मज़हबी किताबों का सम्मान ठीक इसी तरह करते हैं, लेकिन उन्हें पढ़कर उन पर अमल नहीं करना चाहते और इसका नतीजा यह होता है कि हम आपस में बिखरे रहते हैं और एक ही ईश्वर को अलग-अलग मानने की भयंकर भूल करते हैं। यह इस वजह से है, क्योंकि हम किताबें पढ़-पढ़कर ईश्वरीय ज्ञान पाना चाहते हैं, उसे पा लेने का भ्रम पालते हैं। इसीलिए सन्त कबीर दास कहते हैं :-

पोथी पढि़-पढि़ जगमुआ, पंडित भया न कोय

ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

हमें इस भ्रम से निकलना होगा। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम मज़हबी किताबों में दी गयी सीखों पर अमल ही करना बन्द कर दें। लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि ईश्वर दो-चार नहीं, बल्कि एक ही है और इस नाते हम मनुष्य, चाहे किसी भी बनावट के हों, किसी भी क्षेत्र के हों, एक ही हैं; और हमें आपस में मिलजुलकर प्यार से रहना चाहिए, एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए।