पुलिस में महिलाओं की विकट कमी

हम जब घर से बाहर निकलते हैं, तो अक्सर सडक़ों पर जो पुलिसकर्मी नज़र आते हैं, वे पुरुष ही होते हैं। सडक़ों-गलियों, बाज़ारों में घूमने वाली पुलिस वैन से बाहर झाँकता चेहरा भी पुरुष का ही दिखायी देता है। इसकी एक वजह यह है कि देश में पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी महज़ 10.3 फ़ीसदी है। पुलिस में महिलाओं के इतने कम प्रतिनिधित्व को लेकर संसद की स्थायी समिति ने भी इस पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए पुलिस बल में महिलाओं की संख्या 33 फ़ीसदी करने के लिए रोडमैप बनाने की अनुशंसा की है। पुलिस के प्रशिक्षण, आधुनिकीकरण और सुधार के लिए बनी संसद की स्थायी समिति ने 10 फरवरी को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया और इस संख्या को किस तरह बढ़ाया जाए? इस बाबत सरकार को सुझाव भी पेश किये।

दरअसल पुलिस का पेशा $कानून-व्यव्यथा और आमजन से जुड़ा हुआ है। आमजन को पुलिस की ज़रूरत कभी भी पड़ सकती है। जब आमजन की बात करते हैं, तो उसमें महिलाएँ भी शामिल हैं; लेकिन पुलिस बल में लैंगिक सन्तुलन नहीं है। और इसकी क़ीमत देश की आम औरत चुकाती है। पुलिस की मर्दानगी वाली छवि आम औरत के भीतर दहशत पैदा करती है। वह पुरुष पुलिसकर्मी को अपनी तकलीफ़ बताने और उसके सवालों का जवाब देने में ख़ुद को असहज महसूस करती है। पुरुष प्रधान समाज में जब भी किसी परिवार का किसी भी कारण से पुलिस से वास्ता पड़ता है, तो सबसे पहले घर की औरतों को कमरे के अन्दर जाने की सख़्त हिदायत दी जाती है। यानी पुलिस और महिलाओं के बीच एक बहुत बड़ा फ़ासला नज़र आता है। अगर पुलिस बल में महिलाओं की संख्या को बढ़ा दिया जाए, तो यह फ़ासला धीरे-धीरे कम हो सकता है। समाजशास्त्री भी मानते हैं कि पुलिसबल में महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़ा करके इसकी छवि को और अधिक मानवीय बनाया जा सकता है।

दरअसल पुलिस बल में महिलाओं की संख्या बढ़ाने को लेकर गृह मंत्रालय पहले भी चिन्ता जता चुका है; लेकिन अधिक सकारात्मक नतीजे नहीं देखने को मिले। ऐसा क्यों है? इसे गृह मंत्रालय और राज्य सरकारों को गम्भीरता से लेना चाहिए।

ग़ौरतलब है कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने सन् 2009 में देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने-अपने यहाँ महिला पुलिस बल की संख्या 33 फ़ीसदी करने वाला परामर्श दिया। इसमें यह भी कहा गया कि हर पुलिस स्टेशन में कम-से-कम तीन महिला सब इंस्पेक्टर और 10 महिला पुलिस सिपाही होनी चाहिए, ताकि महिला हेल्प डेस्क 24 घंटे अपना काम कर सके। यही नहीं, इस दिशा में कोई ख़ास प्रगति न होते देख गृह मंत्रालय ने महिला पुलिस बल का 33 फ़ीसदी लक्ष्य हासिल करने वाला यही परामर्श 2013, 2015, 2017, 2019 और 2021 में भी जारी किया; लेकिन निराशा ही हाथ लगी। एक सवाल यह भी किया जाता है कि पुलिस का काम तो नियम-क़ायदों के अनुसार चलता है, उसे तो तटस्थ हाकर अपनी भूमिका निभानी चाहिए, ऐसे में पुलिस वर्दी में पुरुष हो या महिला क्या फ़र्क़ पड़ता है? सवाल वाजिब हो सकता है, पर यह जानना भी ज़रूरी है कि पुलिस बल में महिलाओं की संख्या बढ़ाने वाले महत्त्वपूर्ण बिन्दु को महज़ लैंगिक पहलू से नहीं देखना चाहिए, बल्कि यह देखना चाहिए कि यह पेशा की एक ज़रूरत भी बन चुका है।

महिलाएँ इस देश की आधी आबादी हैं और इसमें कोई दो-राय नहीं कि महिलाओं व बच्चों से जुड़े ऐसे मामले, जहाँ पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ता हैं; वहाँ महिला पुलिस अधिक कारगर साबित होती हैं। यही नहीं, महिला पुलिस में अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा अधिक सहनशीलता और सहानुभूति होती है। उनके द्वारा अधिक बल प्रयोग करने की सम्भावना कम होती है। उनके द्वारा थर्ड डिग्री के प्रयोग की सम्भावना भी क्षीण होती है, जिसकी एक लोकतांत्रिक देश की पुलिस से अपेक्षा की जाती है। उनकी अधिक संख्या होने से पुलिस की बदनाम छवि भी सुधर सकती है। देश में सन् 1991 में पुलिस बल में महिलाओं की संख्या 1.18 फ़ीसदी थी और अब यह 10.3 फ़ीसदी है। 20 अगस्त, 2021 को गृह मंत्रालय ने लोकसभा में बताया कि देश में महिला पुलिस बल की तादाद 10.3 फ़ीसदी है। पुलिस में महिलाओं और पुरुषों का राष्ट्रीय औसत बताता है कि देश में प्रति 10 पुलिसकर्मियों पर महज़ एक महिला पुलिसकर्मी है।

देश में इस समय बिहार एक ऐसा इकलौता राज्य है, जहाँ पुलिस बल में सबसे अधिक महिलाएँ 25 फ़ीसदी से अधिक हैं। हिमाचल प्रदेश में महिलाओं की संख्या 19.5 फ़ीसदी, चंडीगढ़ में 18.78 फ़ीसदी, तमिलनाडु में 18.5 फ़ीसदी और लद्दाख़ में 18.47 फ़ीसदी है। 24 राज्य ऐसे हैं, जहाँ महिला प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय औसत से कम है। ऐसे राज्यों की सूची में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में यह संख्या महज़ 9.6 फ़ीसदी ही है। वहीं राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, असम, केरल, कर्नाटक, सिक्किम, मणिपुर, पंजाब, हरियाणा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, पांडिचेरी, पश्चिम बंगाल, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, तेलगांना, आन्ध्र प्रदेश भी ऐसे ही राज्य हैं, जहाँ 10 फ़ीसदी से कम महिलाएँ पुलिस में हैं। गृह मंत्रालय ने अपने बयान में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने-अपने यहाँ महिला पुलिसकर्मियों के लिए कल्याणकारी क़दमों को मज़बूत करने, कार्यस्थलों पर उनके लिए अनुकूल माहौल बनाने और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला सुझाव भी दिया था।

विषेशज्ञों का मानना है कि महिलाओं के प्रति अपराध कम करने के लिए पुलिस बल में महिलाओं की संख्या बढ़ाने पर ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है। अब सवाल यह भी उठता है कि आख़िर महिलाएँ पुलिस में क्यों नहीं आना चाहतीं? पुलिस की नौकरी आज नौकरी बाज़ार में किस पायदान पर आती है, इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि नौकरी की तलाश में आज की युवतियाँ पुलिस की नौकरी को ज़्यादा तवज्जो न देकर कम्पनियों में नौकरी करना अधिक पसन्द करती हैं। उनका रुझान इस ओर बहुत-ही कम देखने को मिलता है। इसके पीछे की वजह सामाजिक भी होती है। शादी में दिक़्क़तें भी पैदा हो सकती हैं। फिर तबादला और रात की पारी में ड्यूटी आदि। इन सामाजिक वजहों की जड़ में महिलाओं को अध्यापक, डॉक्टर, नर्स आदि पेशे में देखने की आदत पड़ जाना और पुलिस की ऐसी कडक़ छवि बन जाना भी है, जहाँ पारम्परिक समाज महिलाओं को पुलिस की वर्दी में देखना सहजता से स्वीकार करता दिखायी नहीं देता है।

इसके अलावा यह भी अति महत्त्वपूर्ण है कि पुलिस थानों में महिलाकर्मियों की विषेश ज़रूरतों को पूरा करने वाले संसाधन, जैसे महिला शौचालय, आराम गृह और क्रैच आदि की बहुत कमी है। बड़े शहरों के थानों में तो ये सुविधाएँ मिल भी जाती हैं; लेकिन छोटे शहरों, क़स्बों और गाँवों में ये सुविधाएँ अमूमन नदारद ही होती हैं। इसके अलावा 90 फ़ीसदी महिला पुलिसकर्मी बतौर सिपाही ही सेवानिवृत्त हो जाती हैं। उच्च पदों पर बहुत ही कम महिलाएँ पहुँच पाती हैं। महिला राजपत्रित अधिकारी की संख्या बहुत-ही कम है। पुलिस बल में महिला पुलिसकर्मियों के यौन उत्पीडऩ की ख़बरें भी सामने आती रहती हैं और उनका मानना है कि शिकायत के बावजूद ऐसे मामले लम्बे समय तक लटकते रहते हैं। देश में पुलिस राज्य का विषय है। लिहाज़ा राज्य सरकारों को अपने-अपने यहाँ महिला पुलिस की संख्या में बढ़ोतरी करने के लिए विशेष ख़ाका तैयार करना चाहिए। यह वक़्त की माँग है।

पुलिस में महिलाओं की ज़रूरत की एक मुख्य वजह ऐसे क़ानूनों का बनना भी है, जहाँ मामलों में महिला पुलिस की अनिवार्यता का ज़िक्र है। जैसे लैंगिक उत्पीडऩ से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम 2012; इस अधिनियम को पॉक्सो एक्ट के नाम से भी जाना जाता है। महिला व बाल विकास मंत्रालय ने सन् 2012 में बच्चों के प्रति यौन उत्पीडऩ, यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए इसे बनाया था। इस एक्ट के तहत प्रत्येक यौन हमले की रिकॉर्डिंग और उसकी जाँच के लिए महिला पुलिस अधिकारी की ज़रूरत है।

क़ानूनी प्रावधान कहते हैं कि किसी भी महिला की गिरफ़्तारी या उनसे जुड़े मामले महिला पुलिसकर्मियों का ही सौंपे जाने चाहिए। किशोर न्याय अधिनियम, जिसके अंतर्गत नाबालिग़ द्वारा किये गये अपराध की सज़ा दी जाती है और सज़ा की अवधि के दौरान किशोर अपराधी को सुधार व बाल संरक्षण गृह में रखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि किशोर अपराधियों को महिला पुलिस बेहतर तरीक़े से सुधार सकती हैं। क्योंकि वे किशोरों के साथ अच्छा संवाद करने की कला जानती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि देश में 11 फ़ीसदी अपराध महिलाओं के ख़िलाफ़ होते हैं। इन मामलों में जिन लोगों को गिरफ़्तार किया जाता है, उनमें पाँच फ़ीसदी महिलाएँ होती हैं। केवल इसी गणित के हिसाब से देखा जाए, तो पुलिस बल में महिलाओं की संख्या 16 फ़ीसदी होनी ही चाहिए। दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका व आस्ट्रेलिया में महिला पुलिस का फ़ीसदी 15-30 फ़ीसदी के दरमियान है। भारत की तो आबादी ही 145 करोड़ है और उसमें क़रीब आधी आबादी महिलाओं की है। आँकड़ों की ओर देखें, तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पुलिस बल में महिलाओं की संख्या को बढ़ाने का मामला अब और नहीं टाला जाना चाहिए।