पार्टी का दारोमदार किसके कन्धे

बिहार चुनाव के बाद कांग्रेस के भीतर एक बार फिर नेतृत्व के प्रति विरोधी स्वर मुखर होने लगे हैं। लेकिन समस्या का समाधान कोई नहीं बता रहा। भाजपा के हिन्दुत्व के खुले एजेंडे का कैसे मुकाबला हो? इस पर कोई सुझाव कांग्रेस के भीतर नहीं उभर रहा। क्या कांग्रेस का संकट नेतृत्व बदलने भर से हल हो जाएगा? शायद नहीं। कांग्रेस की स्थिति पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी का विश्लेषण :-

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब ‘अ प्रॉमिस्ड लैंड’ में जब कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के लिए लिखी एक असहज टिप्पणी की बात सामने आयी तो, भाजपा खेमे के सोशल मीडिया की तरफ से राहुल का खूब मज़ाक उड़ाया गया कि अब तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी खिल्ली उडऩे लगी है। तब किसी ने किताब के इस चैप्टर के अगले ही पैरा के बारे में न बोला, न ही लिखा; जिसमें भाजपा के बाँटने वाले राष्ट्रवाद को लेकर भी कड़ी टिप्पणी की गयी है। क्यों राहुल गाँधी ही आलोचना के घेरे में आते हैं और भाजपा नहीं? इस एकतरफा राजनीति को दुनिया में बहुत-से जानकार भारत के लिए विध्वंस की तरह देखने लगे हैं, जिसमें देश के असली मुद्दों के लिए कोई जगह नहीं है। क्या राहुल गाँधी सचमुच इतने निरीह और अज्ञानी नेता हैं कि उन्हें किसी चीज़ की समझ ही नहीं? कांग्रेस इस पर बँटी हुई है। कांग्रेस में कुछ नेता राहुल गाँधी को भाजपा की दृष्टि से देखने लगे हैं और उन्हें लगता है कि राहुल कांग्रेस को पुनर्जीवित नहीं कर सकते। बाकी वो हैं, जो उन्हें शुद्ध कांग्रेसी की नज़र से देखते हैं और उन्हें लगता है कि राहुल को भाजपा ने एक सतत और सोची-समझी साज़िश के तहत बदनाम किया है। हालाँकि वे यह भी मानते हैं कि भाजपा इस साज़िश में सफल हुई है; लेकिन यह स्थिति बहुत देर तक नहीं रहेगी। अब बिहार चुनाव के निराशाजनक दौर के बाद कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर फिर कुछ वरिष्ठों की ज़ुबाँ तल्ख हुई है। ज़ाहिर है कांग्रेस एक ऐसी विकट स्थिति में है, जिससे बाहर निकलने के लिए उसे कोई आउट ऑफ बॉक्स उपाय खोजना होगा।

बराक ओबामा की किताब की एक टिप्पणी भारत की राजनीति के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक बहुत बड़ी बात कही है कि आज का जो भारत असमानता और हिंसा से ग्रस्त है, यह भारत गाँधी के समाज की कल्पना से मेल नहीं खाता। ओबामा किताब में भाजपा के बिखराव वाले राष्ट्रवाद के उदय के बारे में जब चिन्ता जताते हुए लिखते हैं, तो राहुल को लेकर कहते हैं कि उन्हें उनकी माँ (सोनिया गाँधी) द्वारा तय की गयी नियति को पूरा करने के लिए क्या सफलतापूर्वक मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में रोपित किया जा सकेगा? ज़ाहिर है इसे इस नज़रिये से भी देखा जा सकता है कि क्या राहुल गाँधी भाजपा की इस बिखराब वाली राजनीति का मुकाबला कर पाएँगे?

यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि राहुल को लेकर ओबामा के एक नर्वस नेता वाले यह विचार करीब पाँच साल पहले की स्थिति पर आधारित हैं और निश्चित ही उसके बाद देश के राजनीतिक माहौल, राहुल गाँधी की सक्रियता और मोदी की प्रसिद्धि में काफी बदलाव आया है। यदि ज़मीनी हकीकत देखें, तो सच यह भी है कि भाजपा की बिखराव वाली नीतियों की जैसी निन्दा राहुल गाँधी ने हाल के महीनों में की है, वैसी ममता बनर्जी को छोडक़र विपक्ष में किसी ने नहीं की। खुद कांग्रेस के भीतर किसी ने राहुल गाँधी जैसा विरोध भाजपा का नहीं किया। प्रधानमंत्री मोदी की छवि भी पहले से काफी धूमिल हुई है।

सच यह भी है कि राहुल गाँधी और ममता बनर्जी के विरोध में तेवर का बहुत अन्तर रहता है। ममता निश्चित ही अपनी बात कहने में मुखर दिखती हैं और राहुल गाँधी को यही तेवर अपनाना पड़ेगा। ऐसी मौके भी आये, जब कांग्रेस के भीतर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने वाला विधेयक संसद में आने के बाद पार्टी के कई नेता रक्षात्मक दिखे और उन्होंने नरम लाइन पर चलना बेहतर समझा। कांग्रेस के भीतर दोहरी सोच का कारण यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने भाजपा की जिस कूटनीति को देश के सामने पेश किया है, वह सीधे हिन्दुत्व के एजेंडे की राजनीति है। भाजपा ने खुले रूप से हिन्दू-मुस्लिम के बीच खाई खोदने वाली राजनीतिक राह पकड़ ली है। लव जिहाद जैसे मुद्दों के साथ भाजपा अपने एजेंडे पर खुलकर चल रही है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए ऐसे में रास्ता आसान नहीं रह गया है। कार्ल माक्र्स ने लिखा था- ‘मुद्दों और अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना है, तो उसे धर्म की अफीम खिला दो।’ कुछ ऐसा ही भारत में हो रहा है। ऐसे में धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस, राहुल गाँधी और विपक्ष की राह कठिन हो जाती है। कांग्रेस के भीतर नेताओं को यह समझना होगा कि यह राजनीतिक स्थिति असाधारण है। इसका मुकाबला जनता को गहरे से प्रभावित करने वाले मुद्दों से ही किया जा सकता है। जनता को इन मुद्दों की अहमियत भाजपा के मुद्दे से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बतानी पड़ेगी। और यह काम कांग्रेस समेत दूसरे सभी विपक्षी दलों को भी करना होगा।

कांग्रेस के भीतर आजकल बीच की लकीर (धर्मनिरपेक्ष) पर चलने को लेकर इसलिए भी भय रहने लगा है, क्योंकि उसकी अपनी ही पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश की जनता के भीतर यह बात पैठ रही है कि कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी बनकर रह गयी है या मुस्लिमों के प्रति उसका रुझान ज़्यादा है। जबकि सच यह है कि कांग्रेस के पास मुस्लिमों का समर्थन 30 फीसदी भी नहीं रह गया है। हाल के चुनाव नतीजों से यह साफ ज़ाहिर हो जाता है। नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के लिए आरएसएस ने हिन्दुत्व की जो नयी परिभाषा अब गढ़ी है, उसमें उसका नेता अब चाहे मोदी, शाह या योगी में कोई भी रहे, कांग्रेस और बाकी विपक्ष के लिए स्थिति एक-सी ही रहेगी; तब तक, जब तक कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल जनता को यह नहीं समझा देते कि भाजपा की लाइन सिर्फ हिन्दू वोटों के लिए है, उनके हितों की रक्षा और इससे उनकी मूल समस्याएँ हल करने के लिए नहीं। कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल कोशिश करें, तो वो जनता को मुद्दों पर मतदान करने वाली जनता बनाया जा सकता है। बिहार में विधानसभा के हाल के चुनाव में तेजस्वी यादव ने बहुत आक्रामक तरीके से ज़ात-पात पर मतदान करने वाले इस राज्य में  जोखिम लेकर रोज़गार को चुनाव का मुद्दा बनाकर भाजपा से ज़्यादा सीटें जीतकर यह कर दिखाया।

इसे कांग्रेस में फिर घमासान मच गया है। बिहार चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 19 ही सीटें मिलने से कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आज़ाद जैसे नेता फिर मुखर हुए हैं। लेकिन यह दौर नेतृत्व की निंदा तक ही सीमित है। सुझाव कहीं से नहीं आ रहा। याद रहे कि दो साल पहले राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत पर इन और बहुत-से पार्टी नेताओं ने राहुल गाँधी को कांग्रेस का एकछत्र नेता कहा था। राहुल कांग्रेस में ऐसे नेता हैं, जो सोनिया गाँधी के विपरीत सोच रखते हैं। जबकि पार्टी में बहुत-से ऐसे नेता हैं, जो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उन्हें सोनिया गाँधी जैसा बनना होगा। लेकिन राहुल के नेतृत्व की आलोचना करते हुए कोई भी नेता विकल्प नहीं सुझाता। भूपेश बघेल जैसे नेता हैं, जो उम्मीद जगाते हैं और वह पूरी तरह राहुल के साथ है।

बहुत पहले उत्तर प्रदेश के नेता जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गाँधी के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव लड़ा था। वह हार गये थे, लेकिन इससे कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र की आवाज़ ज़िन्दा रही; भले यह सन्देश भी गया कि गाँधी परिवार ही कांग्रेस में सर्वमान्य नेतृत्व है। आज कौन है, जो चुनाव में राहुल गाँधी के खिलाफ चुनाव में उतर सके? तहलका से बात करते हुए इस सारे विवाद से खुद को अलग रखे हुए कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि पार्टी के पास एक भी ऐसा नेता नहीं, जो पूरी कांग्रेस में गाँधी परिवार के नेताओं की तरह सर्वमान्य नेता होने का दावा कर सके। उन्होंने कहा कि गाँधी परिवार से बाहर का नेतृत्व लाने के लिए तो शरद पवार जैसे पार्टी से बाहर के किसी नेता को इम्पोर्ट करना पड़ेगा; क्योंकि गाँधी परिवार से ज़्यादा सर्वमान्य नेतृत्व कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के पास नहीं है। उन्होंने कहा कि शायद पार्टी नेता असली समस्या की तरफ नहीं देख रहे और नेतृत्व के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं। असली समस्या भाजपा के हिन्दुत्व के एजेंडे का पर्दाफाश करते हुए उससे निपटना है और हालात जब माकूल होंगे, तो यही राहुल गाँधी सफल नेता बन जाएँगे।

कांग्रेस के पास इस समय मज़बूत सलाहकार की भी कमी है। अशोक गहलोत जैसा नेता कांग्रेस की ज़रूरत है। राहुल अध्यक्ष हैं ही नहीं, लेकिन भाजपा के निशाने पर सिर्फ वही हैं। भाजपा के बड़े नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा तक सभी हर मुद्दे पर राहुल गाँधी को निशाने पर रखते हैं। एक-दो नेताओं को छोडक़र कितने कांग्रेस नेता हैं, जो राहुल पर भाजपा नेताओं के हमले के वक्त उन पर मज़बूत जवाबी हमला करते हैं? हाँ, नेतृत्व की आलोचना यदा-कदा करते रहते हैं। राहुल सच में इतने ही कमज़ोर नेता होते, तो भाजपा दिन-रात उनकी निंदा में भला क्यों अपना वक्त बर्बाद करती? कांग्रेस की तरफ से भाजपा को जवाब नहीं मिलने से राहुल गाँधी कांग्रेस की कमज़ोर कड़ी बन गये हैं। राहुल खुद भी ममता बनर्जी जैसे आक्रामक नेता नहीं हैं, जो ईंट का जवाब पत्थर से दे सकें। यही उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। कोरोना का दबाव कम होते ही कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी; शायद जनवरी या फरवरी तक। इस पर तैयारी शुरू हो चुकी है। यह भी चर्चा है कि यदि चुनाव करवाना पड़ा, तो कांग्रेस ऑनलाइन वोटिंग करायेगी। इसके लिए कांग्रेस प्रतिनिधियों को डिजिटल वोटर कार्ड जारी कर सकती है। कांग्रेस के केंद्रीय चुनाव प्राधिकरण ने 1450 के करीब कांग्रेस नेताओं की एक सूची बनाने का काम भी शुरू किया है। अभी तक तो यही लग रहा है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनेंगे। कोई आश्चर्यजनक स्थिति बनी, तो प्रियंका गाँधी भी हो सकती हैं। यह दिलचस्प होगा कि क्या गाँधी परिवार के खिलाफ कोई नेता चुनाव में उतरेगा?

ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने शायद हर चुनाव में पराजय को ही अपनी नियति मान लिया है। बिहार ही नहीं, उप चुनावों के नतीजों से भी ऐसा लग रहा है कि देश के लोग कांग्रेस पार्टी को भाजपा का प्रभावी विकल्प नहीं मान रहे हैं।

कपिल सिब्बल

पार्टी में किसी तरह का नेतृत्व संकट नहीं है। जो अन्धा नहीं है, उसे साफ नज़र आ रहा है कि सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को पूरा समर्थन है। मैं उन नेताओं (सिब्बल और चिदंबरम) के बिहार नतीजों पर चिन्ता वाले बयान से असहमत नहीं हूँ, लेकिन किसी को भी बाहर जाकर मीडिया और दुनिया से यह कहने की क्या ज़रूरत है कि हमें यह करना होगा।

सलमान खुर्शीद

चुनाव में हार के लिए मैं पार्टी नेतृत्व को दोष नहीं देता; लेकिन हमने ज़मीनी स्तर पर जनता से सम्पर्क खो दिया है। पाँच सितारा होटल वाली राजनीति हमारा नुकसान कर रही है। जब तक हम हर स्तर पर कांग्रेस की कार्यशैली में बदलाव नहीं लाते, चीज़ें नहीं बदलेंगी। नेतृत्व को चाहिए कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं को एक कार्यक्रम दे और पदों के लिए चुनाव कराये।

गुलाम नबी आज़ाद

राहुल गाँधी के साथ पूरी कांग्रेस पार्टी खड़ी है। वह मज़बूत और जनता के मुद्दों से जुड़े नेता हैं। उनकी शराफत को कमज़ोरी समझने वाले बहुत बड़ी भूल में हैं।

सुष्मिता देव