पाखण्डवाद की चपेट में किसान

भारतीय राजनीति में किसान का पक्ष मज़बूती से रखने वाले कई नेता हुए और किसानों की आवाज़ उठाने वाले नेताओं को किसानों ने कभी हताश या निराश नहीं किया। आज न पहले वाले किसान नेता रहे और न ही अपने नेताओं का डटकर जी-जान से साथ देने वाले किसान रहे। आज का राजनीतिक दौर धार्मिकता, पाखण्डवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद में बदल चुका है। यही कारण है कि जब आज किसानों की दुर्दशा व अन्याय की अनदेखी करके उसे बाँटने का काम आज के तथाकथित नेताओं द्वारा किया जा रहा है, टुकड़ों में बाँटकर किसानों पर आसानी से अन्याय किया जा रहा है, तब भी इस अन्याय के खिलाफ पूरे देश के किसान एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। किसानों की न्याय की लड़ाई भटक चुकी है। आज की आधुनिक दौड़ में लगे किसानों के पुत्र तो मज़हब, वर्ण, जाति, कुल, गोत्र, क्षेत्र, भाषा, गरीब, अमीर, छोटा, बड़ा, निजी स्वार्थ, गोरक्षा, नयी गौशाला बनवाने, उनके लिए चन्दा माँगने के धर्म और राजनीतिक के ठेकेदारों के प्रोपेगंडा और न जाने कितनी तरह के पागलपन, पाखण्डवाद तथा आडम्बरों में फँसकर बहक रहे हैं; बर्बाद हो रहे हैं। अब किसानों के बच्चे गाँवों में स्कूल या अस्पताल के लिए नहीं, अपितु नये मन्दिर बनवाने, गाँव के पुराने मन्दिरों में साल भर में हर तीन-तीन महीने में भण्डारा करवाने की ज़िम्मेदारी लेकर घूम रहे हैं।

आप अक्सर देखते होंगे गाँव, कस्बों और शहरों में जगराते करने, हरिद्वार से कांवड़ लाने, माता के दरबार में पैदल जाने, नवरात्रे वृत रखने जैसे धार्मिक कार्यों में आगे आकर किसान पुत्र की बजाय धर्म-पुत्र बनकर अपने कीमती समय गँवाकर खुद को धन्य समझ रहे हैं। यह बात मैं इसलिए कह कह रहा हूँ, क्योंकि मेरा ताल्लुक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक किसान परिवार से है और मैं खेती-किसानी से जुड़ा रहा हूँ और आज हो रही किसानों की दुर्दशा तथा किसानों के बच्चों के भटकाव को अच्छी तरह देख रहा हूँ। पिछले कुछ वर्षों में हरिद्वार से कांवड़ का प्रचलन यहाँ पर बहुत तेज़ी से बढ़ा है। जानकारी करने पर पता चला इन कांवड़ यात्रियों में आजकल ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों के युवा बढ़-चढक़र हिस्सा ले रहें हैं।

पिछले साल मैं अपने गृह ज़िले शामली गया, तो अखबार में फोटो के साथ खबर थी कि शामली के पुलिस निरीक्षक ने कांवडिय़ों के पैर दबाये, अगले दिन मेरठ के कमिश्नर ने हेलीकॉप्टर से फूल बरसाये। जब मैंने अपने गाँव के कुछ युवाओं से हरिद्वार से कांवड़ लाने के विषय में पूछा, तो उनमें से एक ने कहा मैं तो इसके साथ गया था। दूसरे से पूछा, तो उसने बताया कि ‘हम तो एक महीने खूब मौज़-मस्ती करते हैं। ट्रेन से मुफ्त में हरिद्वार पहुँच जाते हैं। आठ दिन वहाँ मस्ती करने के बाद वापसी के रास्ते में अच्छा खाना-पीना, खीर, हलवा और सूखे मेवों से स्वागत होता है। एक महीने बढिय़ा मनोरंजन होता है।’ दु:ख इस बात का है कि इन बच्चों को अपने भविष्य की चिन्ता नहीं है। मोबाइल की दुनिया ही इन्हें असली दुनिया लगती है। और धार्मिकता में चार दिन की चमक-दमक, सेवा-सुश्रुषा इन्हें सन्तुष्ट कर देती है।

इसके अलावा किसानों और कामगारों के पुत्रों में हिन्दू धर्म के खतरे में होने के भय होने की भयंकर बीमारी भी देखी जा रही है, जो उन्हें मृग-मरीचिका की भाँति असल ज़िन्दगी से भटका रही है। उसके तमाम उदाहरण आपको मिल जाएँगे। शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी आपने आजकल सोशल मीडिया पर एक और नयी आधुनिक बीमारी देखी होगी कि अगर किसी परिचित व्यक्ति की मृत्यु हो गयी हो, तो तमाम फेसबुक, व्हाट्सएप ग्रुप आदि पर सबसे पहले किसान पुत्र ही बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ आरआईपी-आरआईपी (क्रढ्ढक्क-क्रढ्ढक्क) लिखते हैं। जब मैंने इस बारे में कई किसान पुत्रों से इस विषय में पूछा, तो वे बगलें झाँकने लगे। क्योंकि उन्हें इसका अर्थ ही नहीं पता। उनका जवाब मिला- फलाँ ने लिखा था, तो मैंने भी लिख दिया! मैं बताता हूँ; रिप का मतलब होता है- रेस्ट इन पीस। यानी शान्ति से आराम करो। अब ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि ईसाई मान्यताओं के अनुसार, कयामत के रोज़ कब्रों के अन्दर से सभी उठ खड़े होंगे। जबकि हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, आत्मा अमर है और शरीर नश्वर। इसलिए उसे अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। तो हिन्दू मत के अनुसार, रेस्ट इन पीस का मतलब ही नहीं बनता। इसीलिए हमारे यहाँ विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं। पर इन बहकते हुए बच्चों को कौन समझाए?

मैं किसानों के बच्चों से सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि किसान पुत्र होने के नाते आपका फर्ज़ बनता है कि आप अपने गौरवान्वित पेशे किसानी के लिए संगठित होकर उस लड़ाई को लड़ें, जो किसान अपने हक-हुकूक के लिए लड़ता आ रहा है। जब किसान धरने-प्रदर्शन करते हैं, तो कोई मज़दूर उसके साथ नहीं आता। कोई धार्मिक पण्डा-पुजारी, कोई मौलवी, कोई व्यापारी या कोई गौशाला प्रमुख, रक्तदान कराने वाले डॉक्टर या संगठन नहीं आते, कोई सेलिब्रिटी फिल्मी सितारें नहीं आते, खिलाड़ी, राजनेता नहीं आते। जब किसी मज़दूर को मज़दूरी न मिले, तो लेबर कोर्ट है। लेकिन किसान को फसल भाव न मिले, तो मण्डी और फण्डी (दलालों) के लिए तो कोई कोर्ट नहीं है। इसलिए अपनी आँखों पर पड़े पर्दे को उतारो और खुद के खेती-किसानी के मुद्दों पर जितना लिख सकते हो, लिखो; जितना बोल सकते हो बोलो; जो कर सकते हो, करो। आज हर रोज़ अनेक किसान आत्महत्या कर रहे हैं; आत्महत्या को मजबूर हैं। उन्हें कहीं साहूकारों, तो कहीं बैंकों के कर्ज़ ने दबोच रखा है। अधिकतर किसानों की तो लागत भी लौटकर नहीं आती। कर्ज़ा न दे पाने के कारण उन्हें पहले पुलिस प्रताडि़त करती है और फिर जेलों में ठूँस देती है। ये किसान जमानत कराने के लिए वकील की फीस तक नहीं जुटा पाते और न ही इनके पक्ष में कोई राजनेता या कोई धर्म का ठेकेदार खड़ा होता है।

क्या हमें उनसे सवाल नहीं पूछना चाहिए? जिन्होंने इन निरीह किसानों के नाम पर किसान संगठन बनाकर दुकानें खोली हुई हैं? जिन्होंने किसानों को सिर्फ वोटबैंक का ज़रिया समझा हुआ है और बड़े राजनेताओं के लिए अपनी-अपनी वोटबैंक की दुकानें खोली हुई हैं। उन दुकानों पर किसानों की मासूमियत और ज•बातों को ऊँचे दामों पर बेचा जा रहा है। वे तथाकथित किसान नेता हैं और इस देश के हर ज़िले, तहसील, ब्लॉक और कस्बे में सरकार और मण्डी-फण्डी की दलाली करते फिरते हैं और किसानों को लूट-लाटकर अपनी सम्पदा में लगातार बढ़ोतरी कर रहे हैं। क्या किसान पुत्रों को इन किसान संगठनों, तथाकथित नेताओं के खिलाफ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए? उनकी सम्पत्ति की जाँच की माँग नहीं करनी चाहिए? इसके अलावा क्या हमें राजनीतिक दलों में किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे नेताओं से नहीं पूछना चाहिए कि वे किसानों की अनदेखी क्यों कर रहे हैं? देश के किसानों को मज़हब, वर्ण, जाति, क्षेत्र आदि में क्यों बाँट रहे हैं? अब तो यहाँ तक इन्होंने तथाकथित नेताओं ने किसानों को फसलों के आधार पर बाँट दिया, जैसे कि यह गन्ने का किसान, आलू का किसान, धान का किसान, कपास का किसान और बाजरे का किसान आदि।

अगर इसी तरह चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब किसानों का यह बँटवारा जातिगत बँटवारे की तरह किसानों में भेदभाव का कारण बन जाए। जी हाँ, इसीलिए किसानों को बाँटा जा रहा है। इसका लाभ होगा? क्या किसानों को इसका कोई लाभ है? नहीं; इसका सीधा फायदा सरकारों और पूँजीवादियों को ही होगा और किसान यूँ ही बदहाली की ज़िन्दगी जीता रहेगा। और अगर ऐसे ही बँटता गया, तो भविष्य में और भी बदहाल ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो जाएगा। क्योंकि जब महाराष्ट्र और पश्चिम यूपी के गन्ना किसानों को भुगतान नहीं होता, तो आगरा, मथुरा, बदायूँ और फरुखाबाद समेत अन्य जगहों का आलू का किसान खामोश रहता है। जब हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों को धान का वाजिब दाम नहीं मिलता, तो पूरे देश का गन्ने का किसान चुप रहता है। जब प्याज के किसान को बाजिव दाम नहीं मिलता, तो अन्य सब्जियाँ उगाने वाला किसान चुप रहता है। इसके अलावा भी किसान निजी स्वार्थ और न जाने कितने आडम्बर और पाखण्ड दिमाग में रखकर घूम रहा हैं। क्योंकि राजनेताओं द्वारा उसको पिलायी गयी धार्मिक अफीम का नशा उसके दिमाग को सातवें आसमान पर रखता है और वह अपने भले-बुरे की बात भी नहीं समझ पाता। इसलिए जब तक धार्मिकता के नाम पर अन्धविश्वास और आपसी मतभेद का नशा किसानों के सिर से नहीं उतरेगा, तब तक तथाकथित किसान नेता, राजनेता और धर्म के ठेकेदार मिलकर सभी किसानों के नाम पर मलाई चाटते रहेंगे और किसानों का खून भी चूसते रहेंगे। बहरहाल किसान पुत्र होने के नाते मैं कहना चाहता हूँ कि किसान और उनके बच्चे इस बात का ध्यान रखें कि जब तक वे दीनबन्धु छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, देवीलाल और कुम्भाराम आर्य जैसे किसी किसान नेता को अपने नेतृत्व की बागडोर नहीं सौंपते और एकजुट नहीं होते, तब तक ऐसे ही लुटते-पिटते रहेंगे; बर्बाद होते रहेंगे।

कहने का मतलब यह है कि इसमें किसानों के घर में पल रहे पढ़े-लिखे बच्चे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मैं आज के भोले और निरीह किसानों को कहना चाहता हूँ कि आपस में धर्म, जाति, पन्थ और क्षेत्र आदि को भुलाकर देश और किसान हित के बारे में सोचें, एक साथ मिलकर एक-दूसरे से प्यार-व्यवहार का रिश्ता बनाएँ तथा सच का खुलकर साथ दें। तभी किसानों की दयनीय स्थिति बदलेगी। पहले बदली भी है, जैसे 80 साल पहले सर छोटूराम, 50 साल पहले चौधरी चरण सिंह और 30 साल पहले महेंद्र सिंह टिकैत ने बदली थी। बस आज दरकार है उन जैसे दृढ़संकल्पी, साहसी, ईमानदार, किसान-हितैषी शिक्षित युवा किसान पुत्र की! पूँजीवादियों के दबाव में सरकार जिस प्रकार नये-नये कृषि अधिनियम और किसानों का भला करने की आड़ में कई तरह की नीतियाँ लेकर आ रही है, उससे किसानों को कम और पूँजीवादियों और विदेशी कम्पनियों को अधिक लाभ मिलता नज़र आ रहा है। आज के किसानों और खासतौर से किसानों के बच्चों को इस बात को गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है कि अगर एक बार किसान पूँजीपति के चंगुल में फँस गया, तो उसका निकलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाता है। ऐसे में वह जीवन भर सिर्फ छटपटाने के अलावा कुछ नहीं कर पाता और अन्त में या तो आत्महत्या कर लेता है या बेइ•ज़ती की ज़िन्दगी जीता रहता है।

अब भी समय है कि किसान धर्म, जाति, क्षेत्र, छोटे-बड़े और फसलवाद के बँटवारे के चक्कर में न फँसकर एकजुट हों और अपने लिए हक-हुकूक की लड़ाई लड़ें। अगर किसान जल्दी ही नहीं जागे, तो वह दिन दूर नहीं, जब नये मण्डी और कॉन्ट्रेक्ट खेती अधिनियम से किसानों से उनकी ज़मीने छिन जाएँगी; क्योंकि यह खतरा किसानों पर मँडराने लगा है। मध्य प्रदेश में ज़बरन किसानों से ज़मीन छीनने के चक्कर में उनकी खड़ी फसलों को उजाडऩा इसके ताज़ा उदाहरण हैं। कहीं ऐसा न हो कि किसान अपनी ही खेती की ज़मीन में किसी दिन मज़दूर बनकर काम करते नज़र आएँ, जैसा कि साहूकारी के दौर में होता रहा है। कहीं ऐसा न हो कि किसानों का भोलापन और आपसी भेदभाव आने वाली किसान पीढिय़ों के लिए भयानक प्रताडऩा का कारण बन जाए।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक है और यह उनके निजी विचार हैं।)