पश्चिम बंगाल का महासंग्राम

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के लिए अब दो माह से भी कम समय बचा है। यूँ तो सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार के लिए युद्धस्तर पर तैयारियाँ पहले से ही शुरू कर दी हैं और प्रचार-प्रसार की गतिविधियाँ बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से ही चल रही हैं। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का सीधा मुकाबला भाजपा से है। हालाँकि वाम दलों और कांग्रेस का प्रभाव भी राज्य में है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन ये दल वर्तमान माहौल और पिछले लोकसभा चुनाव को देखते हुए फिलहाल मुख्य दौड़ में नज़र नहीं आ रहे। अब तक की गतिविधियों के मुताबिक, पड़ोसी राज्य बिहार से ताल्लुक रखने वाली जदयू और राष्ट्रीय जनता दल व महाराष्ट्र की शिवसेना भी बंगाल की राजनीति में अपना हाथ आजमाने की तैयारी में हैं।

पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है और मुस्लिम 100 से 110 सीटों पर जीत दिलाने में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। टीएमसी नेताओं का कहना है कि भाजपा की मदद करने के लिए और मुस्लिम मतों (वोटों) को बाँटने की खातिर एआईएमआईएम को चुनाव लड़ाया जा रहा है। सन् 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान मुसलमानों ने अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ टीएमसी का साथ दिया और अधिकांश ने ममता की पार्टी के पक्ष में मतदान किया। पार्टी के लिए मुस्लिम मतदाता एक अहम फैक्टर हैं, जो राज्य में भगवा पार्टी का खुलकर विरोध कर सकते हैं। हालाँकि इस बीच हुगली में फुरफुरा शरीफ के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी ने भी सभी 294 सीटों पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है। उन्होंने इंडियन सेकुलरफ्रंट नाम की सियासी पार्टी भी बना ली है। मुस्लिमों के बीच प्रभावती अब्बास सिद्दीकी की इस पहल से कई राजनीतिक दलों का समीकरण गड़बड़ा सकता है।

भाजपा की रणनीति

सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में अपनी बड़ी जीत से उत्साहित भाजपा नेता अमित शाह ने इस बार विधानसभा चुनावों में भी खुद मोर्चा सँभाला है और सीधे टीएमसी से मुकाबला करने के लिए अपने को भाजपा के अगुआ के तौर पर पेश किया है। इसके लिए शाह ने भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ मिलकर रैलियों व अन्य कार्यक्रमों की रणनीति तैयार की और अपना मकसद पूरा करने के लिए टीएमसी के असन्तुष्टों को पार्टी में शामिल करवाया।

टीएमसी नेताओं ने भाजपा में हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण और सोनार बांग्ला को बढ़ावा देने के लिए नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए का मुद्दा उठाया। सीएए और अल्पसंख्यकों खासकर घुसपैठियों को लेकर भाजपा ने आक्रामक रुख अिख्तयार किया। इससे अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना पैदा की, ताकि दूसरी ओर हिन्दू मतदाताओं का धु्रवीकरण हो सके। निस्सन्देह श्यामा प्रसाद मुखर्जी की विरासत के लिए भाजपा का दावा पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकता है। वर्तमान में टीएमसी के भाजपा को बाहरी लोगों की पार्टी बताने के आरोपों को राज्य में साबित करने लिए लम्बा रास्ता तय करना होगा। भाजपा में शामिल किये गये अधिकांश प्रभावशाली नेता मूल पार्टी के सदस्य नहीं हैं; लेकिन वे वाम मोर्चा अथवा टीएमसी को छोड़कर शामिल हुए हैं।

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भाजपा ने सन् 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से पश्चिम बंगाल में एक लम्बी छलांग लगायी है। सन् 2014 के आम चुनाव में 42 में से दो सीटों की गिनती से वह सन् 2019 में 18 सीटों तक पहुँची। राजनीति के जानकारों के अनुसार, इस जीत में भाजपा के हिन्दू मतों की भूमिका रही। सन् 2014 और सन् 2019 के बीच किसी भी संसदीय क्षेत्र में मत फीसदी में कमी नहीं देखी गयी, जबकि हर सीट पर वाम मोर्चे की हिस्सेदारी में कमी दर्ज की गयी।

वाम दलों के नुकसान का सीधा फायदा भाजपा को हुआ; क्योंकि टीएमसी के मत हस्तांतरित नहीं हुए। मोटे तौर पर कहें, तो वामपंथी कैडर (संवर्ग) और समर्थकों ने टीएमसी को हराने के लिए भाजपा को रणनीतिक तरीके से समर्थन किया। सन् 2019 के बाद की अवधि में वाम दलों के साथ-साथ टीएमसी की भी हार हुई है। फिर भी भाजपा की रणनीति का एक प्रमुख घटक ममता की अगुवाई वाली टीएमसी के प्रमुख सहयोगियों, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को पार्टी में शामिल कराकर उसका मनोबल गिराना है। मीडिया के एक वर्ग की रिपोट्र्स के अनुसार, पश्चिम बंगाल में भाजपा ने 23 जनवरी को कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल में एक सभा आयोजित करके नेताजी सुभाष चंद्र बोस की विरासत के ज़रिये चुनावी लाभ लेने का प्रयास किया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में नेताजी की 125वीं जयंती मनायी गयी, जिसे प्रधानमंत्री ने पराक्रम दिवस बताया। प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब सम्बोधित करने वाली थीं, तो समर्थकों ने जय श्री राम के नारे लगाये। एक विशेषज्ञ ने बताया है कि टीएमसी प्रमुख के सामने सियासी रूप से अहम यह नारा लगवाया गया, ताकि दोनों के बीच तल्खी और बढ़े और वोट बैंक के लिए ध्रुवीकरण का रास्ता तैयार हो। कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि नेताजी की विरासत को उपयुक्त बनाने के भाजपा के प्रयासों को वैचारिक विरोधाभासों से भरा हुआ है; क्योंकि नेताजी अपने राजनीतिक करियर के तौर पर पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे।

ममता का रक्षात्मक रुख

टीएमसी को छोड़कर कुछ नेताओं के भाजपा का दामन थाम लेने के बावजूद तृणमूल पूरी तरह आश्वस्त है कि आगामी राज्य के विधानसभा चुनाव में उसी के नेतृत्व वाली सरकार बनेगी। हालाँकि चुनाव से पहले नेताओं का पार्टी छोड़कर जाना टीएमसी जैसी क्षेत्रीय पार्टी के लिए बेहतर कदम नहीं हो सकता। फिर भी जब इसका सामना भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ होता है, तो आगामी चुनावी लड़ाई टीएमसी नेतृत्व के लिए न केवल अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए और अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाती है, बल्कि रक्षात्मक तरीके से आक्रामक रुख अिख्तयार करने से पार्टी के होने वाले नुकसान को भी नियंत्रित कर सकती है।

सन् 2019 में 18 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाली भाजपा 121 विधानसभा क्षेत्रों में तब्दील हो जाती है। लेकिन अमित शाह के 200 सीटों के अनुमान का अहसास करने के लिए भाजपा को मतों का फीसद बढ़ाना होगा।

टीएमसी के साथ-साथ कुछ राजनीतिज्ञ भी यह मानते हैं कि लोकसभा चुनाव का माहौल आमतौर पर विधानसभा चुनावों से अलग होता है और पार्टी नेतृत्व यह विश्वास दिलाता है कि टीएमसी का िकला उखडऩे वाला नहीं है। टीएमसी के भीतर हाल ही में उथल-पुथल से पता चलता है कि आंतरिक असन्तोष पार्टी के भीतर केंद्रीकृत शक्ति को सँभालने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ रहे होंगे। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, टीएमसी में कुछ खामियाँ तो हैं; क्योंकि यह एक नेता के व्यक्तित्व पर केंद्रित पार्टी हो गयी है। माना जाता है कि शुरुआती चरण में टीएमसी की एक आन्दोलनकारी पार्टी के रूप में पहचान थी, जिसने राज्य में तीन दशकों से चली आ रही वाम दलों की सरकार का िकला ध्वस्त किया था। इसमें स्थानीय और दिग्गज नेताओं के साथ-साथ बहुत सारे ज़मीनी कार्यकर्ता शामिल हुए थे, जिससे सत्ता हासिल करने में आसानी हुई थी। नेता के प्रति निष्ठा रखने वालों ने पार्टी को एक साथ रखा और वफादारी को संरक्षण प्रदान करके उनको पार्टी में शामिल कराया।

कुछ नेता-राजनेता पार्टी में अहमियत और पद की चिन्ता के चलते भाजपा में चले गये। इन नेताओं का मानना है कि उनको वह पद और मुकाम नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। वरिष्ठ टीएमसी नेतृत्व की ओर से इस बाबत ध्यान देने में देरी को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया जा रहा है कि टीएमसी को सभी को आत्मसात करने और आपसी मतभेद दूर करने की ज़रूरत है। ममता बनर्जी का हालिया दावा उनके आत्मविश्वास को दर्शाता है कि ‘माँ-माटी-मानुष’ की उनकी सरकार राज्य में सत्ता वापसी करेगी। उन्होंने भाजपा को एक ऐसा गुब्बारा बताया है, जो केवल मीडिया में छाया है; जबकि टीएमसी लोगों के दिलों में राज करती है।

आगे क्या

पश्चिम बंगाल में 2021 के ये विधानसभा चुनाव बेहद दिलचस्प होने वाले हैं। टीएमसी सरकार की नीतियों के साथ-साथ पार्टी प्रमुख के नेतृत्व के लिए एक लिटमस टेस्ट (तरल परीक्षण) होगा। इसके अलावा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में चल रहे किसान आन्दोलन के मद्देनज़र भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की परीक्षा भी होनी है।

टीएमसी के लिए चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का मानना है कि भाजपा अमित शाह के 200 सीटों के दावे से इतर 100 सीटें भी हासिल नहीं कर सकेगी। खैर, यह तो आगे देखा जाएगा कि कौन सही साबित होता है? इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास रहा है। इसलिए इस नज़र से भी चीज़ों को परखना होगा।

यह भी देखना होगा कि सियासी दल राज्य के आर्थिक विकास के लिए खाका खींचने पर ज़ोर देंगे या फिर भड़काऊ बयानों से मतदाताओं को लुभाने पर ज़ोर देंगे।

(कोलकाता से लौटकर)