पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे एशियाई देश

भारत के साथ रिश्तों को लेकर सबकी नज़र पाकिस्तान पर

यह अप्रैल के दूसरे हफ़्ते की बात है। पाकिस्तान में शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में विपक्षी दलों की गठबंधन सरकार बने एक हफ़्ता हुआ था। अमेरिका ने शहबाज़ को प्रधानमंत्री बनने की बधाई दे दी थी। यह इसलिए भी अहम था, क्योंकि सत्ता से बाहर होने वाले इमरान ख़ान ने अपनी सरकार गिरने की पीछे अमेरिका का हाथ होने का आरोप लगाया था। शहबाज़ अपने बयानों से इमरान के अमेरिका विरोधी रुख़ के ख़िलाफ़ दिख रहे थे, क्योंकि सेना भी इमरान ख़ान के इस बयान को नकार चुकी थी। लेकिन सत्ता में आने के एक हफ़्ते में ही अमेरिका के बधाई स्वीकार करने के दौरान शहबाज़ और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच गुपचुप पत्राचार हुआ, जिसमें पुतिन ने शहबाज़ को प्रधानमंत्री बनने पर बधाई दी और दोनों देशों के बीच सहयोग मज़बूत करने की बातें हुईं। इस पत्राचार को मीडिया से छिपाया गया। तो क्या इमरान ख़ान के अमेरिका के प्रति रुख़ को शहबाज़ भी आगे बढ़ा रहे हैं, क्योंकि वह रूस को नाराज़ नहीं रखना चाहते।

आने वाले समय में इस्लामाबाद की इस नयी नीति के नतीजों का पता चलेगा; क्योंकि भारत के साथ उसके द्विपक्षीय रिश्तों का बहुत कुछ दारोमदार इस पर निर्भर करता है कि उसके रिश्ते एशिया में किन देशों से और कैसे हैं? माना जा रहा है कि भारत यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस के और नज़दीक आया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एशियाई देश अमेरिका और पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं? अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगा। चीन, जो कमोवेश खुले रूप से रूस के साथ खड़ा दिख रहा है; ने भी हाल में अमेरिका के ख़िलाफ़ खड़े होने का एशियाई देशों का कुछ ऐसा ही आह्वान किया था।

यहाँ एक बड़ा सवाल यह है कि क्या रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया एक नयी विश्व-व्यवस्था में ढल रही है? यह भी कि क्या काफ़ी एशियाई देश अमेरिका और पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं? बहुत-से देश यह मानते हैं कि हाल के दशकों में अमेरिका ने उन्हें अपने हिसाब से हाँकने की कोशिश की है। जब-तब वह इन देशों को हडक़ाता रहता है। इमरान ख़ान ने भी सत्ता के आख़िरी दिनों में कुछ ऐसे ही आरोप लगाये थे और कहा था कि कोई भी ख़ुद्दार देश ऐसी स्थिति ख़ुशी से स्वीकार नहीं कर सकता। इसके लिए इमरान ने ख़ासतौर पर भारत का उदाहरण देते हुए कहा था कि हमारे पड़ोसी देश से अमेरिका उस तरीक़े से पेश नहीं आ सकता, जैसे वह पाकिस्तान को हाँकता है। हालाँकि सच यह है कि रूस के साथ रिश्तों को लेकर अमेरिका ने भारत को भी ख़ूब आँखें दिखायी हैं।

रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक स्तर पर स्थितियों को काफ़ी बदला है। ऐसा नहीं है कि पूरा एशिया ही अमेरिका के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया है; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त देखें, तो देशों के नज़रिये में काफ़ी बदलाव आया है। प्राचीन समय को याद करें, तो ज़ाहिर होता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद और शीत युद्ध के दौरान भी खुले रूप से दुनिया दो ख़ेमों में बँट गयी थी। उस समय भी दुनिया के एक हिस्से का नेतृत्व अमेरिका तो दूसरे का तत्कालीन सोवियत संघ कर रहा था। यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि दूसरे विश्व युद्ध के चार साल बाद सन् 1949 में नाटो अर्थात् नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन का गठन हुआ था। अमेरिका के नेतृत्व में कनाडा और अन्य पश्चिमी देश इसके गठन के पीछे थे। नाटो के उस समय कुल जमा एक दर्ज़न सदस्य थे, जो आज 30 हो चुके हैं।

यूक्रेन भले नाटो सदस्य न हो; लेकिन उसे रूस के ख़िलाफ़ युद्ध में अमेरिका और उसके सहयोगियों से भरपूर मदद मिली है। वैसे नाटो का जब गठन हुआ था, तो यह तय किया गया था कि उत्तरी अमेरिका या यूरोप के इन देशों में से किसी एक पर भी हमले को संगठन में शामिल सभी देश अपने ऊपर हमला मानेंगे और एक दूसरे की मदद करेंगे। हालाँकि 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हो गया, तो वैश्विक परिदृश्य भी बदल गया। दरअसल सोवियत संघ का विघटन ही नाटो के जन्म की असल वजह थी।

पुतिन ने यूक्रेन के बहाने अमेरिका के नेतृत्व को पहली बार चुनौती नहीं दी है। इससे पहले अमेरिका की एकध्रुवीय शक्ति को रूस ने सीरिया में भी चुनौती दी थी। तब अमेरिका लाख कोशिश करके भी रूस की कोशिश को नाकाम नहीं कर पाया था, न सीरिया में वह बशर अल-असद को सत्ता से बाहर कर पाया था और उसे सीरिया से निराश होकर लौटना पड़ा था। रूस ने यूक्रेन युद्ध से पहले ही दूसरे देशों को अपने साथ जोडऩा शुरू कर दिया था। यहाँ तक कि हाल के महीनों में रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भारत का भी दौरा किया था।

यह ठीक है कि अभी दुनिया शीत युद्ध के समय की तरह पूरी तरह दो ध्रुवीय नहीं हुई है; लेकिन बढ़ उसी तरफ़ रही है। हाल के दिनों में भारत जैसा देश, जो कुछ महीने पहले तक पूरी तरह अमेरिका के साथ दिखता था; अब रूस के नज़दीक दिख रहा है और अमेरिका इसके लिए उसे (भारत) को आँखें दिखा रहा है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की 23 अप्रैल की भारत यात्रा को इसी क्रम में देखा जा सकता है। विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जॉनसन की भारत यात्रा एक तरह से उसे (भारत को) अमेरिकी ब्लॉक में बनाये रखने की भी क़वायद थी।

पाकिस्तान का इमरान ख़ान के सत्ता काल में खुले रूप से अमेरिका के ख़िलाफ़ होना इस बात का संकेत है कि अमेरिका एशिया में अपने सहयोगी खो रहा है। अब जिस तरह शहबाज़ शरीफ़ और पुतिन के बीच पत्र का आदान-प्रदान हुआ है और इसे जिस तरह मीडिया से छिपाकर रखा गया, उससे ज़ाहिर होता है कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ बने रहने के लिए रूस को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहता। चीन ने जिस तरह खुलकर रूस का साथ दिया है, उससे पाकिस्तान जैसे देशों पर भी दबाव बनना स्वाभाविक है।

 

रूस के नज़दीक कौन?

एशिया में ही चीन, भारत जैसे देश रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में तटस्थ दिखे हैं। अर्थात् उन्होंने रूस का विरोध नहीं किया है। अमेरिका का भारत पर दबाव बनाना ज़ाहिर करता है कि उसे भारत का रूस के साथ इस तरह जाना जँच नहीं रहा। इसके अलावा शिया मुस्लिम बहुल ईरान, जो मध्य पूर्व में पश्चिम एशिया का देश है; के अमेरिका से सन् 1979 की इस्लामिक क्रान्ति के समय से ख़राब सम्बन्ध हैं। रूस से ईरान के फ़िलहाल अच्छे सम्बन्ध हैं।

हाल में ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सईद ख़ातिबज़ादेह ने कहा था कि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान सभी पक्षों से धैर्य की अपेक्षा करता है। किसी भी तरह के तनाव बढ़ाने वाले क़दम से परहेज़ करना चाहिए। सभी पक्ष संवाद के ज़रिये अपने मतभेदों को सुलझा सकते हैं। हालाँकि उन्होंने जो महत्त्वपूर्ण बात कही वह यह थी दुर्भाग्य से अमेरिका ने नाटो के हस्तक्षेप और उकसाऊ क़दम से इलाक़े की स्थिति को जटिल बना दिया है।

तुर्की, जिसकी बहुसंख्यक आबादी मुसलमान है; के सम्बन्ध भी हाल के महीनों में अमेरिका से तल्ख़ हुए हैं। तुर्की, जिसकी सीमा एशिया और पश्चिम दोनों से जुड़ती है; नाटो का सदस्य भी है। नाटो के सदस्य के नाते तुर्की यूक्रेन पर रूसी हमले का समर्थक भले नहीं रहा है। लेकिन उसके राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन उस समय से अमेरिका से ख़फ़ा रहे हैं, जब उसने तुर्की पर रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम लेने कारण प्रतिबंध लगा दिया था। विशेषज्ञ मानते हैं कि जो बाइडन के सत्ता में आने के बाद तो तुर्की के अमेरिका से सम्बन्ध ख़राब हुए हैं। अर्दोआन के बारे में मशहूर है कि जब भी वे अमेरिका से ख़फ़ा होते हैं, तो पुतिन के पास पहुँच जाते हैं।

इसी तरह पश्चिम एशिया का एक और देश संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने युद्ध को लेकर कभी यह नहीं कहा कि रूस ने यूक्रेन की सम्प्रभुता का उल्लंघन किया है। उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में यूक्रेन के मुद्दे को कूटनीतिक वार्ता से सुलझाने की अपील की थी। युद्ध के दौरान यूएई के विदेश मंत्री रूस के अपने समकक्ष से फोन पर बात करते रहे हैं। दोनों अपने सम्बन्धों को और मज़बूत करने पर ज़ोर देते रहे हैं।

दरअसल अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहे हैं। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सऊदी अरब से तेल का उत्पादन बढ़ाने का आग्रह किया था। सऊदी ऐसा करता, तो महँगाई और गैस की क़ीमत कम करने में मदद मिलती और इससे रूस के तेल से होने वाले फ़ायदे को रोका या कम किया जा सकता था; लेकिन सऊदी अरब ने अमेरिका की बात नहीं मानी थी। क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के मज़बूत होने से सऊदी-रूस सम्बन्ध और मज़बूत हुए हैं। हाल के वर्षों में पुतिन और क्राउन प्रिंस की कई बैठकें हुई हैं।

चीन रूस की ही तरह नाटो का विस्तार नहीं चाहता। बीजिंग विंटर ओलंपिक के उद्घाटन पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन जब फरवरी में चीन गये थे, तब एक साझे बयान में चीन ने नाटो के विस्तार पर आपत्ति जतायी थी। यूक्रेन युद्ध के दौरान जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की बैठक हुई, तो चीन के राजदूत ने कहा था कि मौज़ूदा स्थिति कई जटिल कारणों की वजह से है। चीन ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत सभी देशों को शान्तिपूर्ण माध्यमों से अंतरराष्ट्रीय विवादों का हल निकालना चाहिए। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि जिस तरह पश्चिमी देशों के रूस पर प्रतिबंध बढ़े हैं, सम्भवत: चीन उसकी मदद करेगा। वैश्विक राजनीति को देखें तो साफ़ है कि चीन-रूस मिलकर अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं।

यदि मध्य और पूर्वी यूरोप की बात करें, तो रोमानिया, बुल्गारिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, लात्विया, एस्टोनिया और लिथुआनिया 2004 में जबकि क्रोएशिया और अल्बानिया 2009 में नाटो में शामिल हो गये थे। इससे पहले जॉर्जिया और यूक्रेन को साल 2008 में नाटो की सदस्यता मिलने वाली थी; लेकिन आज तक दोनों नाटो में नहीं हैं। यूक्रेन को लेकर रूस का सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा यही रहा है कि वह नाटो में शामिल होना चाहता है। रूस इसका जबरदस्त विरोध करता रहा है।

इनमें से क्रोएशिया की बात करें, तो नाटो में होने के बावजूद यूक्रेन पर उसका रुख़ नाटो से मेल नहीं खाता। क्रोएशिया के राष्ट्रपति ज़ोरान मिलानोविक ने युद्ध से पहले ही कह दिया था कि यदि रूस के साथ संघर्ष छिड़ा, तो वह यूक्रेन से अपनी सेना वापस बुला लेगा और उसने ऐसा ही किया। क्रोएशिया ने कहा था कि रूस की सुरक्षा चिन्ताओं का ख़याल रखना चाहिए। अज़रबैजान भी रूस के साथ खड़ा दिखा है। युद्ध से ऐन पहले उसके राष्ट्रपति रूस के दौरे पर थे और उस दौरान उन्होंने अलाई डिक्लेरेशन पर दस्तख़त किये थे।

 

भारत और पाकिस्तान

जहाँ तक भारत की बात है, दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था होने के कारण उसके लिए भले रूस या अमेरिका में किसी एक का खुलकर पक्ष लेना मुश्किल है। हालाँकि हाल के हफ़्तों में रूस के प्रति भारत का रुख़ समर्थक जैसा दिखा है, भले उसने कहा है कि रूस-यूक्रेन युद्ध का हल बातचीत से होना चाहिए। अमेरिका के भारत पर दबाव बनाने के बावजूद भारत ने रूस के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है और सस्ते तेल निर्यात के रूस के ऑफर को भी स्वीकार किया है।

अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के रूस के राष्ट्रपति के साथ गुपचुप के पत्र व्यवहार के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या इमरान ख़ान का अमेरिका को लेकर जो स्टैंड आख़िरी दिनों में बना था; शहबाज़ सरकार काफ़ी हद तक उसी पर चलना चाह रही है। यदि ऐसा है तो यह अमेरिका के लिए बड़ा झटका होगा, क्योंकि पाकिस्तान अमेरिका का दशकों से दक्षिण एशिया में सबसे विश्वस्त सहयोगी रहा है। यह मान्यता रही है कि अमेरिका का कोई भी बड़ा अधिकारी जब भारत के दौरे पर आता है, तो वह साथ ही पाकिस्तान भी ज़रूर जाता है।

भारत को हाल के वर्षों में गुटनिरपेक्ष नीति पर चलने वाला वैसा मज़बूत देश नहीं कहा जा सकता, जैसा वह पहले रहा है। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने जैसा व्यक्तिगत रिश्ता बनाया और उनके चुनाव के समय जिस तरह उनके साथ खड़े दिखे उसकी कांग्रेस पार्टी काफ़ी आलोचना करती रही है और उसका आरोप रहा है कि भारत अपनी गुटनिरपेक्ष नीति से बाहर जा रहा है। हालाँकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने ऐसी कई नीतिगत चीजें की हैं, जो परम्परा से हटकर रही हैं। विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस इसकी कटु आलोचना करती रही है।

हाल में पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर दोनों देशों के बीच सार्थक सम्बन्धों की वकालत की। प्रधानमंत्री मोदी ने शहबाज़ शरीफ़ से कहा था कि भारत अपने पड़ोसी पाकिस्तान के साथ रचनात्मक सम्बन्ध का इच्छुक है। जवाब में शहबाज़ शरीफ़ ने कहा कि पाकिस्तान, भारत के साथ शान्तिपूर्ण और सहयोगात्मक सम्बन्ध चाहता है। पाकिस्तान, भारत के साथ शान्तिपूर्ण और सहयोगात्मक सम्बन्ध का इच्छुक है। जम्मू और कश्मीर सहित बक़ाया विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान अपरिहार्य है। आतंकवाद से संघर्ष में पाकिस्तान का बलिदान भी जगज़ाहिर है। आइये, शान्ति स्थापित करें और अपने लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास पर ध्यान दें!

 

पाकिस्तान की स्थिति

पकिस्तान में नयी सरकार बनने के बाद भारत से उसके रिश्तों पर सबकी नज़र है। यह तो नहीं होगा कि सीधे कूटनीतिक स्तर पर कोई बड़ा घटनाक्रम हो। लेकिन सांस्कृतिक, खेल और व्यापारिक (कॉमर्स) स्तर से रिश्तों की बहाली पर काम शुरू हो सकता है। अब देखना यह होगा कि विदेश मंत्री बनने के बाद बिलावल भुट्टो क्या करते हैं? क्योंकि उनकी पार्टी पीपीपी की विदेश नीति प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की पार्टी पीएमएलएन से भिन्न रही है। हालाँकि पाकिस्तान में विदेशी रिश्तों को लेकर सेना का हस्तक्षेप रहता है, यह माना जाता है कि पाकिस्तान में सेना का रुख़ हाल के कुछ वर्षों में बदला है। हाल में पाकिस्तान की कोर्ट ने भारत की तरफ़ से मोस्ट वांटेड हाफ़िज़ सईद को 31 साल की जेल की सज़ा सुनायी गयी है और उसकी सम्पत्ति ज़ब्त करने के आदेश भी हुए हैं। जानकार इसे सेना के भारत के साथ रिश्तों को बेहतर करने की दिशा में एक कोशिश के रूप में देखते हैं। यह तय है कि भारत का रुख़ आतंकवाद को लेकर सख़्त रहेगा। ऐसे में सईद को जेल की सज़ा को सेना के भारत के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में भी देखा जा सकता है। यह तो तय है कि पाकिस्तान के साथ इतने साल के तनाव के बाद सीधे कश्मीर, सियाचिन, सर क्रीक जैसे वृहद आकार के मसलों पर बातचीत नहीं हो सकती। यह माना जाता है कि हाल के महीनों में भारत और पाकिस्तान के बीच बैकडोर चैनल्स के ज़रिये बातचीत हुई है। जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान की भारत किसी भी तरह की कोई सक्रियता पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान लौटने के बाद ही दिखेगी, जिनके बारे में कहा जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। पाकिस्तान में भीतरी विसंगतियाँ भी हैं। गठबंधन सरकार के बीच इमरान ख़ान के विरोध को छोड़ दें, तो आपसे सम्बन्धों में सौ पेच हैं। ऐसे में देखना होगा कि आने वाले दिनों में शुरुआती स्तर पर क्या होता है?

कौन बनेगा सेनापति?

पाकिस्तान में सेना की भूमिका सबको पता है। भारत के साथ रिश्तों में सेना की प्रमुख भूमिका रहेगी। ऐसे में देखना होगा कि जनरल क़मर जावेद बाजवा, जो नवंबर में रिटायर होने वाले हैं; उन्हें दूसरी बार सेवा विस्तार मिलता है या उनकी जगह नया सेनाध्यक्ष आता है? बाजवा 29 नवंबर को अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे। उन्हें नवाज़ शरीफ़ ने सेना प्रमुख नियुक्त किया था। बाद में उनके रिश्तों में दरार आ गयी। ऐसे में कम सम्भावना है कि बाजवा को सेवा विस्तार मिलेगा। नये आर्मी चीफ की दौड़ में लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा, अजहर अब्बास, नौमान महमूद राजा और फ़ैज़ हमीद माने जाते हैं। ये सैन्य अधिकारी पाकिस्तानी सेना की अलग-अलग कोर की कमान के प्रमुख हैं। लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा बाजवा के रिटायर होने के बाद पाकिस्तानी सेना में सबसे वरिष्ठतम सेवारत अधिकारी होंगे। उन्हें विनम्र और निर्विवाद अधिकारी माना जाता है। उनके अलावा लेफ्टिनेंट जनरल अजहर अब्बास इस समय जीएचक्यू में चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस) हैं। वे संयुक्त स्टाफ मुख्यालय के डायरेक्टर जनरल रह चुके हैं। तीसरे लेफ्टिनेंट जनरल नौमान महमूद राजा हैं, जो नवंबर, 2021 से पाकिस्तान के नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी (एनडीयू) के अध्यक्ष हैं। चौथे लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद इस समय पेशावर में 11वीं कोर के कमांडर हैं। वह जून, 2019 से अक्टूबर, 2021 तक पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के डायरेक्टर जनरल और जनरल बाजवा के चीफ ऑफ स्टाफ रह चुके हैं।