परम्परागत वन्य-भूमि से बेदखल हो सकते हैं 3.78 लाख आदिवासी, वन-निवासी परिवार

आज कोविड-19 जैसी महामारी के चलते जहाँ पूरी दुनिया उथल-पुथल हो चुकी है, वहीं मध्य प्रदेश के जंगलों में सदियों से रह रहे आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों के सामने आवास और आजीविका का संकट पैदा होने की स्थिति आ गयी है। परम्परागत रूप से वनों में रहने वाले आदिवासियों एवं वन-निवासियों ने सदियों से अपनी कर्मभूमि रही वन्य-भूमि पर वन अधिकार हेतु पट्टों के लिए मध्य प्रदेश शासन को 6 जुलाई, 2020 तक 3.79 लाख आवेदन दिये थे, जिसमें राज्य सरकार ने केवल 716 आवेदन स्वीकार किये हैं; जबकि 3.78 लाख से ज़्यादा आवेदन खारिज कर दिये। एक परिवार से एक आवेदन किया गया था। सरकार द्वारा इतनी बड़ी संख्या में वन अधिकार पट्टों के आवेदन खारिज किये जाने से वनों में रहने वाले 15 लाख से अधिक आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों के सामने आवास व आजीविका की समस्या पैदा हो गयी है।

क्या है मामला

ज्ञात हो कि कुछ एनजीओ द्वारा वन अधिकार कानून-2006 को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि उन सभी लोगों को वन्य-भूमि से बेदखल किया जाए, जिनके वननिवासी होने का दावा खारिज कर दिया गया है। इसकी ज़द में 16 राज्यों के लगभग 12 लाख से ज़्यादा आदिवासी एवं वननिवासी परिवार थे।

सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से देश में हड़कम्प मच गया था। इस आदेश पर अनेक बुद्धिजीवियों ने चिन्ता ज़ाहिर की थी और विपक्ष समेत अनेक वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आदिवासियों और परम्परागत वन-निवासियों का पक्ष सही ढंग से नहीं रखा। वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने इंगित किया कि बहुत-से लोगों के दावों को यांत्रिक तरीके से खारिज कर दिया गया और उनके दावों पर ठीक से विचार नहीं किया गया था। इस आदेश पर विवाद होने के बाद केंद्र सरकार ने एक अर्जी दायर कर इस पर रोक की माँग की। 28 फरवरी, 2019 को कोर्ट ने अपने दिये आदेश पर रोक लगा दी। सितंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को निर्देश दिया कि वन्य-भूमि पर इन दावों के न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया के तौर-तरीकों का खुलासा करते हुए हलफनामा दायर करें और उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाली वन्य-भूमि के वन सर्वे की विस्तृत रिपोर्ट अगली सुनवाई पर पेश करें।

पट्टों के लिए वन-मित्र एप लॉन्च

आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को वन अधिकार कानून के तहत भूमि आवंटन की प्रक्रिया में तेज़ी लाने और भ्रष्टाचार की जाँच करने के लिए मध्य प्रदेश की कमलनाथ नीत तत्कालीन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 2 अक्टूबर, 2019 को वन-मित्र एप लॉन्च किया था। सभी आवेदन पत्र एप के माध्यम से भरे गये थे। एप लॉन्च के बाद उम्मीद की जा रही थी कि आदिवासियों एवं वन-निवासियों के दशकों से चली आ रही वन अधिकार पट्टा सम्बन्धी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन हमेशा की तरह तीन पीढिय़ों के कब्ज़े का प्रमाण उपलब्ध नहीं करने की बात कहकर आवेदकों के दावों को ज़िलास्तर की समितियों द्वारा खारिज कर दिया गया। जबकि वन अधिकार कानून-2006 की धारा-2(ण) एवं धारा-4(3) में आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों से सम्बन्धित दिये गये प्रावधानों में तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के प्रमाण उपलब्ध कराने का कोई उल्लेख नहीं है, बल्कि 13 दिसंबर, 2005 तक आदिवासियों, वन-निवासियों द्वारा सम्बन्धित भूमि पर काबिज़ रहने का उल्लेख है।

क्या है वन अधिकार कानून

देश को आज़ादी मिलने के साठ साल बाद देश की संसद ने वनाश्रितों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होना स्वीकार किया और 2006 में वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक कानून पारित किया गया- अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006। यह केवल वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को ही मान्यता देने का नहीं, बल्कि देश के जंगलों एवं पर्यावरण को बचाने के लिए वनाश्रित समुदाय के योगदान को भी मान्यता देने का कानून है।

यह कानून सन् 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम के असंतुलन को ठीक करने के लिए लाया गया। वन अधिकार अधिनियम-2006 पहला और एकमात्र कानून है, जो भूमि और खेती पर महिलाओं के स्वतंत्र अधिकारों को मान्यता देता है। इस कानून में जंगलों में रहने वाले आदिवासी समूहों और अन्य वन-निवासियों को संरक्षण देते हुए उनके पारम्परिक भूमि पर अधिकार देने का प्रावधान है। सामुदायिक पट्टे का भी प्रावधान है; जिसके अनुसार, ग्राम सभा के जंगल और ज़मीन पर स्थानीय ग्राम-सभा का ही अधिकार होगा। इसके लिए आदिवासी लोगों को कुछ निश्चित दस्तावेज़ दिखाकर ज़मीनों पर अपना दावा करने के बाद अधिकारी द्वारा इन दस्तावेज़ों के आधार पर आदिवासियों और वन-निवासियों के दावों की जाँच करके वन अधिकार पट्टा दिया जाता है।

वन विभाग की अनैतिक कार्यवाही

वन अधिकार कानून-2006 की धारा-2(घ) में वन्य-भूमि की परिभाषा दी गयी है, जिसमें भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-27 एवं धारा-34(अ) के अनुसार राजपत्र में डीनोटिफाइड की गयी भूमि को एवं सुप्रीम कोर्ट की याचिका क्रमांक- 202/95 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तुत आई.ए. क्रमांक- 791, 792 में 01 अगस्त, 2003 के कोर्ट के आदेशानुसार बड़े झाड़ के जंगल, छोटे झाड़ के जंगल मद में दर्ज भूमि को वन संरक्षण कानून-1980 के दायरे से मुक्त घोषित किया गया है। लेकिन राज्य स्तरीय वन अधिकार समिति एवं राज्य मंत्रालय डीनोटिफाइड भूमि एवं अदालत द्वारा मुक्त की गयी भूमि को गैर वन्य-भूमि माने जाने के बाबत अभी तक कोई पत्र, प्रपत्र या आदेश जारी ही नहीं किया। उक्त डीनोटिफाइड भूमि, बड़े झाड़ के जंगल, छोटे झाड़ के जंगल मद में दर्ज भूमि को संरक्षित वन मानकर वन-विभाग द्वारा लगातार कब्ज़ा किया गया। वहाँ के आदिवासियों और वन-निवासियों पर अत्याचार किये गये। घरों को ढहा दिया गया। खेतों को नष्ट कर दिया गया और मामला दर्ज कर प्रताडि़त भी किया गया।

आदिवासियों-वन-निवासियों के विरुद्ध वन-विभाग की पिछली कुछ कार्यवाहियाँ

22 जुलाई 2020 पुष्पराजगढ़ ज़िले के ग्राम बेंदी के डूमर टोला में राष्ट्रपति द्वारा संरक्षित बैगा आदिवासी समुदाय के लगभग 50 परिवारों की 103 एकड़ खेती की भूमि वन-विभाग ने सरकारी दबदबा बनाकर कब्ज़ा ली और खेतों में गड्ढे खोदकर धान की खड़ी फसल को नष्ट कर दिया।

11 जुलाई, 2020 को रीवा ज़िले के अंतर्गत गुढ़ तहसील के ग्राम हरदी में वन-विभाग ने आदिवासियों, वन-निवासियों के लगभग 100 मकान बिना किसी सूचना के तोड़ दिये। पीडि़तों का आरोप था कि सन् 1990 में उन्हें सरकारी पट्टे वितरित हुए थे, तब से वे वहाँ रह रहे हैं। वन-विभाग के अधिकारियों द्वारा 5000 रुपये तक की माँग की गयी, जो नहीं दे पाने पर वन-विभाग ने उनके घर तोड़ दिये। 27 जून, 2020 को सिंगरौली ज़िले के बंधा गाँव में आदिवासियों के घरों पर वन-विभाग ने बुल्डोजर चला दिया।

आदिवासियों, वन-निवासियों में जानकारी का अभाव

परम्परागत रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जंगलों में निवास करने वाले अधिकांश आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों में ज़मीन के कागज़, पहचान पत्र, सरकारी योजनाओं की जानकारी इत्यादि का सर्वथा अभाव रहता है, जिसके मद्देनज़र वन अधिकार पट्टा देने के लिए वन अधिकार कानून-2006 में नियम-13 में साक्ष्य का विस्तृत ब्यौरा दिया गया। वन अधिकार कानून-2006, नियम-2008 के नियम 13(झ) के तहत वन अधिकार पट्टा के लिए तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के साक्ष्य के तौर पर ग्राम के बुजूर्गों के बयान तथा ग्राम पंचायत के सरपंच और सचिव के द्वारा बयान सत्यापित करके वन अधिकार पट्टा देने का प्रावधान है। बावजूद इसके आदिवासियों व परम्परागत वन-निवासियों के साथ लगातार अत्याचार-अन्याय होता रहा और उन्हें वन अधिकार पट्टे से वंचित किया जाता रहा। वन अधिकार कानून-2006 लागू होने एवं राज्य में प्रभावी होने के समय से लेकर आज तक राज्य सरकार द्वारा लगभग 98 फीसदी दावों को तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के प्रमाण के नाम पर लगातार अमान्य किया गया। तहसील एवं ज़िला स्तर के अधिकारियों, वन अधिकारियों द्वारा ग्राम सभा की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया गया। उसी क्षेत्र में निवास करने से सम्बन्धित शासकीय अभिलेखागारों में उपलब्ध अभिलेखों (दस्तावेज़ों) का विवरण भी वन अधिकार समिति, उपखण्ड स्तरीय समिति एवं ज़िला स्तरीय समिति को उपलब्ध नहीं करवाया गया, जिसके आधार पर सत्यापन की प्रक्रिया भी निर्धारित नहीं की गयी। गैर वन्य-भूमि को वन्य-भूमि मानकर दावे मान्य-अमान्य किये गये।

कैसी हो सरकार की भूमिका

किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का उत्तरदायित्व होता है कि वह जनता के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाये और कार्य करे; न कि जनता के ही संसाधनों को कब्ज़ाने का प्रयास करे। लेकिन अब तक वन-विभाग की आदिवासियों, वन-निवासियों को जंगलों से किसी तरह बेदखल करने की पूरी कोशिश रही है। राज्य सरकार द्वारा 3.79 लाख आवेदनों में 99 फीसदी दावों को अमान्य किया जाना एक ऐतिहासिक शासकीय भूल साबित होगी। 3.79 दावे वाले परिवारों की कुल जनसंख्या लगभग 20 लाख हो सकती है। आिखर 15 लाख से अधिक लोग कहाँजाएँगे? कैसे गुज़र-बशर करेंगे? आदि सवालों का समाधान करना राज्य सरकार का दायित्व है। मध्य प्रदेश के आदिवासियों एवं परम्परागत वन निवासियों में जीवन को लेकर अनिश्चितता बरकरार है। मध्य प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह आवेदकों के दावों का पुन: निरीक्षण करे और वन अधिकार कानून-2006, नियम-2008 के नियम-13(झ) का बड़ी संख्या में इस्तेमाल कर आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को तेज़ गति वन अधिकार पट्टे जारी करे।