पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए…

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हिंदी हिनेमा के संगीत के शुरुआती दौर के सबसे प्रयोगधर्मी संगीतकारों की सूची तैयार की जाए
तो अनिल विश्वास का नाम शीर्ष पर होगा.

अनिल विश्वास हिंदी फिल्म संगीत के पुरोधा के रूप में जाने जाते हैं. बोलती फिल्मों का दौर जब से आरंभ हुआ और उसमें गीत-संगीत के आगमन का रोचक इतिहास बस बनना शुरू ही हुआ था, उस समय अनिल विश्वास जैसे संगीतकार को बेहद प्रमुखता से संगीत के आधुनिक प्रणेता के रूप में आदर मिला.

शुरुआती दिनों में, जो कि उन्नीसवीं शताब्दी का चौथा दशक था, उस समय संगीत के बिल्कुल आरंभिक संगीतकारों में जिन लोगों को जाना जाता है, उनमें प्रमुख रूप से हम फिरोजशाह मिस्त्री, मास्टर अली बक्श, जद्दनबाई, लल्लूभाई नायक, प्राणसुख नायक, बृजलाल वर्मा, वजीर खां, सुंदर दास भाटिया, गाविंद राव टेंबे, केशवराव भोले, झंडे खां, बन्ने खां, राम गोपाल पांडे, सुरेश बाबू माणे आदि को याद कर सकते हैं.

इन आरंभिक संगीतकारों के योगदान पर विकसित होने वाले हिंदी फिल्म संगीत को बाद में एक से बढ़कर एक मूर्धन्य कलाकार सुलभ हुए. इन संगीतकारों का बहुत हद तक ऐतिहासिक महत्व भी है क्योंकि इनमें से बहुतेरे ऐसे लोग थे, जिन्होंने सिनेमा की दुनिया में पहली बार कोई नई चीज रची थी जैसे फिरोज शाह मिस्त्री को पहली बोलती फिल्म आलमआरा (1931) के संगीतकार के रूप में जाना जाता है या फिर जद्दनबाई (प्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस की मां) को पहली महिला संगीतकार होने का गौरव प्राप्त हुआ, जब उन्होंने अपनी ही निर्मित फिल्म तलाश-ए-हक (1935) में संगीत दिया. इसी तरह वजीर खां और नागर दास नायक ने सैय्यद आगा हसन अमानत द्वारा लखनऊ के आखिरी कलाप्रिय नवाब वाजिदअली शाह के लिए लिखे इंद्र सभा पर बनी इसी नाम की फिल्म (1932) के लिए संगीत दिया. पूना के मशहूर प्रभात स्टूडियों न कुछ बड़े संगीतकारों को पैदा किया, जिसमें गोविंद राव टेंबे का नाम प्रमुख है. टेंबे ने अयोध्या का राजा, जलती निशानी, माया मछिंद्र (1932), सैरंध्री (1933), मंजरी (1934), उषा, राजमुकुट (1935) जैसी मशहूर ऐतिहासिक, वेशभूषा प्रधान फिल्मों के लिए संगीत दिया. ऐसे बहुतेरे संगीतकार हैं, जिनके माध्यम से 1931 से लेकर 1940 तक लगभग एक दशक का चित्रपट संगीत अपने जन्म से विकसित होने का एक रोचक सफर तय करता है. इन संगीतकारों की चर्चा भी इस अर्थ में प्रासंगिक है कि हम अनिल विश्वास के सांगीतिक योगदान का जो विश्लेषण करने जा रहे हैं, उनका समय भी इसी दशक के मध्य में आरंभ होता है. वैसे तो अनिल विश्वास सबसे पहले बंबई 1934 में आए, जब वे कुमार मूवीटोन के साथ जुड़े, मगर एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उनकी पहली फिल्म ईस्टर्न आर्ट्स की हीरेन बोस निर्देशित धर्म की देवी (1935) से माना जाता है.

अनगिनत आरंभिक संगीतकारों की जमात में अनिल विश्वास के साथ जिन संगीतकारों का नाम उल्लेखनीय रूप से चालीस के दशक में उभरा, उनमें हम आर.सी. बोराल, पंकज मलिक, तिमिर बरन, के.सी. डे, रफीक गजनवी, एच.सी. बाली, शांतिकुमार देसाई, मास्टर कृष्णराव, अशोक घोष, सरस्वती देवी, ज्ञान दत्त एवं रामचंद्र पाल का नाम ले सकते हैं. इनमें से अधिकांश न सिर्फ लोकप्रिय और सफल संगीत निर्देशक रहे हैं, बल्कि इस अर्थ में भी आज नए सिरे से विश्लेषण के लिए जरूरी नाम हैं कि इनके हिस्से में कुछ ऐसी ऐतिहासिक फिल्मों के साथ जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त है, जिनमें कुंदन लाल सहगल जैसे महान गायक और अभिनेता की तमाम फिल्मों के अलावा सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, सआदत हसन मंटो, शांता हुबलीकर, देविका रानी, अख्तरीबाई फैजाबादी, पी.सी बरुआ, जिया सरहदी, चंद्र मोहन, दुर्गा खोटे, जोहरा सहगल, उदय शंकर, शांता आप्टे, कवि प्रदीप, उस्ताद अलाउद्दीन खां, नसीम बानो एवं वहीदन बाई जैसे फनकार किसी न किसी भूमिका में मौजूद थे. कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी फिल्मों का यह बिल्कुल आरंभिक बनने-बनने वाला वह दौर है, जब उपर्युक्त उल्लिखित ढेरों ऐसे ऐतिहासिक किरदार सक्रिय नजर आते हैं, जिन्होंने विभिन्न विधाओं में अपनी कला का परचम फहराया हुआ है. इनमें सभी शीर्ष स्तर के कलाकार रहे हैं, जो अभिनय, गायन, पटकथा, गीत व संवाद लेखन के साथ-साथ निर्माण व निर्देशन के स्तर पर भी समादृत रहे.

अनिल विश्वास के करियर में किस्मत मील का पत्थर मानी जाती है. इस फिल्म की अपार सफलता तक पहुंचने से पूर्व अनिल विश्वास ने आरंभिक सफलता का स्वाद जिन फिल्मों के माध्यम से चखा था, उन्हें व्यापक तौर पर वैसी स्वीकृति नहीं मिल पाई थी, जिस तरह वह किस्मत के सभी गीतों को हासिल हुई. इस फिल्म से पूर्व उनके द्वारा संगीतबद्ध कुछ महत्वपूर्ण गाने ही आज याद किए जाते हैं, जो कि उन फिल्मों की थोड़ी-बहुत लोकप्रियता का भी आधार बन सके. इनमें प्रमुख रूप से भारत की बेटी (1935) का ‘तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर आलीशान’, मनमोहन (1936) का ‘तुम्ही ने मुझको प्रेम सिखाया’, ग्रामोफोन सिंगर (1938) का ‘मैं तेरे गले की माला’, हमारी बात (1943) का ‘बादल सा निकल चला यह दल मतवाला रे’, ‘मैं उनकी बन जाऊं रे’, बसंत (1942) का ‘कांटा लागा रे साजनवा मोसे राह चली न जाए’ एवं नैया (1947) का ‘सावन भादों नैन हमारे बरस रहे दिन रात’ जैसे गीत सुनने में उतने ही ताजे और कर्णप्रिय लगते हैं.

किस्मत इस अर्थ में भी संगीत की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि इसमें पहली बार अनिल विश्वास ने अपनी चिर-परिचित शैली में कुछ नवीनता पैदा करते हुए सारे ही गानों को अलग-अलग शैली में संगीतबद्ध किया था. हालांकि किस्मत से पहले उन्होंने बॉम्बे टॉकीज के लिए देविका रानी के अत्यधिक इसरार पर बसंत के गानों की भी सारी धुनें  तैयार की थीं, जो बाद में बेहद लोकप्रिय हुईं, परंतु नेशनल स्टूडियो के साथ अनिल विश्वास के अनुबंध के चलते फिल्म के क्रेडिट्स एवं पब्लिसिटी में कहीं भी उनका नाम बतौर संगीतकार नहीं गया. इस फिल्म के क्रेडिट्स में उनके बहनोई और प्रसिद्ध बांसुरी वादक पन्नालाल घोष का नाम दिया गया, जिन्होंने फिल्म में ऑर्केस्ट्रेशन का काम संभाला और पार्श्व-संगीत भी तैयार किया था.

किस्मत के संगीत-निर्माण की कथा भी अत्यंत दिलचस्प है, जो संगीत-प्रेमियों के बीच प्रसिद्ध भी रही है तथा जिसे फिल्म अध्येता शरद दत्त ने अनिल विश्वास की जीवन-यात्रा पर अपनी पुस्तक में विस्तार से चर्चा की है. किस्मत के निर्माता शशधर मुखर्जी को बॉम्बे टॉकीज में जितनी तनख्वाह मिलती थी, उसकी दोगुनी राशि पर देविका रानी ने अनिल विश्वास को अपने बैनर के लिए संगीत निर्देशक के बतौर अनुबंधित कर लिया था. बस यही एक ऐसा कारण था, जिसने भीतर ही भीतर बॉम्बे टॉकीज में असंतोष का स्वर उभार दिया था. इसमें एक गुट ऐसा था, जो शशधर मुखर्जी के प्रति संवेदनशील रुख रखते हुए अनिल विश्वास को हर हाल में तंग करके नीचा दिखाने पर तुला हुआ था. इसी कारण किस्मत के संगीत निर्माण में बहुतेरी दिक्कतें भी आईं, जिन्हें अनिल विश्वास ने पूरे धैर्य के साथ झेलते हुए न सिर्फ अपना काम पूरा किया वरन उस गुट के कवि प्रदीप को भी जीवन भर के लिए मित्र बना डाला. शरद दत्त की पुस्तक में इस बात की चर्चा स्वयं अनिल विश्वास ने की है, जो यहां ज्यों की ज्यों प्रस्तुत हैः

imgप्रदीप जी एक गाना लिखकर लाए, ‘धीरे-धीरे आ रे बादल, धीरे-धीरे जा/ मेरा बुलबुल सो रहा है, शोरगुल न मचा.’ यह सात मात्रा का गाना था और कहानी की जो सिचुएशन थी उसमें सात मात्रा का गाना अनुकूल नहीं बैठता था. वहां तो एक तरह की लोरी चाहिए थी, साथ ही प्रेम का भाव चाहिए था- यानी दोनों का मिला-जुला रूप और वह तभी हो सकता था, जब गाना आठ मात्रा का हो. मैंने सोचा कि इसमें क्या! किसी एक नोट पर खड़ा हो जाऊंगा, किसी एक सुर पर, तो एक मात्रा मिल जाएगी. इस तरह मैंने सात मात्रा के गाने को आठ मात्रा का बना दिया. प्रदीप जी सुनकर खुद हैरान रह गए थे. प्रदीप जी आखिर कवि थे और साथ ही एक अच्छे गायक भी. इस गाने की कंपोजीशन सुनकर वह मेरे दोस्त बन गए. उनका कहना था कि इस गाने में ऐसा चमत्कार अनिल विश्वास के अलावा और कोई  पैदा नहीं कर सकता था. कुछ साल पहले महाराष्ट्र सरकार द्वारा मुझे सम्मानित किया गया, तो वहां उन्होंने स्वीकार किया था, सार्वजनिक रूप से यह बात कही थी कि अनिल विश्वास को नीचा दिखाने में मैंने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी. मैंने इन्हें सात मात्रा का गाना बनाकर दिया, लेकिन इन्होंने उसे आठ मात्रा का बना दिया. बस, तभी से मैं इनका मुरीद हो गया.

इस घटना के जरिए हम देखते हैं कि कला की उदात्तता में अहं और  ईर्ष्या जैसे भाव तिरोहित हो जाते हैं तथा दूसरे के प्रति अविश्वास का व्यवहार रखने वाला व्यक्ति भी गहरी दोस्ती के बंधन में बंध जाता है. यहीं इस गीत की सांगीतिक चर्चा करना भी समीचीन होगा, जो शायद फिल्म के सबसे मधुरतम गानों में से एक रहा है. पूरा गीत सुनने में जिस तरह सहज ढंग से शांति का भाव रचते हुए भी उसमें गजब ढंग से रूमानियत की सृष्टि करता है, वह देखना विस्मयकारी है. फिल्म में यह गीत अमीरबाई कर्नाटकी और अरुण कुमार ने गाया है. इस गीत के इंटरल्यूड्स (मध्यवर्ती-संगीत) को संगीतकार ने इतनी दक्षता के साथ अंडरटोन में विकसित होने दिया है कि अरुण कुमार और अमीरबाई कर्नाटकी की आवाज की कशिश को लोरी की सी भावभूमि में बेहद सुंदर ढंग का प्रवाह मिला है. सीटी (ह्विस्लिंग) का भी पहला प्रयोग शायद इसी गीत के माध्यम से सामने आता है. इसका इस्तेमाल गाने की कंपोजीशन में मस्ती के भाव को व्यक्त करने के लिए किया गया था. पर्दे पर इसका इस्तेमाल नायक अशोक कुमार द्वारा दर्शाया गया है, जबकि मूल रूप से गीत की रिकॉर्डिंग में उसे एक म्यूजीशियन ने अंजाम दिया था. यह गीत रागों के सरताज भैरवी एवं एक ताल में बेहद उत्कृष्टता के साथ निबद्ध किया गया था. आज भी, इस गीत की खूबसूरती सुनते ही बनती है. इस गीत के निर्माण के लगभग पचास वर्ष बाद, अमीरबाई कर्नाटकी के प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करते समय लता मंगेशकर ने भी इसे अपने एल्बम श्रद्धांजलि भाग-दो में ठीक उसी धुन पर गाया था, जो कि इस गीत की अमरता और लोकप्रियता क समकालीन अर्थों में भी उजागर करता है.

ठीक इसी तरह फिल्म का सबसे बेहतरीन गाना पारुल घोष की आवाज में ‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए’ था. पारुल घोष ने अधिकांश गाने अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में ही गाए हैं. चूंकि वे संगीतकार की अपनी बहन भी थीं, इस कारण भी संगीत को लेकर दोनों के बीच मैत्री और आपसी रिश्तों की ऐसी खनकदार उपस्थिति मयस्सर रही होगी, जिसके चलते पारुल घोष और अनिल विश्वास की जुगलबंदी ने कुछ अत्यंत अमर गीतों की रचना की. किस्मत के अलावा पारुल घोष ने हमारी बात, ज्वार-भाटा, पहली नजर, मिलन और बसंत में अनेक यादगार गीत गाए. ‘पपीहा रे’ मूलतः बंगाल की कीर्तन शैली पर आधारित ऐसा गाना था, जिसमें लोक-संगीत की छाया भी दिखाई पड़ती है. हमें ‘पपीहा रे’ जैसे गीतों को विश्लेषित करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि अनिल विश्वास का संगीतकार बंगाल के लोक-संगीत से प्रभावित होने के साथ-साथ नजरूल गीति एवं रवींद्र संगीत के भी अत्यंत निकट था. स्वयं अनिल विश्वास ने यह स्वीकारा है कि बसंत का एक गीत ‘हुआ क्या कुसूर जो हमसे हो दूर’ को नजरूल गीति पर आधारित करके उन्होंने रचा था.

‘पपीहा रे’ में जिस बंगाल शैली की कीर्तन पद्धति की प्रयोग अनिल विश्वास ने किया है, उसके मूल में करुणा का स्वर है. ये कीर्तन अक्सर प्रभु और भक्त के आपसी रिश्ते को पुकार देने की कोशिश में रचे जाते हैं, जिनमें चैतन्य महाप्रभु की कथाओं को आधार बनाकर ढेरों मार्मिक आख्यान कीर्तन में ढलकर लोकधुनों पर प्रचलित किए जाते हैं. ऐसी ही किसी कथा की धुन को पारुल घोष का अप्रतिम स्वर सुलभ हुआ है, जिसमें सैक्सोफोन और बांसुरी का बेहद रोचक इस्तेमाल भी किया गया है. इस गीत में पुरुष स्वर स्वयं कवि प्रदीप का था.

किस्मत फिल्म ने संगीतकार अनिल विश्वास को अपार ख्याति दिलाई व उनके लिए किस्मत के दरवाजे वाकई खुल गए.
किस्मत फिल्म ने संगीतकार अनिल विश्वास को अपार ख्याति दिलाई व उनके लिए किस्मत के दरवाजे वाकई खुल गए.

‘पपीहा रे’ की ही तरह एक दूसरी जमीन पर अमीरबाई कर्नाटकी का गाया बेहद सुंदर भजन ‘अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया’ भी फिल्म का एक लाजवाब पहलू है. यह कम लोग जानते होंगे कि किस्मत से पूर्व अमीरबाई कर्नाटकी ने चंद फिल्मों में भी अभिनय किया था और उन फिल्मों में अपने गाने स्वयं गाए थे. वे उन दिनों की चर्चित अभिनेत्री गौहर कर्नाटकी की बहन थी. यह वाकया भी अनिल विश्वास के खाते में दर्ज हो पाया है कि सबसे पहले अमीरबाई की आवाज, की विशिष्टता को उन्होंने पहचानकर किस्मत के सभी प्रमुख छह गानों के लिए अनुबंधित किया. इस फिल्म से उनकी किस्मत का सितारा ऐसा बुलंद हुआ कि वे चालीस के दशक की सबसे संभावनाशील और महत्वपूर्ण स्त्री आवाज बनकर उभर सकीं. ‘अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया’ में भी अनिल विश्वास बंगाल के उसी लोकसंगीत के आश्रय में डूबते हैं, जिसके गहरे तल में बाऊल लोगों के कीर्तन का बेजोड़ संसार बसा हुआ है. अमीरबाई की आवाज में इस भजन को सुनते हुए अनिल विश्वास द्वारा ही संगीतबद्ध कुछ और भजन भी याद आते हैं, जो उनकी इस खास शैली के प्रति सिद्धहस्त को बयां करते हैं. उदाहरण के तौर पर, ‘बांके बिहारी भूल न जाना’(जागीदार), ‘प्रभु चरणों में दीप जलाओ मन मंदिर उजियाला हो’ (ज्वार-भाटा), ‘दो ऐसे वरदान प्रभु मेरे सपने सच हो जाएं’ (चार आंखें), ‘राम रस बरसे रे मन चातक क्यों तरसे’ (महात्मा कबीर), ‘मैया-मैया बोले बाल कन्हैया’ (सौतेला भाई) एवं ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ (अंगुलिमाल) को याद किया जा सकता है.

किस्मत में एक वह गीत भी था, जिसे अमीरबाई कर्नाटकी ने बेहद सुंदर ढंग से गाया है. गीत के बोल हैं ‘घर-घर में दीवाली है, मेरे घर में अंधेरा’. इस गीत से संबंधित एक रोचक तथ्य यह भी है कि कवि प्रदीप इस गीत के लिए पूरे बावन अंतरे लिख लाए थे, जिसमें हर अंतरे का भाव अलग-अलग था. यह संगीतकार के लिए ऐसी चुनौती थी, जिसे कुछ मिनट के गीत में तब्दील करना काफी मुश्किल-भरा काम था. अनिल विश्वास का तर्क था कि एक ही बहर की बावन पंक्तियों का वे किस तरह गाना बना पाएंगे, जिसमें न तो स्थायी है, न अंतरा, न संचारी और न ही आभोग. मगर इस गीत को भी तीन हिस्सों में बांटकर और तीन विभिन्न मनोभूमियों की परिस्थिति में विकसित करते हुए संगीतकार ने संगीतबद्ध कर डाला. तीनों हिस्सों की रचना भी उनके भावों के अनुकूल ही की गई थी. मसलन, शुरुआत शांत रस में होते हुए, बीच का टुकड़ा पूरी तरह पीड़ा में डूबा हुआ और अंतिम छंद में आते हुए गीत की परिणति आनंद के सृजन में होती है. अब इन्हीं तीन मनःस्थितियों के अनुकूल अनिल विश्वास ने लय का पैटर्न तीन टुकड़ों में विभाजित कर दिया. आज भी अमीरबाई की गायिकी में अत्यंत कुशलता से उतार-चढ़ाव के साथ ‘घर-घर में दीवाली है’ को सुनना प्रीतिकर लगता है. यह भी माना जाता है कि इस तरह की शैली जिसमें शास्त्रीय ढंग से स्थायी, अंतरा, संचारी, आभोग के अनुसार गीत ढाला जाता है, अनिल विश्वास से पहले संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर की परंपरा से आई है. हालांकि रवींद्र संगीत एवं आख्यानपरक कथा-गायन की परंपरा में भी ऐसा ही ढांचा अक्सर प्रयोग में लाया जाता रहा है.

फिल्म के सबसे मशहूर और ऐतिहासिक गीत, जिसके कारण किस्मत आज भी याद की जाती है, एक देशभक्ति गीत था. कवि प्रदीप के द्वारा लिखा ‘दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है’ को शायद ही कोई संगीत-प्रेमी और सिने-अध्येता आज भी भुला पाया होगा. गीत पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावती तेवर में रची गई अत्यंत ओजपूर्ण रचना है. इसकी शब्दावली को ध्यानपूर्वक सुनकर यह महसूस किया जा सकता है कि 1943 में किस तरह भारतवासियों ने अपने को रोमांचित और कर्त्तव्यबोध से भरा हुआ पाया होगा, जब अमीरबाई कर्नाटकी और अन्य सामूहिक स्वरों के साथ यह गीत चित्रपट पर अभिनेत्री मुमताज शांति के माध्यम से व्यक्त हुआ. इस गीत की एक दिलचस्प बात यह भी है कि बीच-बीच में आने वाले ‘दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनियावालो, हिंदुस्तान हमारा है’ में नारे की शक्ल में आने वाली ओजपूर्ण अनेकों पुरुष आवाजें स्वयं संगीतकार अनिल विश्वास, गीतकार कवि प्रदीप और पार्श्वगायक अरुण कुमार की थीं. रेकॉर्डिंग के बाद फिल्म के पर्दे तक पहुंचते-पहुंचते यह गीत एक इतिहास बन गया, जिसका असर यह हुआ कि सिनेमाघरों में यह गाना शुरू होते ही दर्शक उत्तेजित हो जाते थे और कुर्सियों पर खड़े होकर नाचने लगते थे. ब्रिटिश शासन को ललकारने वाला यह पहला गाना था. देशभक्तिपूर्ण गीतों में इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, जिसकी तुलना किसी भी दूसरे गीत से नहीं की जा सकती. इस फिल्म के पांच वर्ष बाद बॉम्बे टॉकीज की ही एक अन्य फिल्म मजबूर के लिए 1948 में गुलाम हैदर ने लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज में ऐसा ही एक शाहकार गीत रचा था, जिसके बोल हैं ‘अब डरने की कोई बात नहीं, अंगरेजी छोरा चला गया’. इसके बाद बहुतेरे ऐसे गीतों की झड़ी लग गई, जिसे संगीत और गीत दोनों ने ही मिलकर अविस्मरणीय बनाया. आपको भी ऐसे बहुतेरे गाने याद होंगे, जिनमें से कुछ एक को यहां याद करना, शायद समीचीन होगा- ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल’, ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की’ (जागृति), ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ (शहीद), ‘इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के’ (गंगा जमुना), ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं’ (लीडर), ‘नन्हा-मुन्ना राही दूं दिश का सिपाही हूं’ (सन ऑफ इंडिया), ‘कर चले  हम फिदा जान-ओ-तन साथियों’(हकीकत) एवं ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ (उपकार) जैसे अप्रतिम देश-प्रेम में पगे मार्मिक गीत.

किस्मत के अन्य दो गाने ‘हम ऐसी किस्मत को क्या करें’ एवं ‘तेरे दुख के दिन फिरेंगे’ भी असरदार थे और इनमें भी अनिल विश्वास के संगीत का कोमल स्पर्श सहज ही महसूस होता है. मगर किस्मत आज भी जिस कारण ऐतिहासिक रूप से याद की जाती है, उसमें प्रमुख रूप से ‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए’, ‘धीरे-धीरे आ रे बादल’, ‘अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया’, ‘घर-घर में दीवाली है’ तथा ‘दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है’ का स्वर्णिम योगदान शामिल है. किस्मत जिस दौर में आई, वह समय आजादी के लिए संघर्षरत करोड़ों भारतवासियों का वह संक्रमण काल भी है, जहां आजादी बस मिलने-मिलने को थी. दबे पांव हमारे स्वतंत्रता सेनानियों  के आंदोलनों के बहाने हमारे पास आ रही थी. साथ ही वह समय सांस्कृतिक रूप से संगीत, कला, सिनेमा और साहित्य के लिए ऐसा संघर्ष का समय भी था, जहां हर विधा के लोग अपने-अपने ढंग से एक नए स्वाधीन भारत का स्वप्न बुन रहे थे. उसी समय उसी दौर में स्थापित और सक्रिय ढेरों ऐसे संगठनों की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका बननी शुरू हुई थी, जिसने अपने ढंग से एक स्वतंत्रचेता युग के सूत्रपात की आधारशिला रखी थी. प्रगतिशील लेखक संघ, इंडियन पीपुल थिएटर, बॉम्बे टॉकीज, सरस्वती प्रेस एवं तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं एवं अखबारों के दफ्तरों में एक ऐसी मुहिम रचनात्मक रूप से लगातार रची जा रही थी, जिसकी गहराई में कहीं धरती के लाल, नीचा नगर, अछूत कन्या, पड़ोसी, दुनिया न माने एवं किस्मत जैसी फिल्मों का निर्माण भी हो रहा था. इसी नवोन्मेष की पुकार ने जहां भारत में एक नव-जागरण का स्वर मुखरित किया, वहीं वह भारतीय फिल्मों की दुनिया में भी क्रांतिकारी परिवर्तन लेकर आया, जिसके तहत हिंदी सिनेमा भी अपने ढंग से कुछ सार्थक और स्थायी महत्व का रच सका.

ऐसे में, इतनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के क्रांतिकारी माहौल में फिल्म संगीत की दुनिया में भी अगर अनिल विश्वास जैसे अप्रतिम किरदारों ने कुछ अत्यंत रससिक्त, अर्थपूर्ण और लालित्य के स्तर पर बेहद रोचक किस्म का आस्वाद रचा, तो उसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए. यह याद करना ही रोमांचित कर देता है कि हम आजादी की पुकार को स्वर देता हुआ 1943 में यदि किस्मत के माध्यम से ‘दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है’ को पा सके हैं, तो ठीक उसी समय संस्कृति का एक दूसरा अध्याय रचता हुआ ‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए’ को भी अपनी गौरवशाली विरासत का हिस्सा बना पाए हैं.

यह आलेख हाल ही में प्रकाशित हुई किताब ‘हमसफर: हिंदी सिनेमा आैर संगीत’ से लिया गया है.