पंजाब में उलझे राजनीति के तार

कृषि क़ानूनों के अलावा करतारपुर कॉरिडोर भी बन सकता है मुद्दा

किसान आन्दोलन का गढ़ रहा पंजाब विचित्र राजनीतिक स्थिति की तरफ़ बढ़ता दिख रहा है। तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की मोदी सरकार की घोषणा के बाद पंजाब की राजनीतिक गलियारों में सबसे ज़्यादा चर्चा में है। पंजाब में फ़िलहाल राजनीतिक शक्तियों का बिखराव है। कांग्रेस सत्ता में है और उसे सत्ता से बाहर करने के लिए अकाली दल, भाजपा और आम आदमी पार्टी के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस ख़म ठोंक रहे हैं। विधानसभा चुनाव से पहले गठबन्धनों की तस्वीर साफ़ नहीं है; क्योंकि सभी के अपने-अपने हित हैं। चुनाव से पहले नहीं होता है, तो चुनाव के बाद निश्चित ही गठबन्धन होगा।

कृषि क़ानूनों का सबसे बड़ा राजनीतिक असर यदि किसी राज्य में पड़ सकता है, तो वह पंजाब है। क्योंकि आन्दोलन की शुरुआत ही पंजाब से ही हुई थी। यह संयोग ही है कि आन्दोलन के बाद पंजाब में राजनीतिक घटनाक्रम इतनी तेज़ी से हुआ कि सब कुछ उलट-पलट हो गया। कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री का अपना पद गँवाना पड़ा और उससे पहले नवजोत सिंह सिद्धू प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हो गये। अमरिंदर की जगह चरणजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री हो गये, जो किसी ने सोचा भी नहीं था।

अब जबकि पंजाब विधानसभा के चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं, सूबे के राजनीतिक समीकरण दिलचस्प होते जा रहे हैं। तो तस्वीर दिख रही है, उसमें साल 2022 के चुनाव में चार राजनीतिक दल ताल ठोकते दिख रहे हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने तीन दलों की चुनौती होगी। कांग्रेस से बहार जा चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस भी इसमें एक है। भले कैप्टन का पंजाब की राजनीति में मज़बूत दख़ल रहा है, फ़िलहाल तो उनकी इस नयी पार्टी को पंजाब में कोई ख़ास महत्त्व नहीं मिला है।

भाजपा ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने का ऐलान करके कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी झटका दिया है। यह अलग बात है कि कैप्टन भाजपा के आगे नतमस्तक दिखायी दे रहे हैं। वह घोषणा कर चुके हैं कि तीन कृषि क़ानून वापस करके प्रधानमंत्री मोदी ने अच्छा काम किया है और वह अपने वादे के मुताबिक भाजपा को समर्थन करेंगे। हालाँकि कांग्रेस को यह लगता है कि जिन लोगों को वह टिकट नहीं दे पाएगी, वे अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब विकास कांग्रेस के साथ जा सकते हैं। वैसे पार्टी के कुछ नेताओं के मुताबिक, भाजपा को यह अच्छा नहीं लगा कि कैप्टन अपनी पार्टी में कांग्रेस शब्द रखा। लेकिन कैप्टन ने किया यही।

भाजपा का अमरिंदर सिंह को लेकर आशंका का एक और कारण है। यह माना जाता है कि अमरिंदर सिंह की सांसद पत्नी परनीत कौर पति के भाजपा के साथ जाने के हक़ में नहीं थीं। हालाँकि हाल में कांग्रेस ने परनीत को एक सूचना (नोटिस) जारी करके उन पर पार्टी विरोधी गतिविधियों का हिस्सा बनने का आरोप लगाते हुए उनसे जवाब माँगा है, जिससे संकेत मिलते हैं कि परनीत भी कांग्रेस से बाहर हो सकती हैं। ज़ाहिर है वह पति की पार्टी में जाएँगी।

भाजपा महसूस करती है कि चुनाव के बाद यदि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है और अमरिंदर सिंह की पार्टी कुछ सीट जीत लेती है, तो कैप्टन का समर्थन को लेकर क्या रूख़ रहता है? इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ नहीं जा सकता। अमरिंदर सिंह की नाराज़गी कांग्रेस से भी ज़्यादा नवजोत सिंह सिद्धू से है। वो किसी सूरत में सिद्धू को मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहते। भाजपा को लगता है कि इसके अलावा कांग्रेस से उनका तालमेल बनने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

पंजाब में राजनीतिक खिचड़ी पकने का एक और कारण है। शिरोमणी अकाली दल ने भले ही देरी से सही, लेकिन कृषि क़ानूनों के विरोध में एनडीए सरकार से ख़ुद को अलग किया था। अब जबकि मोदी सरकार ने यह क़ानून वापस लेने का ऐलान कर दिया है, अकाली दल एनडीए में लौट सकता है। हालाँकि अकाली दल के कुछ नेता नाम न छापने की शर्त पर बातचीत में कहते हैं कि चुनाव से पहले भाजपा के साथ जाना राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा साबित हो सकता है। क्योंकि पंजाब की जनता, ख़ासकर किसानों में भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल है। उन्हें यह भी लगता है कि सभी सीटों पर भाजपा का चुनाव लडऩे का ऐलान और ख़ुद को बड़े भाई की तरह दिखाना किसी मज़ाक़ से कम नहीं। देखा जाए, तो कैप्टन अमरिंदर के साथ गठबन्धन करने को लेकर भाजपा ने भी अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। चुनाव की घोषणा के बाद ही तस्वीर होगी  सभी को केवल आचार संहिता लागू होने का इंतज़ार है। कैप्टन भी इसीलिए राजनीतिक रूप से ख़ामोश नज़र आ रहे हैं; क्योंकि उन्हें भी पता है कि वर्तमान में उनके साथ खड़े होने वाला कोई नहीं है। लेकिन यह तस्वीर आचार संहिता लागू होने के बाद बदल सकती है।

ऐसा माना जाता है कि विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के बीच भी मुख्यमंत्री पद की जंग हो सकती है। पार्टी के भीतर नवजोत सिंह सिद्धू और वर्तमान मुख्य्मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दोनों ही पार्टी में इस पद के दावेदार हैं। चन्नी लगातार यह ज़ाहिर करते हैं कि वह मुख्यमंत्री हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि चन्नी बतौर मुख्यमंत्री अपनी छवि बनाने में सफल रहे हैं। हालाँकि पंजाब कांग्रेस में बहुत से नेता यह मानते हैं कि सिद्धू का पार्टी में एक क़द है और इससे इन्कार नहीं किया सकता। उनका कहना है कि सिद्धू की जनता में पैठ है और वह ऐसे नेता हैं, जो पार्टी को अपने बूते चुनाव जितवा सकते हैं।

यह तय है कि चुनाव की घोषणा के बाद पंजाब में कांग्रेस काफी विधायकों के टिकट काट सकती है। इसके अलग-अलग कारण हैं। पहला तो पिछले साल में उनका बतौर विधायक प्रदर्शन। दूसरे ऐसे विधायक, जो कैप्टन अमरिंदर सिंह के क़रीब रहे हैं, पार्टी उनसे किनारा कर सकती है। माना जाता है कि पार्टी ने एक सर्वे करवाया है, जिसमें कुछ विधायकों के दोबारा जीतने पर प्रश्न चिह्न लगे हैं। इनकी संख्या डेढ़ दर्ज़न के क़रीब है। हालाँकि इतने ज़्यादा विधायकों के टिकट काटने पर वे सभी कैप्टन की पार्टी में जा सकते हैं, जिन्हें अभी तक कोई ख़ास समर्थन नेताओं की तरफ़ से मिला नहीं है।

ऐसे में हो सकता है कि कांग्रेस सोच-विचार कर ही टिकट काटे। कुछ विधायक अपनी सीट बदलना चाहते हैं, जिनमें एकाध मंत्री भी है। कांग्रेस की कोशिश यह होगी कि चुनाव में ऐसे कम-से-कम लोग कूदें, जो उसकी विचारधारा के हों। हालाँकि यह सम्भव नहीं लगता। इस बार मैदान में चार पार्टियाँ होंगी और अमरिंदर की पार्टी के ज़्यादातर उम्मीदवार निश्चित ही कांग्रेस विचारधारा के होंगे। यहाँ तक की आम आदमी पार्टी में जो ज़्यादातर नेता हैं, कभी कांग्रेस में ही रहे हैं। यह ज़रूर तय है कि इस बार चुनाव के नतीजे का अन्तर ज़्यादा नहीं होगा। पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) के हज़ार वादों के बावजूद ज़मीन पर उसकी पकड़ कमज़ोर होती दिख रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री के दिल्ली की तर्ज पर पंजाब को चमकाने के वादे के बावजूद जनता तो दूर, उनकी अपनी पार्टी के नेता भी सहारा नहीं बन पा रहे। यही कारण है पार्टी से नेता टूटकर कांग्रेस सहित दूसरे दलों में में जा रहे हैं। पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी ने अवसर खो दिया था और उसके बाद पार्टी ने ज़मीन पर अपनी पकड़ बनाने के लिए कुछ नहीं किया। सारा कुछ दिल्ली से संचालित होने के कारण स्थानीय नेता ख़ास ख़ुश नहीं हैं। उन्हें लगता है कि इससे जनता में भी ख़राब सन्देश गया है।

पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन इतना बेहतर था कि कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर रहते हुए उसने अकाली दल जैसी पार्टी से भी चार सीटें ज़्यादा हासिल की थीं। किसान आन्दोलन को लेकर आप का रूख़ उनके हक़ में भले रहा है; लेकिन इससे उसे कोई बड़ा राजनीतिक हासिल होगा, इसकी सम्भावना दिख नहीं रही।

जहाँ तक शिरोमणी अकाली दल की बात है, मोदी सरकार और एनडीए से बाहर आने के बाद पूरे किसान आन्दोलन के दौरान अकाली नेतृत्व, ख़ासकर सुखबीर सिंह बादल ने भरपूर कोशिश की है; लेकिन किसानों का भरोसा जीतने में उन्हें ख़ास कामयाबी मिलती नहीं दिखी है। पार्टी ने दिल्ली में किसानों के हक़ में प्रदर्शन में भी हिस्सा लिया; लेकिन किसानों का रूख़ पार्टी के प्रति ठंडा ही दिखा है।

भाजपा की उम्मीदें

भाजपा का पंजाब विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने के पीछे एक कारण है। दरअसल पार्टी को लगता है कि गुरु नानक देव जयंती पर करतारपुर कॉरिडोर दोबारा खोलने और उसी दिन कृषि क़ानून वापस लेने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऐलान से विधानसभा चुनाव में उसे लाभ मिलेगा।

हाल के महीनों में पंजाब में राजनीतिक धुरी तीन कृषि क़ानूनों और किसान आन्दोलन आसपास घूमती रही है। अब जब विधानसभा चुनाव निकट हैं, और केंद्र का यह फ़ैसला किस पार्टी को कितना लाभ देगा? यह देखना दिलचस्प होगा। पंजाब में कांग्रेस ने किसान आन्दोलन का हमेशा खुलकर समर्थन किया है। इस दौरान पंजाब भाजपा के नेताओं ने किसानों का हर जगह जबरदस्त विरोध सहा। चरणजीत चन्नी सरकार ने 26 जनवरी को लाल क़िले से गिरफ़्तार किसानों के परिवारों को दो-दो लाख का मुआवज़ा देने का ऐलान करके राजनीतिक दाँव चला है। विधानसभा में कृषि क़ानून को रद्द करने के फ़ैसले के बाद सरकार ने 83 किसान समर्थकों को मुआवज़ा देने का ऐलान किया। चन्नी सरकार ने किसान आन्दोलन के दौरान पंजाब में किसानों पर दर्ज सभी मामले भी रद्द करने का फ़ैसला किया। वह आन्दोलन के दौरान शहीद हुए किसानों और मज़दूरों के परिजनों को सरकारी नौकरी और मुआवज़ा देने की बात कह चुकी है। इसके लिए उसने संयुक्त किसान मोर्चा से शहीद किसानों की सूची माँगी है। कांग्रेस करतारपुर कॉरिडोर का श्रेय भाजपा के लेने को ग़लत कहती है। उसका कहना है कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू को इसका श्रेय जाता है; क्योंकि इमरान ख़ान के शपथ ग्रहण पर पाकिस्तान गये सिद्धू ने ही सबसे पहले यह मसला उठाया था और उनकी कोशिशों पर ही पाकिस्तान सरकार ने इस पर आगे काम किया।

नयी पार्टी बना चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह की उम्मीद अब चुनाव की घोषणा पर टिकी है। उन्हें भरोसा है कि टिकट न मिलने से दूसरी पार्टियों के बा$गी नेता उनके पास ही आएँगे। कृषि क़ानूनों के वापस लेने का श्रेय कैप्टेन ख़ुद को दे रहे हैं। उनके नेताओं का दावा है कि कैप्टन ने ही इस फ़ैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को तैयार किया। कैप्टन भाजपा से गठजोड़ की बात कह ही चुके हैं। जहाँ तक करतारपुर कॉरिडॉर की बात है, कोरोना के दौरान क़रीब 20 महीने बन्द रहे इस धार्मिक केंद्र के खुलने का रास्ता साफ़ होने का श्रेय भाजपा मोदी को देती है। भाजपा को उम्मीद है कि इसके सहारे उसे पंजाब में तवज्जो मिलेगी।