न्यायालय का लचीला बर्ताव

एक वकील की मजबूरी को ध्यान में रखते हुए मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने युवा माँ वकीलों को सुनवाई में दी सुविधानुसार तारीख़ व समय लेने की छूट

मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ के न्यायाधीश जी.आर. स्वामीनाथन ने युवा माता वकीलों के लिए एक पहल की है। उन्होंने ऐसी महिला वकीलों की मदद करने के लिए उन्हें न्यायालय में उनके मामलों की सुनवाई के लिए विशेष (स्पेसिफिक) टाइम स्लॉट (उनके मुताबिक समय) देने की मंज़ूरी वाली नीति अपनायी है। और यह नीति 5 जुलाई से लागू भी हो गयी है। यह ख़ास सुविधा न्यायाधीश जी.आर. स्वामीनाथन के ही न्यायालय के लिए है और मदुरै पीठ में वकालत करने वाली महिला वकील इस नीति से बेहद ख़ुश हैं।

न्यायाधीश स्वामीनाथन के ज़ेहन में इसका विचार कैसे आया? इसके पीछे की घटना की ज़िक्र उन्होंने स्वयं बार एसोसिएशन के वकीलों के नाम लिखे एक पत्र में किया है। उन्होंने लिखा- ‘बीते दिनों एक मामले में उन्होंने पास ओवर दिया और मामले को 4:00 बजे के बाद सुनने को कहा। उनके पास ओवर देते ही वकील ने हिचकिचाते हुए कहा कि न्यायालय इस मामले को अगले दिन सुन ले। वजह पूछने पर वकील ने बताया कि उसे 3:30 बजे अपने बच्चे को स्कूल से पिकअप करना होता है, इसलिए वह 4:00 बजे मामले की सुनवाई में शामिल नहीं हो सकता। मैंने वकील के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। मगर इस वाक़िये ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि न्यायालय में कामकाजी महिलाएँ भी प्रैक्टिस करती हैं, जो घर की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ वकालत करती हैं। उन्हें भी इस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता होगा। ऐसे में मुझे लगता है कि मैं ऐसी महिलाओं की कुछ मदद करूँ। इसलिए मैंने तय किया है कि ऐसी महिला वकील, जो युवा माँ हैं; वे न्यायालय के न्यायालय अधिकारी को पहले से अपनी समस्या बता सकती हैं, जिससे कि उन्हे एक तय स्लॉट उसके मामले की सुनवाई के लिए दिया जा सके।’

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि न्यायाधीश जी.आर. स्वामीनाथन ने यह विशेष रियायत देते वक़्त शर्त भी साथ लगा दी है। पहली शर्त यह कि वह वकील उस समय पूरी तैयारी के साथ आएगी, ताकि न्यायालय का कम-से-कम समय ले। दूसरी शर्त यह है कि यह सुविधा सिर्फ़ स्वतंत्र रूप से वकालत करने वाली महिला वकीलों के लिए है, न कि किसी लॉ फर्म में काम करने वाली महिला वकीलों के लिए। उन्होंने इस बात पर ख़ास बल दिया है कि वे महिला वकील, जो किसी ऑफिस से सम्बद्ध हैं, अपने वरिष्ठ पुरुष साथी को लाभ पहुँचाने के लिए तय स्लॉट नहीं माँग सकतीं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस नीति का दुरुपयोग न हो, इसका भी विषेश ध्यान रखा गया है। इस पहल के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की वकील अमिता जोसफ का कहना है कि यह वक़्त की माँग है कि बार में महिला वकीलों की भागीदारी बढ़ाने के लिए लचीली नीतियों व विकल्पों को वरीयता दी जाए। न्यायिक कामकाजी घंटे युवा महिला वकीलों की राह में बाधक भी हो सकते हैं। क्योंकि जब बच्चों की ज़रूरतें उनके पेशेवर काम से टकराती हैं, जैसे कि अभिभावक-अध्यापक मीटिंग आदि का वक़्त। यह नीति एकल माँओं के लिए, जिन्हें अपने बच्चे भी पालने हैं और काम भी करना है; वरदान है। युवा महिला वकीलों को ऐसी नीतियों व पहलों की दरकार है।

दरअसल न्यायालय में स्वतंत्र वकालत करने वाली युवा महिला वकीलों के सामने कई चुनौतियाँ होती हैं। वे क़ानून की पढ़ाई करने के बाद अपने करियर को आगे ले जाने के लिए मेहनत करना चाहती हैं; लेकिन इसके साथ ही उन पर शादी करने का पारिवारिक व सामाजिक दबाव भी होता है। शादी के बाद माँ बनने का दोगुना दबाव होता है। फिर माँ बनने के बाद पुरुष प्रधान समाज में बच्चे के देखरेख की अधिकांश ज़िम्मेदारियाँ भी उसके कंधों पर होती हैं। मदुरै पीठ की एक महिला वकील टी. सैयद अम्मा ने एक अंग्रेजी के एक दैनिक अख़बार को बताया कि इस तरह की पहल युवा माँ वकीलों को केवल एक राहत ही नहीं प्रदान करती, बल्कि उनके भीतर एक विश्वास भी पैदा करती हैं कि वे माँ बनने के बाद अदालत में अपनी प्रैक्टिस जारी रख सकती हैं। इस नीति के कारण बहुत-सी युवा महिला वकील, जिन्होंने बच्चे को जन्म देने के बाद पै्रक्टिस छोड़ दी थी; उनके लौट आने की सम्भावना को बढ़ा दिया है।

दरअसल महिला वकीलों की ऐसी आवाज़ें ऐसी पहल के महत्त्व को दर्शाती हैं। ग़ौरतलब है कि सामान्य तौर पर महिला वकीलों के लिए एक पेशेवर वकील बनने की राह पुरुषों की तुलना में अधिक कठिन है। समाज अपने लैंगिक पूर्वाग्रहों के चलते उनकी तर्क क्षमता पर भरोसा ही नहीं करता। उसके दिमाग़ में वकालत पुरुषों का पेशा है, वाली सोच बहुत गहरी बैठी हुई है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति रेखा पाली को एक मर्तबा एक मामले की सुनवाई के दौरान एक पुरुष वकील ने सर कहकर सम्बोधित किया, तो न्यायमूर्ति ने कहा- ‘मैं सर नहीं हूँ। मैं उम्मीद करती हूँ कि आप इस अन्तर को पहचान सकते हो।’ सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश सुजाता मनोहर ने एक कॉन्फ्रेंस में बताया था कि जब वह न्यायालय में प्रैक्टिस करती थीं, तब उनके पुरुष सहकर्मी उनसे कहते थे कि वह न्यायालय परिसर में अपने लिए एक अच्छा पति तलाशने आयी है।

न्यायालय का माहौल भी अक्सर महिला वकीलों के लिए अनुकूल नहीं होता। बार काउंसिल के सदस्य ही उन्हें सम्मान नहीं देते। उनकी राय को अक्सर दबाने का जतन किया जाता है। अगर कोई महिला वकील अदालत में ऊँची आवाज़ में अपनी दलीलें देती है, तो उसकी अलोचना की जाती है; जबकि पुरुष ऐसा करते हैं, तो यह उनकी ताक़त मानी जाती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि अब लड़कियाँ क़ानून की पढ़ाई में दिलचस्पी दिखा रही हैं और लॉ कॉलेज के आँकड़े इसकी तस्दीक़ करते हैं। लॉ ग्रेजुएशन में लड़कों व लड़कियों की संख्या लगभग बराबर है; लेकिन ग्रेजुएशन के बाद क़ानून की पढ़ाई करने वालों में लड़कों की संख्या अधिक है। देश में क़रीब 17 लाख वकीलों ने अपनी पंजीकरण कराया हुआ है, इसमें लड़कियों की संख्या महज़ 15 फ़ीसदी है। युवा कामकाजी महिला वकीलों के लिए न्यायालय परिसर में क्रैच (मध्यटेक) की सुविधा उनकी कई दिक़्क़तों को दूर कर सकती है। लेकिन इस दिशा में देश में बहुत-ही धीमी गति से काम हो रहा है। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय में ही 2018 में क्रैच की सुविधा प्रदान की गयी और दिल्ली उच्च न्यायालय में तो इसी मई महीने से ही क्रैच की सुविधा शुरू हुई है।

महिला वकीलों को उनके पेशे में आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करने के लिए न्यायाधीश जी.आर. स्वामीनाथन सरीख़ी कई पहलों / रियायतों की ज़रूरत है। मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा ने एक कार्यक्रम में कहा था कि क़ानून व न्यायपालिका में पेशेवर महिलाओं की बहुत कमी है। क़ानून के पेशे को महिलाओं का स्वागत करना चाहिए और यह भी याद रखना चाहिए कि महिला वकीलों को अपने पेशे में भी बहुत संघर्ष करना पड़ता है। बहुत-ही कम महिलाएँ शीर्ष पर पहुँच पाती हैं और वहाँ भी उन्हें चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस समय सर्वोच्च न्यायालय में 33 न्यायाधीश हैं, उसमें से चार महिलाएँ हैं और यह आज़ाद भारत के इतिहास में रिकॉर्ड है। चार महिला न्यायाधीशों के नाम हैं- इंदिरा बनर्जी, हिमा कोहली, बेला एम. त्रिवेदी और बीवी नागरत्ना।

अटकलें हैं कि बी.वी. नागराज सर्वोच्च न्यायालय की अगली मुख्य न्यायाधीश हो सकती हैं और अगर वह बनती हैं, तो वह भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश होंगी। देश के 25 उच्च न्यायालयों में 713 न्यायाधीश हैं, जिनमें महिला न्यायाधीश 94 हैं यानी महज़ 13.18 फ़ीसदी। मद्रास उच्च न्यायालय में 13 महिला न्यायधीश हैं, और यह संख्या देश में सबसे अधिक है। इसके बाद दिल्ली है, जहाँ 12 न्यायाधीश हैं। फिर तेलगांना है, जहाँ 10 न्यायाधीश हैं। ओडिसा, राजस्थान, सिक्किम, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड उच्च न्यायालय में एक-एक महिला न्यायाधीश हैं। मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, बिहार और उत्तराखण्ड के उच्च न्यायालयों में एक भी महिला न्यायाधीश नहीं है। निचले न्यायालयों में महिला न्यायधीशों की संख्या कम है; लेकिन उतनी नहीं, जितनी कि उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में है। निचले न्यायालयों में भर्ती प्रवेश परीक्षा से होती है, जबकि उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय में ऐसा नहीं होता। कई ऐसे राज्य भी हैं, जिन्होंने निचले न्यायालयों में इसके लिए आरक्षण प्रणाली अपनायी हुई है। वहीं असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा व राजस्थान में निचले न्यायालयों में महिला न्यायिक अधिकारियों की तादाद भी क़रीब 40 से 50 फ़ीसदी है। भारत उन देशों की सूची में आता है, जहाँ कामकाजी महिला श्रम सबसे कम है। सरकारी सर्वे भी यही कहते हैं और निजी संस्थान भी यही इशारा करते हैं। ऐसे में युवा कामकाजी महिलाओं को श्रम बल से जोड़े रखना एक बहुत बड़ी चुनौती है। न्यायाधीश जी.आर. स्वामीनाथन ने इस दिशा में जो पहल की है, चाहे उससे लाभान्वित होने वाली महिलाओं की संख्या सीमित ही है। पर उनके अनुभव जब दस्तावेज़ की शक्ल में सामने आएँगे, तो ऐसी पहल के दूरगामी असर का आकलन करना आसान होगा।