नुकसान के बाद रह जाता है पछतावा

आपने एक नारा खूब सुना होगा, बल्कि हो सकता है कहीं यह नारा खुद भी दिया हो- ‘हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई’। बहुत अच्छा लगता है, जब हम इस नारे को दोहराते या सुनते हैं। पर सोचिए कि क्या कभी ऐसा हुआ है, जब कहीं दो मज़हबों को मानने वालों के बीच झगड़ा हो रहा हो और किसी भी पक्ष ने इस नारे के बारे में ज़रा भी सोचा हो? इस पर अमल किया हो? इस नारे के महत्त्व को समझने-समझाने की कोशिश की हो? तब हम न केवल इस नारे को, बल्कि इस बात को भी भूल जाते हैं कि हम एक-दूसरे के पड़ोस में या मोहल्ले में या कस्बे या शहर या गाँव में ही रहते हैं। इससे बड़ी बात यह है कि हम सब एक ही देश में रहते हैं। एक ऐसे देश में, जिसे हम विविध संस्कृति, विविध भाषाओं, विविध रंग-रूप वाला देश कहते हैं; अखण्ड कहते हैं। तब हम यह भी नहीं सोचते कि हम आपस में कितना भी लड़ लें, आिखर इसी देश में उतने ही करीब रहेंगे, जितने करीब बसे हुए हैं। सब कहते हैं कि ईश्वर एक है। सब यह भी मानते हैं कि यह दुनिया सदा-सदा के लिए उनकी नहीं है। सब यह भी कहते हैं कि देश सबसे ऊपर है। सब यह भी जानते हैं कि आपस में लडऩे से उनका ही नुकसान होगा। सब यह भी जानते हैं कि आपस की लड़ाइयाँ देश को कमज़ोर करती हैं और सब यह भी जानते हैं कि आपस की कड़ुवाहट आने वाली पीढिय़ों के लिए काँटों का मैदान तैयार कर सकती है। लेकिन जब झगड़ा शुरू होता है, तो सब अन्धे हो जाते हैं। कोई नहीं सोचता कि वह भला कर रहा है या बुरा; बस मार दो या मर जाओ! आिखर क्यों? किसलिए? किसके लिए?

अधिकतर देखा गया है कि हम आपस में लड़ते समय कुछ भी नहीं सोचते, लेकिन जब हम जी भरकर लड़ लेते हैं और बहुत बड़ा नुकसान उठा लेते हैं, तब पछताते हैं। ऐसे ही कई वािकयात मेरे ज़िहन में हैं। आज एक वािकया से आपको रू-ब-रू कराता हूँ। आपको गोदरा कांड याद होगा। मैं सन् 2011 सेे 2014 के बीच गुजरात के अहमदाबाद शहर में रहा हूँ। मैंने इस घटना की पड़ताल जब करीब से की, तो बड़ी हैरानी हुई। अब वहाँ हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही पक्ष के लोग पछताते हैं कि आिखर इतना बड़ा दंगा उन्होंने क्यो किया? हालाँकि कुछ लोग ऐसे वहाँ अब भी हैं, जो उस कांड को लेकर अपने दिल-ओ-दिमाग में ज़हर लिए घूम रहे हैं, लेकिन अधिकतर लोग उस कांड में ऐसे पिसे कि आज तक पछता रहे हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कि ऐसे चन्द ज़हरीले लोग हमें लड़ाने, मारकाट कराने में बड़ी आसानी से कामयाब हो जाते हैं। गोदरा से शुरू हुए दंगों में भी यही हुआ था। ज़रा-सी बात से झगड़ा शुरू करन वाले लोग, आग लगाने मात्र का ज़रिया थे। लेकिन उस आग में कितने लोग जल गये? कितने घर तबाह हो गये? इस बात से आग लगाने वालों को शायद ही कोई सरोकार हो।

गुजरात में जहाँ-जहाँ गोदरा कांड की आग फैली, वहाँ-वहाँ अनेक लोग आज भी तबाह हैं। कई कॉलोनियाँ, बस्तियाँ आज तक वीरान पड़ी हैं। अहमदाबाद में कुछेक लोगों से मैं मिला, तो पता चला कि जैसे ही तत्कालीन सरकार ने दंगों पर काबू पाने के लिए पुलिस प्रशासन को आदेश दिया, तब पुलिस के हत्थे जो भी चढ़ा, उसे जेल भेज दिया। इस धरपकड़ में दोनों ओर के लोग थे- हिन्दू भी और मुस्लिम भी। यह निष्पक्ष गिरफ्तारियाँ थीं। यह अगल बात है कि बाद में किसी को न्यायालय से ज़मानत मिल गयी और किसी को राजनीतिक ताकतों के दबाव में रिहा कर दिया गया। लेकिन इस दंगे में जो मध्यम और गरीब तबका था, उसे आज तक उसका प्रतिफल भोगना पड़ रहा है। ऐसे ही चार-पाँच परिवारों को मैं जानता हूँ। इनमें से दोनों मज़हबों के दो लोगों के दु:ख और बयान यहाँ साझा करना चाहूँगा। इनमें एक हैं अनुराग मिश्रा। अनुराग मिश्रा एक सामान्य गृहस्थ हैं और अब अपने गाँव (उत्तर प्रदेश) लौट चुके हैं। अनुराग मिश्रा कहते हैं कि अहमदाबाद में उनका अपना घर था। वह जहाँ रहते थे, वह मोहल्ला मुस्लिम बहुल था। सबसे उनके अच्छे सम्बन्ध थे। उनके सभी हिन्दू-मस्लिम पड़ोसी बहुत अच्छे हैं। दंगे की घटना को दोहराते हुए अनुराग मिश्रा काफी गमगीन दिखते हैं। वह बताते हैं कि जब दंगे हुए, तो तीन हिन्दू परिवारों को मुस्लिम परिवारों ने घरों में छिपा लिया और रात के अँधेरे में अपनी टोपियाँ पहनाकर बच्चों समेत सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया। अनुराग मिश्रा कहते हैं कि हमें नहीं पता हमारे घर पर किसने कब्ज़ा किया, किसने नहीं; लेकिन हमारे दिल में मुस्लिमों के लिए और प्यार बढ़ गया। दंगे तो सियासी लोगों के दिमाग की उपज थे, जिससे दोनों ही तरफ के लोगों को बहुत बड़ा नुकसान हुआ।

दूसरे हैं आस मोहम्मद उर्फ लक्की। लक्की बताते हैं कि जब लड़ाई हुई थी, तो वे 12 साल के थे। इस लड़ाई में उनके पिता की मौत हो गयी; लेकिन उन्हें और उनकी माँ को डेढ़ महीने तक श्याम सिंह नाम के उनके पड़ोसी ने अपने घर में छिपकार रखा। मैं उन्हें आज भी अपने सगे चाचा से बढ़कर मानता हूँ। उन्होंने बहुत बड़ा रिस्क लेकर हम लोगों को बचाये रखा। मेरी माँ को तब साड़ी में घूँघट करके हिन्दू रीति के हिसाब से शृंगार करके रहना पड़ा। मेरे पिता की मौत की खबर भी हम लोगों को नहीं दी गयी। हमारे पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने सोचा कि या तो हम लोग मोहल्ला छोड़कर भाग गये या मारे गये। जब सारा मामला शान्त हो गया, तब हम लोग अपने घर में रहने पहुँचे। आज हमारे और श्याम सिंह चाचा के घरों में बहुत ही अच्छे रिश्ते हैं और मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि ऐसा ही एका पूरे देश में कायम हो जाए। सब लोग मिलकर रहें और देश को मज़बूत करें। क्योंकि झगड़ा एक त्रासदी, वीरानापन सा छोड़ जाता है। यह बात मैं अनाथ होकर खूब अच्छी तरह समझ गया हूँ।

ये दो उदाहरण गोदराकांड की साज़िश रचने वालों के मुँह पर ज़ोरदार तमाचे की तरह हैं।