नीतीश का अग्निपथ

बिहार में नयी सरकार का गठन हो गया है। नीतीश भले मुख्यमंत्री बन गये हैं, लेकिन सरकार के गठन में भाजपा का वर्चस्व साफ दिखता है। नीतीश के मनपसन्द भाजपा नेता सुशील मोदी इस बार उप मुख्यमंत्री नहीं बनाये गये हैं। विधानसभा अध्यक्ष भी भाजपा नेता को बनाया गया है। किसी मुस्लिम चेहरे को भी मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली है। ज़ाहिर है भाजपा ने सूबे में अपने विस्तार की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। निश्चित ही आने वाले समय में नीतीश को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इससे वह कैसे निबटते हैं? यह देखना दिलचस्प होगा। विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

बिहार में सरकार बनने के पहले ही हफ्ते में मुख्यमंत्री नीतीश के एक नज़दीकी मंत्री का पुराने भ्रष्टाचार मामले में इस्तीफा, मुख्यमंत्री के मित्र सुशील मोदी को भाजपा की तरफ से उप मुख्यमंत्री न बनाना, अपेक्षाकृत लो प्रोफाइल वाले दो उप मुख्यमंत्री बनाना, एक भी मुस्लिम चेहरा मंत्रिमंडल में नहीं लेना, महत्त्वपूर्णमंत्रालयों को भाजपा के पाले में रखना और विधानसभा में अपना स्पीकर बनाने का फैसला; यह कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं, जो बिहार में काँटे के चुनावी मुकाबले में जीत के एक पखबाड़े के भीतर हुई हैं। इन सभी घटनाओं से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिस तरीके से सीधे रूप से प्रभावित होते हैं, उससे यह संकेत मिलता है कि नीतीश के लिए आने वाले महीने कितने चुनौती भरे रहने वाले हैं? केंद्र में एनडीए के सहयोगी दल कमोवेश सिमट चुके हैं। मोदी की केंद्र सरकार में भी एक मंत्री को छोडक़र बाकी सभी मंत्री भाजपा के ही रह गये हैं। यह अहसास अब नीतीश कुमार के भीतर भी मज़बूती से जगह बनाने लगा है कि भाजपा एक ऐसी पार्टी है, जो जिनके कन्धों का सहारा लेती है, उन्हीं साथियों को खा जाती है। नीतीश के भीतर यह अहसास चुनाव के दौरान लोजपा की भूमिका, कई सीटों पर जदयू को भाजपा का सहयोग नहीं मिलने और सरकार बनने के बाद की अन्य घटनाओं के बाद जगा है; जिनमें भाजपा नीतीश के प्रति सम्मान का ढोंग तो करती है, लेकिन हकीकत में उसके कदम नीतीश और उनकी पार्टी के प्रति प्रहार करने वाले दिखते हैं।

नीतीश के सामने चुनौतियाँ हैं; लेकिन तात्कालिक नहीं। भाजपा को अभी सहयोगी की ज़रूरत है। भाजपा अगले साल पश्चिम बंगाल और असम और उसके बाद उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव तक का इंतज़ार करेगी। पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए सबसे कठिन चुनौती है; जहाँ उसका मुकाबला ज़मीन पर बहुत मज़बूत मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ‘माँ, माटी, मानुष’ के नारे वाली टीएमसी से है। कांग्रेस और वामपंथी भी नाम मात्र की चुनौती के लिए मैदान में रहेंगे। ऐसे में भाजपा एनडीए का चोला अभी ओढ़े रखना चाहती है। साथियों को ज़्यादा छेड़ेगी-छोड़ेगी नहीं। लेकिन हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहेगी; बिहार में भी नहीं। फिलहाल केंद्र में इकलौते राज्यमंत्री रामदास अठावले ही अब एनडीए में सहयोगी दलों के नाम का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं; बाकी सब भाजपा के हैं। हाल में कृषि कानूनों के मुद्दे पर सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणी अकाली दल एनडीए से बाहर जा चुका है और उसकी इकलौती मंत्री हरसिमरत कौर भी इस्तीफा दे चुकी हैं। लोजपा के इकलौते मंत्री रामविलास पासवान रहे नहीं और पार्टी ने एनडीए से अलग होकर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा। महाराष्ट्र में एनडीए की सहयोगी रही शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर वहाँ सरकार बना रखी है। ऐसे में नीतीश कुमार पूर्व की स्थिति के विपरीत वर्तमान में एक अलग तरह के दबाव में रहेंगे।

यह दबाव उन पर अभी से दिखने लगा है। हो सकता है कि मुख्यमंत्री का पद नीतीश ने इस विचार से लिया हो कि कुछ बेहतर करके विधानसभा चुनाव में तीसरे पायदान पर पहुँची अपनी पार्टी की स्थिति को बेहतर कर सकें। लेकिन यह तय है कि भाजपा किसी भी सूरत में नीतीश और जदयू को अब बिहार में मज़बूत नहीं होने देगी; भले ही वह राज्य में उसकी साथी हो। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बिहार में भाजपा भविष्य की तैयारी में जुटी है। हो सकता है कि भाजपा आने वाले समय में नीतीश कुमार को कोई बड़ा पद देने की पेशकश करे। नीतीश वर्तमान स्थिति से वािकफ हैं। भाजपा ने उनके दोस्त माने जाने वाले सुशील मोदी को किनारे करके संघ की पृष्ठभूमि वाले तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया है। सभी जानते हैं कि दोनों मुख्यमंत्री की छवि के नहीं हैं, लिहाज़ा भविष्य के लिए मुख्यमंत्री चेहरा भाजपा ने अभी परदे में रखा है। भाजपा ने पूर्व में मंत्री रहे विजय कुमार सिन्हा को विधानसभा अध्यक्ष भी बना दिया है। इससे नीतीश पर अलग से दबाव रहेगा; क्योंकि संकट के समय स्पीकर की भूमिका बहुत अहम हो जाती है।

भाजपा पश्चिम बंगाल और असम चुनावों के बाद रंग दिखायेगी; खासकर अगर वह बंगाल में जीत पायी तो। बिहार में भाजपा इन चुनावों में कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं पहुँच गयी है। उसकी सीटें भले बढ़ी हैं और 53 से बढक़र 74 हो गयीं हैं, लेकिन उसके पक्ष में पडऩे वाले मत 24.4 फीसदी से घटकर 19.46 फीसदी हो गये हैं। इसके विपरीत बिहार की सबसे बड़ी पार्टी तेजस्वी यादव की राजद की सीटें ज़रूर 81 से 75 रह गयीं, लेकिन पिछली बार के 18.4 फीसदी के मुकाबले इस बार उसे 23.1 फीसदी मत मिले हैं और भाजपा को अब राजद अपनी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी पार्टी लगती है। सरकार बन जाने के बाद भी जदयू और नीतीश कुमार की तल्खी चिराग पासवान के प्रति कम नहीं हुई है। भाजपा ने अभी तक लोजपा से सम्बन्ध तोडऩे जैसा कोई संकेत नहीं दिया है। चिराग ही नहीं, भाजपा के कई नेताओं के प्रति जदयू और नीतीश कुमार की नाराज़गी है। चुनाव के बाद से नीतीश कुमार और उनके नज़दीकी महसूस कर रहे हैं कि लोजपा ही नहीं, खुद भाजपा के लोगों ने चुनाव में बहुत सीटों पर जदयू के उम्मीदवारों के खिलाफ काम करके उसकी हार सुनिश्चित की। निश्चित ही जदयू नेतृत्व इससे विचलित है और वो भी भविष्य की अपनी रणनीति सोच रहा है। लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा अभी नीतीश को अपने साथ की थपकी देती रहेगी।

भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना को धोखा देकर अपनी फज़ीहत देख चुकी है। बिहार में नीतीश यदि नाराज़ हो जाते हैं, तो भाजपा को सबक सिखाने के लिए राजद के रूप में उनके पास विकल्प है। सन् 2015 में दोनों साथ चुनाव लड़ चुके हैं और सरकार साथ चला चुके हैं। जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी ऐसे पत्ते हैं, जो हमेशा सत्ता के साथ रहना चाहेंगे। ऐसे में बिहार में भाजपा कोई पंगा अभी नहीं लेगी। भाजपा ने चुनाव के बाद जो सबसे दिलचस्प चीज़ की, वो यह है कि उसने जीत का जश्न बिहार में बड़े हलके स्तर पर किया, जबकि दिल्ली में खूब पटाखे फोड़े। बंगाल आदि के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा गठबन्धन में दरार या लड़ाई का सन्देश नहीं देना चाहती।

 बिहार में भाजपा प्रदेश की योजनाओं को अब अपने हिसाब से चला सकेगी। पार्टी सुशील मोदी को क्यों निपटाना चाहती है? यह अभी समझ से बाहर है। उनके अलावा प्रेम कुमार, नंद किशोर यादव, विनोद नारायण झा जैसे नेता भी सरकार से दूर रखे गये हैं। यादव को लेकर कहा जा रहा है कि उन्हें स्पीकर बनाया जा सकता है। ऐसे में यह सवाल दिलचस्प है कि भाजपा वरिष्ठ नेताओं की जगह नये या सरकार में कम अनुभव वालों को क्यों जगह दे रही है?

अभी तक यही माना जाता रहा है कि बिहार में भाजपा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय को अपना चेहरा बनाना चाहती है। देखना होगा अगले डेढ़ साल में भाजपा उन्हें किस तरह का रोल देती है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भी चर्चा में रहे हैं, लिहाज़ा वो अपनी कोशिश करेंगे। लेकिन यह तय है कि भाजपा बिहार में अपने विस्तार में अब कोई कसर नहीं छोड़ेगी। ऐसे में लगता यही है कि बिहार में विस्तार की भाजपा की रणनीति डेढ़-दो साल बाद की दिखेगी, जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हो जाएँगे। वहाँ 2022 में मार्च के आसपास विधानसभा चुनाव होने हैं। सुशील मोदी ने उप मुख्यमंत्री पद से दूर रखे जाने को लेकर एक ट्वीट में अपने दिल का दर्द यह लिखकर बयाँ किया कि उन्हें कार्यकर्ता बने रहने से नहीं रोका जा सकता। इससे साफ है कि इस तरह किनारे कर दिये जाने से वह खुश नहीं हैं। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठ रहा है कि भाजपा नेतृत्व सुशील मोदी के साथ ऐसा अपमान वाला व्यवहार क्यों कर रहा है? इसका एक सरल जवाब यह हो सकता है कि केंद्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार के नज़दीकी या उनसे सहानुभूति रखने वाले नेताओं को बिहार में ताकत नहीं देना चाहती। यदि या सच है, तो ज़ाहिर है कि भाजपा बिहार में नीतीश कुमार पर भी मेहरबान नहीं रहेगी और उनसे सहानुभूति रखने वाला कोई होगा नहीं, जो उनका बचाव कर सके।

सुशील के समर्थकों में भी बहुत गुस्सा है। इनमें से ज़्यादातर मानते हैं कि सुशील बिहार की राजनीति में रहना चाहते हैं। बीच में यह चर्चा रही है कि सुशील मोदी को केंद्र की एनडीए सरकार में लाया जा सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पिछले 13-14 साल की सत्ता में सुशील मोदी ही जदयू से गठबन्धन के असली खेवनहार रहे हैं। सुशील मोदी ही हैं, जिन्होंने लालू-राज से लेकर महागठबन्धन की सरकार तक जनहित के मुद्दों को उठाया और उस सरकार को तुड़वाकर भाजपा-जदयू के गठजोड़ वाली सरकार बनवायी। विधानसभा चुनाव में मोदी कोरोना से संक्रमित हुए; लेकिन जैसे ही स्वस्थ हुए चुनाव प्रचार में कूद गये। हालाँकि उन्होंने पूरा भाजपा पर फोकस न करके पूरे एनडीए के पक्ष में प्रचार किया।

नीतीश के लिए अब बिहार में भाजपा के दो दिग्गज नेताओं भूपेंद्र यादव और नित्यानंद राय के साथ तालमेल रखने की चुनौती होगी, जो सुशील मोदी के विपरीत नीतीश को भी एक विरोधी की ही तरह देखते हैं। इन दोनों का एक ही मकसद है भाजपा को बिहार में अपने बूते की पार्टी बनाना, लिहाज़ा बिहार में नीतीश उनके उतने ही निशाने पर रहेंगे, जितने राजद और कांग्रेस के। नित्यानंद की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है। भूपेंद्र यादव की रणनीति भी भाजपा का मुख्यमंत्री बनाना है। इन दोनों से अपनी कुर्सी और पार्टी दोनों को बचाना भी नीतीश के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

इतने कमज़ोर भी नहीं सुशासन बाबू

नीतीश भले 43 सीटों पर सिमट गये हों, पर वह इतने कमज़ोर और भाजपा के लिए बहुत आसान निवाला भी नहीं हैं। विधानसभा में विधायकों के संख्या (43) के हिसाब से भी नीतीश कमज़ोर नहीं हैं; क्योंकि अगर वह भाजपा से छिटकते हैं, तो सरकार गिर जाएगी। और अगर वह राजद को समर्थन दे देते हैं, तो भाजपा का महाराष्ट्र की तरह रास्ता पूरी तरह बन्द हो जाएगा। लेकिन उन्हें भाजपा से अपने विधायकों को बचाना होगा; क्योंकि विधायकों की खरीद-फरोख्त में भाजपा माहिर है; कर्नाटक और मध्य प्रदेश इसका बड़ा उदाहरण हैं। ऐसे में नीतीश की ताकत उनके 43 विधायक ही रह सकते हैं। हालाँकि भाजपा सहयोगी दल जदयू के साथ ऐसा करने की जल्दी नहीं सोचेगी, क्योंकि नीतीश को भी ‘पलटूराम’ कहा जाता है। इसलिए उनके अस्तित्व की बात आयेगी, तब तो वह निश्चित ही खतरनाक हो उठेंगे।

लोजपा के भाजपा के साथ तालमेल के बावजूद चिराग का केवल जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारना और चुनाव के ऐन मध्य में इनकम टैक्स विभाग की जदयू से जुड़े लोगों पर छापेमारी ज़ाहिर करती है कि नीतीश को कमज़ोर करने की कोशिश उनके अपने साथी दल की तरफ से ही हुई थी। यही नहीं, चुनाव प्रचार में भाजपा सांसदों का जदयू की सीटों से किनारा करना भी कुछ संकेत करता है। और तो और सासाराम और पालीगंज जैसी सीटों पर भाजपा के बािगयों का ताल ठोकना भी यही इशारा करता है।

इस तरह देखा जाए तो इस चुनाव में जदयू और नीतीश कुमार राजद-कांग्रेस-वामपंथी गठबंधन से ही नहीं लड़े, बल्कि अपने ही सहयोगी भाजपा और एनडीए सहयोगी लोजपा से भी लड़े। इसके बावजूद जदयू का 43 सीटें निकाल लेना छोटी बात नहीं है। साल 2015 में जब नीतीश राजद-कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े थे, तब उन्हें उन दलों का वोट भी खूब मिला था। इस बार भाजपा ने उलटे उनके वोट काटे। यह कमोवेश वैसी थी स्थिति है जैसी 2019 के आखिर में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में शिवसेना की भाजपा के साथ हुई थी। ऐसे में इस बार भाजपा को जो मिला उसमें सहयोग उसके अपने से बाहर का भी बहुत कुछ था; जबकि जदयू ने जो पाया, वो सारा अपने बूते का था।

कुशवाहा के गठबन्धन ने भी चुनाव में दिलचस्प रोल निभाया। यह देखा गया कि जहाँ भाजपा चुनाव लड़ रही थी वहां उसके उम्मीदवार उस जाति के नहीं थे जो भाजपा के थे। बल्कि उस जाति के थे जो महागठबंधन के उम्मीदवार की थी। नहीं भूलना चाहिए कि एनडीए को मिली 125 सीटों के खिलाफ इस चुनाव में बाकी दलों के 118 उम्मीदवार जीते हैं, जो एनडीए से 7 ही कम हैं। चिराग पासवान की लोजपा ने कई सीटों पर जदयू उम्मीदवारों को हराने में बड़ी भूमिका निभायी। चिराग ने भाजपा के मुख्यमंत्री का नारा दिया था। भले ही ऐसा नहीं हुआ, लेकिन यह कूटनीति भाजपा के काफी काम आयी। भाजपा को मजबूरी में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। क्योंकि नीतीश ने परदे के पीछे के तमाम खेल के बावजूद 43 सीटें जीत लीं। शायद चिराग नीतीश को 20-25 सीटों पर सिमटने की कल्पना कर रहे थे। ऐसा हो जाता तो नीतीश निश्चित ही आज मुख्यमंत्री नहीं होते।

यह माना जाता है कि चुनाव के बाद जब भाजपा कुछ नेताओं के पर कतर रही है, तो इसका कारण खुद को बिहार में और मज़बूत करना भी है, और गुस्सा भी। भाजपा की योजना ही 80-85 सीटें जीतने की थी। सुशील कुमार मोदी भाजपा के इस गुस्से के पहले बड़े शिकार हैं। सुशील मोदी के विरोधी चर्चा में बताते हैं कि वह नीतीश की कुर्सी बचाना चाहते थे। क्योंकि उन्हें विश्वास था कि नीतीश की सरकार में वह उप मुख्यमंत्री तो रहेंगे ही। लेकिन नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उनका दुर्भाग्य रहा कि भाजपा आलाकमान ने उन्हें उप मुख्यमंत्री नहीं बनाया। इसके पीछे उनके भाजपा के भीतर ताकतवर विरोधी रहे।

नीतीश की बड़ी कमी रही कि वह प्रचार में अपनी उपलब्धियाँ जनता को सही तरीके से नहीं बता सके। इसके विपरीत प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी हर सभा में केंद्र सरकार की योजनाओं का जमकर प्रचार किया। हालाँकि इस चुनाव से एक और बात साबित हो गयी कि नरेंद्र मोदी को भाजपा भले जीत का श्रेय दे, लेकिन वह पूरे एनडीए को वोट नहीं दिला पाये, अन्यथा जदयू की सीटें ज़्यादा होतीं। शायद उनका मकसद भी यह नहीं था। यहाँ याद करना दिलचस्प होगा कि 2010 के चुनाव में जब नरेंद्र मोदी कहीं तस्वीर में नहीं थे, तब भाजपा एनडीए गठबन्धन ने कहीं बड़ा बहुमत पाया था और उसे 206 सीटें मिली थीं। इधर, भाजपा से भी उसके कई सहयोगी छिटक चुके हैं। ऐसा लगता है कि एनडीए गठबन्धन अब कहने को रह गया है और भाजपा ही अधिकतर सीटों पर काबिज़ होती जा रही है। इसका एक कारण सहयोगियों का भाजपा नेतृत्व से रूठना भी है। लेकिन इससे भाजपा का हित भी बहुत दिनों तक नहीं सधेगा; क्योंकि नाराज़ दल उसे एक-न-एक दिन कमज़ोर कर देंगे। यदि 2014 की बात करें तो एनडीए में 24 दल शामिल थे। चुनाव में एनडीए ने 336 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा ने 282 सीटें। तब अशोक गजपति राजू (टीडीपी) ने भी शपथ ली थी; लेकिन 2019 के चुनाव से पहले ही टीडीपी भाजपा से अलग हो गयी थी। अब अकाली दल  भी उससे अलग हो चुका है।

दिलचस्प यह है कि बिहार में जदयू भाजपा की सहयोगी है और सत्ता में है। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में नीतीश कुमार की पार्टी का कोई सांसद मंत्री नहीं है। एनडीए में होने के नाते केवल उसका केंद्र सरकार को समर्थन है।

कितने शिक्षित विधायक

बिहार चुनाव को लेकर एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार विधानसभा में 94 विधायक 5वीं से 12वीं तक ही पढ़े हैं। बिहार के 10 विधायक ऐसे हैं, जो 8वीं पास हैं और 30 विधायक 10वीं पास हैं। वहीं 53 विधायक 12वीं पास हैं; जबकि 134 विधायकों ने अपनी शैक्षिक योग्यता स्नातक या उससे ऊपर बतायी है। नौ विधायकों ने शैक्षिक योग्यता में सिर्फ साक्षर लिखा है। 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 28 (11.5 फीसदी) है, जो पिछली बार 34 (14 फीसदी) थी। सबसे ज़्यादा शिक्षा प्राप्त महिला विधायक कांग्रेस से हैं। चार में तीन स्नाकत्कोत्तर और एक स्नातक हैं। जदयू की नौ विधायकों में से एक स्नाकत्कोत्तर और एक स्नातक (एलएलबी) हैं। एक के पास डॉक्ट्रेट की डिग्री है। जदयू में एक निरक्षर महिला भी विधायक है। राजद की 10 विधायकों में से दो स्नातक और एक डॉक्ट्रेट डिग्रीधारी हैं।

भ्रष्टाचार के मामले

सरकार बनते ही शिक्षा मंत्री मेवालाल चौधरी को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इस्तीफा देना पड़ा। ऐसे में जानना ज़रूरी है कि किस पार्टी के कितने विधायकों पर भ्रष्टाचार के मामले हैं।

एडीआर और इलेक्शन वॉच के अध्ययन के अनुसार, नीतीश मंत्रिमंडल  के 14 मंत्रियों में से आठ (57 फीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले हैं। वहीं छ: (43 फीसदी) के खिलाफ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आपराधिक मामलों वाले आठ मंत्रियों में से भाजपा के चार, जदयू के दो और हम और वीआईपी का एक-एक विधायक शामिल है। चौधरी को तो मंत्रिमंडल में शामिल करते ही हंगामा शुरू हो गया था। सन् 2017 में चौधरी के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनसे मिलने से भी इन्कार कर दिया था। मेवालाल चौधरी का नाम बीएयू भर्ती घोटाले में सामने आया था और राजभवन के आदेश से उनके खिलाफ 161 सहायक प्रोफेसर और कनिष्ठ वैज्ञानिकों की नियुक्ति के मामले में एक प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। घोषित सम्पत्ति के लिहाज़ से चौधरी सबसे अमीर मंत्री हैं। वहीं, 14 मंत्रियों की औसत सम्पत्ति 3.93 करोड़ रुपये है। मेवालाल चौधरी ने अपने शपथ पत्र में आईपीसी के तहत एक आपराधिक मामला और चार गम्भीर मामले घोषित किये हैं। पशुपालन और मत्स्य पालन मंत्री मुकेश सहनी ने पाँच आपराधिक मामलों और गम्भीर प्रकृति के तीन मामलों की घोषणा की है। भाजपा के जिबेश कुमार ने भी पाँच आपराधिक मामलों और गम्भीर प्रकृति के चार मामलों की घोषणा की है। वहीं पाँच अन्य हैं, जिनके खिलाफ अलग-अलग प्रकृति के आपराधिक मामले दर्ज हैं।

भाजपा और राजद का फैलाव

चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने से ज़ाहिर होता है कि अगड़ी जातियों में भाजपा के साथ-साथ राजद को भी खूब वोट मिले, जबकि जदयू को नहीं मिले। लिहाज़ा भाजपा मानकर चल रही है कि भविष्य में उसका मुकाबला राजद से होगा। भाजपा और राजद में राजपूत विधायकों की जीत में इजाफा हुआ है; जबकि जदयू से कमी आयी है। इस तरह देखा जाए, तो राजद का उच्च जातियों में फैलाव हुआ है और उसने भाजपा को इस मामले में टक्कर दी। नतीजों से पता चलता है कि सवर्ण मतदाताओं ने भाजपा का काफी साथ दिया। हर चार में से एक विधायक सवर्ण जीता है। यादव, कुर्मी और कुशवाहा समुदाय के विधायकों की संख्या में इस बार कमी आयी है।

इस बार चुनाव में भाजपा ने जदयू, वीआईपी और हम पार्टी के साथ मिलकर अगड़ी और पिछड़ी जातियों को साधने का काम किया; लेकिन इसमें फायदा सिर्फ भाजपा को मिला। इस बार करीब 64 विधायक अगड़ी जातियों से चुनकर आये, जिनमें 28 राजपूत विधायक हैं। जबकि 2015 में यह संख्या 20 थी। भाजपा ने 21 राजपूत उमीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 15 जीत गये। जदयू के सात में से दो ही जीत सके; अबकी दो वीआईपी टिकट पर जीते। एनडीए के कुल 19 राजपूत विधायक विधानसभा पहुँचे।

उधर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबन्धन (राजद+कांग्रेस+वामपंथ) ने 18 राजपूत उमीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से आठ ही जीत सके। इनमें भी राजद के आठ उतारे लोगों में से सात उम्मीदवार शामिल हैं, जबकि कांग्रेस के 10 में से एक ही राजपूत उमीदवार को जीत मिली। एक निर्दलीय जीता। सन् 2015 के चुनाव में भाजपा के नौ, राजद के दो, जदयू के छ: और कांग्रेस के तीन राजपूत उम्मीदवार जीते थे। बिहार में इस बार 12 ब्राह्मण उम्मीदवार जीते हैं। सन् 2015 में 11 ब्राह्मण विधायक जीते थे। भाजपा ने इस बार 12 ब्राह्मण उमीदवारों को टिकट दिया था, जिनमें पाँच जीते। जदयू के दोनों ब्राह्मण जीतीं, जबकि कांग्रेस के नौ में से तीन उम्मीदवारों को जीत मिली। सबसे फायदे में राजद रहा, जिसके चार में से दो उम्मीदवार जीते; जबकि 2015 में एक ही जीता था। तब भाजपा के तीन, जदयू का एक और कांग्रेस के चार उम्मीदवार जीते थे। इस बार तीन कायस्थ समुदाय के विधायक बने जो सभी भाजपा के हैं। साल 2015 में भाजपा के दो और कांग्रेस का एक कायस्थ विधायक था।

इस बार 21 भूमिहार उम्मीदवार जीते हैं, जिनकी संख्या 2015 में 17 थी। सबसे ज़्यादा भाजपा से जीते हैं। उसने 14 भूमिहार मैदान में उतारे, जिनमें आठ जीत गये। जदयू के आठ में से पाँच जीते, जबकि हम पार्टी का एक। महागठबन्धन के टिकट पर छ: भूमिहार उम्मीदवार जीते, जिनमें सबसे ज़्यादा कांग्रेस के 11 में से चार, जबकि राजद और सीपीआई का एक-एक उम्मीदवार जीता। साल 2015 में भाजपा के नौ, जदयू के चार और कांग्रेस के तीन भूमिहार विधायक बने थे। बिहार में इस बार के विधानसभा चुनावों में यादव विधायकों की संख्या भी घटी है। कुल 52 यादव उम्मीदवार जीते हैं, जबकि 2015 में 61 जीते थे। यही नहीं कुर्मी और कुशवाहा विधायकों की संख्या भी घट गयी है। साल 2015 के जीती 16 कुर्मी उम्मीदवारों के मुकाबले इस बार नौ ही जीते। जदयू के 12 में से सात, जबकि भाजपा के दो जीते। महागठबंधन में राजद और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता। सन् 2015 में जदयू के 13 कुर्मी विधायक सदन में पहुँचे थे। भाजपा, कांग्रेस और राजद के हिस्से में  एक-एक कुर्मी विधायक आया था।

जदयू के लिए सबसे बड़ी चिन्ता बिहार में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटना है। इससे कांग्रेस को भी खासा नुकसान हुआ है। इस बार 19 मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं, जबकि 2015 में 24 मुस्लिम विधायक विधानसभा पहुँचे थे। इस बार राजद के टिकट पर सबसे ज़्यादा 8 मुस्लिम जीते, जबकि दूसरे नंबर पर पाँच मुस्लिम विधायकों के साथ ओवैसी की इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन रही। कांग्रेस के चार, भाकपा  (माले) का एक और एक उम्मीदवार बसपा के टिकट पर जीता। जदयू का हाथ खाली रहा, जबकि 2015 में उसके 5 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे। तब राजद के 11, कांग्रेस के 7 और सीपीआई (माले) का एक मुस्लिम विधायक जीता था। यह तमाम आँकड़े जदयू और नीतीश की चिन्ता बढ़ाते हैं। इससे भाजपा को जदयू पर हावी होने का मौका मिलेगा। नीतीश को अपने वोट बैंक पर अब ध्यान देना होगा, नहीं तो भविष्य में उनके सामने काफी दिक्कतें आ सकती हैं।