निर्भया को मिला इंसाफ 2.4 लाख को अब भी इंतज़ार

बहुचर्चित निर्भया सामूहिक बलात्कार और निर्मम हत्याकांड मामले में लगातार लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद आिखकार न्याय मिल गया है। चारों दोषियों को 20 मार्च को फाँसी दे दी गयी। सात साल के लम्बे इंतज़ार के बाद आिखरकार 23 वर्षीय फिजियोथेरेपी इंटर्न को न्याय मिला है, जो दक्षिण दिल्ली के पास के इलाके में एक खाली ब्लूलाइन बस में दङ्क्षरदों की क्रूरता की शिकार हुई थी। न्याय में देरी हमारी कानूनी प्रणाली में कई खामियों के चलते हुई। लेकिन दो बहादुर महिलाओं- निर्भया की माँ आशा देवी और वकील सीमा कुशवाहा को इस लड़ाई में आिखरकार जीत मिली।

दोषियों को फाँसी मिलने पर केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संसद भवन परिसर में संवाददाताओं से कहा कि यह बहुत राहत का दिन है कि एक बेटी, जिसने इतना दर्द सहा, उसे आिखर न्याय मिला है। यह न्यायपालिका, सरकार और नागरिक समाज के लिए आत्मनिरीक्षण करने का समय है कि क्या मौत की सज़ा के दोषियों को व्यवस्था में जोड़-तोड़ करने और देरी करवाने का कारण बनने दिया जा सकता है?

विदित हो कि निर्भया के चारों दोषियों- मुकेश सिंह (32), पवन गुप्ता (25), विनय शर्मा (26) और अक्षय कुमार सिंह (31) को तिहाड़ जेल में 20 मार्च को 5:30 बजे फाँसी दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने दोषियों के वकील की अंतिम याचिका खारिज करने के बाद तय कार्यक्रम के अनुसार फाँसी दी गयी। निर्भया मामले में दोषियों को मृत्युदंड की सज़ा के बाद देश में राहत की भावना महसूस की जा सकती है। लेकिन देश भर में बलात्कार के लम्बित मामलों की स्थिति एक अलग ही कहानी कहती है। भारत में अभी भी करीब 2.45 लाख निर्भया हैं, जो आज भी न्याय की प्रतीक्षा कर रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद निर्भया की माँ आशा देवी ने कहा- ‘हम सभी ने इस दिन का बहुत इंतज़ार किया है। आज भारत की बेटियों के लिए एक नयी सुबह है। जानवरों को फाँसी पर लटका दिया गया है।’ उन्होंने फैसले के बाद घर जाकर अपनी बेटी की तस्वीर को सीने से लगाया।

चार दोषियों को फाँसी देने के साथ निर्भया को तो न्याय मिल गया, लेकिन सवाल यह है कि देश की कई अन्य निर्भयाओं का क्या? जो अभी भी न्याय की प्रतीक्षा कर रही हैं। इसका कारण एक ही है। वह यह कि दशकों से भारतीय कानूनी प्रणाली इस तरह के मामलों के भारी दबाव का सामना करती आ रही है। जानकारों का कहना है कि ऐसे लम्बित मामलों की संख्या चिन्ताजनक है और सरकार के साथ-साथ देश की न्यायिक व्यवस्था के लिए यह चिन्ता का विषय है।

सरकार ने भारत भर की विभिन्न अदालतों में बड़ी संख्या में लम्बित बलात्कार और पोक्सो (यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम) से जुड़े मामलों के चौंकाने वाले आँकड़े उजागर किये हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, दिसंबर, 2019 तक भारत में कुल 2,44,001 बलात्कार और पोक्सो के लम्बित मामले हैं। उत्तर प्रदेश कुल 66,994 बकाया मामलों के साथ सूची में सबसे ऊपर है। जबकि महाराष्ट्र में 21691, पश्चिम बंगाल में 20,511, मध्य प्रदेश में 19,981, राजस्थान में 11,159 मामले लम्बित हैं। इन लम्बित मामलों की संख्या सरकार के महत्त्वाकांक्षी अभियान ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान पर सवालिया निशान खड़ा करती है?

एनसीआरबी के आँकड़ों में आगे कहा गया है कि 2018 में देश भर में प्रत्येक चौथी बलात्कार पीडि़ता नाबालिग थी; जबकि उनमें से 50 फीसदी से अधिक 18 से 30 वर्ष की आयु वर्ग में थीं। 9 जनवरी, 2020 को जारी किये गये आँकड़े 2018 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 3,78,277 मामलों के साथ पूरे देश में कानून और व्यवस्था की खराब स्थिति को उजागर करते हैं। आँकड़ों में उत्तर प्रदेश में 59,445 महिलाओं के खिलाफ अपराधों से सम्बन्धित मामलों की सबसे अधिक संख्या है। मध्य प्रदेश में बलात्कार के मामलों की अधिकतम संख्या 5,450 है यानी एक दिन में लगभग 15 बलात्कार के मामले यहाँ होते हैं। दूसरी ओर, दिल्ली दुनिया की महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक राजधानी बन गयी है। साल 2018 में सबसे अधिक 1,217 बलात्कार के मामले यहाँ हुए।

बलात्कार और पोक्सो के लम्बित मामलों के मुद्दे पर राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा कहती हैं कि हमारे पास मज़बूत कानून है, लेकिन इसे बेहतर तरीके से लागू करने की ज़रूरत है। इसके अलावा लम्बी जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को बदलने और फास्ट कोर्ट की ज़रूरत है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक, 94 फीसदी मामलों में अपराधी पीडि़तों के जानकार थे। इनमें से 18,059 मामलों में बलात्कारी मित्र, नियोक्ता, पड़ोसी या अन्य ज्ञात व्यक्ति थे; जबकि 11,945 मामलों में वे ऑनलाइन मित्र थे। यह आँकड़ा 2017 के लिए लगभग समान है, जब 93.1 फीसदी मामलों में पीडि़तों की दुष्कर्म करने वाले से पहचान थी।

कुल मिलाकर 72.2 फीसदी 18 वर्ष से अधिक और 27.8 फीसदी 18 से नीचे आयु वर्ग की बलात्कार पीडि़ताएँ हैं। साल 2018 में 51.9 फीसदी यानी 17,636 बलात्कार पीडि़तों की आयु 18 से 30 वर्ष के बीच, 18 फीसदी यानी 6,108 बलात्कार पीडि़त 30 से ऊपर और 45 वर्ष से कम, 2.1 फीसदी यानी 727 पीडि़त 45 और 60 वर्ष की आयु के बीच और 0.2 फीसदी यानी 73 पीडि़त 60 साल से ऊपर थीं।

इस आँकड़े से पता चलता है कि 14.1 फीसदी यानी 4,779 बलात्कार पीडि़त 16 वर्ष से अधिक और 18 वर्ष से कम आयु की थी। 10.6 फीसदी यानी 3,616 पीडि़त 12 से 16 वर्ष के बीच थीं। 2.2 फीसदी यानी 757 पीडि़त 6 वर्ष से अधिक और 12 वर्ष से कम आयु की थीं। वहीं 0.8 फीसदी यानी 281 पीडि़त महज़ 6 वर्ष या उससे भी कम आयु की थीं। आँकड़ों के अनुसार, 2,780 मामलों में उनके अपने परिवार के सदस्यों ने ही महिलाओं को शोषित किया।

इसके अलावा, बलात्कार के मामलों की संख्या पिछले 17 वर्षों में दोगुनी हो गयी है। इन 17 वर्षों में देश भर में औसतन 67 महिलाओं के साथ प्रतिदिन बलात्कार किया गया, या हर घंटे लगभग तीन महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। वर्ष 2001 में पूरे भारत में बलात्कार के दर्ज मामलों की संख्या 16,075 थी, यह संख्या 2017 तक बढ़कर 32,559 हो गयी।

केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत एनसीआरबी भारतीय दंड संहिता और देश में विशेष और स्थानीय कानूनों के तहत परिभाषित अपराध आँकड़ों को एकत्र करने और उनका विश्लेषण करने के लिए ज़िम्मेदार है।

 थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन के एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश है। बलात्कार के मामलों की बढ़ती संख्या और यौन हिंसा के उच्च जोखिम के कारण भारत दुनिया भर में सबसे असुरक्षित राष्ट्र बन गया है, जबकि अफगानिस्तान दूसरे स्थान पर और सीरिया तीसरे स्थान पर है।

कानून और न्याय मंत्री, रविशंकर प्रसाद ने बताया कि स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने बलात्कार और पोक्सो अधिनियम, 2012 से सम्बन्धित लम्बित मामलों के ट्रायल और निपटारे के लिए देश भर में कुल 1023 राज्यवार फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट की स्थापना के लिए एक केंद्र प्रायोजित योजना शुरू की है।

राज्य वार 1023 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोट्र्स में से उत्तर प्रदेश में 218,  महाराष्ट्र में 138, पश्चिम बंगाल में 123, मध्य प्रदेश में 67, केरल में 56, बिहार में 54, ओडिशा और राजस्थान में 45, तेलंगाना में 36, गुजरात में 35, कर्नाटक में 31, असम में 27, झारखंड में 22, आंध्र प्रदेश में 18, हरियाणा और दिल्ली के एनसीटी में में 16-16, छत्तीसगढ़ में 15, तमिलनाडु में 14, पंजाब में 12, हिमाचल प्रदेश में 06, मेघालय में 05, जम्मू और कश्मीर और उत्तराखंड में 4-4, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और त्रिपुरा में 3-3, गोवा और मणिपुर 2-2, चंडीगढ़, नागालैंड और अंडमान और निकोबार द्वीप में 1-1 में होगा। इसके अलावा 2019-20 के दौरान राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 649 फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने के लिए 99.43 करोड़ रुपये की राशि जारी की गयी है।

महिलाओं और बालिकाओं के लिए जनवरी, 2020 तक एफटीएससी योजना के तहत स्थापित और कार्यरत 195 फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों में से 56 मध्य प्रदेश, 34 गुजरात, 26 राजस्थान, 22 झारखंड, 16 दिल्ली, 15 छत्तीसगढ़, त्रिपुरा में 3, तेलंगाना में 9 और तमिलनाडु में 14 हैं।

हर साल बड़ी संख्या में मामले निपटाने के बावजूद, लम्बित मामले बढ़ते रहते हैं। लम्बित मामलों की बढ़ती संख्या पर विराम न लगा पाने के पीछे मुख्य कारणों में से एक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी भी है। साल 2017 में 10 साल से अधिक समय से लम्बित मामलों के निपटारे के लिए न्याय मित्र योजना शुरू की गयी थी। इस योजना के तहत सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों को 10 साल पुराने अधिक-से-अधिक मामलों का निपटान करके उन्हें कम करने और हाशिये पर पड़े लोगों की न्याय तक पहुँच बढ़ाने में मदद करने के लिए नियुक्त किया गया था। जुलाई, 2019 तक स्वीकृत न्यायाधीशों के 37 फीसदी अर्थात् 399 पद रिक्त हैं। अदालतों से उम्मीद है कि इस देरी को दूर करने के लिए प्रतिवर्ष 165 लम्बित मामलों का निपटारा करेंगी।

हालाँकि आज यौन हिंसा और बलात्कार समाचार चैनलों पर ज्वलंत बहस का विषय बन गये हैं, जो खासकर एक ऐसे देश में बड़ी बात है, जहाँ यौन अपराध पर बहुत सीमित स्तर पर ही बात होती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए मीटू, सड़क पर विरोध-प्रदर्शन, कैंडल मार्च या कड़े कानून बनाने जैसे कदम समाज में कोई बदलाव लाएँगे? क्योंकि सबसे बड़ी चुनौती तो महिलाओं के प्रति समाज का नज़रिया बदलना है।