नायाब पत्थर का फैलता उजास

ताजमहल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे इस बेमिसाल इमारत को संगमरमर के कपड़े पहना दिये गये हों। संगमरमर की निस्बत ग्रीक शब्द 'मारमारोन’ से मानी जाती है। संगमरमर को सर्वाधिक रूप से भवन निर्माण और प्रतिमाओं को गढऩे में उपयुक्त माना गया है। भारत में राष्ट्रपति भवन, संसद भवन तथा सुप्रीम कोर्ट की इमारतों में भी संगमरमर का उपयोग हुआ है। लेकिन संगमरमर के खनन की कहानी पड़ी पेचीदा और चौंकाने वाली है। आप भी जानिए :-

अपनी नीमख्वाब तन्हाइयों से ऊबकर सुरूर-ओ-खुमार में डूबे किसी शख्स के होशोहवास पर पेरहन डाल देने वाले किसी खास मुजस्सिम को देखने की तलब जागती हो, तो वो ताजमहल से दीगर कोई और इमारत हो ही नहीं सकती। संगमरमर की शफ्फाक दीवारों पर खुदी हुई मोहब्बत की सुर्ख इबारत तारीख की हज़ारों परतें पलट देती है। ताजमहल मुहब्बत की ठाठें मारता ऐसा समंदर है, जिसके तट पर जाये बिना आशिकी का कोई मोल नहीं। ताजमहल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे इस बेमिसाल इमारत को संगमरमर के कपड़े पहना दिये गये हों। संगमरमर की निस्बत ग्रीक शब्द ‘मारमारोन’ से मानी जाती है। संगमरमर को सर्वाधिक रूप से भवन निर्माण और प्रतिमाओं को गढऩे में उपयुक्त माना गया है। भारत में राष्ट्रपति भवन, संसद भवन तथा सुप्रीम कोर्ट की इमारतों में भी संगमरमर का उपयोग हुआ है। आज तो संगमरमर अपनी विभिन्न िकस्मों के साथ होटलों और आवास निर्माण में भी काम आने लगा है। लेकिन कभी इसे ‘शाही पत्थर’ के नाम से पुकारा जाता था।

प्रकार और प्रजातियाँ

राजस्थान के उदयपुर के पास स्थित राजनगर को विश्व का सबसे बड़ा संगमरमर उत्पादक क्षेत्र माना जाता है। इस शहर में करीब दो हज़ार इकाइयाँ हैं, जो मशीनरी के द्वारा संगमरमर की शिलाओं को व्यावसायिक बिक्री के लिए आकार प्रदान करती है। इन्हें विभिन्न िकस्मों में तराशने का काम होता है। यद्यपि मूल रूप से संगमरमर का रंग सफेद ही होता है। किन्तु व्यावसायिक दृष्टि से नयनाभिराम बनाने के लिए एक अलग प्रक्रिया अपनायी जाती है। ऐसा ही एक इलाका है आँधी। जयपुर के निकटवर्ती इस क्षेत्र में संगमरमर की शिलाओं को रंग परिवर्तन की तकनीकी प्रक्रिया से गुज़ारा जाता है। इंडो इटालियन ऐसी ही प्रक्रिया से तैयार की गयी विशिष्ट िकस्म है। इसका रंग पिस्तई (पिस्ता मेवे जैसा) होता है। हालाँकि यह प्रक्रिया पर्यावरण को प्रदूषित भी करती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सरिस्का टाइगर अभयारण्य से सटी हुई अनेक इकाइयों को बन्द कर दिया गया है। इसी परम्परा में संलूबर में मार्बल को थोड़ा गहरा और गुलाबी रंग देकर तैयार किया जाता है। पाकिस्तान के ऑनिक्स मार्बल से समानता के कारण इसे ऑनिक्स संगमरमर के नाम से भी जाना जाता है। इसका अर्थ है- ऐसा बेशकीमती पत्थर जिसकी तुलना नायाब ‘गोमेद रत्न’ से की जाती हो। सलूंबर मार्बल भी इसी श्रेणी का संगमरमर है। यह हरी और गुलाबी आभा लिये मोटी परत वाला पत्थर होता है। पीले रंग के मार्बल को व्यावसायिक क्षेत्रों में जैसलमेरी संगमरमर कहा जाता है। आबू में पाया जाने वाला मार्बल मूल रूप से साज-सज्जा में उपयेाग होता है। सुरमई आभा वाला यह पत्थर अधिकांश रूप से मंदिरों को गढऩे और मूर्ति शिल्प में काम आता है। ग्रीन मार्बल के रूप में चर्चित पत्थर उदयपुर के निकट केसरियाजी क्षेत्र की खदानों में मिलता है। हालाँकि मारवाड़ में किशनगढ़ तो मार्बल मंडी के नाम से ही प्रख्यात है।

सेंड स्टोन

मार्बल उद्योग में सेंड स्टोन का भी काफी महत्त्व है। विभिन्न आकार-प्रकारों में उपलब्ध होने वाला सेंड स्टोन अधिकांश रूप से पारदर्शिता लिये हुए होता है। धातुकणों के मिश्रण के अतिरिक्त यह खंडित अथवा टुकड़़ों के रूप में भी होता है। सेंड स्टोन भूरे, हरे, गुलाबी सफेद तथा काले और सफेद रंग में भी मिल जाता है । कुछेक विशिष्ट रंगों के सेंड स्टोन खास क्षेत्रों में ही उपलब्ध हैं।

हालाँकि इन्हें जल अथवा अन्य रसायनों के मिश्रण से भी बनाया जाता है। इनमें जल सोखने की अपार क्षमता होती है। इनका सर्वाधिक उपयोग दरारों को भरने अथवा पाटने के लिए किया जाता है। सेंड स्टोन मूल रूप से गहरी चमक लिए होते हैं। इनका रूप-स्वरूप चाक और कोयले की तरह भी होता है। इसका अधिकतम उपयोग निर्माण के दौरान फ्रेम वर्क में होता है। हस्तशिल्प उद्योग के लिए तो सेंड स्टोन रीढ़ की तरह है। इन दिनों मकराना में ऐसे दर्जनों कारखाने खुल गये हैं, जो मार्बल शिल्प से जुड़ गये हैं।

सेंड स्टोन की खदानें 

हालाँकि बिहार, गुजरात और असम, आंध्र प्रदेश में भी सेंड स्टोन की खदानें हैं, लेकिन 90 फीसदी सेंड स्टोन राजस्थान के बूँदी, चित्तौड़, कोटा, धौलपुर, जोधपुर और सवाई माधोपुर की खदानों से निकाला जाता है। निर्यात होने वाला सेंड स्टोन ज़्यादातर इन्हीं इलाकों से निकाला जाता है। वास्तुकला के जानकारों का कहना है कि इन क्षेत्रों में पाया जाने वाला विभिन्न रंगों का सेंड स्टोन अंदरूनी और बाहरी साज-सज्जा की दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है। इसके आकर्षक आभा वाले रंगों के चयन की बात करें, तो आगरा रेड, जोधपुर रेड, ललितपुर पिंक, रेनबो सैंडस्टोन और राज ग्रीन ज़्यादा पसंदीदा गिने जाते हैं। वास्तुकला विशेषज्ञों का कहना है कि बाहरी साज-सज्जा की दृष्टि से जोधपुर पिंक को सबसे बेहतरीन माना जाता है। राजस्थान में सेंड करीब दो सौ आकर्षक रंग छटा वाला ग्रेनाइट भी पाया जाता है। भारत से निर्यात किये जाने वाले उत्पादों में ग्रेनाइट पाँचवें नम्बर पर है। लेकिन पत्थर व्यवसाइयों का एक धड़ा असंतोष जताते हुए काफी कुछ देता है कि सब कुछ है; लेकिन सवाल है कि इन नायाब उत्पादों को सरकारी संरक्षण कितना है?

बढ़ता बाज़ार

वास्तुकला के विशेषज्ञों ने मार्बल के उपयेाग की नित नयी विधियों और शिल्प की ईज़ाद की हैं। इसकी खपत का बाज़ार भी उसी रफ्तार से आगे बढ़ा है। हैरत की बात यह है कि इसके बावजूद कीमतों में उछाल के बजाय दाम आज भी स्थिर हैं। इसकी माँग जिस तेज़ी से बढ़ी है अत्याधुनिक वास्तु शिल्प में इसका उपयोग भी उसी तेज़ी से बढ़ा है। नतीजतन राजस्थान संगमरमर उत्पादक क्षेत्र में नयी ऊँचाइयाँ तय कर रहा है। एक व्यावसायिक आकलन के अनुसार देश के मार्बल बाज़ार में राजस्थान की उत्पादकता का हिस्सा 90 फीसदी है।

इस साल राजस्थान में 10 लाख टन उत्पादन की सम्भावना है। एक व्यावसायिक अध्ययन की मानें, तो अब तो मध्य वर्ग भी खरीदार के रूप में बाज़ार में कूद पड़ा है। सम्भवत: इसकी बड़ी वजह सीमेंट की बढ़ती िकल्लत और छलाँग लगाते आसमानी दाम हैं। एक मार्बल संघारण इकाई की मालिक गोरी शंकर धूत का कहना है कि आजकल मार्बल की टुकडिय़ों और व्हाइट सीमेंट के मिश्रण का उपयोग छत बनाने में किया जा रहा है। इन्हें मोसाइक टाइल्स कहा जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह मिश्रण सीमेंट की अपेक्षा सस्ता पड़ता है। इसमें स्वदेशी और विदेशी दोनों का बघार लगा हुआ है। संघारण इकाइयाँ अब इनके छोटे-छोटे ब्लॉक बनाने की कोशिश भी कर रहा है। राजस्थान औद्योगिक विकास एवं निवेश निगम के सूत्रों की मानें, तो पिछले कुछ वर्षों में अत्याधुनिकता की ओर अग्रसर होने की दिशा में एक जागृति-सी आयी है। नतीजतन मार्बल एक नया बाज़ार तलाश रहा है। मासाइक टाइल्स बनाने की दिशा में अब इकाइयाँ तेज़ी से आगे बढ़ रही हैं। हालाँकि इस दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण तकनीकी उपलब्धि तो ब्लॉक की अपेक्षा ‘शिला फलक’ बनाने को लेकर कही जाएगी। मकराना के एक मार्बल व्यवसायी दीपक बंसल कहते हैं कि पुराने इस्पाती कटर अधिक समय लेते थे और उनकी एक निर्धारित सीमा थी। लेकिन नयी और अत्याधुनिक मशीनों ने इस काम को ज़्यादा सहज और बेहतर बना दिया है। वे कहते हैं कि नगीने तराशने की मशीनों की शक्ति और सीमा पत्थरों को तराशने में उतनी कामयाब नहीं हो सकती।

बंसल कहते हैं कि सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह स्वदेशी तकनीक है और इसकी कीमत भी 10 लाख से ज़्यादा नहीं है। हालाँकि इस तरीके के कुछ नुक्स भी हैं। यह एक तरह से बेहद थकाऊ काम है। खनन का परम्परागत प्रचलित तरीका ही इसमें सबसे बड़ा बाधक है। कई बार ऐसा होता है कि माइन्स फ्रीज हो जाती है और उन्हें फिर से यथस्थिति में लाना सम्भव नहीं होता। तब कैसी भी कोई तकनीक का क्या मतलब रह जाता है? सबसे बड़ी बात तो यह है कि खनन में ज़्यादातर काम में मानव शक्ति का उपयोग होता है। हालाँकि किसी स्थिति तक पेट्रोल चालित क्रेनों का उपयोग भी होता है; लेकिन नहीं के बराबर। खानों की गहराई, इनकी खुदाई में सबसे बड़ी बाधक होती है। ऐसे में सम्भावित दुर्घटनाजनित स्थितियाँ क्या गुल खिला सकती हैं? यह कहने की ज़रूरत नहीं।

बढ़ी हैं मुश्किलें

कुछ अर्सा पहले विदेशी मुद्रा विनियमन की वजह से खुली लाइसेंस प्रक्रिया पर लगी पाबंदी ने इस व्यवसाय में लगे लोगों को बुरी तरह सकपका दिया था। इसके अलावा बजट का वो प्रावधान भी व्यवसायियों को कम भारी नहीं पड़ा, जब टैक्स स्लैब पर प्रति वर्ग मीटर की एक्साइज ड्यूटी थोप दी गयी। इसके लेकर आन्दोलन भी छिड़ा। नतीजतन ड्यूटी 20 रुपये से घटाकर 10 रुपये कर दी गयी। लेकिन व्यापारियों का कहना था कि समस्याएँ यथावत् बनी हुई हैं; क्योंकि 10 रुपये की छूट इस शर्त के साथ दी गयी कि स्लैब निर्माण कम-से-कम 25 फीसदी हिस्से का अपव्यय होना चाहिए। जबकि मार्बल कटिंग में अपव्यय की यह स्थिति नहीं होती। यह तो अधिकारियों का व्यापारियों को परेशान करने का तरीका है।

हालाँकि वे कहते हैं कि हम यह सोचकर अपने आपको तसल्ली दे सकते हैं कि किस तरह की समस्याएँ सदैव नहीं रहने वालीं। उद्योग का मिजाज़ दिनोंदिन बेहतर हो रहा है। इसकी वजह भी है कि माँग दिनोंदिन बढ़ रही है। इसमें कोई अनावश्यक उछाल नहीं है। हमारा मानना है कि मकराना उज्ज्वल भविष्य की तरफ बढ़ रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह ग्रोथ बाज़ार के बुनियादी और पारम्परिक हिस्सों से आयी है। रोज़गार, खपत और ग्रोथ की सम्भावना के नज़रिये से देखा जाए, तो असंगत बदलाव भी बर्दाश्त किये जा सकते हैं। लेकिन जीएसटी ने जिस तरह इस बाज़ार को आहत किया है, उसका क्या किया जाए? नोटबंदी और जीएसटी लागू होने से पहले तक मार्बल उद्योग अच्छा-खासा फल-फूल रहा था; लेकिन अब सब कुछ गड़बड़ा गया है। बिक्री में गिरावट, लम्बे समय तक काम बन्द रहना और डूबता संघारण मार्बल की चमक को निगल रहे हैं।

खनन महकमे की रिपोर्ट को समझें तो इस उद्योग में रोज़गार का स्तर 30 फीसदी से घटकर 12 फीसदी रह गया है। उद्यमियों का कहना है कि नोटबंदी जीएसटी और रेरा का सबसे बुरा असर इस उद्योग पर हुआ है। उद्योग विभाग के सूत्र भी इस बात को मानते हैं कि नोटबंदी और जीएसटी से बदहाली को देखना हो, तो मार्बल उद्योग इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। सूत्रों का कहना है कि टैक्स दर के पाँच फीसदी से बढ़कर 28 फीसदी हो जाने का क्या मतलब होता है? जीएसटी माँग और खपत को पूरी तरह निगल गया है। इन बदतर हालात में अगर कोई उम्मीद की किरण है, तो अमेरिकी बाज़ार उबरने के संकेत देते हैं। हालाँकि मिडिल-ईस्ट की माँग भी हौसला बढ़ाने वाली है। व्यावसायिक बाज़ार में इस क्षेत्र की माँग काफी कुछ उत्साहवद्र्धक कही जा सकती है।

काला बाज़ार की काली दुनिया

 चमचमाता मार्बल बेशक अपने रुपहले रंगों से रोमांचित करता है, लेकिन इस उद्योग में लुकाछिपी करती ढेरों सुलगती सचाइयाँ इसकी सफेदी को दागदार करती नज़र आती हैं। राजस्थान का मार्बल अपने देश के अलावा विदेश में भी खूब जाता है। इन देशों में स्पेन, इटली, तुर्की और वियतनाम तक शामिल हैं। मार्बल का ग्लोबल ब्रांड एक अलग चमक लिए लोगों के दिलों में घर किये हुए बाज़ार में अच्छी-खासी प्रतिस्पर्धा बनाये हुए है। उदारीकण के चलते यूपीए सरकार के दौरान पिछले दशक में विदेशी मार्बल का आयात करने के लिए निर्धारित नियामकों के आधार पर व्यवसायियों को इम्पोर्ट लाइसेंस दिये जाने का प्रावधान था। लेकिन इस सुविधा ने मार्बल कारोबार में काले बाज़ार की काली दुनिया खड़ी कर दी।

इम्पोर्ट लाइसेंस की सच्चाई

मिसाल के तौर पर यदि एक व्यवसायी को तीन हज़ार टन तक मार्बल आयात करने का लाइसेंस हासिल था। लेकिन इस सुविधा की सबसे बड़ी त्रासदी रही कि व्यवसायी ने इस पर कोई मामूली मुनाफा नहीं कमाया।

इस पहेली की गिरह जैसे-जैसे खुलती जा रही है, चौंकाने वाले खुलासे हो रहे हैं। मसलन, अगर व्यवसायी ने 40 लाख रुपये अदा किये होंगे, तो उसने खुले बाज़ार में बेचकर चार करोड़ जैसी मोटी कमायी की होगी। सूत्रों का कहना है कि सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इम्पोर्ट लाइसेंस हासिल करने के लिए कितना घमासान मचता होगा? भ्रष्टाचार के इस कुण्ड में कितने सियासतदानों ने डुबकी लगायी होगी? कहना मुश्किल है। इस खेल में जितनी असंगतियाँ थीं, उससे कहीं ज़्यादा मुनाफा था। जानकार सूत्रों का कहना है कि उस दौरान अकेले मकराना-उदयपुर ओर अजमेर किशनगढ़ मार्बल बेल्ट में सालाना एक हज़ार करोड़ का काला बाज़ार उल्टी साँसें लेने लगा था। मार्बल की काला बाज़ारी यहीं तक सीमित नहीं रही, इसमें घोटालों की एक और कहानी रची-बसी थी।

रिश्वत का एक और दरवाज़ा 

इम्पोर्ट लाइसेंस का एक निर्धारित नियामक होने के बावजूद इसका पिछला दरवाज़ा भी खुला था। नतीजतन पिछले दरवाज़े से हासिल होने वाले अतिरिक्त मार्बल की मिकदार का भुगतान ‘हवाला’ के ज़रिये होने लगा। इस घालमेल ने आये दिन घोटालों को जन्म दिया, तो नये विवाद भी छिडऩे लगे। नतीजतन नित नयी असंगतियों के परनाले खुलने लगे। लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान तो तब नज़र आया, जब सरकार के राजस्व की पेंदी में छेद होने लगा।

इम्पोर्ट ड्यूटी का नया विकल्प 

केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद बेशक इसमें एक हद तक रोक लगी। मोदी सरकार ने इम्पोर्ट लाइसेंस खत्म करने के साथ ‘इम्पोर्ट ड्यूटी’ लगाने का नया विकल्प शुरू कर दिया। इम्पोर्ट ड्यूटी की भारी भरकम राशि भी कम चौंकाने वाली नहीं है। लेकिन सूत्रों का कहना है कि नो बॉल पर भी छक्का जडऩे वालों की कमी नहीं है। आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि मेक इन इंडिया पर दो-तीन बैठकों के बाद ही सरकार को इल्हाम हो गया था कि आयात महँगा किये बिना मेन्यूफैक्चरिंग को प्रतिस्पर्धात्मक बनाना सम्भव नहीं। यही वजह रही कि आयात किये जाने वाले उत्पादों पर कस्टम ड्यूटी में भी अच्छी-खासी बढ़ोतरी की गयी। हालाँकि आयातकों की मज़बूत लॉबी ने अड़ंगे भी लगाये, लेकिन बात नहीं बनी।

विदेशी मार्बल की कालाबाज़ारी 

सूत्रों का कहना है कि ‘विदेशी मार्बल’ की काला बाज़ारी डगमगायी ज़रूर लेकिन पूरी तरह थमी नहीं। नतीजतन ‘हवाला’ में कालाबाज़ारी को उड़ान भरने का मौका दिया। अब प्रक्रियागत खामियाँ तलाशने में माहिर बिचौलिये आये दिन इस व्यवस्था को दागदार करते नज़र आ रहे हैं। व्यावसायिक जानकारों का कहना है कि ऊर्जा और खनन क्षेत्र तो असंगतियों का शानदार नमूना है। मार्बल खनन का भूगोल समझें, तो यह कोई पहाड़ की तलहटी को खुरचने वाला काम नहीं है। मार्बल बेल्ट की पूरी ज़मीन ही संगमरमर से अटी पड़ी है। इसका कोई अन्त नहीं है। लेकिन अगर कोई चीज़ चौंकाती है, तो खनन क्षेत्र में खुदी हुई खंदकें और उनके आस-पास चिंकारियों से लदे ऊँचे टीले। लेकिन खानों से पत्थर निकालना भी कोई आसान काम नहीं है। खासकर तब जब बेढंगी और तिरछी ज्यामिती वाली खान से पत्थर निकालने की नौबत आ जाए?

सिलिकोसिस के पंजे

जयपुर स्थित अपेक्स स्टोन इंडस्ट्री ऑर्गेनाइजेशन सेंटर की मानें, तो राजस्थान कीमती पत्थरों के उत्पादन की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा सूबा है। राजस्थान हर साल 5 करोड़ कीमती पत्थरों का उत्पादन करता है। मार्बल का सालाना उत्पादन डेढ़ करोड़ टन है; जबकि ग्रेनाइट और सेंड स्टोन का उत्पादन दोनों मिलाकर ढाई करोड़ है। लेकिन इस उद्योग में लोग कर्मचारियों की सेहत के प्रति कोई िफक्रमंद नहीं है; न सरकार और न ही व्यवसायी। अकेले भीलवाड़ा ज़िले के श्रीजी का खेड़ा में 70 लोग तो पिछले दशक में सिलिकोसिस से जान गँवा बैठे हैं। यह बीमारी नाक में धँसती पत्थरों की गर्द से होती है। आज भी यह बीमारी काबू से बाहर है। ऐसे में उद्योग पर नाज़ करने का क्या मतलब?

प्रमुख खनन केंद्र, पट्टे

राजस्थान में देश में खदानों की संख्या सबसे अधिक है। प्रमुख खनिजों के लिए 1,324 पट्टे, लघु खनिजों के लिए 10,851 और खनन पत्थरों के लिए 19,251 खदान लाइसेंस जारी किये गये हैं। राज्य ने 2004-2005 में सीसा, जस्ता और चूना पत्थर जैसे प्रमुख खनिजों से लगभग 590 करोड़ रुपये की रॉयल्टी अर्जित की। लेकिन यह क्षेत्र राज्य के राजस्व में केवल तीन फीसदी का योगदान देता है। राजस्थान में 44 प्रमुख और 22 लघु खनिजों का भण्डार है और गार्नेट, जैस्पर, सेलेनाइट, वोलास्टोनाइट और जस्ता केंद्रित का एकमात्र उत्पादक है। यह कैल्साइट, लेड कॉन्सन्ट्रेट, बॉल क्ले, फायरक्ले, गेरू, फॉस्फोराइट, सिल्वर और स्टीटाइट का प्रमुख उत्पादक भी है। लेकिन यह संगमरमर, बलुआ पत्थर, संगमरमर और अन्य पत्थरों के उत्पादन के लिए जाना जाता है। यह दुनिया के 10 फीसदी और भारत के चूनापत्थर के 70 फीसदी का उत्पादन करता है। अजमेर, भीलवाड़ा, बीकानेर, डूंगरपुर, जयपुर, पाली, राजसमंद और उदयपुर इसके प्रमुख खनन ज़िले हैं। लीज की न्यूनतम अवधि 20 वर्ष की होती है। अधिकतम लीज 30 वर्ष से ज़्यादा स्वीकृत नहीं की जाती। लीज की मंज़ूरी राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत किये गये प्लान के आधार पर ही मिलती है। सामान्य रूप से लीज स्वीकृति हेतु न्यूनतम क्षेत्र चार हेक्टेयर और अधिकतम 50 हेक्टेयर होना चाहिए। सितंबर, 2016 में केंद्र सरकार ने मार्बल ब्लॉकों के आयात की नयी नीति बनायी। हालाँकि इसे लचीली नीति कहा गया; लेकिन असल में उद्योग भारी-भरकम इम्पोर्ट ड्यूटी झेल रहा है। सूत्रों का कहना है कि इम्पोर्ट लाइसेंस लेना अब आसान नहीं रहा।

ढेरों इकाइयाँ, हज़ारों खदानें

मार्बल के अकूत भंडारण और संसाधनों की प्रचुरता के लिहाज़ से राजस्थान देश का सबसे बड़ा सूबा गिना जाता है। देश के कुल मार्बल उत्पादन में राजस्थान की 90 प्रतिशत हिस्सेदारी है। गुणवत्ता की दृष्टि से वास्तुकला विषेषज्ञ दक्षिणी उदयपुर के रिखबदेव क्षेत्र के मार्बल को उत्कृष्ट बताते हैं। उनका कहना है- ‘साज-सज्जा और मेहराबों का सौंदर्य गढऩे के लिए जिस तरह के मार्बल की आवश्यकता होती है, वो रिखबदेव की खानों से ही मँगवाया जाता है। उच्च कोटि के मार्बल उत्पादन की वजह से ही उदयपुर मार्बल की मुख्य व्यावसायिक मंडी के रूप में विकसित हुआ है। मार्बल की स्लेब्स तैयार करने के लिए यहाँ ढेरों अत्याधुनिक इकाइयाँ हैं। राजस्थान के 33 ज़िलों में 20 ज़िले किसी-न-किसी रूप में मार्बल उत्पादन से जुड़े हुए हैं। हालाँकि मुख्य क्षेत्रों की बात करें, तो उदयपुर, राजसमंद, चित्तौडग़ढ़, मकराना-किशनगढ़ बेल्ट, बाँसवाड़ा, डूँगरपुर परिक्षेत्र के अलावा जैसलमेर आँधी और झीरी बेल्ट को मार्बल उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र माना जा सकता है। सफेदी और शुद्धता की बात करें, तो इस प्रान्त में मकराना मार्बल को ही गिना जा सकता है। अकेले राजस्थान में मार्बल की 4,000 खदानें हैं। इनके विस्तार की बात करें, तो न्यूनतम एक हेक्टेयर से लेकर 50 हेक्टेयर तक की खदानें देखी जा सकती हैं। खनन के अत्याधुनिक तौर-तरीकों के बावजूद मानवीय और मशीनी, दोनों तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं। खनन की प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि हर कदम पर खतरों से दो-चार होना पड़ता है। खनन के दौरान झुलसा देने वाले तापमान को कम करने के लिए पानी की फुहार आवश्यक होती है। सामान्य रूप से खनन के दौरान प्रतिदिन एक हज़ार लीटर पानी की आवश्कता होती है। लेकिन जिस तेज़ी से भूगर्भ जल में गिरावट आ रही है। मार्बल खनन के लिए शंकाओं के बादल मँडराने लगे हैं। मार्बल के विकास और संरक्षण के नियमों की बात करें, तो खनन के लिए लीज स्वीकृत की जाती है।

व्हाइट गोल्ड का काला सच

विषेशज्ञों की मानें तो भारत में मार्बल का कुल बाज़ार सालाना 35 मिलियन टन का है। इसमें आयातित मार्बल की हिस्सेदारी 8 लाख टन की है। कभी इस शाही पत्थर ने ताजमहल सरीखी बेमिसाल इमारत गढऩे वाले कारीगरों के हाथ निगल लिये थे। अब 500 साल बाद इसके गर्भ से अंडरवल्र्ड की नयी दुनिया निकल पड़ी है, जिसके तार ‘ऊपर’ तक जुड़ते हैं। इस दुनिया को पालती-पोसती मार्बल लॉबी में मार्बल को व्हाइट गोल्ड के नाम से पुकारा जाता है। मार्बल के धन्धे से जुड़े कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि इस धन्धे पर तानाशाही शासन चलता है, जिसके चलते अब तक अनेक हत्याएँ तक हो चुकी हैं। तो इस मार्बलकी कहानी तब तक अधूरी मानी जाएगी, जब तक मध्य प्रदेश में जबलपुर के निकट भेड़ाघाट की सफेद बुर्राक चट्टानों का ज़िक्र न हो? फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में भेड़ाघाट का अछूता सौंदर्य बखूबी उभरकर आया था।

गिर रहा भूजल स्तर

चित्तौड़ की चूना पत्थर की खानों ने इस क्षेत्र में जल स्तर बहुत नीचे कर दिया है। खदानें 1987 से चालू हैं और इकाई ने 40 मीटर तक गहरे गड्ढों की खुदाई की है। न्यू सुरजाना गाँव, जो खदान के पास स्थित है, में भूजल तालिका में तीव्र गिरावट और पानी की कमी हुई है। स्थानीय निवासियों का दावा है कि पहले पानी 25 फीट तक मिल जाता था, लेकिन अब जलस्तर 400-500 फीट तक नीचे चला गया है। विज्ञान और पर्यावरण के लिए भारत की छठी राज्य पर्यावरण रिपोर्ट, क्या टिकाऊ खनन सम्भव है? में खुलासा किया गया है कि राजस्थान में गैर-कानूनी खनन और बड़े पैमाने पर अवैध खनन ने वनों को नष्ट कर दिया है, अरावली को तबाह कर दिया है और राज्य के जल संसाधनों के साथ गम्भीर खिलवाड़ किया है। नौ साल के लिए प्रतिबन्धित और 2008 में पिछली वसुंधरा राजे सिंधिया सरकार के समय में खोले गये अनुसूची-5 के क्षेत्रों में खनन पट्टों के बल पर उद्योगपतियों द्वारा कब्ज़ा करने से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। अगर हम अब भी नहीं चेते, तो एक दिन वह आयेगा जब पारिस्थितिकी और पर्यावरण को बचाना असम्भव हो जाएगा।

पर्यावरण को हो रहा नुकसान

भले, मार्बल उद्योग हज़ारों लोगों को रोज़गार प्रदान करता है और राज्य की अर्थ-व्यवस्था में काफी योगदान देता है। लेकिन संगमरमर खनन के सामाजिक और पर्यावरणीय व्यापक नुकसान के मूल्यांकन के कोई प्रयास नहीं किये गये हैं। इसकी कितनी बढ़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है; गोमती नदी की मृत्यु इसका एक बड़ा उदाहरण है। नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में लापरवाह और अनियोजित संगमरमर खनन और संगमरमर की डंपिंग और इसकी गाद से नालों को रोक देना इसके लिए ज़िम्मेदार है। नदी एक छोटे मौसमी नाले में बदल गयी है, जो मानसून के दौरान ही पानी से भर पाती है।

इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए और एक स्थानीय एनजीओ और अन्य पर्यावरण संगठनों के एक जनहित याचिका दायर करने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में पूरे राजस्थान में संगमरमर खनन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने का आदेश दिया। प्रतिबन्ध लम्बे समय तक नहीं चला। राज्य सरकार के लॉबिंग करने और हलफनामे दायर करने, विकास गतिविधि के लिए मीडिया की लॉबिंग, बेरोज़गारी के भय, नीति में परिवर्तन और अनुमति के नियमों के चलते महज़ दो महीने बाद ही इस प्रतिबन्ध हो वापस ले लिया गया। पिछले साल, राजस्थान उच्च न्यायालय ने मकराना में नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए पाये 474 संगमरमर की खदानों को बन्द करने का आदेश दिया था।

राजस्थान के दक्षिणी भाग में उन खानों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी है, जिनके मालिक अदालत का कोई आदेश आने या विभाग से जागने से पहले ही जितना कर सकते हैं, दोहन करने की जल्दी में हैं।

बढ़ रहा मरुस्थल

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया के साथ वरिष्ठ कार्यक्रम समन्वयक के रूप में काम करने वाले भोमिक शाह और एक रिसर्चर आकाश मेहरोत्रा ने माउंटेन ऑफ मार्बल वेस्ट नामक एक शोध पत्र में बताया है कि मरुस्थलीकरण का खतरा बढ़ रहा है। स्थिति इतनी खराब है कि कई हिस्सों में मवेशियों के लिए कोई चारागाह नहीं बचा है और न ही कोई हरा भरा खेत है। उदाहरण के लिए, उदयपुर ज़िले के ओबरी गाँव के आदिवासियों के पास अब अन्न पैदा करने के लिए खेत तक नहीं बचे हैं। पूरा क्षेत्र एक संगमरमर खनन क्षेत्र में तब्दील हो गया है। ओबरी के हुकमा भाई (55) कहते हैं कि तीस साल पहले हमने खानों का स्वागत किया था, लेकिन अब हम अपने वनों और अपनी ज़मीन को खो चुके हैं। जो कुछ भी बचा है वह किसी काम का नहीं है।