नाम के बदलाव में है शहरी राजनीति

नाम में क्या है? यदि हम गुलाब को कोई और नाम दे दें तो क्या वह पहले की ही तरह नहीं महकेगा? लेकिन आज की राजनीतिक सोच शायद विलियम शेक्सपियर की उस सोच से मेल नहीं खाती जिसे उन्होंने रोमियो जूलियट के जरिए बताया था।

कुछ ही सप्ताह पहले यूपी मंत्रिमंडल ने इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज करने का प्रस्ताव पास किया था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नाम के इस बदलाव को इस आधार पर उचित ठहराया क्योंकि मुगल शहंशाह अकबर ने 1575 में नाम बदला था।

इसके पहले ऐतिहासिक मुगल सराय रेलवे स्टेशन जो सबसे ज्य़ादा व्यस्त रेलवे स्टेशन है उसका नाम दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन कर दिया गया। इतना ही नहीं, बतौर दिवाली उपहार, फैज़ाबाद जिले का नाम फिर श्री अयोध्या कर दिया गया। एक मेडिकल कॉलेज जो अयोध्या में बनेगा उसका नाम राम के पिता राजा दशरथ के नाम पर रखा जाएगा। यह घोषणा करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि अयोध्या हमारी आन, बान और शान है।

गुजरात के उपमुख्यमंत्री नितीन पटेल ने कहा, राज्य सरकार अहमदाबाद का नाम फिर कर्णावती करना चाहती है। यानी अहमदाबाद का नाम कर्णावती हो जाएगा। हैदराबाद का नाम भाग्यनगर, औंरंगाबाद का नाम संभाजी नगर और ताज का भी नाम बदला जा सकता है। हरियाणा सरकार ने गुडग़ाँव का नाम बदल कर गुरुग्राम कर ही दिया है।

नक्शा देखते हुए शहर पहचानना और उसके बदले हुए नाम को समझने की कोशिश कोई बात स्पष्ट नहीं करती। इससे सिर्फ इतिहास का पीलियाग्रस्त रूप ही दिखेगा। साथ ही हमारी बहुल पहचान के प्रति असम्मान बढ़ेगा। अगला साल 2019 है जब देश में आम चुनाव होंगे। यही वह उपयुक्त समय भी होगा फैसला लेने का।

शहरों और सड़कों का नाम बदलने का ब्रिटिश राजशाही का अनोखा अंदाज था। यह इसलिए उपयुक्त है क्योंकि वे उच्चारण के हिसाब से शब्द को लिखने और बोलने की कोशिश करते थे। उनका कौनपुर आज भी कानपुर ही है। लेकिन आज जो फेरबदल नाम में किए जा रहे हैं उनके पीछे गहरी राजनीति है। यह एकदम अलग है।

यह कोशिश है देश को धर्मनिरपेक्षता से बेहद दूर कर देने की। आज महत्वपूर्ण सवाल यह है कि भारत क्या धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना रहेगा? दरअसल ऐसे प्रयास होने चाहिए जिनसे धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हो। यह इतना मजबूत हो कि लोग इस देश पर गर्व कर सकें।

आज ज़रूरत इस बात की है कि व्यक्तिगत आज़ादी और बढ़े। सरकार को गोश्त पर पाबंदी और मद्यनिषेध की अपनी योजना पर रोक लगानी चाहिए। कोई क्या खाता है और क्या पीता है यह उसकी निजी रु चि और खानपान है। उसे बदलने की कोशिश किसी प्रगतिशील सरकार की पहचान नहीं। ऐसी पहलकदमियों से आपसी फूट बढ़ती है और समुदायों में अलगाव बढ़ता है।

यह बात साफ है कि इन फैसलों के पीछे कोई न्यायसंगत तर्क नहीं बल्कि पूर्वाग्रह ही हैं। ये दुनिया में हमारा कद और भी छोटा करते हैं। यह सब भारत के प्राचीन इतिहास की गौरव गाथा नहीं बल्कि पिछड़ा हुआ प्रतिगामी प्रयास हैं।