नादान दुनिया

जब समझदारी की बात आती है, तो हर व्यक्ति ख़ुद को अग्रिम पंक्ति में खड़ा देखता है। अगर उसे कहीं लगता है कि कोई उससे ज़्यादा ज्ञानी है, तो वह पहले तो उसे ज्ञानी मानता नहीं, और अगर मान भी ले, तो अपने से कम ज्ञानी के आगे अपने ज्ञान का पिटारा ऐसे खोलता है, जैसे उससे बड़ा ज्ञानी कोई और संसार में हो ही न। कहने का अर्थ यह है कि किसी को यह नहीं लगता कि वह मूर्ख है; भले ही वह कितना भी बड़ा मूर्ख क्यों न हो।

सही मायने में यह पूरा संसार ही मूर्खों से भरा पड़ा है। धर्म और ईश्वर के मामले में तो यही सत्य है। अगर धर्म और ईश्वर के बारे में सभी लोग जान जाएँ, तो संसार के कई सारे झगड़े ख़त्म हो जाएँ, कई मसले हल हो जाएँ। हर ओर सत्य, अहिंसा, प्यार का वातावरण हो और लोग शान्ति, सुख, चैन से जी सकें।

लोग मूर्खतावश ही तो झगड़ा करते हैं। धर्मों का ज्ञान बघारने वाले, को जानने का दावा करने वाले, दोनों पर ही लोगों को लड़ाने वाले सब मूर्ख ही तो हैं। सबके पास रटंत विद्या है। अपना ज्ञान किसी के पास नहीं है। लेकिन असल में ज्ञानी वही है, जिसके पास स्वयं का ज्ञान हो। स्वयं के तर्क हों। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि किताबी ज्ञान निरर्थक है। लेकिन अगर किताबें पढक़र भी अपना ज्ञान नहीं उपजा, तो सब व्यर्थ है। इसका मतलब यह हुआ कि आपके अंतर्मन में जागृति पैदा ही नहीं हुई। किताबें तो मूर्ख भी रट सकता है। तोते को भी रटाओ, तो वह भी इंसानों की भाषा बोलने लगता है। लेकिन केवल रटने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता।

को जानने का दावा करने वाले, दोनों पर ही लोगों को लड़ाने वाले सब मूर्ख ही तो हैं। सबके पास रटंत विद्या है। अपना ज्ञान किसी के पास नहीं है। लेकिन असल में ज्ञानी वही है, जिसके पास स्वयं का ज्ञान हो। स्वयं के तर्क हों। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि किताबी ज्ञान निरर्थक है। लेकिन अगर किताबें पढक़र भी अपना ज्ञान नहीं उपजा, तो सब व्यर्थ है। इसका मतलब यह हुआ कि आपके अंतर्मन में जागृति पैदा ही नहीं हुई। किताबें तो मूर्ख भी रट सकता है। तोते को भी रटाओ, तो वह भी इंसानों की भाषा बोलने लगता है। लेकिन केवल रटने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता।

संसार में जितने धर्म आज तक बने, उनसे इसलिए ही किसी का भला नहीं हो सका, क्योंकि उन्हें सिर्फ़ रटा गया। उनके सार में कोई नहीं उतर पाया। यह ठीक वैसे ही, जैसे किसी अपच के रोगी को मेवे पड़ी शुद्ध दूध की खीर खिला दो या देशी घी पिला दो, तो उसे ये दोनों ही पौष्टिक चीज़ें फ़ायदा करने के बजाय अपच को और बढ़ा देंगी। धर्मों के मामले में भी ऐसा ही है। यहाँ सब अपच के रोगी धर्मों की पौष्टिक खीर खा रहे हैं। बुद्धि विकसित करने वाला देशी घी खा रहे हैं। इससे उनका हाज़मा और बिगड़ रहा है, जिसके चलते वे अज्ञान के उल्टी-दस्त कर रहे हैं। किसी को कुछ नहीं मालूम। मालूम होता, तो धर्मों में ये अराजकता नहीं होती। अंधविश्वास नहीं होता। कुरीतियाँ नहीं होतीं। भेदभाव नहीं होता। वैमनस्य नहीं होता। छुआ-छूत नहीं होती। घृणा नहीं होती। आडम्बर नहीं होते। पाखण्ड नहीं होता। धर्मों में चंद लोगों की ठेकेदारी नहीं होती। लेकिन यह गन्दगी सब धर्मों में है, जो लगातार बढ़ रही है। इसी गन्दगी के चलते अब सभी धर्मों में उपद्रवी, अराजक, उग्र, झगड़ालू, झूठे, बेईमान और मूर्ख लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसी कारण के चलते सब दु:खी हैं। किसी को शान्ति नसीब नहीं हो रही। हालाँकि इसमें धर्मों का दोष नहीं है। लेकिन धर्मों को इन बुराइयों के जो ग्रहण लगे हैं, उससे आने वाली पीढिय़ाँ उनसे लाभ लेने से वंचित हो रही हैं। ये धर्म उन्हें सही मार्ग दिखाने-में असमर्थ-से हो चुके हैं।

ज़ाहिर है कि पढ़ाने वाले न हों, तो किताबें लोगों के लिए बेकार हैं। अगर पढ़ाने वाले $गलत हों, तो पढऩे वालों को कभी सही ज्ञान नहीं होगा। धर्मों को भी पढ़ाने वाले योग्य होने चाहिए। वे अज्ञानी नहीं होने चाहिए। वे पाखण्डी, घमण्डी, अराजक, धूर्त, कामी, लोभी, भोगी, अपराधी, अन्यायी, अनैतिक, मन, मस्तिष्क और तन से कुत्सित, ईष्र्या, वैमनस्य, घृणा से भरे हुए भी नहीं होने चाहिए। वे ज्ञानी होने के अतिरिक्त प्रेमी, समभाव वाले, नैतिक मूल्यों का पालन करने वाले, न्यायिक व्यवहार वाले, स्वयं को भी $गलती पर दण्डित करने वाले, लोभ रहित, निष्पाप, नि:स्वार्थ भाव वाले, परमहंस प्रवृत्ति वाले, अल्पाहारी, काम- वासना से मुक्त तन-मन वाले और संसार से विरक्त होने चाहिए। अगर किसी धर्म में इन लक्षणों वाले धर्म गुरु न हों, तो उन्हें न केवल धर्मों और समाज से निकाल फेंकना चाहिए, बल्कि अपराधियों की तरह दण्डित भी करना चाहिए। क्योंकि एक धर्म गुरु उस धर्म के सभी लोगों का लोक-परलोक सुधरवा सकता है और उन्हें भटकाकर बर्बाद भी कर सकता है।

आजकल हर धर्म में भटकाने वाले अधर्मी गुरुओं की भरमार है। ये तथाकथित धर्म गुरु न केवल लोगों का यह लोक, बल्कि परलोक भी ख़राब कर देते हैं। विचार करने की आवश्यकता है कि जिस वैद्य के पास कोई बीमारी का इलाज कराने जाए, वह इलाज न कर पाये, तो फिर उसके पास इलाज कराने का क्या मतलब? और अगर कोई वैद्य मरीज़ों को उलटा ज़हर दे रहा हो, तो कौन जाएगा उसके पास? धर्मों की शिक्षा देने वाले ज़्यादातर लोग अपने-अपने धर्म के लोगों औषधि की जगह ज़हर ही दे रहे हैं। फिर भी लोग अगर उनके ज़हर को औषधि समझकर ले रहे हैं और यह समझ रहे हैं कि इससे उन्हें कोई लाभ होगा, तो उनसे बड़ा मूर्ख कौन हो सकता है? वे सम मरेंगे ही मरेंगे। ऐसे में अच्छा हो लोग स्वयं धर्म को समझें।