नाता प्रथा या लिव-इन रिलेशनशिप?

नाता प्रथा, जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के आदिवासी इलाक़ों में प्रचलित है; महिलाओं को अपमानजनक और अवसादपूर्ण विवाह स्थितियों से बाहर निकलने की अनुमति देती है। लेकिन दु:ख की बात है कि महिलाओं को सशक्त बनाने की इस यथास्थितिवाद से हटकर आदिवासी प्रथा का पुरुषों द्वारा विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने के लाइसेंस के रूप में दुरुपयोग ही किया गया है। तहलका एसआईटी की रिपोर्ट :-

इस साल जनवरी में भारत में जब सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं की फ़र्जी ऑनलाइन नीलामी में शामिल ‘बुली बाई’ और ‘सुली डील’ ऐप के बारे में विवाद जारी था, तो बहुतों को पता नहीं होगा कि महिलाएँ वास्तव में नीलाम होती हैं; भले ही ऑफलाइन हों। भारत के राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के आदिवासी इलाक़ों में प्रचलित नाता प्रथा की सदियों पुरानी परम्परा कुछ ऐसी ही है।

नाता प्रथा मुख्य रूप से भील जनजाति में प्रचलित है, जो दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है। परम्परागत रूप से एक रिश्ते में प्रवेश करने वाले पुरुष और महिला दोनों को विवाहित या विधवा माना जाता है। लेकिन यह प्रथा एकल लोगों को भी शामिल करने के लिए विकसित हुई है। ‘नाता’ शब्द का अर्थ ‘सम्बन्ध’ है। इस प्रणाली के तहत एक साथ रहने के लिए किसी औपचारिक विवाह समारोह की आवश्यकता नहीं होती है। युगल विवाह में प्रवेश किये बिना पति और पत्नी के सभी दायित्वों को पूरा कर सकते हैं। प्रथा के अनुसार, पुरुष को अपनी पसन्द की महिला के साथ रहने के लिए पैसे देने पड़ते हैं। यह एक आधुनिक लिव-इन रिलेशनशिप है। इस प्रथा में महिला का पहला पति शादी से बाहर हो जाता है और अपनी पत्नी को पैसे के लिए दूसरे पुरुष को सौंप देता है। यह पैसा (दुल्हन की क़ीमत) समुदाय के सदस्यों या बिचौलियों द्वारा तय किया जाता है, जो ऐसा करने के लिए कमीशन प्राप्त कर सकते हैं। सम्बन्धित व्यक्ति की भुगतान क्षमता के आधार पर यह राशि कुछ हज़ार रुपये से लेकर कुछ लाख तक भी हो सकती है। दिलचस्प बात यह है कि पुरुष कभी-कभी इस राशि का उपयोग अपनी नयी पत्नियों को ख़रीदने के लिए करते हैं।

‘तहलका’ ने राजस्थान के बांसवाड़ा ज़िले के गाँवों में नाता प्रथा की छानबीन की, जहाँ हर साल ऐसे कई मामले सामने आते हैं। पड़ताल में पता चलता है कि यह प्रथा पुरुष वर्चस्व के ख़िलाफ़ शुरू की गयी थी। इसमें पत्नियों को शादी से बाहर निकलने का अधिकार दिया गया था; अगर उनके पति ने उन्हें धोखा दिया है या उन्हें घरेलू दुव्र्यवहार और हिंसा के माध्यम से पीडि़त कर रहे हैं। भील समुदाय के पूर्वजों ने इस प्रथा को बनाया और जनजाति का दृढ़ विश्वास है कि यह ग़लत नहीं हो सकता। हालाँकि इस आदिम प्रथा का विचार पिछले कुछ वर्षों में नकारात्मक रूप से विकसित हुआ है।

छानबीन से ज़ाहिर हुआ है कि इस तरह की प्रथा का नतीजा वृहद् स्तरीय रहा है। लोगों ने विवाहेत्तर सम्बन्ध (एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर) में शामिल होने के आसान विकल्प के रूप में नाता प्रथा का फ़ायदा उठाया है। एक पुरुष को नाता प्रथा में प्रवेश करने के लिए एक निश्चित राशि का भुगतान करना पड़ता है, जो कि उस महिला के साथ रहना चाहता है, जिससे वह विवाहित नहीं है। राशि पंचायत द्वारा तय की जाती है, जिसमें पुरुष और महिला दोनों के पक्ष शामिल होते हैं। अगर समग्र रूप से सोचा जाए, तो यह ‘बुली बाई’ और ‘सुली डील’ ऐप की ही तरह है, जिसमें महिलाओं की कथित नीलामी होती है। जब महिला नाता प्रथा के लिए जाती है, तो पहली शादी के बाद हुए बच्चे भी पीछे छूट जाते हैं। यूनिसेफ के सहयोग से एक ग़ैर-सरकारी संगठन वाग्धारा की तरफ़ से तैयार की गयी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ज़्यादातर मामलों में परिवार में एक नयी महिला के आने पर उन्हें उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 4 से 14 साल की आयु वर्ग के 35 लाख आदिवासी बच्चों में से दो फ़ीसदी नाता प्रथा के कारण प्रभावित हुए हैं। अशान्त बचपन, दु:खी परिवार के साथ-साथ आर्थिक संकट आदि उन्हें दयनीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर करते हैं, जो अक्सर उन्हें नशीली दवाओं के दुरुपयोग जैसी अनैतिक गतिविधियों के लिए मजबूर करते हैं। इसके अलावा कई बार इन बच्चों को अपने माता-पिता द्वारा स्वस्थ पालन-पोषण या बेहतर भविष्य की आवश्यकताओं को त्यागने के लिए देह व्यापार में धकेल दिया जाता है।

रोहनवाड़ी गाँव के पूर्व सरपंच दौलत राम बरिया कहते हैं कि नाता प्रथा एक घटिया प्रथा है। आवश्यकता पडऩे पर ही ऐसा करना चाहिए। इससे परिवार टूट जाते हैं और बच्चों का जीवन बर्बाद हो जाता है। उन्होंने कहा- ‘जब मैं रोहनवाड़ी गाँव का सरपंच था, तो मैंने नाता करने वाले जोड़े पर ज़ुर्माना लगाने और सामाजिक रूप से बहिष्कार करने का नियम लाया था। ज़ुर्माना 25,000 रुपये से 51,000 रुपये तक है। अब तक मेरे गाँव के आठ जोड़ों ने नाता किया है, उन्हें इस नियम के तहत दण्डित किया गया है।’

उन्होंने कहा- ‘नाता में पैसा शामिल है। यह पूरी तरह ठीक है। जैसा कि प्रथा है, ग्राम पंचायत बैठती है और नाता की दर पर बातचीत करती है। कभी-कभी पाँच से छ: लाख रुपये तक की माँग की जाती है। फिर वे मुझे बुलाते हैं और मैं (सरपंच) इसे लगभग 1.5 लाख के आसपास तक लाता हूँ। यह एक महिला की नीलामी है। अगर महिला विधवा है, तो उसके माता-पिता यह पैसा लेते हैं। अगर उसका पहला पति जीवित है, तो पैसा उसके पास जाता है। लेकिन कई मामलों में महिला के माता-पिता अपने पहले पति के साथ ग्राम पंचायत द्वारा तय किये गये नाता के पैसे भी ले लेते हैं।’

इस प्रथा को रोकने के लिए सरकार ने अभी तक कोई क़ानून नहीं बनाया है। दौलत राम बारिया कहते हैं कि नाता एक महिला को उसकी शादी टूटने के बाद दूसरे पुरुष से शादी करने की अनुमति देती है। यह सुधारवादी लगता है, सिवाय इसके कि ज़्यादातर मामलों में यह पति ही होता है, जो शादी से बाहर निकल जाता है और पैसे के बदले में अपनी पत्नी को किसी और को सौंप देता है।

नाता में पैसा अहम भूमिका निभाता है। कुछ मामलों में एक महिला का पिता भी हर सौदे से पैसे कमाने के लिए उसे एक के बाद एक शादी के लिए मजबूर करता है। विवाहों को तोडऩा और तय करना एक आकर्षक प्रस्ताव है। ऐसे कई लोग हैं, जो दुल्हन की क़ीमत में कटौती करने के लिए विवाह को भंग करने और नये तय करने का प्रयास करते हैं। लड़कियों के परिवारों के लिए दहेज और प्रताडऩा के झूठे मामलों को ठुकराना भी आम बात है, ताकि उन्हें अपनी पत्नियों की बाद की शादी पर दुल्हन की क़ीमत के अपने हिस्से से वंचित किया जा सके।

राजस्थान के बांसवाड़ा ज़िले के खेरदा गाँव में विमला (बदला हुआ नाम) की शादी 14 साल पहले भान सिंह (बदला हुआ नाम) से हुई थी। शादी से उनके तीन बच्चे थे। भान सिंह एक मज़दूर था और विमला घर पर अपने तीन बच्चों की देखभाल करती थी। एक दिन अपने काम से लौटते समय भान सिंह अपने दोस्तों से मिला, जिन्होंने उसे एक दुकान पर शराब पीने के लिए मजबूर किया। भान सिंह पहली बार शराब पीकर गिर पड़ा और घर नहीं जा सका। लम्बे इंतज़ार के बाद विमला ने अपने तीन बच्चों को घर पर छोड़कर बाहर जाकर अपने पति की तलाश करने का फ़ैसला किया। वह अपने पति का पता लगाने में सफल रही और उसे घर ले गयी। भान सिंह ने विमला से वादा किया कि भविष्य में वह दोबारा शराब को हाथ नहीं लगाएगा। लेकिन भान सिंह अपना वादा नहीं निभा सका और आदतन शराबी बन गया। भान सिंह की यह लत उसके और विमला के बीच लगातार झगड़े का कारण बन गयी। अन्त में विमला ने साल 2020 में कोरोना महामारी के समय में अपने तीन बच्चों को पीछे छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के साथ नाता करने के लिए भान सिंह को छोड़ दिया। ग्राम पंचायत ने बातचीत के बाद विमला के नाते के लिए 1.50 लाख रुपये तय किये।

क्षेत्र के एक कार्यकर्ता मनोहर सिंह बताते हैं- ‘पंचायत ने फ़ैसला किया कि विमला के नये पति को रुपये का भुगतान करना चाहिए। विमला के पहले पति को नाता करने के लिए 1.50 लाख मिले थे। लेकिन अब तक विमला के नये साथी ने उसके पहले पति को केवल 46,000 रुपये का ही भुगतान किया है। शेष राशि के लिए विमला का पहला पति उसके साथी (दूसरे पति) पर दबाव बना रहा है।’

मनोहर के अनुसार, गाली देने वाले पतियों की पत्नियाँ ज़्यादा नाता कर रही हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, बांसवाड़ा ज़िले में हर साल क़रीब 10-12 नाता होते हैं। प्रत्येक मामले में पंचायत द्वारा एक महिला की क़ीमत तय करने के बाद ही उसे नाता करने की अनुमति दी जाती है। यह पैसा महिला के दूसरे पति को उसके पहले पति (जिसे वह त्याग रही हो) के लिए देना ज़रूरी है। यदि बाद वाला पति ऐसा करने में विफल रहता है, तो महिला को उसके साथ जाने की अनुमति नहीं होती। कुछ मामलों में अगर कोई महिला बिना पैसे दिये चली जाती है, तो इस मुद्दे पर दो गाँवों में आपस में भिड़ंत तक हो सकती है। महिला को आख़िरकार पंचायत के सामने लाया जाता है, जो पैसे का फ़ैसला करती है। मनोहर कहते हैं कि भुगतान करने के बाद उसे दूसरे व्यक्ति के साथ जाने की अनुमति मिल जाती है। महिलाओं की तरह बच्चे भी नाता के कारण पीडि़त होते हैं। विमला के मामले में नाता के बाद उसने अपने पहले पति के साथ अपने तीन बच्चों को छोड़ दिया। बच्चे अपने पिता की सीमित आय पर जीवन-यापन कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप बच्चों ने स्कूल जाना बन्द कर दिया है। मनोहर कहते हैं कि उनके परिवार में उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है; क्योंकि उनके पिता, जो एक मज़दूर हैं; काम के लिए बाहर जाते हैं।

‘तहलका’ ने बांसवाड़ा ज़िले के महोरी गाँव में एक और नाता मामला पाया। महिला समता देवी (बदला हुआ नाम) ने अपने पहले पति के चले जाने के बाद नाता किया। समता की शादी कुछ साल पहले वीरपाल सिंह (बदला हुआ नाम) से हुई थी। उनके दो बच्चे थे, जिनमें से एक की मौत हो गयी थी। शादी के कुछ साल बाद समता और वीरपाल, जो एक मज़दूर है; अक्सर आपस में लडऩे लगे। नतीजा यह हुआ कि समता ने वीरपाल को छोडऩे का फ़ैसला किया और साल 2019 में एक और आदमी के साथ नाता कर लिया। ग्राम पंचायत ने फ़ैसला किया कि समता के दूसरे आदमी को वीरपाल को एक लाख रुपये का भुगतान करना चाहिए। भुगतान होते ही उसे उसके साथ जाने की अनुमति दे दी गयी।

ग्राम पंचायत ने यह निर्णय किया कि समता के दूसरे पति को उसके पहले पति को एक लाख रुपये का भुगतान करना चाहिए। समता ने एक ऐसे श$ख्स के साथ नाता किया, जो पहले से शादीशुदा था। दरअसल वह अपने पति के साथ गुजरात के राजकोट में मज़दूरी की नौकरी के लिए जा रही थी, जहाँ उसकी मुलाक़ात दूसरे व्यक्ति से हुई, जिसके साथ उसने बाद में नाता किया। ग्राम पंचायत ने समता को उसके पहले पति के पास वापस लाने की बहुत कोशिश की; क्योंकि उसका एक बेटा था। लेकिन उसने लौटने से इन्कार कर दिया। समता के चाचा कमलेश ने ‘तहलका’ को बताया कि उसके फ़ैसले के बाद उन्होंने उसके साथ सभी सम्बन्ध तोड़ लिये हैं।

समता के बाद साल 2020 में कोरोना-काल में नाता का एक और मामला सामने आया। इस बार दो बच्चों की माँ माया (बदला हुआ नाम) का विवाह रोहन लाल (बदला हुआ नाम) से हुआ था। उनके रिश्ते टूटने से पहले माया और रोहन एक सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे थे। लेकिन एक दिन माया ने नाता करने के बाद दूसरे आदमी के साथ जाने का फ़ैसला किया। नाता प्रथा के अनुसार, माया को पिछली शादी से अपने दो बच्चों को छोडऩे के लिए मजबूर किया गया था। ग्राम पंचायत ने तय किया कि माया अपने पहले पति को 1.50 लाख रुपये देकर ही दूसरे पुरुष के साथ जा सकती है। पंचायत द्वारा रोहनबाड़ी गाँव के तत्कालीन सरपंच दौलत राम बरिया की उपस्थिति में तय की गयी राशि का भुगतान माया के पहले पति को किया गया, जिसके बाद उसे अपनी पसन्द के आदमी के साथ जाने की अनुमति दी गयी।

माया के बहनोई बसु (बदला हुआ नाम) कहते हैं- ‘हमारे तत्कालीन सरपंच, दौलत राम बारिया ने माया की नाता-राशि तय करने में एक प्रमुख भूमिका निभायी। एक ग्राम पंचायत हुई और यह तय किया गया कि माया के दूसरे आदमी को रोहन लाल को 1.50 लाख रुपये का भुगतान करना चाहिए। राशि का भुगतान किया गया और माया को रोहन लाल के साथ जाने की अनुमति दी गयी।’

कोरोना-काल में एक और नाता राजस्थान के डूंगरपुर ज़िले के एक गाँव में किया गया। रानो देवी (बदला हुआ नाम) ने दो महीने पहले नाता किया था। उसकी शादी साल 2014 में हुई थी। शादी के दो साल बाद उसे एक बेटा हुआ। पति के किसी दूसरी महिला से सम्बन्ध होने की बात पता चलने पर उसका पति से विवाद होने लगा। इस बात को लेकर जब उसने अपने पति से बात की, तो उसने उसे पीटना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि रानो अपने माता-पिता के पास लौट गयी। उसके माता-पिता ने अपने पति के साथ रानो को फिर से मिलाने के निरर्थक प्रयास किये, जिससे उन्हें अपनी बेटी की नाता के लिए एक विवाहित व्यक्ति की व्यवस्था करने के लिए प्रेरित किया।

इस नाता मामले में रानो को ग्राम पंचायत द्वारा अपने पहले पति को पैसे देने के लिए नहीं कहा गया था; क्योंकि पहले पति ने रानो को तलाक़ दे दिया था। परम्परा के अनुसार, नाता पैसा तभी दिया जाता है, जब पहले पति ने अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दिया हो और पत्नी ने उसे छोड़कर दूसरे आदमी के साथ बिना शादी के रहने का फ़ैसला कर लिया है।

क्षेत्र के एक सामाजिक कार्यकर्ता मोती लाल कहते हैं- ‘रानो का पति बहुत गाली-गलौज करता था और उसका दूसरी महिला से अफेयर था। रानो ने इसका विरोध किया, तो उसने मारपीट शुरू कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि रानो के माता-पिता ने उसके नाते के लिए एक विवाहित व्यक्ति की व्यवस्था की। इस मामले में रानो को उसके पहले पति को कोई पैसा देने के लिए नहीं कहा गया; क्योंकि उसने पहले ही उसे तलाक़ दे दिया था।’

नाता प्रथा के अनुसार, पैसे तभी दिये जाते हैं, जब महिलाएँ अपने पहले पति से दूर भागकर पति से तलाक़ लिये बिना दूसरे पुरुष के साथ रहने लगती हैं। क्षेत्र के एक और सामाजिक कार्यकर्ता मानसिंह बताते हैं कि रूपा (बदला हुआ नाम) बांसवाड़ा ज़िले के तोरी गाँव की एक अन्य महिला थी, जिसने साल 2017 में अपने पति की मृत्यु के एक साल बाद नाता किया था। हम नहीं जानते कि रूपा के माता-पिता को किसी अन्य पुरुष से कितनी राशि मिली? लेकिन पहली शादी के दो बच्चे थे, वे अपने दादा-दादी के साथ रह रहे हैं और उनकी हालत दयनीय है। उनका कोई भविष्य नहीं है। कोई स्कूली शिक्षा नहीं है।

कोरोना-काल में भी किसी महिला को नाता करने की मजबूरी बनी। बांसवाड़ा ज़िले के पाटिया गाँव की बीना देवी (बदला हुआ नाम) की शादी 2005-2006 में सोहन लाल (बदला हुआ नाम) से हुई थी। उनके पाँच बच्चे हैं। सोहन लाल, जो एक दिहाड़ी मज़दूर था; मज़दूरी के लिए गुजरात जा रहा था। उसने कोरोना-काल में अपनी नौकरी खो दी और बिना काम और पैसे के घर पर बैठने को मजबूर हो गया। पैसे के बिना सोहन लाल के लिए घर चलाना मुश्किल था। यह जानकर उसकी पत्नी ने दूसरे पुरुष के साथ नाता करने का निश्चय किया और उसके साथ भाग गयी। इस बात को डेढ़ साल हो गया है। लेकिन बीना का पता उसके पति सोहन लाल को नहीं है, जो आर्थिक रूप से बहुत ख़स्ता हालत में है।

स्थानीय कार्यकर्ता कैलाश चंद्र कहते हैं- ‘सोहन लाल ने कोरोना के कारण अपनी नौकरी खो दी, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पत्नी नाता में जाने के बाद दूसरे आदमी के साथ भाग गयी। उसके पाँच बच्चे अब सोहन लाल के साथ रह रहे हैं और सरकार के मुफ़्त राशन समर्थन पर जीवित हैं। सोहन लाल अपनी पत्नी की तलाश कर रहे हैं, ताकि वह उनसे नाता के पैसे का दावा कर सकें।

नाता प्रथा बताती है कि आदिवासी संस्कृति कितनी उन्नत थी। यह विधवा पुनर्विवाह का अधिकार देता है और महिलाओं को अपमानजनक स्थिति से बचने के लिए पति को छोडऩे का अधिकार भी देता है, जो हमारी संस्कृति में कठिन है। यह परम्परा महिला सशक्तिकरण की है। लेकिन वर्षों से चीज़ें बदल गयी हैं। बच्चे नाता से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। महिलाओं को अपने पहले विवाह से अपने बच्चों को अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं है, यदि वे नाता करते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पहला पति, जो अपनी पत्नी के दूसरे आदमी से पैसे माँगता है; वह भी अपनी पत्नी को वापस माँगता है। अनीता डामोर कहती हैं- ‘नाता प्रथा में पैसे की भागीदारी ख़राब है, जबकि वह माँग करती हैं कि इस प्रथा को रोकने के लिए कुछ क़ानून होना चाहिए।’

वाग्धारा से जुड़े थीम नेता परमेश चंद्र पाटीदार भी नाता प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए एक क़ानून की माँग करते हैं। वह कहते हैं कि कि यह महिलाओं और बच्चों दोनों के लिए बुरा है। पाटीदार कहते हैं- ‘नाता के बाद छूटे बच्चों को बहुत कष्ट होता है। नाता प्रथा में पैसे का शामिल होना भी बुरा है। दुर्भाग्य से नाता प्रथा में बदलने वाले पैसे से बच्चों को कुछ नहीं मिलता। आमतौर पर पति द्वारा अपने क़र्ज़ का भुगतान करने के लिए धन का उपयोग किया जाता है।’

इस प्रथा में बिचौलिये भी एक महिला के पहले पति को उसके दूसरे पुरुष द्वारा भुगतान किये जाने वाले धन को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे पंचायत द्वारा तय किये गये पैसे से अपना ‘कमीशन’ निकालते हैं। कभी-कभी पैसे पर सहमति नहीं बनने पर पैसे तय करने के लिए नियुक्त पंचायत एक महीने तक चलती है।

एक से अधिक साथी होने की एक साधारण चाहत के लिए लोगों ने अपनी अयोग्य इच्छाओं के अनुरूप नाता प्रथा को जितने चाहें, उतने रूपों में संशोधित किया है। संक्षेप में इस तथ्य की अनदेखी करते हुए कि उनके कार्य न केवल महिलाओं और बच्चों को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि समाज को भी प्रभावित कर रहे हैं। इसका समग्र रूप से मानवीय मूल्यों पर विपरीत असर पड़ रहा है, जो वास्तव में एक नैतिक जीवन का मूल आधार बनाते हैं।

 

“नाता प्रथा अच्छी और बुरी दोनों है। यह इस मायने में अच्छी है कि यह महिलाओं को सशक्त बनाती है। और बुरी इसलिए है, क्योंकि इसमें पैसा शामिल है। हमारे समाज में जहाँ लड़की के माता-पिता दहेज़ देते हैं, उसके विपरीत अविवाहित लड़कियों के माता-पिता शादी में पुरुष के माता-पिता से चार-पाँच लाख रुपये की माँग करते हैं। और नाता के लिए जाने वाली विवाहित महिलाएँ भी अपने पहले पति को पैसे देती हैं।’’

                              अनीता डामोर

क्षेत्र की महिला अधिकार कार्यकर्ता

 

 

 

“वास्तव में नाता में पैसा महिला की क़ीमत नहीं है, यह उनकी परम्परा है। लेकिन बाहरी दुनिया को लगता है कि इस प्रथा में महिलाओं की नीलामी की जाती है। नाता प्रथा को रोकने के लिए अभी तक कोई क़ानून नहीं बना है। लेकिन भील जनजाति के शिक्षित लोग इस नाता प्रथा से बाहर आ रहे हैं।’’

जयेश जोशी

सचिव, वाग्धारा

 

 

“नाता प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कोई क़ानून नहीं है। मुझे प्रथा के अनुसार पंचायत के सामने महिलाओं की नीलामी के विषय का कोई ज्ञान नहीं है, इसलिए इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।’’

राजेश कुमार मीणा

पुलिस अधीक्षक, बांसवाड़ा