नशे की गर्त में गुलाबी शहर

खुलेपन की आँधी ने भले ही नैतिकता को नेस्तनाबूद कर दिया हो; लेकिन महानगरों में खिलते, महकते कैसीनो, बार डांस क्लब, नशा फ़रोख़्त करते हुक्का बार और बेहयाई की नुमाइश करने वाले रेव पार्टियों के ठेकेदार पूरी तरह निहाल हो गये हैं। यहाँ नयनसुख का निवेश अंशधारियों के लिए हर पल मुनाफ़े का महाकाव्य रचयिता नज़र आ रहा है। केंचुल की तरह बदलते रिश्तों के कैक्टस और नागफनी को आँचल में छिपाये जादूगरनियों की अन्तहीन तलाश का सफ़र ख़त्म होता नज़र नहीं आता। इंची टेप से नपा हुआ सौंदर्य ब्रह्मपुत्र की तरह छलांगता-उछलता नज़र आता है। अंतरंगता कब अलगाव में बदल जाए? यहाँ गुमान तक नहीं होता। यहाँ आने वाली सिंदूरी महिलाओं में पति की लंपटता का गरल पीने की ग़ज़ब क्षमता है, तो इसलिए कि वे इससे अपनी दीदा-दिलेरी के ख़्वाब सँजोती हैं, तब दाम्पत्य जीवन की शाख पर ‘आई लव यू मोर’ मार्का एक नया उल्लू बोलने लगता है। उच्च-मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग में ऐसे कितने अफ़साने रचे जाते हैं? इसका पता तो तब चलता है, जब अफ़साने अख़बारी सुर्ख़ियों में ढलते हैं।

20 अगस्त को जयपुर के जयसिंहपुरा खोर के एक इलाक़े में एक फार्म हाउस पर जवाँ होती रात में जब रेव पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी। अतिरिक्त पुलिस आयुक्त सुलेल चौधरी की अगुवाई में छापामारी के साथ 13 युवतियों समेत इवेंट आयोजक नरेश मल्होत्रा मानवेन्द्र सिंह और मनीष शर्मा को गिरफ़्तार किया। पुलिस दस्ते में शामिल क्राइम ब्रांच के पुलिस निरीक्षक ख़लील अहमद ने बताया कि पार्टी के लिए लड़कियाँ नेपाल और दिल्ली से बुलायी गयी थीं। पुलिस सूत्रों का कहना है कि युवतियाँ नशे में ग़ाफ़िल कैसीनों के गिर्द झूमते लोगों का ध्यान बँटाकर रक़म ऐंठने की कोशिश में थी। दिलचस्प बात है कि इस पार्टी में कर्नाटक के एक पुलिस अधिकारी को भी शामिल पाया गया। पुलिस ने यहाँ से दारू के बेहिसाब कंटेनर और हुक्के बरामद किये। इससे पहले एक घटना का हवाला दें, तो अजमेर रोड स्थित बाईपास पर एक रिसोट्र्स से पुलिस ने देर रात में देहाचार में मस्त जिन युवतियों को घेरे में लिया, उनमें अभिजात्य परिवारों की सात लड़कियाँ भी थीं। इनमें दो आईएएस की तैयारी कर रही थीं और पाँच अन्य बीए, एमए थीं।

इन घटनाओं पर इरा त्रिवेदी द्वारा लिखित पुस्तक ‘इंडिया इन लव’ की याद ताज़ा हो जाती है। जयपुर हो या कोई और महानगर विभिन्न स्थानों पर सप्ताहांत में स्वर्गिक आनन्द लेने के लिए इस तरह की पार्टियों का आयोजन किया जाता है- ‘ठिकाने फार्म हाउस भी होते हैं, तो बार क्लब भी होते हैं। इन पार्टियों में जिनमें युवा, सम्पन्न और फैशनेबल लोग शामिल होते हैं। एक नयी उप-संस्कृति पैदा की है, तो लगभग जीवन का अंग बन गयी है। समृद्ध नोजवान और कुछ चर्चित लोगों की फार्म हाउसों तथा क्लबों की पार्टियाँ में अब कोकीन का इस्तेमाल भी शामिल हो गया है। कमाल की बात है कि कोकीन का सेवन हाई प्रोफाइल लोगों का स्टेटस सिंबल हो गया है। कहते हैं कि कोक के इस्तेमाल से पार्टियाँ जवाँ हो उठती है। संगीत, कोक, वोदका शॉट्स, डांस फ्लोर सब कुछ नशे की मस्ती में समा जाता है। महँगी शराब और कोक से मिलने वाली ऊर्जा और मौज़-मस्ती यह तय कर देती है कि पार्टी क्षितिज पर सूरज आने के साथ ही ख़त्म होगी।’
बेशक पुलिस अभी कोक के इस्तेमाल का ख़ुलासा करने में चुप्पी साधे हुए है। लेकिन सूत्र कहते हैं कि कुछ लोग सम्भोग क्षमता बढ़ाने के लिए इसमें एक्सटेंसी भी मिला देते हैं। सूत्र कहते हैं कि इस खेल में शामिल बड़ी हस्तियों में रसूख़दार लोग और लेखक भी शामिल होते हैं। बहरहाल पुलिस की तफ़्तीश अभी जारी है। तहक़ीकात से इस खेल के सौदागरों में एक सम्पन्न तबक़े के तंत्र का ख़ुलासा हो सकता है। सोशल मीडिया ने ‘लाइक्स’ की ओट में खुलेपन के इतने दरवाज़े खोल दिये हैं कि नैतिक बोध की चादर ओढ़े सेक्स का उन्मुक्त आचरण अब चौंकाता नहीं।

मित्रों मरजानी की कथा की नायिकाएँ यहाँ क़दम-क़दम पर नज़र आती हैं, जो अपनी देह से सन्तुष्ट और देह की तुष्टि चाहती हैं। अपनी देह को देखकर वे आत्ममुग्ध हैं। यहाँ आधुनिक सोच वाली नारी की इच्छाओं आकांक्षाओं, उसके तार्किक सपनों और तेवरों को मनोयोग पूर्वक लाने की कोशिशें ठिठकने को प्रेरित करती हैं। साड़ी में पूरी तरह ढकी औरतें भी मुस्कान से इच्छा जगाती लगती हैं। कभी भी लगता है कि यह एक मांस का बाज़ार है और इच्छाओं के नग्न नृत्य की नुमाइश हो रही है। अश्लीलता और निर्लज्जता की मार्केटिंग के ख़िलाफ़ क़दम उठाये जाने की इच्छा के बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी को लामबंद नहीं करने देती। अनेक दृश्य तो बेहद लुभावने लगते हैं। मॉल्स की सीढिय़ाँ चढ़ते समय कसी हुई साड़ी के नीचे अनायास होने वाली नितंबों की लययुक्त थिरकन किसी दक्ष नृत्यांगना की सायस की जाने वाली आकर्षक नृत्य मुद्राओं से भी ज़्यादा लुभावनी लगती हैं।

मित्रता की दूरी तो हर पल दैहिक दूरी को लाँघती नज़र आती है। वर्जनाओं को तोडऩे वाला फैशन यहाँ बख़ूबी नज़र आता है। बेढंगे क़िस्म के तमाम रंग आकृतियों और कपड़ों का मेल गेटिंग अप आफ्टर सैक्सफील की मादकता में महकती तथा पट्टियों से युक्त बिकनी टॉप और जोफ स्ट्रेप्स सलवार सरीखा लिबास तो साफ़-साफ़ झटके देता है। यह छवियों का मायावी संसार है, जहाँ सजने-सँवरने के तमाम बुज़ुर्ग साधनों को नकार कर मध्यम वर्गीय कन्याएँ अपनी देह को अनावृत करती नज़र आती हैं। लोगों की आर्थिक स्थिति का प्रभाव यहाँ लोगों के आचरण आपसी सम्बन्धों और देह की भाषा में साफ़ नज़र आता है।

कहना ग़लत नहीं होगा कि आधुनिकता में बढ़ते पुट और पाश्चात्य प्रभाव में भारतीय जीवनशैली को बुरी तरह प्रभावित किया है। स्त्री-पुरुष के यौन व्यवहार और प्राथमिकताएँ बदल गयी हैं। अब दोस्ती और प्रेम के इज़हार के लिए ठिकानों की तलाश मुश्किल नहीं है।

आइए, आपको एक ऐसे ही ठिकाने का नज़ारा करवाएँ, जहाँ सुरमई उजालों और चम्पई अँधेरों में महकती है- गुलाबी नगर की गुलाबी रातें। धज्जी भर कपड़ों में उफनते मादक जिस्म तेज़ बजते रीमिक्स की धुन पर थिरकते कम हैं, सुलगते तंदूर की-सी बेचैनी ज़्यादा दर्शाते हैं। दो पल के लिए उनके क़दम थमते भी हैं, तो टकीला गटकने और नींबू-नमक चाटने के बाद फिर अलोकिक मुद्रा में आ जाते हैं। हॉट स्पॉट पर गहमागहमी भरे माहौल में झिलमिल टॉप पहने देह को करिश्माई तरीक़े से लचकाती कमनीय बालाएँ छक कर मस्ती के मूड में नज़र आती हैं। औरत होने का भरपूर आनन्द लेने वाली ये लड़कियाँ जयपुर को जीवंत करती लगती हैं। यही है गुलाबी नगर की नाइट लाइफ।

गुलाबी नगर की गुलाबी रातों का यह मंज़र तक़रीबन सभी डिस्कोथेक में एक जैसा है। अब वो दिन लद गये, जब सप्ताहांत पर लोगों का मूड लतीफ़ेबाज़ी का होता था, अब उन्हें उत्तेजना का कैप्सूल चाहिए। मल्टीनेशनल्स में भारी-भरकम पैकेज से निहाल हुए यंगस्टर्स को वीकेंड की इन पार्टियों का बड़ी बेक़रारी से इंतज़ार रहता है। अव्वल तो पारम्परिक सोच वाले लोग यहाँ आते ही नहीं। इत्तेफ़ाक़ से आ भी जाएँ, तो वीतरागी होने का ढोंग करने की बजाय उन्हें उन्मत्त देह की भाषा समझ में आने लगती है; जो गुलाबी होठों और नशीली निगाहों से छन-छनकर झरती है कि स्त्री शरीर तो प्रकृति की सुंदरतम् कृति है। इसके अनावरण का शोक कैसा? हालाँकि कहने को इन डिस्कोथेक में कपल्स को ही इजाज़त है। लेकिन वीक एंड की मस्त रातों का बेसब्री से इंतज़ार करने वाले सिद्धार्थ की मानें, तो अकेले जाने का इंतज़ाम भी हैं। वह कहते हैं कि वहाँ बहुत-सी लड़कियाँ मिल जाती हैं, जिन्हें जोड़ीदार की तलाश रहती है। ऐसे जोड़ीदार की, जो उन्हें अफोर्ड कर सके। यानी जो उनके पीने-पिलाने का ख़र्च बर्दाश्त कर सके और जो उनकी बाहों-में-बाहें डालकर उनकी रात को मस्त बना सके। उनसे सिर्फ़ इतना भर कहना होता है कि क्या आप अकेली हैं? वे हामी भरती हैं, तो अगला सवाल होता है कि क्या आप को किसी का इंतज़ार है? लेकिन उनकी खिलखिलाती बेसाख़्ता हँसी ही इसका जवाब होती है कि वे तैयार हैं।

इन डिस्कोथेक्स में सिर्फ़ यंगस्टर्स ही आते हों, ऐसा नहीं है। एक प्रतिष्ठित कारोबारी की मानें तो यहाँ व्यावसायिक रिश्ते भी बनते हैं। यहाँ सोशलाइट्स भी आती हैं, तो धनकुबेर और आर्ट तथा लेखन की दुनिया में खोये-खोये से लोग भी जो बड़े बिंदास अंदाज़ में व्हिस्की गटकते हैं; लेकिन उनकी मखमूर निगाहें नारी देह की गहराइयों में डूबती नज़र आती है। आनंद का यह कारोबार इतना ख़र्चीला है कि हज़ारों रुपये तो सिर्फ़ अन्दर दाख़िल होने के लगते हैं, फिर फ्लोर पर जोशीले जुनून के साथ थिरकने के लिए महँगी शराब गटकना और एक-दूसरे का बदन बाहों में पिरोकर आनंद की बुलंदियों तक पहुँचने का सफ़र कुबेरों को ही रास आ सकता है।

आनंद से सराबोर सुमित बताते हैं कि यहाँ नाइट आउट के मौक़े नहीं के बराबर हेाते हैं; लेकिन कभी कभी केजुअल मुलाक़ातें ज़िन्दगी में नया रंग भी घोल देती है। क्या जोड़े भी बदलते हैं? इस सवाल पर वे कहते हैं कि किसी-किसी में ख़ास आकर्षण जोडिय़ाँ बदलने के हालात पैदा कर सकता है। लेकिन इससे कोई बदतर हालात दरपेश हुए हों, ऐसा कुछ मैंने नहीं देखा। अलबत्ता मर्दों की निगाह में उठने के लिए नपा-तुला खाकर इंच टेप पर सधे शरीर की नुमाइश के लिए तैयार किये गये भडक़ाऊ जिस्म देखना कोई नई बात नहीं है। वीक एंड की सुरमई रातों में पार्टियों की जान और शान बनने वाली इन बालाओं में भारी-भरकम पैकेज पर मल्टीनेशल्स में करेाड़ों के वारे-न्यारे करने वाली हस्तियाँ भी होती हैं। यह अलग बात है कि बेहद कामयाब प्रोफेशनल्स को पार्टियों के बीच मिनी स्कर्ट और लाइक्रा में पहचानना मुश्किल होता है। एक मल्टीनेशनल की सीओ मोनिका ठुमकती सी कहती है, यहीं तो देखने को मिलता है, अधेरे में जगमगाती ज़िन्दादिली का आलम।

एक बड़े कारोबार से जुड़ी रिद्धिमा कहती हैं कि हर रोज़ 16 घंटे काम करने के बाद कुछ तो राहत चाहिए। वीकएंड की जवाँ जगमग रातें थकी ज़िन्दगी में मस्ती घोल देती है। एक नामवर महिला पत्रकार यह कहती हैं कि तो ग़लत क्या है? जयपुर सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा का शहर ही नहीं है, मुम्बई की तरह मस्त शहर बनता जा रहा है; लेकिन उनके लिए वो कामयाब हैं; पैसा जिनकी मुट्ठी में रिसता है।

धुँधली-सी सकुचाती रोशनी में उन्मुक्त यौवन की चकाचौंध में गिलासों की खनक के बीच बहती मदिरा में डुबकियाँ लगाते दीपक घोशाल एक कामयाब व्यवसायी बड़े बेबाक लगते हैं। उनका कहना है कि यहाँ मैं सब कुछ भूल जाता हूँ। अपने हफ़्ते भर का तनाव, सारी परेशानियाँ, यहाँ तक कि ख़ुद को भी भूल जाता हूँ। अपनी महिला मित्र को भींचते हुए कहा कि हम दोनों संगीत की लय और थिरकन में पूरी तरह बँध जाते हैं। नयी पीढ़ी की इस बहुरंगी ज़िन्दगी के बेशुमार रंगों में झपकी भी घुली हुई है, तो तृष्णा भी, यह अलग बात है कि यह सातवाँ रंग एकाएक नज़र नहीं आता। लेकिन अरिंदम कहते हैं कि ‘अगर ऐसी रंगीली रातें न हों, तो पाँच दिन तक काम करने का हमारा जेाश ही ग़ायब हो जाए। जानी-मानी पेंटर टीना कहती हैं कि हमें कोई तितलियाँ न समझे, हम बख़ूबी डंक भी मारना जानती हैं।

रतोंधी सरीखी इन रातों में भले ही संयम और संस्कार टूटते हैं; लेकिन अक्सर यहाँ आने वाले डायमंड के कारेाबार से जुड़े विक्की की मानें, तो इसे कामुकता नहीं कहा जा सकता। वह कहते है कि भला यह कोई वर्जित क्षेत्र है? यहाँ बदनाम खुलापन नहीं, बल्कि ऐसा खुलापन है, जो एक नयी और शानदार दुनिया से रू-ब-रू कराता है। हॉट स्पॉट पर आने के बाद देह और मन अपने आप स्वच्छंद हो जाता है। इस सवाल पर कि क्या यहाँ का माहौल अतृप्त इच्छाओं को गुदगुदाता है? क्या मर्यादाओं को तोड़ता है?

उनकी गर्लफ्रेंड तृप्ति बड़ी बेबाकी से कहती है कि अगर यही मर्यादा है, तो यह तो बाग़-बग़ीचों से लेकर, ईटिंग ज्वाइंट्स …और टूरिस्टों के डेन में सभी जगह टूट रही है। यहाँ नियमित आने वालों में यायावरी लेखक रॉबर्ट कहते हैं, फणीश्वरनाथ रेणु ने ऐसे रिश्तों को लेकर एक पूरा विमर्श बुना है। उस जमाने में क्या लोग वर्जित क्षेत्र की देहरी पर नहीं पहुँचे थे? क्या तब लोगों के बीच यौनाकर्षण नहीं था? फ़र्क़ था, तो सिर्फ़ इतना कि सब कुछ ढका-छिपा था। ढकने से तो किसी भी ढकी चीज़ में सड़ांध भर जाती है। इस खुलेपन ने इस सदियों की सड़ांध को ख़त्म कर दिया है, तो क्या ग़लत किया है? आज तो तथाकथित महिला पत्रिकाएँ गर्भवती स्त्रियों के पेट को भी फैशन स्टेटमेंट की तरह दिखा रही है।

फ़िल्मों ने तो सब कुछ उघाडक़र रख दिया है। कपड़े उतारकर नंग-धडंग हेाती अभिनेत्रियों के सैक्सी उतावलेपन से यह माहौल ज़्यादा अच्छा है। यहाँ मादकता की महक है और बन्धनों की बेहूदा केंचुल उतारने की जोशीली ख़्वाहिश है। रहा सवाल शिकारी क़िस्म के लेागों का, तो यह नस्ल तो कहाँ नहीं है? यह थकाऊ मशक़्क़त के बाद राहत और मौज़-मस्ती के लम्हे खोजने वाले कामयाब लोगों की दुनिया है, ताकि जिस्म को फिर से रिचार्ज किया जा सके। जब हमें विराट सफलता की तलछट मिल सकती है, तो दहकते जिस्मों का रेशमी अहसास क्यों नहीं?

झूमते माहौल से फुर्सत पाये लम्हों में वोदका का एक लम्बा सिप लेती नियति को सनसनी बेहद पसन्द है; लेकिन वे यह कहते हुए निरुत्तर कर देती है कि क्या यह माहौल फ़िल्मों के आइटम डांस से बुरा है। लेकिन कोई अंधी भड़ास निकाले तो क्या किया जा सकता है। उनका सवाल बेहद चुभता है कि स्त्री प्रधान फ़िल्मों में अभिनेत्रियों को नंगी टांग अड़ाने का अधिकार मिल सकता है, तो यहाँ खुलासन तो है; लेकिन कम-से-कम खोखलापन तो नहीं है। इस औघड़ दौर में कोई अभिनेत्री कपड़े उघाडक़र सितारा बन सकती है, तो डिस्कोथेक भी एडवांसमेंट और लाइफ की नयी नस्ल है, जो निराली है, तो नशीली भी है। अब उन त्रस्त आत्माओं को तो कुछ नहीं कहा जाता, जो जिस्म की नदी में कूदना तो चाहते हैं; लेकिन रस्म अदायगी की तरह। यहाँ है न रस्में, न क़समें हैं, बस मस्ती की उफनती झील है, जिसमें तैरने को हर कोई बेताब है। कम-से-कम यहाँ स्वाभाविकता को खोकर रिश्तों को ढोने की बेबसी तो नहीं है?

इन डिस्कोथेक में केवल रूमानियत ही नहीं महकती। अक्सर होने वाली उद्योगपतियों की पार्टियों का भी एक जुदा रोशन चेहरा होता है। इनमें फ़िल्मी सितारे भी होते हैं, तो कामयाबी के आकाश में उड़ान भरने वाले व्यावासयिक घरानों के लोग भी। अलबत्ता यह कहना मौजूँ होगा कि वक्ष-दर्शना बालाएँ और नाइट लाइफ की मादक मस्तियाँ यह दर्शाने को का$फी है कि अब जयपुर में भी यौन क्रान्ति बुरी तरह धधक रही है।

जयपुर कितना बदला है? यह इसी बात से ज़ाहिर है कि कभी मुजरों में महकते गुलबदन अब नज़र नहीं आते, शास्त्रीय संगीत अब सुकून की नहीं नफ़ासत की नुमाइश का ज़रिया बन गया है। बाग़-बग़ीचे अब प्यार-गाहे बन गयी हैं। जहाँ 36 बने जोड़े कौतूहल नहीं जगाते। ईटिंग ज्वाइंट्स खाने-पीने से कहीं ज़्यादा दिलबर की बाहों में खोये रहने के डेस्टिनेशन बन गये हैं। महँगे होटलों या फिर पाँच सितारा सैरगाहों में लडक़े लड़कियाँ यहाँ तक कि किटी पार्टी खेलने वाली गृहणियाँ भी रेन डांस के नाम पर कृत्रिम बारिश में भीगती थिरकती नज़र आती हैं। इनके आयोजक कहते हैं कि बेशक इनमें का$फी लोग आते हैं। इसे कारोबारी नज़रिये से नहीं देखा जाना चाहिए।
यह बदलते जयपुर की सूरत है, जहाँ यंगस्टर्स को इसी में राहत मिलती है। डांस फ्लोर पर अधेड़ उम्र के लोगों की भी कमी नहीं है। लेकिन सब कुछ अजीब तो तब लगता है, रिश्तों की बंदिशों से दूर माँ-बेटियाँ भी बारिश में थिरकती नज़र आती हैं। इसके बाद आपत्ति उठाने की कौन-सी बात रह जाती है।