नतीजों के मायने

बिहार विधानसभा चुनाव और 11 अन्य राज्यों के उप चुनावों के नतीजे बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी का जादू बरकरार है.. बिहार विधानसभा चुनाव से पहले आये एग्जिट पोल ने जिस तरह एनडीए की हार और महागठबन्धन की जीत का दावा किया था, उससे एकबारगी तो लगा था कि शायद इस चुनाव में लॉकडाउन में उभरी दिक्कतें भाजपा और जदयू (एनडीए) पर बहुत भारी पडऩे वाली हैं। लेकिन जब नतीजे आये, तो सब कुछ उलटा हो गया। अन्य 11 राज्यों के उप चुनावों के नतीजों में भी अधिकतर जगह भाजपा-ही-भाजपा दिखायी दी; हालाँकि कुछ राज्यों में वह कहीं नहीं टिक सकी। इन चुनावी नतीजों से ब्रांड मोदी का नेतृत्व एक बार फिर मज़बूती से स्थापित हुआ है। दरअसल पहले चरण में महागठबन्धन की बढ़त के बाद जिस तरह मोदी ने महिलाओं की बात की और बिहार की जनता को जंगलराज की याद दिलायी, उसने पूरी तस्वीर बदल दी। नतीजे बता रहे हैं कि ब्रांड मोदी का विकल्प देने के मामले में विपक्ष दूर-दूर तक दिखायी नहीं देता। दूसरी तरफ भले ही प्रधानमंत्री ने नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनाने की बात कह दी है, लेकिन भाजपा उनके बड़े भाई की भूमिका में आ गयी है, जिससे उनकी स्वच्छंदता पिछली बार की तरह शायद न रहे। इधर बिहार के चुनाव में राजद नेता तेजस्वी यादव नये क्षत्रप के रूप में उभरे हैं। रोज़गार के मुद्दे को उन्होंने ऐसी धार दी कि भाजपा भी हक्की-बक्की रह गयी, और उसके ब्रांड प्रधानमंत्री मोदी को पूरी ताकत से मैदान में उतरना पड़ा। अगले साल पश्चिम बंगाल सहित कुछ अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और विपक्ष को इसके लिए कमर कसनी होगी। बिहार चुनाव और इसके नतीजों से उभरे संकेतों पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी का विश्लेषण :-

बिहार में एनडीए की सत्ता में वापसी ब्रांड मोदी की जीत है। नीतीश कुमार इस चुनाव में थके और एक पराजित नेता की तरह मैदान में थे; लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोर्चा सँभालते ही हवा का रुख बदल दिया। एक स्पष्ट हार की तरफ जा रहा एनडीए नतीजे आने के बाद जीत की पायदान पर खड़ा हो गया। निश्चित ही बिहार चुनाव और देश के अन्य प्रदेशों में उप चुनावों के नतीजे ज़ाहिर करते हैं कि देश में ब्रांड मोदी का अभी कोई विकल्प नहीं है। नतीजों के बाद मुख्यालय में मोदी ने भाजपा कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए जिस तरह परिवार की राजनीति को देश के लिए खतरनाक बताया उससे साफ ज़ाहिर होता है कि मोदी का निशाना कांग्रेस पर था और उन्होंने उसकी पिच पर खड़े होकर उसे ललकार दिया। ये चुनाव नतीजे यह भी ज़ाहिर करते हैं कि मोदी अभी भी जनता की पहली पसन्द हैं और विपक्ष, खासकर कांग्रेस उसमें अपना भरोसा नहीं बना पायी है। हाल के लॉकडाउन में लोगों के लिए उभरी हज़ारों मुसीबतों के बावजूद यदि बिहार और दूसरे उप चुनावों में भाजपा ने जीत हासिल की, तो इसलिए कि जनता मोदी को अवसर देना चाहती है; क्योंकि उसके सामने विकल्प नहीं है। भले भाजपा को प्रदेशों में अभी सहयोगियों की ज़रूरत हो, देश भर में आत्मनिर्भर बनने की उसकी गति उसके लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता को ज़ाहिर करती है। इन नतीजों ने विपक्ष, खासकर कांग्रेस को यह सबक दिया है कि उसे ब्रांड मोदी का मुकाबला करने के लिए अभी काफी मेहनत करनी है। इस चुनाव ने बिहार में तेजस्वी यादव को एक नेता के रूप में ज़रूर स्थापित कर दिया है। उन्होंने रोज़गार का नारा देकर जिस तरह चुनाव को नयी दिशा दी, उसी के चलते महागठबन्धन एक सम्मानजनक स्कोर तक पहुँच पाया। हालाँकि उन्होंने एनडीए की जीत को धोखे की जीत माना है। तेजस्वी का कहना है कि प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार धन, बल, छल से इस 31 साल के नौजवान को रोकने में नाकाम रहे और राजद को सबसे बड़ी पार्टी बनने से नहीं रोक पाये। उन्होंने कहा कि जनादेश महागठबन्धन के लिए था। मुख्यमंत्री (नीतीश) चोर दरवाज़े से अन्दर आये हैं।

भाजपा को इस जीत की सख्त ज़रूरत थी। पिछले विधानभा चुनावों में उसे लगातार निराशा मिल रही थी। बिहार में भाजपा ने 74 सीटें जीतीं, जो उसकी 2015 में जीती 53 सीटों से 22 ज़्यादा हैं। भाजपा के साथ चुनाव में उतरी जदयू को 42 सीटें मिलीं, जो सन् 2015 में जीती 71 सीटों से 29 कम हैं। सीटों के इस जमा-जोड़ ने ही 12 घंटे के भीतर भाजपा को बड़ा भाई और जदयू को छोटा भाई बना दिया। शायद इसलिए चुनाव से अगले दिन भाजपा मुख्यालय में प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार और अन्य राज्यों में जीत को पार्टी को लोकसभा चुनाव में मिली सफलता को 2019 के चुनाव में मिली जीत का विस्तार बताया। भाजपा भले नाकामियों के मुद्दों को जीत की चादर में छिपा लेना चाहती हो, लेकिन सच यह भी है कि इस चुनाव में 10 लाख नौकरी देने का वादा करने वाले तेजस्वी यादव की पार्टी राजद को भाजपा से भी ज़्यादा 75 सीटें मिलीं। यदि भाजपा का दावा सही होता कि लॉकडाउन में सब कुछ अच्छा हुआ, तो राजद को इतनी सीटें नहीं मिलतीं, जिसका मुख्य मुद्दा ही रोज़गार था।

यह साफ है कि इस चुनाव में बँटा हुआ राजनीतिक जनादेश आया है। यह चुनाव में दलों को मिले मत प्रतिशत से ज़ाहिर हो जाता है। जनता ने किसी भी दल को 25 फीसदी तक भी नहीं पहुँचने दिया। राजद को जनता ने सबसे ज़्यादा 23.1 फीसदी मत दिये। भाजपा को 19.46 फीसदी, नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को 15.4 फीसदी, कांग्रेस को 9.5 फीसदी, लोजपा 5.66 फीसदी और एआईएमआईएम को 1.24 फीसदी। जबकि अन्य के खाते में 18.8 फीसदी वोट गये। इस बार नोटा का बटा भी खूब दबा। निश्चित ही इसे बहुत बँटा हुआ जनादेश कहा जाएगा।

भाजपा राजद से 3.64 फीसदी वोट कम मिले। ऐसे में साफ है कि उसे अपने विस्तार के लिए अभी इंतज़ार करना पड़ेगा। उसकी सहयोगी जदयू उससे बहुत पीछे नहीं है, जिसे उससे 4.06 फीसदी वोट ही कम मिले हैं। कांग्रेस को सीटें तो 19 ही मिलीं; लेकिन 70 सीटों पर लडऩे से उसे वोट 9.5 फीसदी मिल गये; जो कम नहीं कहे जा सकते। एआईएमआईएम ने 1.24 फीसदी वोट पाकर भी पाँच सीटें जीत लीं। भाजपा का स्ट्राइक रेट 66 फीसदी और जदयू का 43 फीसदी रहा।

चिराग की पार्टी ने 135 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें 133 प्रत्याशी उसने जदयू के खिलाफ उतारे। भाजपा के खिलाफ उसने सिर्फ 6 सीटों पर ही उम्मीदवार दिये। लोजपा ने बड़ी संख्या में अगड़ी जातियों यानी हर 10 में से 4 और गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग को टिकट दिये। उसने भाजपा और जदयू दोनों के वोट बैंक में सेंध लगायी; लेकिन उसके अकेले मैदान में उतरने से जदयू को कई सीटें गँवानी पड़ीं और यह भाजपा को फायदा देने वाली बात साबित हुई। नतीजे बताते हैं कि जिन सीटों पर राजद का मुकाबला जदयू से था, वहाँ उसने बेहतर प्रदर्शन किया। इसके विपरीत वह भाजपा प्रत्याशियों को कड़ी टक्कर नहीं दे पायी। नतीजों के विश्लेषण से यह भी ज़ाहिर होता है कि सूबे के हर चार में से एक मतदाता ने दो मुख्य गठबन्धनों के बजाय किसी और को वोट दिया। इसका कारण स्थानीय मुद्दे या जाति-धर्म रहा।

विपक्ष को सँभलना होगा 

केंद्र सरकार की योजनाएँ लक्षित हैं; यह विपक्ष को समझना होगा। गैस चूल्हे से लेकर शौचालय तक की योजना आम जनता को अपील करती हैं। अर्थ-व्यवस्था और इस तरह के पेचीदे मुद्दों से आम जनता को आप अपने पक्ष में नहीं कर सकते। किसानों को उनके खातों में सीधे 2000 रुपये मासिक अच्छे लगते हैं। ऐसे में जनता का रुख बदलना कांग्रेस या दूसरे विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं है। उनके लिए सबसे बड़ी समस्या विश्वसनीय विकल्प का जनता को भरोसा देना है; जो वे नहीं दे पा रहे। फिर भी एक बात साफ है कि इस चुनाव में बिहार में एनडीए की जीत ब्रांड मोदी की जीत है और जदयू भी यदि 43 सीटों तक पहुँच पायी, तो इसमें भी मोदी का प्रभाव रहा। जब मोदी ने रोज़गार को मुद्दा बनते देखा, तो उन्होंने 15 साल पहले के जंगलराज की याद जनता को करवाकर हवा का रुख ही बदल दिया।

भाजपा बिहार में बड़े भाई की भूमिका में आना चाहती थी और आ गयी; चाहे जैसे भी आयी। सिर्फ 43 सीटों के साथ तीसरे नम्बर की पार्टी बनकर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होकर भी अब भाजपा के रहम-ओ-करम पर रहने वाले मुख्यमंत्री होंगे। समाजवादी राजनीति की पीढ़ी के कमोवेश अन्तिम मज़बूत स्तम्भ नीतीश के समाजवाद वाले विकास और भाजपा के आधुनिक विकास मॉडल में टकराव न हो, इसका नीतीश को किसी भी कीमत पर खयाल रखना होगा, और हो सकता है कि उन्हें अब बड़े भाई के सामने अपनी सोच की कहीं-कहीं बलि भी देनी पड़े। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा की नज़र बिहार में नीतीश के काडर और ज़मीन दोनों पर है। भाजपा पूरे राज्य में आत्मनिर्भर पार्टी बनना चाहती है। फिलहाल उसे सहयोगियों की देश के कई राज्यों में अभी ज़रूरत है। पिछले कुछ समय में शिवसेना और अकाली दल जैसे मज़बूत दल उससे छिटके हैं। भाजपा अगले लोकसभा चुनाव को लक्ष्य करके चल रही है, और यही उसकी सफलता का राज है।

बिहार के चुनाव में तेजस्वी यादव ने हार के बावजूद एक नेता के रूप में खुद को बिहार की राजनीति में स्थापित कर लिया है। उनकी पार्टी आरजेडी न सिर्फ सबसे बड़ा दल बनी रही है, बल्कि उन्होंने भी एक दिग्गज नेता और बेहतर चुनाव प्रबन्धक के रूप में परिपक्वता भी दिखायी है। इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि असली मुद्दों का उभरना है। जाति-धर्म, हिन्दू-मुस्लिम से इतर यह चुनाव असली मुद्दों पर लड़ा गया है और देश के भविष्य के चुनावों का एजेंडा बदल गया है। यह अब देश के असली मुद्दे होंगे। कुल 243 सदस्यीय विधानसभा में एनडीए (गठबन्धन) को 125 और महागठबन्धन को 110 सीटें मिली हैं, जिससे यह ज़ाहिर होता है कि यह कितना कड़ा मुकाबला था।

भाजपा ने जब चुनाव प्रचार के दौरान ही एनडीए के पोस्टरों से नीतीश कुमार का चेहरा हटा दिया था, तभी यह सन्देश चला गया था कि भाजपा समझ गयी है कि उनकी नैया अब मोदी के सहारे ही पार लग सकती है। उसने इस बहाने यह भी ज़ाहिर कर दिया कि वह नीतीश को बड़ा नेता नहीं मानती और जताना चाहती है कि बिहार में एनडीए को नीतीश कुमार नहीं, सिर्फ नरेंद्र मोदी ही जिता सकते हैं; और ऐसा हुआ भी। इस चुनाव में चिराग पासवान के भूमिका पर भी कई सवाल उठे। यह भी कहा गया कि उन्हें भाजपा ने आगे किया है, ताकि नीतीश को कमज़ोर किया जा सके। लेकिन चुनाव के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने साफ कर दिया कि नीतीश ही बिहार के मुख्यमंत्री होंगे।

हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि नीतीश वर्तमान हालत में बेचारगी में जीने को मजबूर हुए हैं। चिराग ठसके से एनडीए में बने हुए हैं। नीतीश समझते हैं कि चिराग के रूप में भाजपा ने उनसे छल किया। चिराग ने चुनाव प्रचार में जी भरकर नीतीश को कोसा। नीतीश इस तौहीन को हज़म कर रहे हैं, तो ज़रूर कोई मजबूरी होगी। यही नीतीश हैं, जिन्होंने कभी नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से मना कर दिया था। आज यही नीतीश पूरा चुनाव मोदी के पोस्टर के भरोसे लड़े हैं।

असली मुद्दों पर बात

भाजपा नतीजों के आधार पर यह सन्देश देना चाहती है कि लॉकडाउन में बेहद खराब इंतज़ामों, 14 करोड़ लोगों के बेरोज़गार होने, दर-दर भटकने, कृषि कानून पर किसानों के विरोध और खस्ताहाल हो चुकी अर्थ-व्यवस्था को लेकर राहुल गाँधी और विपक्ष उस पर जो हमले कर रहा है, उसमें कोई दम नहीं और लोगों ने उसे सही मानते हुए उसे वोट दिया है। लेकिन यह सच नहीं है। बिहार में तेजस्वी यादव ने रोज़गार और दूसरे असली मुद्दों को चुनाव में लाकर देश के आने वाले चुनावों को एक बड़ा एजेंडा दे दिया है।

नतीजों से अगले दिन भाजपा मुख्यालय पर प्रधानमंत्री ने भी यही कहा कि जो ढोल पीटते थे, उन्हें जनता ने नकार दिया। लेकिन सच में क्या यह मुद्दे गौण हो गये हैं? शायद नहीं। इसलिए मोदी ने अपने सम्बोधन में यह जताने की कोशिश की कि बिहार में उसकी जीत विकास की जीत है। हालाँकि उनके सम्बोधन में कहीं भी देश की अर्थ-व्यवस्था, बेरोज़गारी, किसानों की हालत का ज़िक्र नहीं था। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी हाल के महीनों में इन मुद्दों पर बहुत मज़बूती से बोलते रहे हैं; लेकिन उन्हें ट्वीटर से बाहर निकलकर इन मुद्दों को देश की जनता के मुद्दे बनाना होगा; तभी उन्हें जनता का साथ मिलेगा। तेजस्वी ने बिहार चुनाव में राहुल गाँधी और पूरे विपक्ष को एक अवसर दिया है कि वह रोज़गार और अन्य असली मुद्दों को देश की जनता का मुद्दा बना दें।

किसने क्या पाया, क्या खोया

बिहार के चुनाव नतीजों में हार के बावजूद राजद तेजस्वी यादव एक मज़बूत नेता के तौर पर उभरे हैं। अकेले उनके बूते ही महागठबन्धन को 110 सीटें मिली हैं। भाजपा-जदयू और अन्य के गठबन्धन की इस चुनाव में जीत ज़रूर हुई; लेकिन तेजस्वी के नेतृत्व में महागठबन्धन ने उसे कड़ी टक्कर दी।

यह नहीं भूलना चाहिए कि तेजस्वी यादव कुछ साल पहले ही एक नेता के तौर पर सामने आये हैं; जबकि उनके मुकाबले प्रधानमंत्री मोदी और नीतीश कुमार जैसे दिग्गज थे। भले राहुल गाँधी ने भी चंद चुनाव रैलियाँ कीं, लेकिन महागठबन्धन का पूरा दारोमदार तेजस्वी पर रहा, जिन्होंने 300 से ज़्यादा चुनावी सभाएँ कीं।

तेजस्वी ने जिस चतुराई से रोज़गार का मुद्दा उठाया, उसने एक बारगी तो भाजपा के भी पसीने छुड़ा दिये। सच तो यह है कि पहले चरण में महागठबन्धन इसी के बूते अधिकतर सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रहा। इसके बाद ही मोदी और नीतीश कुमार ने अपनी चुनावी सभाओं में जंगलराज का बार-बार डर दिखाया, जिससे साफ तौर पर महागठबन्धन के हक में जा रहा माहौल अचानक बदल गया। हालाँकि इसके बावजूद 15 साल पुराने कथित जंगलराज से लेकर युवा मतदाता तो एनडीए से कनेक्ट नहीं कर पाया; लेकिन महिलाओं और अन्य आयु के लोगों ने इसके बाद अपना रुख बदल लिया। इस चुनाव में युवाओं को अपने साथ जोडऩा तेजस्वी की सबसे बड़ी सफलता है, जो भविष्य में उनके काम आयेगी।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि लगातार 15 साल सत्ता के कारण नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार में नाराज़गी थी। नीतीश के 5 मंत्री चुनाव हार गये। लेकिन भाजपा भी पिछली सत्ता में कुछ समय छोड़कर नीतीश के साथ ही थी। फिर भाजपा के खिलाफ क्यों माहौल नहीं बना? इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी के चतुराई से भरे भाषणों को दे सकते हैं। लॉकडाउन में लाखों लोगों के महीने भर सड़कों पर भटकने और मीलों सड़कों पर पैदल चलकर भूखे-प्यासे अपने घर जाने की ज़िम्मेदार बिहार सरकार नहीं, केंद्र सरकार ज़्यादा थी; लेकिन नुकसान नीतीश को भुगतना पड़ा। भाजपा ने इस चुनाव में लाभ कमाया है, जो उसे अपने विस्तार की योजना में मदद करेगा।

इस चुनाव में कांग्रेस के 70 सीटों पर उतरने के बावजूद सिर्फ 19 सीटों पर जीतने को लेकर उसकी काफी आलोचना हो रही है; लेकिन सच यह भी है कि उसे ऐसी सीटों पर ज़्यादा लडऩा पड़ा, जहाँ राजद का प्रभाव कभी नहीं रहा। इसके अलावा सीमांचल में उसे और महागठबन्धन को असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने 11 सीटों पर नुकसान पहुँचाया। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि इन नतीजों ने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान पहुँचाया है। उसे अपने काम करने का तरीका बदलना होगा। कांग्रेस को राज्यों में खुद को मज़बूत करना होगा। जैसे हालत में कांग्रेस राज्यों में पहुँच रही है, उससे वो अन्य जैसे दलों की स्थिति में जाती दिख रही है; जो एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए चिन्ताजनक बात है। वैसे इस चुनाव में प्रियंका गाँधी का प्रचार के लिए न आना भी चर्चा में रहा।

लोजपा के चिराग पासवान की भूमिका आने वाले दिनों में सबकी नज़र में रहेगी। उन्हें सीट भले एक मिली, तो वे 6 फीसदी वोट पाने में सफल रहे हैं; जो कांग्रेस के 9 फीसदी वोट से कुछ ही कम है। चिराग भाजपा के साथ हैं, यह वो बार-बार कह चुके हैं। लेकिन इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि चिराग को भाजपा के साथ (एनडीए में) बने रहने के लिए मुश्किल पेश आये।

अब महागठबन्धन की कोशिश मज़बूत विपक्ष की भूमिका होगी। एनडीए के पास बहुत मज़बूत बहुमत नहीं है और उसके पास बहुमत से तीन ही सीटें ज़्यादा हैं। ऐसे में हो सकता है कि महागठबन्धन और तेजस्वी यादव एनडीए से बाहर रहे दलों को साथ जोडऩे की कोशिश करें।

नीतीश की भूमिका

चुनाव नतीजों के बाद यह भी चर्चा रही है कि नीतीश कुमार भाजपा के साथ रहने में अब सम्मानजनक महसूस नहीं करते। एनडीए की जीत के बात की चर्चा भी काफी रही है कि यदि वह मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं, तो भाजपा के बिहार के नेता उन्हें कितना सम्मान देते हैं? इस पर भी उनका रुख निर्भर करेगा। हालाँकि भाजपाई कभी नहीं चाहते कि किसी और दल का नेता, भले ही वह एनडीए में कितना भी बड़ा सहयोगी दल का और कितना भी महत्त्वपूर्ण क्यों न हो; मुख्यमंत्री बने। जदयू नेता भी मानते हैं कि हाल के महीनों में प्रधानमंत्री मोदी ने तो नीतीश के प्रति सम्मान दिखाया है; लेकिन राज्य के भाजपा नेताओं को उन्हें नीचा दिखाने के लिए खुला छोड़ दिया है। भाजपा की इस नीति से ही नीतीश के भीतर एक गुस्सा तो है ही।

इसके बावजूद जैसा संयम उन्होंने दिखाया, यह उनकी एक परिपक्व नेता की छवि को सामने लाता है। बिहार में भाजपा का सत्ता में रहना नीतीश पर ही निर्भर करेगा। नीतीश यदि बिदकते हैं, तो भाजपा की खुद को बिहार में मज़बूत करने और पार्टी के विस्तार करने की योजनाओं पर ग्रहण लग जाएगा। और कहीं नीतीश छिटक गये, तो सरकार ही खतरे में पड़ जाएगी। नीतीश की तेजस्वी के साथ कोई बड़ी राजनीतिक दुश्मनी नहीं है; बल्कि नीतीश खुद कभी मोदी के घोर विरोधी रहे हैं। लेकिन शायद उन्हें डर हो कि वह अगर राजद की तरह भाजपा को छिटकते हैं, तो उन्हें राजद अब उस तरह नहीं अपनायेगी। और अगर अपना भी लिया, तो उनन्हें मुख्यमंत्री पद तो कभी नहं मिलेगा।

हालाँकि यह एक कल्पना ही है, क्योंकि नीतीश अब भाजपा को नहीं छोड़ सकते। इसका कारण उनका बचा-खुचा अस्तित्व और भविष्य है। वह जानते हैं कि भाजपा ने उन्हें अपने कन्धे का सहारा लेकर चलने को मजबूर कर दिया है। साथ ही वह यह भी जानते हैं कि अगर अब वह भाजपा से अलग हुए, तो उनकी दुर्गति लालू प्रसाद यादव जैसी हो सकती है। उनके 15 साल के शासनकाल में बहुत-से घोटाले हुए हैं, और भाजपा के लिए किसी नेता को जेल भेजने के लिए कोई एक मुद्दा काफी है।

ऐसी स्थिति में साफ है कि यदि नीतीश भाजपा के साथ ही रहेंगे। भाजपा भी नीतीश को मुख्यमंत्री बनाकर पिछले शासनकाल की अपेक्षा उन्हें अपने एजेंडे के मुताबिक और दबाव के साथ चलाने की कोशिश करेगी। लेकिन वह उन पर रबर की बॉल की तरह भी दबाव नहीं बनायेगी। क्योंकि वह जानती है कि यदि वह उन पर ज़्यादा दबाव बनाने की कोशिश करती है, तो नीतीश को भाजपा के साथ चलने में मुश्किल आयेगी। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि राजनीतिक विचारधारा के तौर पर भाजपा और नीतीश कुमार दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं।

चुनाव प्रचार के दौरान जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सीएए की बात करते हुए लोगों को देश से बाहर निकलने की बात कहीं थी, तो नीतीश ने इसका कड़ा जबाव दिया था और कहा था कि कोई माई का लाल नहीं, जो आपको देश से बाहर निकाल सके। ऐसे में इसमें कोई दो-राय नहीं कि इस बार बिहार में भाजपा नेताओं और नीतीश के सम्बन्ध तलवार की धार पर रहेंगे।

भाजपा के नये चाणक्य नड्डा

इन चुनाव नतीजों में भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा अपने पूर्ववर्ती ताकतवर अध्यक्ष अमित शाह की छाया से बाहर निकलकर एक मज़बूत अध्यक्ष के नाते उभरे हैं। धन्यवाद रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसलिए कहा कि नड्डा जी आगे बढ़ो, हम आपके साथ हैं। अभी तक यही माना जा रहा था कि नड्डा अध्यक्ष बन जाने के बावजूद उभरकर सामने नहीं आ पा रहे। लेकिन बिहार में जैसी रणनीति नड्डा ने बुनी, उसने ज़ाहिर कर दिया किया कि वह एक कुशल चुनाव प्रबन्धक और रणनीतिकार हैं। वैसे भी पटना से नड्डा का कॉलेज समय से नाता रहा है और वह पटना विश्वविद्यालय के छात्र अध्यक्ष रहे हैं। इसके अलावा देश के अन्य राज्यों में भाजपा का जैसा डंका बजा, नड्डा अध्यक्ष के नाते भाजपा के लिए लकी साबित हुए हैं। नड्डा के सामने बिहार एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने था। जब तीसरे चरण के मतदान के बाद एग्जिट पोल में भाजपा का सूपड़ा साफ होता दिखाया जा रहा था, वह भाजपा कार्यालय में नतीजों के बाद की तैयारी की रणनीति बुन रहे थे। उन्होंने अपने बड़े नेताओं और बिहार के नेताओं से कह दिया था कि एग्जिट पोल से विचलित न हों; चाहे सामान्य बहुमत ही आये, पर सरकार एनडीए की ही बनेगी। बिहार चुनाव के प्रचार और तीसरे चरण के मतदान के बाद यही रिपोर्ट उन्होंने बड़े नेताओं से साझी की थी कि सरकार एनडीए की ही बनेगी। कहते हैं कि लोजपा को अलग से चुनाव लड़ाना भी उनका ही प्रयोग था; ताकि सत्ता विरोधी मतों का बँटबारा हो। निश्चित ही बिहार चुनाव के बाद नड्डा भाजपा में मज़बूत हुए हैं। उनकी रणनीतिक क्षमता के प्रति बड़े नेताओं में भरोसा बढ़ा है और वह पार्टी के नये चाणक्य बनने की तैयारी में हैं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी उनकी प्रतिभा के कायल हुए हैं। इस चुनाव की जीत के बाद नड्डा डमी अध्यक्ष की छवि से बाहर निकले हैं। मोदी ने जिस तरह खुद उनके नेतृत्व पर मुहर लगायी, वह छोटी बात नहीं है। भाजपा में ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ हो, और प्रधानमंत्री के नाते मोदी ने पार्टी के मंच से ऐसा किसी भी अध्यक्ष के लिए कहा हो। जनवरी में उनके कार्यकाल का एक साल हो जाएगा और अगले साल पश्चिम बंगाल का बड़ा चुनाव उनके सामने होगा। भाजपा का अब सबसे बड़ा लक्ष्य पश्चिम बंगाल ही है; जहाँ उनका मुकाबला बहुत ताकतवर और ज़मीनी नेता ममता बनर्जी से होगा। भाजपा अपने हिसाब से वहाँ ध्रुवीकरण की कोशिश है। प्रधानमंत्री मोदी ने धन्यवाद रैली में भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या की बात बंगाल को लक्ष्य करके ही कही थी। इससे समझा जा सकता है कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल की चुनावी राजनीति को स्वरूप देने की कोशिश में है। इसे भाजपा और मोदी की चतुराई ही कहा जाएगा कि बिहार की जीत के 20 घंटे के भीतर ही उन्होंने इस जीत के खुमार में डूबने के बजाय अगले चुनाव का बिगुल फूँककर कार्यकर्ताओं को मानसिक रूप से एक और जीत हासिल करने की तैयारी करने के लिए कह दिया। लेकिन भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल जीतना बिहार जितना आसान नहीं होगा; पश्चिम बंगाल में बिहार की तरह कई पार्टियाँ नहीं हैं और न ही वहाँ कोई दूसरा फैक्टर चलने वाला। हाँ, वहाँ उपद्रव और राजनीति के बाहर के कुछ चुनिंदा लोगों का इस्तेमाल किया जा सकता है। वहाँ ओवैसी फैक्टर का इस्तेमाल भी किया जाना तय लगता है।

मध्य प्रदेश में बची भाजपा सरकार

उत्तर प्रदेश, गुजरात सहित अन्य राज्यों के उप चुनावों में भी भाजपा को ज़्यादातर सीटें

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार बच गयी। प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर हुए उप-चुनावों के नतीजों पर उसका भविष्य टिका था। लेकिन जनता ने दलबदल करवाकर बनायी उनकी सरकार की इ•ज़त रख ली। नतीजों से पता चलता है कि कांग्रेस सरकार गिरवाकर भाजपा में गये ज्योतिरादित्य सिंधिया चम्बल क्षेत्र में अपना समर्थन नहीं बचा पाये।

उप चुनाव में भाजपा को 28 सीटों में से 19 सीटों पर जीत हासिल हुई और शिवराज सरकार ने आसानी से बहुमत हासिल कर लिया। कांग्रेस ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की है। बता दें राज्य में मार्च में ज्योतिरादित्य ने खुद और उनके समर्थक कांग्रेस विधायकों ने त्याग-पत्र दे दिया था; जिससे कमलनाथ की सरकार गिर गयी और शिवराज सिंह ने मध्य में ही अपनी सरकार बना ली। इनमें से सभी विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक थे और वे भी भाजपा में शामिल हो गये थे।

कुल 230 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 116 सीटों की ज़रूरत थी और भाजपा के लिए कम-से-कम 8 सीटें जितनी ज़रूरी थीं। उप चुनाव से पहले भाजपा के पास 107 जबकि कांग्रेस के 87 विधायक थे। अब भाजपा की संख्या 135, जबकि कांग्रेस की 96 हो गयी है। नतीजे आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने शिवराज सिंह को फोन करके बधाई दी।

भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने कहा कि यह प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों की जीत है। गृहमंत्री अमित शाह ने ट्वीट किया कि मध्य प्रदेश उप चुनावों में भाजपा की शानदार जीत पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और मध्य प्रदेश के कर्मठ कार्यकर्ताओं को हार्दिक बधाई। प्रदेश की जनता का भाजपा की विकास-नीति और नरेंद्र मोदी और शिवराज की जोड़ी में विश्वास व्यक्त के लिए धन्यवाद देता हूँ।

जीत के बाद खुद अपने ट्वीट में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ट्वीट में कहा कि यह कांग्रेस के झूठ, फरेब, दम्भ और अहंकार की पराजय है। सत्य परेशान हो सकता है, किन्तु पराजित नहीं। वैसे मध्य प्रदेश उप चुनाव में बड़ी जीत के साथ-साथ भाजपा को झटके भी लगे। शिवराज मंत्रिमंडल में महिला और बाल विकास मंत्री इमरती देवी डबरा विधानसभा सीट से हार गयीं। इमरती देवी को कांग्रेस उम्मीदवार सुरेश राजे ने शिकस्त दी। इमरती चुनाव के बीच तब चर्चा में आयी थीं, जब पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की उन्हें लेकर की गयी एक टिप्पणी से बवाल बच गया था।

इस चुनाव में बसपा कांग्रेस के लिए वोट कटवा साबित हुई। इसी कारण से उसने पाँच सीटों पर जीत भाजपा की झोली में डाल दी। यही कारण रहा कि भाजपा 19 सीट जीती और कांग्रेस के हाथ नौ सीट ही आयीं। अगर बसपा-कांग्रेस साथ लड़ती, तो पाँच सीटों पर परिणाम पलट सकता था। ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस गठबन्धन 14-14 सीट जीतकर बराबरी पर रह सकते थे। भांडेर, जौरा, मल्हरा, मेहगाँव और पोहरी जैसी सीटें देखें, तो वहाँ कांग्रेस की हार के लिए बसपा ही ज़िम्मेदार रही। जौरा में बसपा-कांग्रेस के मतों के फीसद को मिला दें, तो यह भाजपा से 20 फीसदी ज़्यादा निकलेगा। लेकिन वोट बँट जाने की वजह से भाजपा आसानी से जीत गयी।

भाजपा अम्बाह, वालियर, भांडेर, पोहरी, बमोरी, अशोक नगर, मुंगावली, सुरखी, मलहरा, अनूपपुर, साँची, हाटपिपल्या, मांधाता, नेपानगर, बदनावर, जौरा, सुवासरा, मेहगाँव और साँवेर में विजयी रही; जबकि सुमावली, मुरैना, दिमनी, गोहद, डबरा, करैरा, ब्यावरा, आगर, ग्वालियर पूर्व की सीटें कांग्रेस ने जीतीं।

उप चुनाव के बाद अब मध्य प्रदेश में मंत्री बनने की दौड़ शुरू हो गयी है। जीतने के लिए जनता से किये वादों को पूरा करने के साथ मंत्री बनने को आतुर नेताओं को लेकर शिवराज सिंह के सामने दिक्कतें आ सकती हैं। कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए तीन मंत्रियों के चुनाव हारने के बाद मंत्रिमंडल में कुल चार मंत्रियों की जगह खाली है। ऐसे में चार नये विधायकों को मंत्री पद सौंपा जा सकता है; लेकिन मंत्री के रूप में चार पदों के लिए भी करीब आठ लोग दौड़ में शामिल हैं।

शिवराज किसे मंत्रिमंडल में जगह देते हैं? और कौन यह मलाई पाने से वंचित रहता है? यह देखने वाली बात होगी। प्रदेश में चल रही चर्चाओं में विंध्य क्षेत्र के विधायकों का खासा दबाव सामने आ सकता है। वरिष्ठ विधायक गिरीश गौतम तो मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए दावेदारी भी ठोक चुके हैं। उनका कहना है कि शिवराज मंत्रिमंडल में विंध्य को तवज्जो मिलनी चाहिए। वहीं शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में मंत्री रहे संजय पाठक के साथ रामपाल सिंह, राजेंद्र शुक्ला, गौरीशंकर बिसेन, अजय विश्नोई, नागेंद्र सिंह और रमेश मेंदोला भी इस दौड़ में शामिल बताये जा रहे हैं।

हालाँकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए यह काम आसान नहीं होगा। सिंधिया भी चाहते हैं कि उनके लोगों को मंत्रिमंडल में जगह मिले। सिंधिया भाजपा के भीतर अपनी स्थिति मज़बूत बनाये रखना चाहते हैं। उन्हें यह पता है कि प्रदेश भाजपा के कई नेता उनके भाजपा में आने से खुश नहीं हैं और उन्हें काटने की हर सम्भव कोशिश करते हैं। लिहाज़ा वह अपने ज़्यादा-से-ज़्यादा मंत्री बनवाकर खुद की ताकत बनाये रखना चाहते हैं।

उत्तर प्रदेश : उत्तर प्रदेश में सात विधानसभा सीटों पर हुए उप चुनावों में भाजपा ने छ: सीटें जीत लीं; जबकि एक सीट समाजवादी पार्टी के खाते में गयी है। भाजपा ने बांगरमऊ, देवरिया, बुलंदशहर, नौगांवा सादत, टूंडला और घाटमपुर में जीत दर्ज की, जबकि मल्हनी सीट सपा के लकी यादव ने जीती है। कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया और कहा कि पार्टी का प्रदर्शन प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन और प्रेरणा से हुए सेवा कार्यों का सुफल है।

गुजरात : प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में आठों सीटों पर भाजपा जीत गयी। जीत के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने कहा कि यह प्रदर्शन राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों का ट्रेलर है।

तेलंगाना : तेलंगाना में भाजपा ने टीआरएस से सीट छीनकर उसे चौंका दिया। दुब्बाक विधानसभा सीट पर पार्टी उम्मीदवार माधवानेनी रघुनंदन राव ने सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के गढ़ में उसे हरा दिया। सीट टीआरएस के विधायक रामलिंगा रेड्डी की मौत की वजह से खाली हुई थी। इस सीट का महत्त्व इसलिए भी ज़्यादा है, क्योंकि इसके साथ लगती सीट गजवेल मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की है। अब राज्य में भाजपा की दो सीटें हो गयी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने इस जीत को ऐतिहासिक बताया है।

कर्नाटक : दो सीटों पर उप चुनाव हुआ और दोनों भाजपा के खाते में गयींं। सीरा और आरआर नगर विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को हार झेलनी पड़ी।

छत्तीसगढ़ : एक मात्र सीट पर हुए उप चुनाव में सत्ताधारी कांग्रेस को जीत मिली। यह चुनाव मरवाही सीट पर हुआ, जहाँ के.के. ध्रुव विजयी रहे। सीट पूर्व मुख्यमंत्री और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) प्रमुख अजित जोगी के निधन से खाली हुई थी।

झारखण्ड : झारखण्ड में दो सीटों के उप चुनाव में एक सीट कांग्रेस और दूसरी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ने जीती।

ओडिशा : ओडिशा में दो सीटों पर उप चुनाव हुए। दोनों ही सीटें सत्ताधारी बीजू जनता दल के खाते में गयीं।

मणिपुर : नार्थ ईस्ट के राज्य मणिपुर में भी भाजपा का जलवा दिखा। पार्टी ने पाँच में से चार सीटें अपनी झोली में डाल लीं। एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई।

नागालैंड : नागालैंड की दो सीटों पर उप चुनाव हुए थे, जिनमें एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई है, जबकि दूसरी सीट पर नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी की जीत हुई।

किसको, कितने वोट

चुनाव में सबसे ज़्यादा 23.1 फीसदी वोट राजद को मिले। उसे कुल 97 लाख 36 हज़ार 242 लोगों के मत मिले, जिससे वह 75 सीटें जीत सकी। भाजपा को 19.46 फीसदी लोगों ने 82 लाख एक हज़ार 408 मत देकर कुल 74 सीटें दीं। जदयू के पक्ष में 64 लाख 84 हज़ार 414 (15.4 फीसदी) लोगों ने मतदान करके 43 सीटें दीं। कांग्रेस को 39 लाख 95 हज़ार 3 यानी 9.5 फीसदी मतदाताओं ने 19 सीटें प्रदान कीं। लोजपा को 23 लाख 83 हज़ार 457 यानी 5.66 फीसदी मतदाताओं ने अपना मत दिया, लेकिन उसे एक ही सीट मिली। ओवैसी की एआईएमआईएम को 5 लाख 23 हज़ार 279 यानी 1.24 फीसदी मत मिले, जिससे उसे पाँच सीटें हासिल हुईं। इस चुनाव में भाजपा का मत प्रतिशत घटा है; क्योंकि उसे 2015 में 24.42 फीसदी ( 93 लाख 08 हज़ार 15) वोट मिले थे। राजद को इस बार फायदा हुआ; क्योंकि उसे 2015 में 18.35 फीसदी (69 लाख 95 हज़ार 509) वोट मिले थे। कांग्रेस का मत फीसद भी इस बार बढ़ा है; क्योंकि उसे पिछली बार भले उसे ज़्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन उसके पक्ष में केवल 6.66 फीसदी मतदान हुआ था। कमाल वामपंथी दलों ने भी किया, जिन्हें महागठबन्धन के साथ लड़कर बहुत अच्छी कुल 16 सीटें मिलीं, जिनमें 12 माले की हैं। वहीं गठबन्धन में शामिल जीतन राम मांझी की हम को चार सीटें और मुकेश सहनी की वीआईपी को चार सीटें मिली हैं। इसके अलावा एक सीट निर्दलीय को और एक सीट बसपा को मिली है।

एनडीए  महागठबन्धन      लोजपा   एआईएमआईएम            निर्दलीय     बसपा

125      110               1           5                            1          1

एनडीए की सीटों की स्थिति

भाजपा    जदयू     हम       वीआईपी

74        43        4          4

महागठबन्धन की सीटों की स्थिति

राजद    कांग्रेस   वामदल

75        19        16