नकली शोर

मनीषा यादव

tehelka-fulka-bak-bakपांच राज्यों (चैनलों के लिए चार राज्यों) के विधानसभा चुनावों की गहमागहमी तेज हो गई है. चैनल भी मैदान में कूद पड़े हैं. इसका असर न्यूज चैनलों पर भी दिखाई पड़ने लगा है. विधानसभा के साथ-साथ अगले आम चुनावों के लिए अभी से शुरू हो गए प्रचार की सबसे ज्यादा गर्मी चैनलों की स्क्रीन पर महसूस की जा सकती है जहां राजनीतिक दलों और नेताओं के भाषणों, वादों, दावों से लेकर आरोपों-प्रत्यारोपों का शोर-शराबा और ‘दुर-दुर, किट-किट’ लाइव चल रही है. चुनाव क्षेत्र के कस्बों और शहरों से नेताओं-प्रत्याशियों के बीच आयोजित/प्रायोजित टीवी बहसें दंगल में बदल गई हैं जहां फ्री-स्टाइल कुश्ती की तर्ज पर वाक् युद्ध से लेकर मल्लयुद्ध तक सब कुछ जायज है.

उधर, चैनलों के स्टूडियो में भी पारा काफी चढ़ चुका है. रोज एक नया मुद्दा उछलता है और फिर गुम हो जाता है. यही नहीं, चैनलों पर एक के बाद दूसरे और तीसरे दौर के चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भावी विजेता पार्टी और मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री के एलान ने माहौल और गर्म कर दिया है. नतीजा, ओपिनियन पोल खुद एक बड़ा मुद्दा बन गए हैं और उन पर घमासान शुरू हो गया है. ओपिनियन पोल में हारती दिखाई गई कांग्रेस उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रही है जबकि पहले इस पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी कर चुकी भाजपा को आज यह मांग अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला दिख रही है.

चैनलों पर जारी इस उठापटक से ऐसा आभास होता है कि जैसे ये चुनाव जितना जमीन पर नहीं लड़े जा रहे हैं, उससे ज्यादा चैनलों पर लड़े जा रहे हैं. इस अर्थ में, चैनल चुनाव के नए अखाड़े बन गए हैं. हालांकि चुनाव अब भी गांव के चौपालों, कस्बों और शहरों की गलियों-मुहल्लों में ही लड़े जा रहे हैं, लेकिन जमीनी लड़ाई में टिके रहने के लिए जरूरी हवा चैनलों और अख़बारों में ही बनाई जा रही है. इस हवा से अब गांव-गिरांव भी अछूते नहीं हैं. यही कारण है कि पार्टियों और नेताओं के लिए ‘चैनल या मीडिया प्रबंधन’ उनकी चुनावी रणनीति का बहुत अहम हिस्सा हो गया है.

आश्चर्य नहीं कि चैनलों को ध्यान में रखकर ही चुनावी रैलियों का दिन, समय और मंच तैयार हो रहा है. जाहिर है कि पार्टियों और नेताओं के साथ-साथ चैनलों के लिए भी दांव बहुत ऊंचे हैं. एक ओर दोनों बड़ी पार्टियां कांग्रेस व भाजपा और उनके प्रत्याशी पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं तो दूसरी ओर, चैनलों और अखबारों को यह मौजूदा आर्थिक मंदी से उबरने के एक लुभावने मौके की तरह दिखाई दे रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि पेड न्यूज की शिकायतें फिर से आने लगी हैं. उन पर पक्षपात के भी आरोप लग रहे हैं.

खासकर भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की रैलियों को जिस तरह की व्यापक और लाइव कवरेज दी जा रही है और उस पर ‘मुग्ध’ रिपोर्टर और स्टूडियो में बैठे ‘बावले’ एंकर और ‘ज्ञानी’ एक्सपर्ट जिस तरह का ‘स्पिन’ कर रहे हैं, वह चुनावी रिपोर्टिंग या चर्चा कम और ‘मीडिया प्रबंधन’ का एक और नमूना ज्यादा दिख रहा है. यही नहीं, चैनलों ने विधानसभा चुनावों को भी जिस तरह से ‘मोदी बनाम राहुल’ के बीच ‘व्यक्तित्वों की लड़ाई’ के खेल में बदल दिया है, उसमें आम लोगों के जमीनी मुद्दे और सवाल नेपथ्य में चले गए हैं और राजनीतिक विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों की कहीं कोई बात नहीं हो रही है. गोया उनका कोई मतलब नहीं है और सभी मर्जों का इलाज इस या उस मसीहा को चुनने में है.

लेकिन चैनलों को कहां चिंता है कि छिछले आरोप-प्रत्यारोपों में उलझी व्यक्तित्वों की इस नकली लड़ाई के कानफोड़ू शोर-शराबे में जनतंत्र बहरा हुआ जा रहा है और आम लोग एक बार फिर ठगे जा रहे हैं.

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