दो-मुँहा व्यवहार

हाल ही में फेसबुक पर मेरे द्वारा ईद-उल-फ़ितर की मुबारकबाद देने पर एक ख़ुद को ख़ुद ही सम्भ्रांत मानने वाले एक हिन्दू संरक्षक सज्जन ने टिप्पणी लिखी- ‘अरे पंडित जी पंचांग देखकर थोड़ी अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की भी कर लो।’ पहले तो इन महाशय की भाषा देखिए। इससे ही पता चलता है कि इनके संस्कार कैसे हैं? फिर भी मैंने इनको जवाब दिया- ‘भाई साहब! सभी प्रमुख त्योहारों की मुबारकबाद, शुभकामनाएँ देता हूँ। आपने कभी होली, रक्षाबन्धन और दीपावली की शुभकामनाएँ स्वीकार ही नहीं कीं।’ इस पर इनका जवाब आता है- ‘तो आपके पंचांग में आज एक ही त्योहार था क्या इन्हीं बाक़ी नहीं थे।’ इस ‘इन्हीं’ का मतलब समझने की ज़रूरत है। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि इन महाशय के मन में एक मज़हब विशेष को मानने वालों के प्रति कितना ज़ह्र भरा है?

खै़र, इसके बाद मैंने दो और जवाब लिखे। लेकिन फिर इनका मुँह नहीं खुल सका। क्योंकि इनके पास जवाब नहीं था। होता भी कैसे? इन्होंने पिछले चार-पाँच साल की फेसबुक मित्रता में कभी भी न तो मेरे किसी शे’र पर दाद दी, न उसे लाइक किया और न ही सनातन रीति से मनाये जाने वाले किसी त्योहार की मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार कीं। इससे इनकी नाक कटती है। लेकिन नफ़रतें बोने से इनकी शान बढ़ती है। क्योंकि ऐसा करने से नफ़रतों की यूनिवर्सिटी चलाने वाले आकाओं की नज़रों में सम्मान बढ़ता है।

मज़ेकी बात यह है कि इन्होंने ख़ुद भी अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की शुभकामनाएँ अपनी फेसबुक वॉल पर नहीं दीं। क्यों? क्योंकि इनके सम्बन्ध मुस्लिमों से भी ठीक-ठाक हैं। उनके साथ अच्छा-ख़ासा उठना-बैठना है। उन्हें ऐसे लोग फोन करके ईद-उल-फ़ितर (मीठी ईद) की ही नहीं, ईद-उल-अज़हा (बकरा ईद) की भी मुबारकबाद कहीं एक अदद दावत मिलने की ख़्वाहिश में देते हैं। बस दूसरों को नफ़रत की भट्ठी में झोंकना इनका काम है। वैसे तो इन महाशय के बारे में भी बहुत कुछ जानता हूँ। लेकिन उस सबका ज़िक्र यहाँ ठीक नहीं। दरअसल इस तरह के लोग लालची होते हैं। इन्हें जहाँ बोटी मिलेगी, वहाँ सब ठीक है; और जहाँ भाव नहीं मिलेगा, वहाँ सब कुछ ग़लत है। वैसे भी महोदय ऐसे विभाग से जुड़े हैं, जहाँ बहुत-से लोग ईमानदार होते ही नहीं हैं।

खै़र, किसी की ईमानदारी और बेईमानी से मुझे क्या लेना-देना। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसे लोगों को समाज में रहने का हक़ है? क्या यह लोग शान्तिपूर्ण और इंसानियत भरे माहौल के लिए घातक नहीं हैं? क्या ऐसे लोगों की वजह से ही अलग-अलग धर्मों को मानने वालों के बीच बैर-भाव नहीं बढ़ रहा है? क्या ऐसे लोग देश की सही मायने में पूरी ईमानदारी से रक्षा करते होंगे? क्या ऐसे लोग दूसरों के साथ समता भरा व्यवहार करते होंगे? मेरे ख़याल से तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि जो व्यक्ति ख़ुद सही नहीं है, वह दूसरों को सही रास्ता क्या दिखाएगा? कभी दिखा ही नहीं सकता। और ऐसे लोग हमारे समाज में ही किसी कंटीले जाल की तरह नहीं फैले हैं, बल्कि बड़े-बड़े ओहदों पर भी बैठे हैं; जिनका वे मनमाने तरीक़े से दिन-रात दुरुपयोग करते हैं।

यही वजह है कि आज समाज में एक ईमानदार आदमी न तो चैन से रोटी खा पाता है और न सम्मानजनक जीवन जी पाता है। ऐसे लोगों को सही मायने में यह भी पता नहीं होता कि धर्म है क्या? ज़ाहिर है जब किसी को यही नहीं मालूम होगा कि धर्म क्या है? तो वह उस पर अमल भी कैसे कर सकेगा? या अगर दारोग़ा के पद पर किसी जेबक़तरे को बैठा दिया जाए, तो ज़ाहिर है वह किसी भी ईमानदार के पक्ष में कभी फ़ैसला नहीं करेगा, बल्कि उल्टा उसे ही जेल भेज देगा। दरअसल ऐसे लोग कभी भी किसी के साथ न्यायोचित और अच्छा व्यवहार नहीं कर सकते, जब तक कि वह पैसे या शोहरत या ताक़त में बड़ा न हो या फिर जब तक उससे इन्हें कोई मतलब न हो।

ऐसे ही मेरे एक और परिचित हैं। इन सज्जन के व्यवहार की दाद देनी होगी। यह सज्जन अपनी जाति के लोगों पर जान छिडक़ते हैं, लेकिन अगर कोई मेरे जैसा सच कहने वाला मिल जाए, तो उससे भी अन्दर-ही-अन्दर गहरी दुश्मनी मानने लगते हैं। इन्हें अपनी जाति में भी वही लोग पसन्द हैं, जो या तो इनकी हाँ-में-हाँ मिलाएँ या फिर इनके काम के हों। इनकी आदत मुँह में राम, बग़ल में छूरी वाली है। इनके चाल-चरित्र का यहीं से पता चलता है कि जब पिछली सरकार में इनकी सरकारी नौकरी लगी थी, तब यह उस सरकार वाली पार्टी के बहुत बड़े भक्त हुआ करते थे और एक शब्द उसके ख़िलाफ़ नहीं सुन सकते थे। लेकिन अब सत्ताधारी पार्टी के कट्टर समर्थक और सीधे-सादे भक्त हैं। एक भी शब्द उसके ख़िलाफ़ बर्दाश्त नहीं करते, चाहे उसमें कितनी भी सच्चाई हो।

ऐसे लोगों को आप क्या कहेंगे? लेकिन मैं ऐसे लोगों को दो-मुहा मानता हूँ। क्योंकि इनका जब जिधर काम निकलता है, तब उधर वाले का मुँह चाटने लगते हैं और जब जिधर से इन्हें लाभ होता नहीं दिखता, तब उधर वालों को मौक़ा लगते ही काटने की फ़िराक़ में रहते हैं। यानी सही मायने में ये लोग अपनों के भी नहीं होते, सिर्फ़ मौक़ापरस्त होते हैं। ज़ाहिर है मौक़ापरस्त लोग किसी के भी सगे नहीं हो सकते।ऐसे लोगों से मैं इतना ही कहूँगा कि पहले तो अपना व्यवहार बदलिए, अपने गिरेबान में झाँकिए, अपने चाल-चरित्र को साफ़-सुथरा कीजिए, उसके बाद किसी और को समझाइए कि वह कहाँ ग़लत है और कहाँ सही? कहने का मतलब यह है कि पहले अपना दो-मुहा व्यवहार बदलिए। क्योंकि कभी-कभार ऐसे लोग सिर्फ़ चालाक सियासतदानों द्वारा इस्तेमाल करके फेंक दिये जाते हैं।