दो पाटन के बीच – किसान आन्दोलन से हरियाणा में भाजपा-जजपा गठबन्धन पर दबाव

किसान आन्दोलन कहीं हरियाणा में भाजपा-जजपा गठबन्धन की बलि न ले ले। कुछ लोग इसकी सम्भावना और कुछ इसकी आशंका जताने लगे हैं। सरकार संकट में है इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता, मगर वह रहेगी या जाएगी? इसको लेकर अटकलों का दौर जारी है। माना जा रहा है कि अगर किसान आन्दोलन लम्बे समय तक जारी रहता है और किसान किसी सम्मानजनक समझौते पर राज़ी नहीं होते हैं, तो जजपा और निर्दलीय (आज़ाद) विधायक सरकार से किनारा कर सकते हैं। दादरी से विधायक सोमवार सांगवान ने न केवल सरकार से समर्थन वापस ले लिया है, बल्कि हरियाणा पशुधन विकास बोर्ड के चेयरमैन पद से भी इस्तीफा दे दिया है। जजपा कमोबेश दो नावों की सवारी कर रही है। कहते हैं कि ऐसा करने वाला अक्सर डूबता ही है। सत्ता का मोह राजनेताओं से क्या कुछ नहीं करा देता। उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला दुविधा में हैं कि वह ऐसा क्या बीच का रास्ता निकालें, जिससे किसानों का समर्थन हो जाए और पार्टी सरकार में भागीदार भी बनी रहे।

नीलोखेड़ी से निर्दलीय विधायक धर्मपाल गोंडर ने किसानों की माँगों को सही ठहराते हुए उनका समर्थन कर दिया है। कई निर्दलीय विधायक किसान आन्दोलन का समर्थन कर चुके हैं; लेकिन अभी सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आ रहे हैं। वे सरकार के साथ बने भी रहना चाहते हैं और किसानों को समर्थन भी दे रहे हैं। बिजली और जेल मंत्री रणजीत सिंह पर किसानों का समर्थन करने का भारी दबाव है, लेकिन वे किसी भी बयान से बच रहे हैं। एक तरफ मंत्री पद है, तो दूसरी तरफ अपने ही समुदाय का आन्दोलन। वह किसान परिवार से आते हैं। वह पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल के बेटे हैं और राज्य के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के दादा। दादा-पोते फिलहाल बीच का रास्ता अपना रहे हैं। उनकी इच्छा है कि किसी तरह जल्दी आन्दोलन निपट जाए, लेकिन बात बन नहीं रही है।

जजपा के बरवाला से विधायक जोगी राम सिहाग ने अक्टूबर में हरियाणा हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन पद आन्दोलन के चलते स्वीकार नहीं किया है। नारनौद से पार्टी के वरिष्ठ विधायक और बेबाक टिप्पणी करने वाले रामकुमार गौतम किसान आन्दोलन को जायज़ ठहराते हुए उनके समर्थन में डटे हैं। गुहला चीका से ईश्वर सिंह, जुलाना से अमरजीत ढांढा और शाहबाद से रामकरण काला किसान आन्दोलन के समर्थन में हैं। पार्टी नीति के चलते वह खुलकर विरोध नहीं कर रहे। दुष्यंत समेत सभी 10 विधायकों पर किसान आन्दोलन का साथ देने का भारी दबाव है। कुछ खाप पंचायतें भी इस काम मेंं जुट गयी हैं। इसमें आन्दोलन के साथ राजनीति भी है। सरकार में भागीदार जजपा विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ किसानों के वोटों से ही 10 सीटें जीतने में सफल रही थी। अब वही किसान वर्ग उन्हें अपने साथ आने की कह रहा है।

केंद्र के नये कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आन्दोलन अब कमोबेश जन आन्दोलन बन चुका है। इसमें आमजन की भागीदारी तो नहीं, लेकिन समर्थन पूरा है। कहीं कोई विरोध नहीं है। इसका कारण आन्दोलन को सुनियोजित तरीके से चलाना रहा। किसान आन्दोलन को हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और अन्य कुछ राज्यों के किसानों का समर्थन है। दिल्ली कूच से पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर कहते रहे कि आन्दोलन में हरियाणा के किसान शामिल नहीं हैं। अब तो हरियाणा के किसान भी खुले तौर पर शामिल होने का ऐलान कर चुके हैं।

हरियाणा में सरकार के प्रमुख घटक जजपा (जननायक जनता पार्टी) के विधायकों पर किसानों के समर्थन में बयान जारी करने और कृषि कानूनों को रद्द करने का दवाब बढ़ता जा रहा है। बयान तो जजपा प्रमुख अजय चौटाला दे चुके हैं। वे केंद्र से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की अपील कर चुके हैं। उनके पुत्र और राज्य के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तो कई बार ऐसा कह चुके हैं, लेकिन लोगों ने उनकी बात अनसुनी कर रखी है। जजपा समर्थकों का एक वर्ग सरकार में बने रहने का इच्छुक है, वहीं कुछ उससे नाता तोड़कर किसान आन्दोलन से जुडऩे के हिमायती हैं।

जजपा अन्तिम समय तक सरकार में बनी रहने की इच्छुक लगती है। वह दो नावों की सवारी जैसा काम कर रही है। वह किसानों की माँगों के समर्थन में भी है; लेकिन खुले तौर पर उनके साथ नहीं आना चाहती। वह न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग को ही प्रमुखता दे रही है; लेकिन किसानों की माँग तो कृषि कानूनों को वापस लेने की है। आशंका इस बात की भी है कि कहीं जजपा में ही दरार न आ जाए। क्योंकि कई विधायकों पर खुले तौर पर किसानों के समर्थन में आने का भारी दबाव है। चार विधायकों ने तो पार्टी लाइन से हटकर समर्थन दे ही दिया है। आन्दोलन का कोई सम्माजनक हल नहीं निकला, तो जजपा पर यह खतरा मँडराता रहेगा और साथ में सरकार पर भी। चाहे अब किसान आन्दोलन में पंजाब की भागीदारी सबसे ज़्यादा है, लेकिन इसकी शुरुआत हरियाणा में हुई। सितंबर के पहले पखवाड़े के दौरान पिपली (कुरुक्षेत्र) में सबसे पहले नये कृषि कानूनों के खिलाफ हरियाणा के किसान ही सड़क पर उतरे। पुलिस से बल प्रयोग से सरकार की काफी किरकिरी हुई। तब सरकार नहीं, बल्कि भाजपा संगठन ने किसानों को समझाने का प्रयास किया। तब तक पंजाब में आन्दोलन की हवा भी नहीं थी। उसके बाद ही पंजाब में किसान यूनियनें सक्रिय हुईं और आन्दोलन को नयी दिशा दी। आन्दोलन में पंजाब सबसे आगे है। इसकी एक वजह वहाँ की कांग्रेस सरकार और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी हैं। वह शुरू से किसान आन्दोलन के पक्ष में हवा बना रहे हैं।

किसानों के साथ तो वहाँ शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और आम आदमी पार्टी (आप) भी है; लेकिन उन्हें ज़्यादा श्रेय नहीं मिल पा रहा है। शिअद तो मूल रूप से किसानों की ही पार्टी है। शिअद की केंद्र में मंत्री रहीं हरसिमरत कौर बादल पहले ही इस मुद्दे पर इस्तीफा दे चुकी हैं। दशकों से भाजपा के साथ शिअद को इस मुद्दे पर अब सामने खड़ा होना पड़ रहा है। राजनीतिक दल मजबूरी के चलते किसानों के साथ खड़े हैं। उनके राजनीतिक हित भी है। हरियाणा में कांग्रेस सत्ता में आने को उतावली है। वह मौके की तलाश में है; लेकिन वह सरकार बनाने की हालत में बिल्कुल नहीं है। उसके लिए बहुमत का आँकड़ा जुटाना काफी मुश्किल है। ऐसे में फिर से विधानसभा चुनाव ही विकल्प बचता है। वह भी ऐसी सूरत में, जब बातचीत पूरी तरह से नाकाम साबित हो जाए। केंद्र सरकार बीच का रास्ता निकाल आन्दोलन को शान्त करने के प्रयास में जुटी है। उसकी नीति कृषि कानूनों में संशोधन करके किसी तरह किसान यूनियनों को राज़ी करने की है; लेकिन बात बन नहीं रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर बात बन सकती है और इसकी सम्भावना सबसे ज़्यादा है।

केंद्र सरकार ने पाँचवें दौर की बातचीत में कृषि कानूनों को वापस न लेने की स्पष्ट बात भी कही। किसान तीनों कानूनों को वापस लेन की माँग पर अड़े हैं। यह किसानों को भी पता है कि समझौता कृषि कानूनों में संशोधन और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर ही होगा, लेकिन वे अन्तिम समय तक दबाव बनाये रखेंगे। भारतीय किसान यूनियन की हरियाणा इकाई के प्रमुख नेता गुरनाम सिंह चढूनी तो दिल्ली चलो अभियान से हतप्रभ हैं। वह कहते हैं कि ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी कि आन्दोलन इतना ज़ोर पकड़ लेगा और हम सरकार को बातचीत के लिए विवश कर देंगे। बहुत बार आन्दोलन सोच के विपरीत बड़े हो जाते हैं और कई बार ऐसे आन्दोलन, जिनके जनान्दोलन बनने की उम्मीद होती है, नाकाम साबित होते हैं। बड़े किसान नेता रहे स्व. महेंद्र सिंह टिकैत दिल्ली में ऐसे कई आन्दोलन कर चुके हैं, लेकिन वह विगत की बात है। अब उनके बेटे राकेश टिकैत किसानों का नेतृत्व कर रहे हैं। कई दशकों में यह पहला किसान आन्दोलन है, जिनमें आम लोगों का पूरी सहानुभूति उनके साथ है। किसान आन्दोलन का कोई एक छत्र नेता नहीं है, बल्कि 40 से ज़्यादा किसान यूनियनें हैं; जिनके पदाधिकारी आन्दोलन चला रहे हैं। इनमें आपसी मतभेद भी हैं, लेकिन अब तक किसी तरह से सहमति बनाये हुए हैं। किसानों ने दिल्ली में प्रवेश किये बिना एक तरह से दिल्ली को चारों तरफ से घेर लिया है। वे कृषि कानूनों के खिलाफ किसी तरह की हिंसा करने के बिल्कुल पक्ष में नहीं है। सरकार भी नहीं चाहती कि आन्दोलन हिंसक हो और बल प्रयोग से उसे दबाने की नौबत आये। बातचीत के कई दौर हो चुके हैं, कहीं भी सहमति नहीं बन रही; लेकिन दोनों पक्षों को समझौते की उम्मीद है।

पंजाब में कांग्रेस एक तीर से कई निशाने साध रही है। कैप्टन ने तो राज्य विधानसभा में केंद्र के तीनों कृषि कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव पास करके राज्यपाल को भेज दिया था। केंद्रीय कानून को कोई राज्य सरकार चुनौती नहीं दे सकती। यह बात कैप्टन बखूबी जानते हैं; लेकिन वह दिखाना चाहते थे कि कांग्रेस उनके समर्थन में खड़ी है। वह राज्य में रेल यातायात बहाल कराने में सफल रहे। हरियाणा के रास्ते दिल्ली कूच कर रहे पंजाब के किसानों पर करनाल, पानीपत और सोनीपत में पुलिस के बल प्रयोग पर कैप्टन ने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की खूब आलोचना भी की। अब हालत यह है कि मुख्यमंत्री खट्टर को अपने ही गृह क्षेत्र करनाल में भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

देखना होगा कि केंद्र कब किसानों को समझौते के लिए राज़ी करती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी और मंडी व्यवस्था को कायम रखने के संशोधन पर किसान यूनियनें सहमत हो सकती है। केंद्र सरकार भी किसानों के धैर्य की परीक्षा ले रही है। आन्दोलन कहीं गलत दिशा में चला गया, तो फिर बातचीत से हल निकलने की कोई सम्भावना नहीं बचेगी। लगभग ढाई माह का आन्दोलन अब सफल होता दिख रहा है, उम्मीद की किरण नज़र आ रही है। देर-सबेर कुछ-न-कुछ रास्ता तो निकलने की उम्मीद है ही।

बहुमत का आँकड़ा

हरियाणा विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं। बहुमत के लिए 46 का आँकड़ा होना चाहिए। विस चुनाव में भाजपा को 40, कांग्रेस को 31, जजपा को 10, इनेलो एक, हरियाणा लोकहित पार्टी एक और निर्दलीय विधायकों को सात सीटें मिलीं। किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। जजपा के 10 और सात निर्दलीय विधायकों ने भाजपा को समर्थन दिया, तब आँकड़ा 57 तक पहुँचा और सरकार बनी। अब अगर राज्य में गठबन्धन की सरकार अस्थिर होती है, तो जोड़-तोड़ से कांग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में तो आ सकती है; लेकिन यह इतना आसान भी नहीं होगा। जब तक जजपा का समर्थन है, सरकार चलती रहेगी। लेकिन घटनाक्रम बदलता है, तो सरकार खतरे की जद में आ जाएगी।