दोहरी चुनौतियों के बीच अँधेरे में अर्थ-व्यवस्था

कहते हैं कि जब भी कोई समस्या आती है तो चारों तरफ से आती है, जिसका अगर समय रहते सामना न किया जाए तो भयानक रूप धारण कर लेती है। कोरोना महामारी से उपजे संकट से भारत में जो दिक्कतें आ रही हैं, उनका केंद्र सरकार, राज्य सरकारों सहित सभी नागरिक सामना कर रहे हैं। चाहे वो स्वास्थ्य के क्षेत्र में हों या बाज़ार के क्षेत्र में हों। लेकिन इस समय देश तीन समस्याओं से जमकर जूझ रहा है। इनमें एक है- कोरोना के लगातार बढ़ते मामले, दूसरी है- भारत की लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था, तीसरी है- चीन से निपटने की चुनौती। ऐसे में सरकार अपनी गलतियों पर गौर करे और छोटे-बड़े व्यापारियों को सुविधा दे, जीएसटी में संशोधन करे, किसानों को बढ़ावा दे और उनकी माँगों पर अमल करे, तो अर्थ-व्यवस्था में सुधार हो सकता है।

तहलका संवाददाता ने लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था और चीन की चालों पर जानकारों से बात की है, उनका कहना है कि यह कहना बहुत कठिन है कि अर्थ-व्यवस्था को कब तक पटरी पर लाया जा सकता है। पर इतना ज़रूर है कि अगर सरकार अपनी नीतियों में सुधार करे और धैर्य तथा सूझ-बूझ के साथ काम ले, तो आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। रहा सवाल चीन की चालों का, तो उस पर चौकसी रखनी होगी। वैसे चीन कभी इतना साहस नहीं कर सकता है कि वह भारत से युद्ध कर सके। क्योंकि हमारे जवान अपना बेहतर शक्ति-प्रदर्शन करके कई बार चीनी सैनिकों को खदेड़ चुके हैं।

अगर हम अपने देश की लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था की बात करें, तो कहना गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने कुछ गलतियाँ भी की हैं; जैसे कि अचानक लॉकडाउन करना। इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा बुरा असर पड़ा है। लेकिन सरकार ने कुछ सुधार भी किये हैं; जैसे कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों के माध्यम से तरलता और सरलता लाने के लिए किये गये प्रयास अर्थ-व्यवस्था के लिए मददगार रहे हैं। आरबीआई की रेगुलेटरी पॉलिसी से भी अर्थ-व्यवस्था में मज़बूती आयी है। लेकिन अभी जो खबर आयी कि वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में अर्थ-व्यवस्था में 23.9 फीसदी तक का जो संकुचन हुआ है, उससे देशवासियों के साथ-साथ अर्थशास्त्री भी विस्मित हैं। इस पर भले ही सियासत हो रही हो, पर यह देश का संवेदनशील मुद्दा है। जीडीपी में गिरावट में एक मात्र क्षेत्र कृषि ही लगभग बचा रहा है, जो अब भी 3.4 फीसदी की दर पर है। जीडीपी गिरावट में कोरोना महामारी मूल जड़ में है।

दरअसल मार्च के अंतिम सप्ताह के बाद से मई तक हुए लॉकडाउन से देश के तमाम व्यापारिक संस्थानों के बन्द रहने और पैसे का लेन-देन पूरी तरह से बन्द होने से से अर्थ-व्यवस्था चौपट हुई और जीडीपी में इतनी बड़ी गिरावट आ गयी। लेकिन अनलॉक से बाज़ारों में लौटती रौनक से भी अब लगता है कि अगली तिमाही में भी अर्थ-व्यवस्था पर कोई विशेष सुधार नहीं होगा। लेकिन जीडीपी में गिरावट का आकार कम होगा, जिसकी उम्मीद भी है। आर्थिक मामलों के जानकार सुरेश सिंह का कहना है कि जब भी देश में आर्थिक संकट या मंदी आयी है, तब-तब भारतीय किसानों ने अपनी मेहनत के दम पर भारतीय अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती दी है। फिर भी सरकारों ने सदैव किसानों की माँगों और समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया है। कोरोना-काल में सम्पूर्ण लॉकडाउन के दौरान किस प्रकार किसानों को परेशानी हुई। उन्हें पुलिस ने भी किया, यह किसी से छिपा नहीं है। किसानों को अपनेअनाज को ही बेचने लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

आर्थिक मामलों के एक और जानकार राज के. आनन्द का कहना है कि सरकार ने जब 25 मार्च को लॉकडाउन किया था, तब ही यह सवाल उठा था कि अर्थ-व्यवस्था का क्या होगा? लेकिन तब यह भी बात सामने थी कि बीमारी से जान बचाना ज़रूरी है। जो दूसरे राज्यों में मेहनत-मज़दूरी करके अर्थ-व्यवस्था को सहारा देते रहे हैं, उनको काम देने में सरकार असफल रही और एक ऐसा माहौल बन गया कि मज़दूर अपनी जान पर खेलकर अपने-अपने घर जाने को मजबूर हो गये। ऐसे में सरकार को आगामी आर्थिक संकट से निपटने के लिए सटीक नीति की आवश्यकता है। छोटे कारोबार की सहायता के लिए व्यापक प्रोत्साहन की ज़रूरत है। व्यापारी नेता राकेश यादव का कहना है कि देश में कोरोना महामारी से जो व्यापारियों की दुर्गति हुई है, उससे आर्थिक हालात नाज़ुक हुए हैं। एक दम बाज़ार व उद्योग बन्द होने से लोगों की नौकरी चली गयी, जिससे हाथ में पैसा नहीं रहा और लेने-देन ठप हो गया था। छोटे और बड़े व्यापारियों के सामने फिलहाल उम्मीद जागी है कि इस त्योहारी सीजन में नवदुर्गा, दशहरा और दीपावली के अवसर पर कुछ कमायी हो जाए, तो व्यापारियों के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था सुधर जाए। अन्यथा तो मुश्किल ही है। क्योंकि जिस गति से कोरोना वायरस फैल रहा है, उससे अब व्यापारियों को डर लग रहा है कि कहीं फिर से कोई दिक्कत न हो जाए। इस डर की एक और बड़ी वजह भारत में असंगठित उद्योगों की संख्या को ज़्यादा होना भी है। कोरोना महामारी की मार इन्हीं असंगठित उद्योगों पर सबसे अधिक पड़ी है। इनके पास धन की कमी व आय के साधन कम होने से आगे भी तामाम तरह का संकट और चुनौतियाँ हैं। मौज़ूदा समय में लोग आतंकित और आशंकित हैं, क्योंकि कोरोना वायरस ने आतंक मचा रखा है और आर्थिक संकट ने आशंकाओं के घने बादल खड़े कर दिये हैं। ऐसे में बाज़ारों में रौनक की उम्मीद कम ही है। बाज़ारों में छायी उदासी को लेकर व्यापारी नेता पीयूष कुमार गुप्ता का कहना है कि केंद्र सरकार बड़ी भूल यह कर रही है कि वह सही मायनों में व्यापारियों की समस्याओं का समाधान नहीं कर रही है। जैसे कि जीएसटी को लेकर जो पेच फँसा है, जिसका समाधान नहीं हुआ है। इसके चलते व्यापारियों को तमाम अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है और व्यापार लडख़ड़ा रहा है। उनका कहना है कि कोरोना-काल के पहले ही देश में आर्थिक मंदी रही है। सरकार ने कहने को तो आर्थिक सुधार के लिए काम किया है, लेकिन उसमें व्यापारियों की अनदेखी की है; जिससे अर्थ-व्यवस्था फिसलती गयी है।

रही बात चीन की चालों की, तो इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत और चीन के बीच कभी भी परस्पर सौहार्द नहीं रहा है। चीन छल-कपट करता ही रहा है। वैसे चीन ने ही कोरोना का संकट पैदा किया है। चीन ने अपनी चाल से ऐसे समय पूरी तरह अमानवीयता का परिचय दिया है। आज जब सारी दुनिया जीवन के लिए संघर्ष कर रही है, उसने मौके का गलत फायदा उठाते हुए पहले भारत के गलवान और अब लद्दाख क्षेत्र में घुसपैठ करने की कोशिशें की हैं। लेकिन भारतीय सेना ने उसे करारा जबाव दिया है। सदर बाज़ार से व्यापारियों का कहना है कि कोरोना की दस्तक के पहले तो चीन भारत के व्यापार में इस कदर घुसा था कि ज़्यादातर व्यापार उसी पर आश्रित था। अब ऐसे हालात है कि चीन के समान से ही नहीं, बल्कि चीन से ही नफरत हो गयी है। व्यापारियों का कहना है कि पहले की सरकारें और मौज़ूदा केंद्र सरकार का पहला शासनकाल तो चीनी हरकतों और व्यापार के प्रति कभी गम्भीर ही नहीं रहा। कोरोना वायरस ने और सीमा विवाद के बाद सरकार के सख्त तेवर देखने को ही मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ज़रूर आत्मनिर्भर और खिलौना उत्पादन पर बल दिया है, लेकिन इस काम को करने के लिए संसाधन और धन की ज़रूरत होती है।

सर्वविदित है कि देश में काम शुरू करने के पहले कितनी दिक्कतें होती हैं? खासकर उन लोगों को, जो नये सिरे से काम करते हैं। ऐसे में सरकार को रियायत देने के बारे में जानकारी देनी चाहिए। आत्मनिर्भर की बात तो प्रधानमंत्री करते हैं, लेकिन मौज़ूदा दौर में जिस तरीके से काम चल रहा है, क्या उससे बेरोज़गार लोग आत्मनिर्भर हो सकते हैं। चाटर्ड अकाउंटेंट रमेश कुमार का कहना है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था 40 साल के सबसे बुरे दौर में है। देश पिछले कई वर्षों से मंदी के दौर से गुज़र रहा था, लेकिन लॉकडाउन की वजह से बिना तैयारी के अचानक बन्द किया गया, जिससे देश में करोड़ों लोगों की नौकरी चली गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि अर्थ-व्यवस्था चौपट हो गयी और अब जीडीपी औंधे मुँह गिर गयी, जिससे जल्दी उबर पाना बहुत ही मश्किल है। जीडीपी और अर्थ-व्यवस्था की ऐतिहासिक गिरावट पर कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी ने कहा कि जीएसटी कोई कर प्रणाली नहीं है, बल्कि भारत के गरीबों, किसानों श्रमिकों और छोटे-बड़े व्यापारियों पर हमला है। जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स करार देते हुए उन्होंने कहा कि यह भारत की असंगठित अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा हमला है। राहुल गाँधी ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह गिने-चुने बड़े उद्योगपतियों की भलाई करने वाली सरकार है।

तहलका संवाददाता को कुछ किसानों ने बताया कि सरकार को अब भी समझना चाहिए कि देश की अर्थ-व्यवस्था में देश के अन्नदाता का बड़ा योगदान है। फिर भी आज का किसान अपने खेती उत्पादों को उचित दामों में नहीं बेच पाता है। इसकी वजह सरकार द्वारा किसानों की अनदेखी है। किसान राहुल का कहना है कि किसानों के लिए जो भी पहल सरकार कर रही है, वो पर्याप्त नहीं है। सरकार को अगर सही मायने में किसान की मदद करनी है, तो प्रदेश स्तर से लेकर ज़िला स्तर तक किसानों के लिए अलग से बोर्ड स्थापित करके देश भर के सभी छोटे-बड़े किसानों की समस्याओं को ठीक से सुनकर उनका समाधान करना होगा।