दोराहे पर घाटी

कश्मीरी पंडितों के पलायन से केंद्र की नीति पर सवाल

कश्मीर में हाल की घटनाओं, जिनमें कश्मीरी पंडितों का पलायन भी शामिल है; ने घाटी से लेकर दिल्ली तक चिन्ता पैदा की है। यह सब तब शुरू हुआ है, जब घाटी में जाने वाले पर्यटकों की संख्या हाल के वर्षों में सबसे अधिक है। चिह्नित हत्यायों के दौर से संकेत मिलता है कि आतंकी गुट अपनी रणनीति बदलकर काम कर रहे हैं। हाल में जम्मू-कश्मीर में हुए परिसीमन ने घाटी के लोगों के मन में आशंकाएँ भरी हैं। महसूस किया जा रहा है आतंक रोकने के लिए कि केंद्र सरकार के लिए यह ज़रूरी है कि वह सुरक्षा की नीति से इतर और उपायों पर भी विचार करे। श्रीनगर से रियाज़ वानी की ग्राउंड रिपोर्ट :-

घाटी में कश्मीरी पंडितों सहित आम नागरिकों की हत्याओं ने देश भर में कोहराम मचा दिया है। कई कश्मीरी पंडित जो प्रधानमंत्री पैकेज के तहत नौकरी करने के लिए कश्मीर लौटे थे, उन्होंने हाल की घटनाओं के बाद घाटी छोड़ दी है; जिससे केंद्र सरकार की उन्हें उनकी मातृभूमि में फिर से बसाने की योजना खटाई में पड़ गयी है।

हालाँकि केवल कश्मीरी पंडितों पर ही हमला नहीं किया गया है। आतंकवादियों ने कश्मीरी मुस्लिम नागरिकों, जम्मू और कश्मीर पुलिसकर्मियों, प्रवासी मज़दूरों और जम्मू और भारत के अन्य हिस्सों के हिन्दुओं को भी अपनी हिंसा का शिकार बनाया है।
ताज़ा घटनाओं में आतंकवादियों ने जम्मू सम्भाग के सांबा की एक स्कूल शिक्षक रजनी बाला और राजस्थान के विजय कुमार बेनीवाल, इलाकाई देहाती बैंक के प्रबंधक की हत्या की है। पिछले महीने एक कश्मीरी पंडित सहित लक्षित हमलों में आतंकवादियों ने नौ नागरिकों को मार डाला। वहीं सुरक्षा बल अब तक हत्यायों को रोकने में नाकाम रहे हैं। समझा भी जा सकता है कि उनके लिए घाटी में अल्पसंख्यक समुदाय के एक-एक सदस्य को सुरक्षित रखना आसान नहीं होगा।

जम्मू-कश्मीर सरकार के लिए चीज़ों को और कठिन बनाने वाली बात यह है कि एक विशेष पैकेज के तहत 4,000 पंडित कर्मचारियों की भर्ती की गयी है; लेकिन हाल की घटनाओं के बाद ये सभी नये सिरे से पलायन के कगार पर हैं। इसी तरह जम्मू सम्भाग के विभिन्न ज़िलों के क़रीब 8,000 कर्मचारी एक अन्तर-ज़िला स्थानांतरण नीति के तहत कश्मीर में काम कर रहे हैं और उनमें से अधिकांश ग़ैर-मुस्लिम हैं। भले सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया है; लेकिन उन्हें इस पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं मिल रहा है। पंडित कर्मचारी अब चाहते हैं कि सरकार उस बांड को रद्द कर दे, जो उन्हें अपने रोज़गार के दौरान घाटी में स्थायी रूप से रहने के लिए बाध्य करता है। वे चाहते हैं कि पद (पोस्ट) को हस्तांतरणीय बनाया जाए।

उत्तरी कश्मीर के बारामूला में एक हिन्दू कश्मीरी पंडित कॉलोनी के अध्यक्ष अवतार कृष्ण भट्ट ने मीडिया को बताया कि सुरक्षा की भावना के अभाव में पंडितों को भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन्होंने कहा- ‘कॉलोनी में रहने वाले 300 परिवारों में से लगभग आधे ने हाल ही में हुई हत्या की होड़ के बाद घाटी छोड़ दी थी।’ कश्मीरी पंडितों ने भी जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा और कश्मीर के बाहर पोस्टिंग की माँग को लेकर दिल्ली तक विरोध प्रदर्शन किये हैं।

प्रधानमंत्री का पैकेज
साल 2008 के आसपास तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटने के एवज़ में नौकरी और वित्तीय सहायता की पेशकश की थी। पंडितों को प्रति परिवार 7.5 लाख रुपये की प्रारम्भिक वित्तीय सहायता दी गयी थी, जिसे बाद में घाटी में बसने वालों के लिए तीन किस्तों में बढ़ाकर 20 से 25 लाख रुपये कर दिया गया था।

सरकार ने घाटी के विभिन्न हिस्सों में लौटने वाले कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए सुरक्षित, अलग-अलग एन्क्लेव बनाये। योजना सफल साबित हुई। जो पंडित कार्यरत थे और उनके परिवारों ने इन परिक्षेत्रों में निवास किया, वे मुसलमानों के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में अपने-अपने धार्मिक / सामाजिक आयोजनों में भी शामिल हुए। लेकिन किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं।

बाहरी लोगों और अल्पसंख्यकों की हत्याएँ नई दिल्ली के अनुच्छेद-370 को रद्द करने के बाद शुरू हुईं, जिसने जम्मू और कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर एक अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया। पांच अगस्त, 2019 को विशेष संवैधानिक पद वापस लेने के दो महीने के भीतर आतंकवादियों ने सेब व्यापार से जुड़े तीन ग़ैर-स्थानीय लोगों को मार डाला। इसने अस्थायी रूप से घाटी के फल उद्योग को संकट में डाल दिया, जिसका सालाना कारोबार 10,000 करोड़ रुपये है; जिसे घाटी की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ माना जाता है। हत्याओं ने बाहर से यहाँ आकर काम कर रहे ट्रक ड्राइवरों और सेब व्यापारियों को पलायन के लिए मजबूर कर दिया और स्थिति को फिर सामान्य होने में समय लगा। तब ऐसी ख़बरें आयी थीं कि उग्रवादियों ने स्थानीय फल उत्पादकों को बाहरी लोगों को काम पर नहीं रखने के लिए कहा था।

हालाँकि बाद में हत्याएँ कम हो गयीं; लेकिन आतंकी जल्द ही बिहार और भारत के अन्य हिस्सों के मज़दूरों की हत्याओं के साथ फिर सक्रिय हो गये। स्थिति तब चिन्ताजनक हो गयी, जब 31 दिसंबर, 2020 को आतंकवादियों ने एक हिन्दू सुनार की हत्या कर दी। पिछले साल भी उन्होंने प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित केमिस्ट माखन लाल बिंदू की गोली मारकर हत्या कर दी। कुल मिलाकर कश्मीरी मुसलमान पिछले तीन साल में मारे गये लोगों में सबसे ज़्यादा हैं। हालाँकि इस तरह की हत्याओं को आमतौर पर मीडिया में अलग ही जगह मिलती है।

सरकारी उपाय
अल्पसंख्यकों की हत्याओं में वृद्धि ने केंद्र सरकार को घाटी में कश्मीरी पंडितों और हिन्दू कर्मचारियों में भरोसा भरने के लिए क़दम उठाने को मजबूर किया है। केंद्रीय गृह मंत्री, अमित शाह ने 17 मई को एक उच्च स्तरीय बैठक की, जिसमें उप राज्यपाल मनोज सिन्हा, केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला और ख़ुफ़िया और सुरक्षा एजेंसियों के प्रमुखों ने मौज़ूदा स्थिति के लिए तैयारियों का जायज़ा लिया। घाटी और आगामी अमरनाथ यात्रा – जो दो साल बाद 30 जून से शुरू होने वाली है, पर भी चर्चा हुई। साल 2020 और 2021 में कोरोना वायरस में हुई तालाबंदी के कारण तीर्थयात्रा रद्द कर दी गयी थी। यात्रा में लगभग तीन लाख तीर्थ यात्रियों के भाग लेने की सम्भावना है, जो 11 अगस्त तक चलेगी। केंद्र सरकार अब यात्रा को सुरक्षित करने के लिए कम-से-कम 12,000 अर्धसैनिक बल के जवानों के साथ-साथ हज़ारों जम्मू-कश्मीर पुलिस जवानों को तैनात करने जा रही है।
कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा की भावना भरने के व्यर्थ प्रयास में जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा ने यह भी कहा कि कश्मीरी पंडित राहुल भट्ट की हत्या के बाद पंडित कर्मचारियों को सुरक्षित ज़िलों में तैनात किया जाएगा, जो घाटी के बडगाम ज़िले में राजस्व विभाग में काम करते थे। शिक्षा विभाग द्वारा 177 कश्मीरी पंडित कर्मचारियों के तबादले को सार्वजनिक किये जाने पर भी सरकार ने गम्भीरता से विचार किया। भाजपा की यह माँग थी। भगवा पार्टी ने कहा कि सरकार कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा के लिए गम्भीर क़दम उठा रही है; लेकिन कुछ अधिकारी उनकी पहचान करके खेल बिगाड़ रहे हैं। साथ ही जम्मू-कश्मीर सरकार ने कुछ सरकारी और निजी स्कूलों को स्थिति सामान्य होने तक अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाने का निर्देश दिया है। सरकारी और निजी स्कूलों के लिए शिक्षा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा हाल में आधिकारिक निर्देश में कहा गया कि प्रत्येक विषय में छात्रों के सीखने के स्तर का आकलन वस्तुत: गूगल फॉर्म प्रश्नावली या किसी अन्य व्यवहार्य आभासी प्रारूप के माध्यम से किया जाना चाहिए और इसका रिकॉर्ड सीखने के स्तर के रजिस्टर में शामिल किया जाना चाहिए। जिला शिक्षा अधिकारियों ने स्कूल शिक्षकों को अपने पाठ्यक्रम के अनुसार ऑनलाइन शिक्षण और ई-सामग्री के लिए कार्य योजना तैयार करने का भी निर्देश दिया। इस देश में कहा गया है कि छात्रों की ऑनलाइन हाजिरी रजिस्टर में दर्ज की जाएगी।

राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
पीपुल्स अलायंस फॉर गुप्कर डिक्लेरेशन (पीएजीडी) ने कश्मीरी पंडित कर्मचारियों से घाटी न छोडऩे की अपील जारी की। गठबंधन ने यह भी कहा कि यह कश्मीरी पंडितों का घर है और यहाँ से उनका जाना सभी के लिए दर्दनाक होगा। उन्होंने कहा कि अगर राहुल मारा गया, तो रियाज़ भी मारा गया। रियाज़ का परिवार और रिश्तेदार कहाँ जाएँगे? आपको अपना घर नहीं छोडऩा है। यह आपका घर है। यह मेरा घर है। हम इस त्रासदी को एक साथ सहन करेंगे और एक दूसरे की रक्षा करने की कोशिश करेंगे। पीएजीडी के प्रवक्ता मोहम्मद यूसुफ़ तारिगामी ने कहा कि एलजी सिन्हा ने प्रवास के बारे में समान विचार साझा किया।

उधर, नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता अली मोहम्मद सागर ने घटनाक्रम पर दु:ख जताते हुए कहा कि यह चिन्ता का विषय है और इस पर गौर करने की ज़रूरत है। यह समुदाय यहाँ वर्षों से रह रहा है और उन्हें वापस लाने के लिए बहुत काम किया गया है। यह बेकार नहीं जाना चाहिए। हमारी पार्टी ने भी इस पर काफ़ी काम किया है और अब जो हो रहा है, उसे देखकर दु:ख होता है।

कश्मीरी पंडित और प्रवासी मज़दूर
नब्बे के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों के पलायन से पहले उनकी संख्या घाटी की आबादी का लगभग दो फ़ीसदी थी। नब्बे के दशक के अन्त में शोधकर्ता अलेक्जेंडर इवांस, जो बाद में भारत में ब्रिटिश उप उच्चायुक्त बन गये; के कश्मीर पर प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, ‘एक लाख 60-70 हज़ार समुदाय में से लगभग 95 फ़ीसदी ने घाटी को छोड़ दिया, जिसे अक्सर जातीय मामले के रूप में वर्णित किया जाता है। लेकिन कश्मीर घाटी में रहने वाले छोटे अल्पसंख्यक यह निर्धारित करने में अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं कि कश्मीर किस तरह का समाज बनता है।’
आज 3,000 से भी कम कश्मीरी पंडित घाटी में हैं। वे कभी पलायन नहीं करते थे। वे यहीं रुके थे और मुसलमानों के साथ रहते थे। हालाँकि हाल के वर्षों में सरकार ने कई हज़ार कश्मीरी पंडितों को वापस लाया और उन्हें सरकार द्वारा निर्मित भवनों में रखा। इनमें से ज़्यादातर विभिन्न विभागों में कार्यरत सरकारी कर्मचारी हैं। अगर हम केंद्र सरकार के आँकड़ों पर जाएँ, तो पिछले तीन वर्षों में अधिक पंडितों ने घाटी में लौटना शुरू कर दिया था।

फरवरी में गृह मंत्रालय ने संसद में जानकारी दी कि 5 अगस्त, 2019 जब तत्कालीन पूर्ण राज्य से अनुच्छेद-370 को निरस्त कर दिया गया था और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया था; से जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा विभिन्न सरकारी विभागों में 1,697 कश्मीरी पंडितों की नियुक्ति की गयी थी। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद को बताया कि कश्मीरी प्रवासी परिवारों के पुनर्वास के लिए जम्मू और कश्मीर सरकार ने 5 अगस्त, 2019 से 1,697 ऐसे लोगों को नियुक्त किया है और इस सम्बन्ध में अतिरिक्त 1,140 व्यक्तियों का चयन किया है। कश्मीर छोडऩे वाले पंडितों की कुल संख्या के बारे में जानकारी देते हुए राय ने कहा कि जम्मू और कश्मीर सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आँकड़ों के अनुसार 44,684 कश्मीरी प्रवासी परिवारों (कुल 1,54,712 लोगों) को राहत और पुनर्वास आयुक्त (प्रवासी), जम्मू के कार्यालय में पंजीकृत किया गया था। बाद में अप्रैल में राय ने संसद को बताया कि लगभग 2,105 प्रवासी (कश्मीरी पंडित) प्रधानमंत्री विकास पैकेज के तहत प्रदान की गयी नौकरियों को लेने के लिए कश्मीर लौट आये थे। एक प्रश्न के लिखित उत्तर में मंत्री ने कहा कि 2020-2021 में कुल 841 नियुक्तियाँ की गयीं, जबकि इसके बाद 2021-2022 में 1,264 नियुक्तियाँ की गयीं।

अगस्त, 2019 से जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ हिन्दुओं की हत्या पर राय ने कहा कि 5 अगस्त, 2019 से 24 मार्च, 2022 तक जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों ने चार कश्मीरी पंडितों और 10 अन्य हिन्दुओं सहित कुल 14 लोगों की हत्या की।
मंत्री द्वारा साझा किये गये आँकड़ों के अनुसार, 5 अगस्त, 2009 और 31 दिसंबर, 2019 के बीच तीन हिन्दुओं की हत्या की गयी। वहीं सन् 2020 में एक कश्मीरी पंडित समेत दो लोगों की, सन् 2021 में तीन कश्मीरी पंडितों (उनमें प्रसिद्ध केमिस्ट माखन लाल बिंदू) और छ: अन्य हिन्दुओं सहित नौ लोगों की हत्या की गयी। दूसरी ओर, इस साल फरवरी तक 439 आतंकवादी मारे गये। वहीं 109 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए और कुल 98 नागरिक, जिनमें 84 मुस्लिम हैं; जम्मू-कश्मीर में धारा-370 के निरस्त होने के बाद से मारे गये।

पिछले साल राय ने संसद को बताया था कि सरकार ने लौटने वाले कश्मीरी प्रवासियों को आवासीय आवास प्रदान करने के लिए एक व्यापक नीति तैयार की थी, जिसमें ख़ुलासा किया गया था कि कश्मीरी पंडितों के लिए 6,000 आवासीय इकाइयों का निर्माण त्वरित गति से किया जा रहा था और 1,000 आवासीय इकाइयाँ पहले से ही बनायी जा रही थीं, जिसका इन कर्मचारियों द्वारा उपयोग किया जाता है। उन्होंने घाटी में लौटने वाले कश्मीरी पंडितों की कुल संख्या 900 परिवार के रूप में दी। लेकिन हाल ही में हुई हत्याओं ने केंद्र की परियोजना को ख़तरे में डाल दिया है। पंडित जो अभी-अभी लौटे थे, वे न केवल पलायन का विचार कर रहे हैं, बल्कि उनमें से कई तो पहले ही जा चुके हैं। इतना ही नहीं, जो कभी नहीं गये, वे अब भी घाटी छोडऩा चाहते हैं। इसने केंद्र सरकार के लिए एक मुश्किल स्थिति पैदा कर दी है, जो 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-370 को वापस लेने के बाद से कश्मीर में सब कुछ सही होने का दावा कर रही है। हाल की घटनाओं ने इस दावे की पोल खोल दी है। एक स्थानीय समाचार पत्र में हाल के संपादकीय का हिस्सा देखें- ‘सरकार को अपने दोनों सिरों को सक्रिय करने के लिए सख़्त क़दम उठाने की ज़रूरत है’; अर्थात् हत्याएँ पूरी तरह से बन्द हो जाएँ और पंडित घाटी नहीं छोड़ें। लेकिन इस दोहरे लक्ष्य की उपलब्धि, विशेष रूप से सुरक्षा केंद्रित दृष्टिकोण से सम्भव नहीं हो पाएगी। कश्मीर पर पकड़ को मज़बूत करने की नीति की जगह इसे ढीला करना ही इसका रास्ता है।

हम कहाँ जाएँगे?
कश्मीर में जो घट रहा है, वह नब्बे के दशक की शुरुआत जैसा दिखता है। बिगड़ती स्थिति से निपटने के लिए केंद्र सरकार का एकमात्र तरीक़ा स्थिति के सुरक्षा प्रबंधन को दोगुना करना है, जिसने घाटी में घेरेबंदी जैसा माहौल बना दिया है। आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अभियानों में अभूतपूर्व सफलता के बावजूद कश्मीर में उग्रवाद अभी भी है और फल-फूल रहा है। हाल के महीनों में आतंकवादियों ने भी सुरक्षाबलों से अधिक नागरिकों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर अपनी रणनीति बदली है।

सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक और चुनौती हाइब्रिड आतंकवाद का उदय है। माना जाता है कि उग्रवादी बिना बन्दूक के रिकॉर्ड वाले युवाओं को कभी-कभार हमले के लिए भर्ती करते हैं और फिर उन्हें अपने नियमित जीवन में वापस आने देते हैं। इसने कुछ मामलों में पुलिस के लिए हत्याओं के पीछे के लोगों की पहचान करना चुनौती पूर्ण बना दिया है। इससे सुरक्षा बलों के लिए नागरिकों के मारे जाने की सम्भावना को पूरी तरह ख़त्म करना मुश्किल हो गया है।

कश्मीर में आतंकवाद अब मुख्य रूप से स्थानीय युवाओं से बना है, जो सशस्त्र युद्ध में अप्रशिक्षित हैं और उनके पास उपयोग करने के लिए कम हथियार हैं। इसलिए उन्होंने पुलिस कर्मियों पर कभी-कभार होने वाले हमलों के अलावा सुरक्षा बलों के लिए बहुत कम चुनौती पेश की है। लेकिन नागरिकों और अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों की हत्याएँ युद्ध के मैदान को बदलकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का हथियार बन गयी हैं। संयोग से, लगभग दो दशक के बाद यह पहली बार है जब इस तरह की हत्याएँ फिर से देखने को मिली हैं। वे ऐसे समय में जब जम्मू-कश्मीर प्रत्यक्ष केंद्रीय शासन के अधीन है और सुरक्षा का घेरा अभूतपूर्व है। कुछ विश्लेषक हत्याओं को पिछले तीन साल के घटनाक्रम के आलोक में देखते हैं, जिसमें घाटी के जनसांख्यिकीय चरित्र को बदलने की कोशिश भी शामिल है। एक कथित ‘शत्रुतापूर्ण रवैये वाले केंद्र’ के बारे में कथित रूप से घाटी के मुस्लिम बहुसंख्यक चरित्र को कमज़ोर करने की साज़िश रचने की बातें घाटी की फ़िज़ाँ में अब आम हैं।

यह भूमि और पहचान के मुद्दों को पूरी तरह से सामने ला रहा है, जो अब तक चल रहे संघर्ष के कमोबेश निष्क्रिय तत्त्वों को बड़े पैमाने पर राजनीतिक आयामों के साथ संचालित करते हैं। यह न केवल नई दिल्ली के ख़िलाफ़, बल्कि उन पंडितों के ख़िलाफ़ भी उग्रवादियों को खड़ा कर रहा है, जिनके पास अपने मज़बूत तर्क हैं और अलगाववादी उग्रवाद में पुनरुत्थान की स्थिति में भविष्य की उड़ान के ख़िलाफ़ अपनी मातृभूमि के लिए एक सम्मानजनक वापसी चाहते हैं। लेकिन सुरक्षाकर्मियों द्वारा संरक्षित पंडित टाउनशिप की माँग मुसलमानों में गहरी आशंका पैदा कर रही है। सरकार द्वारा घोषित कुछ उपायों में अधिवास क़ानून शामिल है, जिसे अप्रैल, 2020 में पेश किये जाने के बाद कश्मीर को बाहरी लोगों द्वारा बंदोबस्त के लिए खोल दिया गया था। नया क़ानून किसी भी व्यक्ति को अधिवास का दर्जा देने का अधिकार देता है, जो इस क्षेत्र में 15 साल तक रहा है। केंद्र सरकार के अधिकारियों और उनके बच्चों के लिए यह अवधि सिर्फ 10 साल और क्षेत्र में हाई स्कूल की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए सात साल है। कश्मीर प्रवासियों की अचल सम्पत्तियों से सम्बन्धित शिकायतों के समयबद्ध निवारण के लिए पिछले साल सरकार के क़दम ने कश्मीर में चिन्ता बढ़ा दी है। क़ानून का उद्देश्य मुख्य रूप से सन् 1990 के बाद से कश्मीरी पंडितों द्वारा सम्पत्तियों की संकट में बिक्री ($खौफ़ के कारण जल्दबाज़ी में बिक्री) को रद्द करना है। नब्बे के दशक में पंडित सम्पत्तियों के ख़रीदारों को उन्हें उसी $कीमत पर वापस करना होगा, जो उन्होंने उस समय भुगतान किया था, अगर उनके विक्रेता दावा करते हैं कि उन्होंने ऐसा दबाव में किया है। हालाँकि इसने आबादी के एक वर्ग के बीच गहरी नाराज़गी पैदा कर दी है, जो पहले ही जनसांख्यिकीय परिवर्तन की आशंकाओं से भरे हैं।

इस भयावह माहौल में हत्याएँ हुई हैं, जिससे पंडित एक बार फिर अपनी मातृभूमि में वापस बसने के अपने लंबे समय से चले आ रहे सपने को टूटता हुआ देख रहे हैं। पिछले एक साल में सरकार ने घाटी में पंडितों को उनकी सुरक्षा के लिए आश्वस्त करने और रुक-रुककर होने वाली हत्याओं के मद्देनज़र उन्हें भागने से रोकने के लिए संघर्ष किया है। ताज़ा हत्याओं ने उसके काम को और भी कठिन बना दिया है।