दोराहे पर कांग्रेस

देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के लिए शायद यह सबसे अच्छा समय है, और सबसे खराब भी। देश के सबसे मुख्य विपक्षी दल के लिए यह सबसे अच्छा समय इसलिए है, क्योंकि उसके पास सत्तारूढ़ दल को कटघरे में खड़ा करने का सुनहरा अवसर है। इसके कारण हैं- देश की अर्थ-व्यवस्था में चिन्ताजनक गिरावट, राज्यों को जीएसटी संग्रह में कमी के लिए केंद्र से भुगतान नहीं मिलना और कोरोना वायरस महामारी का आज भी तेज़ी से फैलना। इसके अलावा चीन के साथ सीमा पर पाँच महीने से चल रहा गम्भीर तनाव अलग है। लेकिन लगता है कि सरकार को घेरने के बजाय कांग्रेस को अपने भीतर की कलह से ही फुरसत नहीं मिल रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद राहुल गाँधी के इस्तीफा देने के बाद इन 15 महीनों में पार्टी एक पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं ढूँढ पायी है। सच कहें तो यह काम पार्टी के लिए एक तरह की बड़ी चुनौती बन गया है।

हालाँकि यह भी एक सच है कि जब भी राहुल गाँधी ने सत्तारूढ़ दल को देश के गम्भीर और प्रासंगिक मुद्दों- अर्थ-व्यवस्था, युवाओं को रोज़गार, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि पर घेरा है। उन्हें देश के दुश्मनों के साथ खड़ा दिखाने की कोशिश सत्ताधारी दल के नेताओं ने की है। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक नेता के तौर पर राहुल गाँधी ने सरकार के खिलाफ मुद्दों पर आधारित आवाज़ बुलंद की है; लेकिन कांग्रेस जनता को इन मुद्दों पर आन्दोलित करने में नाकाम रही है। हाल के चुनावों में पार्टी के आधार का क्षरण हुआ है और युवाओं के बीच इसने प्रासंगिकता खोयी है। ज़ाहिर है इसका सबसे ज़्यादा लाभ भाजपा को मिला है।

हाल ही में कांग्रेस कार्यसमिति की महत्त्वपूर्ण बैठक से एक दिन पहले 23 कांग्रेसियों का पत्र मीडिया में लीक हो गया; जिसमें सामूहिक नेतृत्व के सुझाव की बात है। इससे यह संकेत मिलता है कि पार्टी के कई नेताओं का गाँधी परिवार के नेतृत्व के प्रति मोहभंग हुआ है। इस पत्र का 11 सूत्री एजेंडा 134 साल पुराने इस राजनीतिक दल को देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ एक मज़बूत राष्ट्रीय गठबन्धन के रूप में सुदृढ़ करने की प्रेरणा देता महसूस होता है। साथ ही यह नेता कांग्रेस में एक पूर्णकालिक, प्रभावी, सक्रिय अध्यक्ष चाहते हैं और उनका पार्टी में सीडब्ल्यूसी सहित सभी स्तर पर चुनाव करवाने, पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए सामूहिक संस्थागत नेतृत्व का मॉडल अपनाने और समान विचारधारा के दलों के साथ राष्ट्रीय गठबन्धन तैयार करने पर ज़ोर है। निश्चित ही सामूहिक नेतृत्व की बात नेहरू-गाँधी परिवार के लिए एक संकेत है कि पार्टी आलाकमान के पूर्ण नियंत्रण की अवधारणा बदलनी होगी। आंतरिक लोकतंत्र बहाल करके और राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता वाला अध्यक्ष नियुक्त करके ही पार्टी को ज़मीनी स्तर पर पुनर्जीवित किया जा सकता है। भले ही देर से सही, पार्टी में संगठनात्मक सुधार की माँग की गयी है; लेकिन कोई आत्मनिरीक्षण नहीं हुआ है।

कांग्रेस एनडीए सरकार के खिलाफ धारदार आन्दोलन शुरू करने के बजाय, आलाकमान को पत्र लिखने वाले नेताओं को दण्डित करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रही है। कांग्रेस यदि पत्र लिखने वालों और किन्हीं मुद्दों पर अलग विचार रखने वाले नेताओं की निष्ठा पर शक करेगी और उनकी निष्ठा के परीक्षण के चक्कर में फँसी रहेगी, तो खुद को ही नुकसान पहुँचायेगी। कांग्रेस को नहीं भूलना चाहिए कि वो पहले ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे व्यापक जनाधार वाले नेताओं को खो चुकी है। पार्टी के लिए यह अहंकार और निष्ठा की सोच को परे धकेलने का समय है। देश के एक जवाबदेह राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है कि वह व्यापक संगठनात्मक सुधार करके खुद को सरकार से भिडऩे के लिए तैयार करे; जो एक विपक्षी दल होने के नाते उसका प्राथमिक कार्य है।