देश में क्यों कम हो रहे तेंदुए?

भारत में एक अध्ययन के अनुसार तेंदुओं की संख्या 75-90 फीसदी कम हो गयी है। इसलिए देश में ऐसे पशुओं के संरक्षण पर तत्काल ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ स्टडीज (सीडब्ल्यूएस इंडिया) और भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों ने इस पर अध्ययन किया है। इसकी सच्चाई क्या है, इसी पर आधारित श्वेता मिश्रा की यह रिपोर्ट :-

वैज्ञानिकों ने जनसंख्या की संरचना और जनसांख्यिकीय गिरावट के पैटर्न की पड़ताल करने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं के आनुवंशिक आँकड़ों के नमूनों का उपयोग किया है। वैज्ञानिकों ने मल के नमूने एकत्र किये और 13 माइक्रोसैटेलाइट मार्करों के एक पैनल का उपयोग करके 56 अनूठी पहचान कीं, इनमें से 143 तेंदुओं के बारे में पहले से ही डाटा उपलब्ध था। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि तेंदुओं को भी भारत में बाघों की तरह ही संरक्षण देने की आवश्यकता है।

यह अध्ययन वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की सुप्रिया भट्ट, सुवनकर बिस्वास, डॉ. बिवाश पांडव, डॉ. सम्राट मोंडोल और सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ स्टडीज से डॉ. कृति करनाथ ने किया। अध्ययन में जनसंख्या संरचना की जाँच करने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं के आनुवांशिक डाटा के नमूनों का उपयोग किया गया। इसमें प्रत्येक पहचाने गये उप-जनसंख्या के जनसांख्यिकीय इतिहास की जाँच की गयी और देशव्यापी स्थानीय विलुप्त होने की सम्भावनाओं के साथ आनुवंशिक गिरावट के विश्लेषण की तुलना भी की गयी।

अध्ययन के परिणामों से देश भर में माइक्रोसैटेलाइट के ज़रिये किये अघ्ययन में से खुलासा हुआ है कि सम्भवत: 120 से 200 साल पहले की तुलना में 75-90 फीसदी तेंदुए कम हो गये हैं। अध्ययन से पता चलता है कि तेंदुओं की भी भारत में बाघों की तरह संरक्षण आज की माँग है। इसमें इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि ऐसी प्रजातियाँ दुनिया में कम ही बची हैं और इनकी घटती आबादी को देखते हुए बचाव को लेकर विशेष महत्त्व दिया जाना ज़रूरी हो गया है।

तेंदुओं की घटती तादाद के सम्भावित कारणों में से जलवायु परिवर्तन के चलते प्राकृतिक और मानवजनित दबाव, कम होते जंगल, शिकार न मिल पाना, वन्यजीव व्यापार और मानव-वन्यजीव संघर्ष, जंगल का क्षेत्र भी दिन-ब-दिन सिकुड़ता जा रहा है, इससे तेज़ी से ऐसी प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं और कुछ तो विलुप्त भी हो गयी हैं। फिर भी वर्तमान में इनकी संख्या को देखें तो इनके रहने की जगह में कमी आयी है। खाने के लिए शिकार नहीं मिल रहे हैं। मानव के साथ संघर्ष और पिछली सदी में अवैध शिकार के कारण इनकी तादाद में तेज़ी से गिरावट दर्ज की गयी है।

तेंदुओं के मामले में मौज़ूदा स्थिति का विश्लेषण बताता है कि अफ्रीका में इसकी प्रजातियों का नुकसान 48-67 फीसदी हुआ है, जबकि एशिया एशिया में 83-87 फीसदी तक का खामियाज़े का अनुमान लगाया गया है। इसमें सुझाया गया है कि शीर्ष 10 बड़े मांसाहारी प्रजातियाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित हुई हैं। इसने अंतर्राष्ट्रीय संघ द्वारा प्रकृति के संरक्षण के लिए इस प्रजाति की स्थिति को संकट से लेकर असुरक्षित तक की श्रेणी मेें बदल दिया गया है। लगातार घटती संख्या और सीमाओं के बावजूद तेंदुओं का मानव बस्तियों की ओर नज़र आना अलग बात है। इससे उनकी तादाद बढऩे की बात कहना सही नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं का अवैध शिकार और तमाम खामियों की वजह से इनकी संख्या पर खतरा बढ़ गया है।

वैज्ञानिकों ने भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं की आनुवंशिक भिन्नता, जनसंख्या संरचना और जनसांख्यिकीय इतिहास का आकलन करने के लिए मल के नमूनों का उपयोग किया। अध्ययन में विशेष रूप से यह पड़ताल (1) सीमा की जाँच की जो भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं में आनुवंशिक भिन्नता की सीमा की जाँच; (2) देश में तेंदुओं की जनसंख्या संरचना; (3) जनसंख्या के आकार में हाल के बदलावों का आकलन और अंत में (4) तेंदुओं के जनसांख्यिकीय इतिहास की देशव्यापी स्थानीय विलुप्त होने की सम्भावनाओं के साथ आनुवंशिक गिरावट के विश्लेषण की तुलना। इनकी तादाद और जनसांख्यिकी का पता लगाने के लिए अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न तेंदुओं के आवासों से आनुवंशिक नमूने हासिल करना अहम हिस्सा रहा। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारतीय उपमहाद्वीप में एकत्र किये गये गैर-आक्रामक नमूनों से तेंदुओं के आनुवंशिक डाटा का उपयोग किया। उन्होंने 2016-2018 के बीच उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार के उत्तर-भारतीय राज्यों को कवर करते हुए तराई-आर्क वाले क्षेत्र (टीएएल) के भारतीय हिस्से में विस्तृत सर्वेक्षण किया।

8 फरवरी, 2020 को रणथंभौर नेशनल पार्क ने अश्विनी कुमार सिंह का ‘भारत में तेंदुओं की मौतों के रहस्य का पता लगाने’ शीर्षक से एक विश्लेषण प्रकाशित किया था, इसमें कहा गया कि भारतीय तेंदुए अपनी घटती तादाद के कारण आईयूसीएन की लाल सूची (रेड लिस्ट)में सूचीबद्ध हैं। क्योंकि यह प्रजाति कम होती जा रही है।

18वीं शताब्दी में दुनिया को इस पैंथर जीव के बारे में पता चला था, जो किसी भी अन्य जानवर की तुलना में तेज़ गति से फर्राटा भर सकता था। तेंदुए भारत, नेपाल, पाकिस्तान और भूटान तक में पाये जाते हैं। ये उष्णकटिबंधीय वर्षावन, समशीतोष्ण वनों, शुष्क पर्णपाती वन और सुंदरवन व मैंग्रोव जंगल में पाये जाते हैं।

भारत में 2015 की जनगणना के अनुसार, तेंदुओं की तादाद करीब 12,000-14,000 थी। 2018 में किये गये सर्वेक्षण किया गया, पर उसके आँकड़े अभी जारी नहीं किये गये हैं। पिछली जनगणना में मध्य प्रदेश को सबसे ज़्यादा तेंदुओं की आबादी वाला राज्य बताया गया था, उसके बाद कर्नाटक और महाराष्ट्र का स्थान है।

राज्य     जनसंख्या

मध्य प्रदेश          1,817

कर्नाटक 1,129

महाराष्ट्र 905

छत्तीसगढ़          846

तमिलनाडु          815

उत्तराखंड          703

केरल    472

ओडिशा 345

आंध्र प्रदेश         343

उत्तर प्रदेश         194

गोवा      71

बिहार    32

झारखंड 29

2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया कि मध्य प्रदेश में तेंदुओं की आबादी 2015 में 1817 से बढ़कर 2018 में 2000 से अधिक हो गयी। कर्नाटक में तेंदुओं की तादाद 2500 से अधिक हो गयी। हालाँकि, केंद्र के वैज्ञानिकों ने वन्यजीव अध्ययन (सीडब्ल्यूएस इंडिया) और भारतीय वन्यजीव संस्थान के लिए अध्ययन किया और पाया कि सच्चाई यह है कि भारत में तेंदुओं की आबादी में 75-90 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है।

क्यों मर रहे हैं तेंदुए?

तेंदुओं की मौतों को लेकर वन्य जीव प्रेमी और संरक्षणवादी चिन्तित हैं। 2018 में ही भारत ने कई कारणों से 460 तेंदुओं को खो दिया, इनमें अवैध शिकार, ग्रामीणों द्वारा हमले और प्राकृतिक मौतें शामिल हैं।

राज्य     तेंदुओं की मौत

उत्तराखंड          93

महाराष्ट्र 90

राजस्थान           46

मध्य प्रदेश          37

उत्तर प्रदेश         27

कर्नाटक 24

हिमाचल प्रदेश    23

महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा तेंदुओं की मौत के मामले सामने आये, इसके बाद महाराष्ट्र और राजस्थान का नम्बर है।

भारत में तेंदुओं की मौत की कई कारण हैं। कुछ कारण निम्न हैं-

वजह     कुल मौतें

शिकार  155

दुर्घटना  74

ग्रामीणों द्वारा हमले          29

वन विभाग की कार्रवाई    9

प्राकृतिक कारण और अन्य कारण  194

तेंदुआ सबसे ज़्यादा नज़रअंदाज़ किया जाने वाला जंगली पशु (बिग कैट) है। राजसी होने के साथ-साथ लुप्तप्राय होने के बावजूद तेंदुओं के संरक्षण की नीति लागू करने पर खास ध्यान नहीं दिया गया है। बाघ की मौत की खबरें हर अखबार और मीडिया संस्थानों में प्रमुखता से पहले पेज पर छपती हैं, लेकिन तेंदुओं की मौतों पर लोगों का ध्यान नहीं जाता है। अब भी ग्रामीणों द्वारा हमला किये जाने से अपने प्राकृतिक आवास में शिकार के चलते तेंदुओं को हर तरफ से खतरे का सामना करना पड़ता है। भारत में 12,000-14,000 तेंदुओं में से लगभग 8,000 के टाइगर रिज़र्व के आसपास होने की जानकारी मिली थी। तेंदुओं की मौतों का चलन नया नहीं है, लेकिन इनकी मौतों का आँकड़ा भी एक सुसंगत तरीके से सामने नहीं रखा जाता है। पिछले पाँच वर्षों में भारत में सबसे ज़्यादा तेंदुओं की मौत हुई है।

वर्ष        तेंदुओं की मौत

2018    460

2017    431

2016    440

2015    339

2014    331

वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया के जारी आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में तेंदुओं की मौतें बढ़ी हैं। जब हम भारत में तेंदुओं की मौत के आँकड़ों पर विचार करते हैं, तो एक बात बिल्कुल साफ है कि तेंदुए हमारी प्राथमिक चिन्ता में नहीं हैं। भारत में तेंदुओं के संरक्षण के लिए आगे की नीतियों पर चर्चा करने से पहले, यहाँ इनकी मौतों के कारणों पर चर्चा करते हैं।

अवैध शिकार

दुनिया भर में संरक्षणवादियों के लिए सबसे बड़ी चिन्ताओं में से एक- ऐसे पशुओं को बचाने के लिए अवैध शिकार हमेशा बड़ी चुनौती रही है। हालाँकि, गैर-कानूनी घोषित होने के बावजूद हर इलाके को देखें, तो जंगलों में अवैध शिकार ज़्यादा किये गये हैं। अकेले वर्ष 2018 में ही भारत में 155 तेंदुए मारे गये या शिकार किये गये।

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 में लुप्तप्राय जानवरों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगाये जाने के साथ ही यह एक दंडनीय अपराध है। हालाँकि, अवैध शिकार के मामलों में सज़ा के मामलों में कम दर के चलते इस अधिनियम को उदार माना गया है। अधिकारियों पर कार्रवाई करने की असंवेदनशीलता के साथ अकुशल अभियोजन को जोड़ा है, जिससे शिकारी आज़ाद घूमते हैं। जबकि गैंडा और बाघ जैसे पशुओं को खास तवज्जो दी जाती है, जिससे वे बचे हुए हैं। बाघ जैसे जानवर विशेष अहमियत मिलती है; लेकिन तेंदुओं के अवैध शिकार के मामले समाचारों की सुॢखयाँ नहीं बन पाती हैं। तेंदुओं को कोई राजनीतिक संरक्षण नहीं मिला है और अक्सर शिकारियों को रोकने के लिए सख्त दिशा-निर्देशों को लागू करने को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

ग्रामीणों के हमले

वन्यजीव संरक्षण पार्क और अभयारण्य आसपास स्थानीय गाँवों के सहयोग पर काफी निर्भरता रहती है। ग्रामीण वन अधिकारियों की आँख और कान के रूप में काम करते हैं। इसके अलावा, स्थानीय ग्रामीणों की मदद से अधिकारी शिकारियों को रोक सकते हैं। हालाँकि एक समस्या वन्यजीव संरक्षणवादियों के लिए समस्या पैदा करती रही है। मानव-पशु संघर्ष बाधा है। वर्ष 2011-2017 के बीच केवल महाराष्ट्र में ही 2 लाख से अधिक मानव-पशु संघर्ष हुए हैं।

पार्क जहाँ जंगली जानवर रहते हैं, आमतौर पर गाँवों को उजाड़कर तैयार किये जाते हैं। हालाँकि, ग्रामीणों को अन्य स्थानों पर शिफ्ट कर दिया जाता है, जिनमें से कुछ वन्यजीव अभयारण्यों के बेहद करीब होते हैं। इसके अलावा बफर ज़ोन में जानवरों की उपस्थिति और फिर आस-पास के गाँवों में प्रवास के चलते पशुओं और मनुष्य दोनों के लिए घातक खतरे पैदा हो गये हैं। अभयारण्यों और रिजर्व में पहुँचने वाले लोगों का सामना पशुओं से हो जाता है, जिसके चलते जानवर उन्हें निशाना बनाते हैं। बाद में ग्रामीण बदला लेने के लिए जंगली जानवरों को मार डालते हैं। ऐसा पूरे देश में एक निरंतर चलन रहा है। कुछ मामलों में जानवर पास के गाँवों में भटककर पहुँच जाते हैं और आत्मरक्षा में ग्रामीण जानवर को मार डालते हैं।

वन विभाग की कार्रवाई

यह एक व्यापक बहस का मुद्दा है, क्योंकि इसका दायरा बड़ा है। वन विभाग के हस्तक्षेप के चलते पशुओं को मारने या पकड़े जाने को लेकर भी चर्चा का विषय है। मौतों की वैधता का तर्क भी दिया जा सकता है और जबकि अधिकांश शुरुआती चरण में वन विभाग के इरादों पर सवाल उठाएँगे, लेकिन कई मामलों में हस्तक्षेप भी ज़रूरी होता है। 2018 में वन विभाग की कार्रवाई के कारण 9 मौतें हुई हैं।

अन्य कारण

जबकि हम इन राजसी जंगली जानवरों को प्राकृतिक आवास प्रदान करने का लक्ष्य रखते हैं, इसके लिए पैसा भी खर्च किया जाता है। एक प्राकृतिक आवास में प्रकृति का चक्र चलता है, जिसका मतलब यह होता है कि जंगलों का प्राकृतिक क्रम खास जानवरों के जीवन चक्र को निर्धारित करेगा। 2018 में प्राकृतिक कारणों या कुछ अन्य कारणों से 194 मौतें हुईं।

इसमें प्राकृतिक रूप से होने वाली मौतों में अधिक उम्र का हो जाने के कारण मृत्यु, बीमारी के कारण मौत और वर्चस्व की लड़ाई भी शामिल हैं। जबकि हममें से कई ने प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन का हवाला देते हुए इसे अपनाया है। कई संरक्षणवादी वन विभाग के प्रयासों पर सवाल उठाते हैं और वे इस तरह की मौतों को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाते हैं। तथ्य यह है कि प्राकृतिक कारण और अन्य छोटे कारक भी भारत में अनेक तेंदुओं की मौतों की वजह बनते हैं।

ये भारत में तेंदुओं की मौतों का कारण हैं, पर यह सवाल उठता है कि देश में इतनी अधिक संख्या में तेंदुओं की मौत को रोकने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

दुर्घटनाएँ

हालाँकि यह आश्चर्य से कम नहीं है कि तेंदुओं की मौत की प्रमुख वजहों में से एक दुर्घटना भी है।  अकेले 2018 में दुर्घटनाओं की वजह से 74 तेंदुओं ने अपनी जान गँवायी। सामान्य सड़क हादसों से सख्त यातायात कानून लागू करके रोका जा सकता है। इनमें से अधिकांश दुर्घटनाएँ राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के अन्दर होती हैं। ऐसी दुर्घटनाएँ होने पर वहाँ के बुनियादी ढाँचे को दोषी ठहराया जाता है। हम वन्यजीवों के लिए प्राकृतिक आवास बनाने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि ऐसी जगह पर लोगों की मौज़ूदगी ने हमेशा वन्यजीवों के लिए खतरा पैदा किया है। बिजली के खम्भे, बाड़, रेलवे ट्रैक, अभयारण्यों के भीतर की सड़क जैसी संरचनाएँ ऐसे हादसों की मुख्य केंद्र बनती हैं।

पिछले साल, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में रेलवे ट्रैक पार करने के दौरान एक ट्रेन से बाघ के तीन शावक कट गये थे। पिछले साल ओडिशा में बिजली के लटकते तारों की चपेट में आने से सात हाथियों की मौत हो गयी थी। यह घटना ओडिशा के ढेंकनाल जंगल में हुई थी।

बचाव के उपाय

ऐसे जानवरों की मौतों की रोकथाम के लिए नीतियों में कुछ बदलाव के साथ मौज़ूदा प्रावधानों में का सख्ती से क्रियान्ववयन करने की आवश्यकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण है अवैध शिकार के लिए कड़ी सज़ा हो। यह पहला आवश्यक कदम है, क्योंकि अवैध शिकार और शिकार के कारण तेंदुओं की एक तिहाई मौतें होती हैं। सख्त सज़ा और बेहतर सज़ा दर से शिकारियों में खौफ पैदा किया जा सकता है।

अवैध शिकार के मामलों में सज़ा की दर महज़ 5 फीसदी ही है, जबकि सज़ा को एक दुर्लभ विसंगति माना जाता है। जाँच एजेंसियों को बेहतर बुनियादी ढाँचा प्रदान करना और बेहतर अभियोजन सुनिश्चित करके सज़ा दर को बढ़ाया जा सकता है। आज शिकारियों को कानून का खौफ नहीं है, इसके पीछे सज़ा दर का कम होना है। इसलिए सज़ा प्रक्रिया में सुधार, नियत प्रक्रिया के साथ शिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करके बचाव किया जा सकता है। लीनियर इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काबू पाने की भी ज़रूरत है। लीनियर इन्फ्रास्ट्रक्चर का मतलब हाईवे, रेलवे लाइन, बिजली के तार व अन्य बुनियादी ढाँचे से है, जो जानवरों के प्राकृतिक आवास से होकर गुज़रता है। इन पर ज़रूरी उपाय अपनाकर ऐसी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। प्राकृतिक गलियारों का निर्माण प्रस्तावित किया गया है। ये गलियारे एलिवेटेड कॉरिडोर मानव आबादी को जोडऩे के लिए वन क्षेत्र में सीधे सम्पर्क के बिना तैयार किये जाएँगे। इसके अलावा नये रेलवे और सड़क की परियोजनाएँ ऐसे तैयार की जा रही हैं, ताकि इन प्राकृतिक गलियारों से पशुओं को किसी तरह का नुकसान न हो।

गाँवों का पुनर्वास और उपयुक्त मुआवज़ा प्रदान करना साथ-साथ चल सकता है। वे गाँव जो बफर ज़ोन के अंतर्गत आते हैं या जो वन्यजीव अभयारण्यों के बेहद करीब हैं, उन्हें मानव-पशु संघर्ष को रोकने के लिए अन्य जगह पर स्थानांतरित किया जाना चाहिए। इसके लिए उचित मुआवज़ा प्रदान करके ग्रामीणों को स्थानांतरित करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। साथ ही, बफर ज़ोन का विस्तार करके भी इस तरह के होने वाले संघर्षों से बचा जा सकता है। यदि तेंदुओं को ट्रैकिंग कॉलर के माध्यम से लाइव समय में ट्रैक किया जाए, तो उनकी सेहत पर नज़र रखी जा सकती है। अगर कोई तेंदुआ पास की मानव बस्ती में पहुँच जाता है, वन अधिकारी इसे रोक सकते हैं या ग्रामीणों को चेतावनी जारी कर सकते हैं। इसके अलावा ट्रैकिंग के ज़रिये तेंदुए के बीमार होने पर उसके उचित इलाज की व्यवस्था कर सकते हैं।

तेंदुओं का गाँवों में पहुँचने का प्रमुख कारण अभयारण्यों में लोगों की ज़्यादा भीड़ पहुँचना है। इससे शिकार और क्षेत्र के दायरे को लेकर विवाद की स्थिति पैदा होती है। तेंदुओं के लिए उचित नियोजन के ज़रिये यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कोई भी प्राकृतिक आवास बिग कैट से भरा नहीं है। मानव-पशु संघर्ष को रोकने और स्थानीय लोगों को सशक्त बनाने का एक तरीका यह है कि ऐसे संरक्षित क्षेत्रों के आसपास इकोटूरिज्म को बढ़ावा दिया जाए। इससे स्थानीय लोगों को भी संरक्षण के प्रयासों में सक्रिय योगदान करने की प्रेरणा मिलेगी। सबसे महत्त्वपूर्ण उपायों में से एक है- जिस पर हर संरक्षणवादी का ध्यान केंद्रित है, वह यह कि तेंदुओं के संरक्षण के लिए एक उचित नीति तैयार की जाए। इसके अलावा हमें तेंदुओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में भी बदलाव लाना होगा। हालाँकि उनकी अन्य बिग कैट की तुलना में अधिक संख्या हो सकती है, लेकिन यह इस राजसी जानवर के प्रति ढीले रवैये को सही नहीं ठहराता है।

हालाँकि, समाचार और रिपोर्टों से पता चलता है कि तेंदुओं की आबादी पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी है। इनकी मौतों में वृद्धि हमें आश्चर्यचकित करती है, राजसी प्राणी को भविष्य में कैसे बचाया जा सकता है? जब हमें खुशखबरी मिलती है, तो वन्यजीव संरक्षण की चल रही लड़ाई के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकते हैं। कुछ समस्याएँ ज़रूर हैं, लेकिन सबका समाधान भी है, इसलिए भारत में वन्यजीवों के बेहतरी के लिए समाधान पर काम करने का लक्ष्य बनाएँ।