देशवासियों में जगे किसानों जैसी एकता

भले ही कृषि कानूनों के बहाने सही, लेकिन किसान जिस तरह से एकजुट हुए हैं, उसकी सराहना हमें करनी चाहिए। सराहना इसलिए करनी चाहिए, क्योंकि आन्दोलन पर बैठे किसानों में न तो मज़हबों की दीवारें खड़ी हैं, न क्षेत्रवाद को लेकर भेदभाव है, न गरीबी-अमीरी को लेकर किसी तरह का ईष्र्या का भाव है और न ही ज़ात-पात को लेकर कोई वैमनस्य की भावना। ऐसी ही एकता की ज़रूरत हम सभी देशवासियों को सदियों से रही है। अगर ऐसी एकता पूरे देश के हर वर्ग के लोगों में कामय हो जाए, तो हम भारतीयों की न सिर्फ तकदीर बदल जाएगी, बल्कि इस देश का नक्शा कुछ और ही होगा।

महान् क्रान्तिकारी और मशहूर शायर अल्लामा इकबाल ने कहा है कि मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हमवतन हैं हिन्दोस्ताँ हमारा। यह तो उन्होंने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था। सही मायने में देखा जाए, तो पूरी दुनिया ही एक परिवार है। इसीलिए तो वेदों में कहा गया है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् पूरा विश्व ही एक परिवार है। देवतुल्य साईं बाबा ने हमेशा सीख दी कि सबका मालिक एक है। सन्त कबीरदास, सन्त गुरुनानक देव, सन्त तुकाराम जैसे दुनिया के अनेक महान् सन्तों ने भी यही सीख दी कि ईश्वर एक है और हम सब उसकी सन्तानें हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात ही है कि हम एक ईश्वर की सन्तान होते हुए भी कभी एक नहीं हो पाये। हमने ऐसे सन्तों को पूजना तो शुरू कर दिया, जिन्होंने हमें सबसे पहले इंसान बनने की सीख दी; लेकिन उनकी बातों पर आज तक अमल नहीं किया। मज़हबों को तो मानना शुरू कर दिया; लेकिन मज़हबी शिक्षाओं पर कभी अमल नहीं किया। सही मायने में हम उस विद्यार्थी की तरह हैं, जो किताबों का मोटा बस्ता लेकर स्कूल ड्रेस में सज-धजकर हर रोज़ स्कूल तो जाता हो, परन्तु पढ़ाई बिल्कुल नहीं करता हो। दूसरी और सीधी भाषा में कहा जाए, तो हम उस गधे की तरह हैं, जिसकी पीठ पर किताबें लदी हैं; लेकिन उसे उन कीमती किताबों का महत्त्व नहीं पता है। सच पूछिए तो अब हम मज़हबी दायरों में कैद हैं। िकरदार और मज़हब की सीखों से हमें बहुत कम लेना-देना रह गया है। कहा गया है कि इंसान का सबसे बड़ा मज़हब इंसानियत है। इंसानियत की राह पर चलने के लिए आपस में प्यार होना ज़रूरी है और आपसी प्यार तभी रह सकता है, जब हममें भाईचारा होगा; जब हम सच्चाई और ईमानदारी के रास्ते पर चलेंगे और हमारी नीयत साफ होगी। ऐसा करने पर हमारे दिल में दया, करुणा और दूसरों की मदद की भावना जागेगी। एकता की भावना पैदा होगी और हम एक-दूसरे के साथ हर सुख-दु:ख में ठीक वैसे ही खड़े हो जाएँगे, जैसे हम अपने परिवार के साथ हर सुख-दु:ख में खड़े होते हैं। तब हमें किसी का भी दु:ख अपना ही दु:ख लगने लगेगा।

लेकिन अफसोस की बात है कि हम बिना स्वार्थ के दूसरों की बात तो दूर अपनों के भी काम नहीं आना चाहते। यही वजह है कि जब हम पर विपत्ति आती है, तो हम भी तन्हा दिखायी देते हैं। तब हमें दूसरों से शिकायत रहती है। आज के दौर में ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं। लेकिन कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं, जिनमें हम पाएँगे कि किसी ऐसे व्यक्ति पर पूरी दुनिया के लोग मर-मिटने को तैयार हो जाती है, जिनका अपने खून के रिश्ते का कोई भी व्यक्ति दुनिया में नहीं होता। ऐसे भाग्यशाली लोग वही होते हैं, जो पूरी दुनिया को अपना कुटुम्ब मान लेते हैं। आज हम आपस में इतने बिखर गये हैं कि हमें एकजुट करने को अगर ईश्वर भी आ जाए, तो भी शायद हम सभी एकजुट न हो सकें। हम एकजुट कब होते हैं? हम एकजुट तब होते हैं, जब हम सब पर कोई सामूहिक आपदा आन पड़ती है। कोई प्राकृतिक या अप्राकृतिक मार पड़ रही होती है और हम अकेले-अकेले होकर उस मुसीबत से निपटने में नाकाम होते हैं। अगर हम सब हमेशा मिलजुलकर रहें, सभी तरह के भेदभाव भुलाकर मज़हबी और जातिवादी होने से पहले इंसान बन जाएँ, तो धरती पर हम इंसानों का जीवन स्वर्ग जैसा आनन्दमय और सुखमय हो सकता है।

एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस बैलगाड़ी पर सवार होकर किसी गाँव की ओर जा रहे थे। यह वह समय था, जब लोग उन्हें एक सन्त से ज़्यादा माता काली का पुजारी मानते थे। इस गाँव के एक ज़मीदार ने उन्हें निमंत्रण दिया था। गाँव काफी दूर था और बैल तो धीरे चलते ही हैं, इसलिए गाड़ीवान ने बैलों को मार-मारकर तेज़ी से हाँकना शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे गाड़ीवान बैलों की पीठ पर डंडे मारता गया, वैसे-वैसे रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर डंडे की चोट के निशान पड़ते गये। आखिरकार वे अपनी जगह से अचानक नीचे गिर पड़े और कराहने लगे। रामकृष्ण परमहंस की अचानक हुई इस हालत को देखकर गाड़ीवान घबरा गया। उसने जल्दी से बैलगाड़ी रोकी और उनकी पीठ पर डंडों के निशान देखे, तो वह भौचक्का रह गया। परमहंस एकटक दयाभाव से बैलों को देखे जा रहे थे। यह देख गाड़ीवान उनके पैरों में गिर गया और उनसे क्षमा माँगी। जब यह बात गाँव वालों को पता चली, तो परमहंस को देखने वालों का तांता लग गया। लोगों ने इस बात पर उनकी भक्ति करनी चाही, लेकिन रामकृष्ण परमहंस ने कहा- ‘मैं भी आप लोगों की तरह ही साधारण इंसान हूँ। इसलिए आप लोग मेरी भक्ति न करें। हाँ, मुझे दूसरों पर आये कष्ट से पीड़ा होती है, क्योंकि दूसरे प्राणियों में भी मेरी तरह ही वही आत्मा है, तो मेरे शरीर में है। इसीलिए दुनिया के सभी प्राणी मेरे अपने सगे हैं।’ आज हममें से कितने लोग हैं, जो दूसरों के दु:ख-दर्द को अपना दु:ख-दर्द समझते हैं? कितने लोग हैं, जो सभी को अपना हैं? तो फिर हममें एकता की भावना कैसे रह सकती है? और अगर हममें एकता की भावना नहीं होगी, तो हम सुरक्षित कैसे रह सकते हैं?