दृढ़ता से राफेल सौदे पर बात तो रखिए

देश की नभ सीमाओं की रक्षा के लिए फ्रांसीसी विमान राफेल की खरीद में भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए की केंद्र सरकार उलझ सी गई है। इस मुद्दे पर जितनी बार जितने भी मंत्री बोलते हैं उतनी ही कहानियां सामने आती हैं। जबकि देश के महत्वपूर्ण रक्षा सौदे पर बात दृढ़ता से रखी जानी चाहिए।

ऐसे में यह दृढ़ता सिर्फ प्रधानमंत्री दिखा सकते हैं। अब यह ज़रूरी भी है कि वे खुद इस सौदे से संबंधित पहलुओं पर अपनी बात रखें। लोकतंत्र में विपक्ष को सवाल पूछने का हक है। प्रधानमंत्री को अपनी बात रखनी ही चाहिए, क्योंकि देश की सुरक्षा के लिहाज से ही उन्होंने फ्रांस से इन विमानों को लेने की हामी भरी। उस समय फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलेंद थे।

अभी पिछले दिनों उन्होंने फ्रांस के एक पत्रकार को दिए साक्षात्कार में कहा कि राफेल विमान की खरीद में ‘ऑफसेट पार्टनर’ के तौर पर ‘रिलायंस डिफेंस’ का मनोनयन भारत सरकार का था। उनकी इस बात से भारतीय रक्षामंत्री और वित्तमंत्री सकपकाए से लगते हैं, क्योंकि इनका लगातार यही कहना था कि राफेल निर्माता दसाल्ट एविएशन (डीए) ने खुद ‘रिलायंस डिफेंस’ को चुना।

फ्रांस सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति के इंटरव्यू पर जो बयान दिया उसमें भी ओलेंद की बात को गलत नहीं बताया गया, बल्कि यह कहा गया कि भारत की लेने की प्रक्रिया में ही फ्रेंच कंपनियों को इस बात की आज़ादी थी कि वे ‘आफसेट पार्टनर’ चुनें, लेकिन ओलेंद का कहना है कि भारत सरकार ने अपनी ही प्रक्रिया को नहीं माना। इसी तरह दसाल्ट का जो बयान आया उसमें भी सीधे-सीधे ओलेंद को गलत तो नहीं कहा गया लेकिन यह बताया गया कि रिलायंस को दसाल्ट ने ही चुना। सवाल यह है कि क्या दसाल्ट को यह आज़ादी दी गई थी। लेकिन इस बात पर खामोशी है।

अब रक्षा से संबंधित ऐसे तमाम मुद्दे उठाए जा रहे हैं जिनका सीधा खरीद से कोई लेना-देना नहीं है। जब यह समझौता हुआ तब देश की रक्षामंत्री वे नहीं थी जो आज हैं। उस समय रक्षामंत्री मनोहर पार्रिकर थे। जो नई दिल्ली में ही हैं लेकिन अस्पताल में हैं। केंद्रीय वित्तमंत्री का भी इस समझौते से कोई लेना-देना नहीं रहा। ऐसे में पूरे समझौते पर खुद प्रधानमंत्री ही प्रकाश डाल सकते हैं, जिनकी फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलेंद से बातचीत राफेल विमानों की खरीद को लेकर हुई थी और 36 विमानों को लेने पर समझौता हुआ था। भाजपा सरकार राफेल विमानों की खरीद पर लग रहे आरोपों पर जिस तरह आपा खो रही है उससे देश-विदेश में व्यग्रता बढ़ रही है। लोकतंत्र में विपक्ष को सवाल पूछने का अधिकार होता है, लेकिन उसको जवाब देने की बजाए ढेरों और तरह की बातें उठाना बताता है कि यह सब किसी रणनीति के चलते है।

भाजपा को लग रहा है कि राहुल की टिप्पणियां बताती है कि वे पाकिस्तान के साथ मिल कर देश विरोधी सवाल पूछ रहे हैं। रक्षामंत्री यह कहती हैं कि वे अपने बहनोई से मिलकर राफेल सौदे को खत्म कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल के मोहरा बने हुए हैं। उन्होंने यह तक कहा कि वे फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलेंद के साथ हो गए हैं। ओलेंद ने फ्रांस में छपे अपने एक इंटरव्यू में यही कहा था कि भारत ने ही राफेल विमानों की खरीद के बाद उसके रखरखाब के लिए अपनी ओर से ‘ऑफसेट पार्टनर’ का नाम दिया था।

कृषि राज्यमंत्री गजेंद्र शेखावत ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह कोई अंतरराष्ट्रीय साजिश रच रही है। कांग्रेस ने 24 सितंबर को सीवीसी से शिकायत दर्ज कराई और एफआईआर दर्ज करने की भी मांग की। कांग्रेस सरकार से इस सौदे पर जेपीसी की मांग भी कर रही है।

भाजपा के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने ज़रूर यह कहा है कि राफेल डील खारिज नहीं होगी। उन्होंने एक इंटरव्यू में राफेल सौदे का इतिहास बताया कि फ्रांस और भारत के बीच राफेल विमान की खरीद पर समझौता यूपीए सरकार के दौर में भी हुआ था। बाद में यह रद्द हो गया। इसके बाद विमान में कुछ तकनीकी संशोधनों की मांग के साथ भाजपा सरकार ने बातचीत की। बाद में जो राफेल डील हुई वह वास्तव में वह काफी साफ सुथरा सौदा है। जहां तक नए सौदे में विमानों की कीमत ज़्यादा होने की बात है तो उसके आंकड़े नियंत्रण और महालेखाकार (सीएजी) के पास जमा है।

फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ने 22 सितंबर को राफेल सौदे पर फ्रांस के एक पत्र को दिए साक्षात्कार के दौरान कहा था कि भारत सरकार ने ही ‘ऑफसेट पार्टनर’ बतौर सुझाव दिया था। भारतीय रक्षा मंत्रालय का कहना है कि इस बात को बेवजह मुद्दा बनाया जा रहा है। इसमें सरकार की कोई भूमिका ही नहीं थी।

उधर फ्रांस सरकार और दसाल्ट एविएशन (डीए) जो राफेल विमान बनाती है, उनके बयानों में भी ओलेंद के उठाए गए मुद्दे को खारिज तो किया गया लेकिन कहा है कि गाइडलाइंस के मुताबिक खरीदार को ही ‘ऑफसेट पार्टनर्स’ के बारे में बताना चाहिए। वे ‘ऑफसेट क्रेडिट या ऑफसेट ऑबलीगेशन’ के एक साल पहले भी बता सकते हैं पूर्व राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलेंद ने कहा था कि कोई -च्वाएस’ नही दी गई थी। भारत सरकार ने सर्विस ग्रुप के तौर पर अनिल अंबानी के नेतृत्व में ‘रिलायंस डिफेंस’ को ही ‘फाइटर जेट डील’ में आगे रखा। जिसे डीए ने माना। रक्षा मंत्रालय ने फरवरी 2012 का हवाला देते हुए कहा है कि डीए से यूपीए सरकार ने 126 विमान लेने का प्रस्ताव दिया था और रक्षा क्षेत्र में रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ भागीदारी की बात की थी। तब यह समझौता मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ होना था जिन्होंने बाद में रक्षा उद्योग से अपना हाथ खींच लिया।

फ्रांस सरकार ने अपने बयान में यह कहा है कि भारतीय औद्योगिक पार्टनर के तौर पर भारत सरकार का यह सर्वाधिकार है कि वह किसे स्थानीय ‘ऑफसेट पार्टनर’ के तौर पर चुनती है। भारत सरकार ने स्थानीय ऑफसेट पार्टनर के तौर पर ‘रिलायंस डिफेंस’ को चुना। दोनों ही बयानों से एक बात साफ होती है वह यह है कि ओलेंद ने जो कहा वह ठीक है कि भारत सरकार ने ‘रिलायंस डिफेंस’ का नाम दिया। इस बात से फ्रांस सरकार भी इंकार नही कर रही है। यानी यह साफ है कि यह च्वाएस भारत की ही थी। जिसे फ्रांस की कंपनियों ने मान लिया।

इसके पहले 18 सितंबर को यूपीए सरकार में रक्षामंत्री रहे एके एंटनी ने कहा था कि यूपीए सरकार ने पहले 126 राफेल विमान खरीदने की बात तय की थी। भाजपा कह रही है कि यह डील सस्ती थी। ऐसे में 126 की जगह यह 36 विमान ही क्यों ले रही है। वायुसेना ने फिर सस्ते विमान ज़्यादा संख्या में क्यों नहीं खरीदे। मोदी सरकार का राफेल खरीद समझौता एक बड़ा घोटाला है।