दूसरा बनवास

राम बनवास से जब लौट के घर में आए

याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए

रक़्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा

छह दिसंबर को श्री राम ने सोचा होगा

इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए

जगमगाते ये जहां राम के कदमों के निशां

प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां

छोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आए

धर्म क्या उनका है क्या जात है यह जानता कौन

घर न जलता तो उन्हें राम में पहचानता कौन

घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आए

शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर

तुम ने बाबर की तरफ फेंके ये सारे पत्थर

हैं मेरे सर की $खता जख़्म जो सर पर आए

पांव सरयू में अभी राम ने धोए भी न थे

कि नजर आए वहां खून के गहरे धब्बे

पांव धोए बिना सरयू के किनारे से उठे

‘राजधानी की $िफज़ा आई नहीं रास मुझे

छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे।’

कैफी आज़मी