दुष्यंत चौटाला को एक विकल्प चुनना होगा – कुर्सी या किसान?

हरियाणा में किसानों की पार्टी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) राज्य में चल रहे किसान आंदोलन में उनसे अलग खड़ी है। वह सरकार में भागीदार हैं और इसके नेता दुष्यंत चौटाला राज्य के उप मुख्यमंत्री होने के अलावा प्रमुख मंत्रालय सँभाल रहे हैं। एक तरह कुर्सी है और दूसरी तरफ किसान। लगभग दो माह के आंदोलन में पार्टी ने कुर्सी को किसान से ज़्यादा महत्त्व दिया है। यही वजह है कि किसान दुष्यंत और उसकी पार्टी से बेहद खफा हैं। किसान सिरसा स्थित उनके आवास को घेरने पहुँचे, तो पुलिस ने बल प्रयोग कर किसी तरह उन्हें रोक तो लिया; लेकिन उनके प्रति कसक अब भी उनके दिलों में है।

हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन के अग्रज नेता गुरनाम सिंह चारुणी कहते हैं कि जेजेपी तो किसानों की ही पार्टी है, उसे तो आंदोलन में हमारे साथ खड़ा होना चाहिए था। पार्टी को विधानसभा चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों से ही वोट मिले थे। मतलब किसानों ने उन्हें (दुष्यंत चौटाला को) और उनकी पार्टी को जिताया; लेकिन वह आज कहाँ खड़े हैं? उन्हें कुर्सी के अलावा कुछ नज़र नहीं आ रहा, किसान आंदोलन उनके लिए कुछ नहीं। वह अपरोक्ष तौर पर किसानों के साथ भले हों, लेकिन परोक्ष तौर पर तो सरकार के साथ ही हैं।

किसानों के मुताबिक, दुष्यंत के परदादा देवीलाल किसानों के प्रभावशाली नेता रहे हैं। वह इस वर्ग के सच्चे हितैषी रहे और पद की कभी परवाह नहीं की; लेकिन उन्हीं के परपोते दुष्यंत विरासत को सँभालने का दावा तो करते हैं; लेकिन सत्ता का मोह नहीं छूट रहा। देवीलाल के नाम पर वोट लिये, सरकार बनायी और फिर किसानों की पीठ में छुरा घोंप दिया। इससे तो पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने अच्छा काम किया। कम-से-कम केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने किसानों के हित में इस्तीफा तो दिया। वहाँ पूरी पार्टी किसानों के साथ तो खड़ी है, यहाँ किसानों की पार्टी जेजेपी किसानों के दुश्मन के तौर पर सरकार के साथ खड़ी है। जेजेपी के कई नेता अपरोक्ष तौर पर किसान आंदोलन का समर्थन कर चुके हैं; लेकिन वह अभी खुलकर सामने नहीं आ रहे।

इसके विपरीत इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) आंदोलन में किसानों के साथ है। एकमात्र विधायक वाली पार्टी के नेता अभय चौटाला कहते हैं अब वक्त आया है, लोग समझ रहे हैं कि देवीलाल की विरासत कौन आगे बढ़ा रहा है? हमारी पार्टी असल में किसानों की पार्टी है। जब-जब किसानों के हितों पर कोई चोट करेगा, हम उनके साथ खड़े होंगे। हमारी जड़ें किसान और कमेरे वर्ग में हैं। हम उनसे अलग अपने निजी स्वार्थ लेकर नहीं चल सकते।

राज्य में भाजपा सरकार केवल जेजेपी पर ही पूरी तरह निर्भर नहीं है, उसे निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी है। ऐसे ही निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह केबिनेट मंत्री हैं। किसान चाहते हैं कि रणजीत सिंह भी सरकार से इस्तीफा देकर उनके आंदोलन से जुड़ें। किसानों के हक में आवाज़ बुलंद करने वाली जजपा विधायक नैना चौटाला ने किसान आंदोलन पर पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है।

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी शैलजा के मुताबिक, केंद्र सरकार के कृषि क्षेत्र के कानून क्रान्तिकारी नहीं, बल्कि किसान की बर्बादी करने वाले हैं। इससे किसान का हित नहीं, बल्कि अहित होने वाला है। हरियाणा और पंजाब के किसानों को पता है कि उसका गेहूँ और चावल भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकने वाला है। वह मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की तरह औने पौने दामों पर बिकेगा। दोनों राज्यों की यही तो नकदी फसलें हैं, इनका हाल भी अन्य प्रदेशों जैसा होगा, तो किसान की हालत क्या होने वाली है? इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

स्वराज इंडिया पार्टी किसान आंदोलन के साथ सीधी जुड़ी हुई है। संस्थापक योगेंद्र यादव की राय में किसान नये कानूनों को लेकर किसी भ्रम में नहीं हैं। उन्हें भरोसा हो चुका है कि ये उनके हित में नहीं है। वरना कोई कारण नहीं था कि उन्हें आंदोलन करना पड़ता। वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और हर ज़िम्मेवार व्यक्ति को उनका साथ देना चाहिए। पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा किसान आंदोलन को सही कदम बताते हैं। उनकी राय में आंदोलन की सबसे बड़ी माँग है, न्यूनतम समर्थन पर उत्पाद सरकारी खरीद की लिखित गारंटी। केंद्र सरकार यह क्यों नहीं कर रही? फिलहाल यही सबसे बड़ा मुद्दा है, जो सुलझ नहीं रहा। कांग्रेस ने सबसे पहले इस मुद्दे को उठाया और किसानों के समर्थन में् आ जुटी।

भाजपा वाले हमारी पार्टी पर इस मुद्दे पर राजनीति करने और किसानों को गुमराह करने का आरोप लगा रहे हैं। किसानों को गुमराह कैसे किया जा सकता है। क्या वह अपना भला-बुरा नहीं सोच सकता। उसे पता है कि भविष्य में क्या होने वाला है। पंजाब और हरियाणा का किसानों को गेहूँ और चावल जैसे उत्पाद सरकारी भाव पर बेचने में मुश्किल आयेगी। आत्मनिर्भर भारत के आदर्श सूत्र पर इस समय देश का अन्नदाता अपने को कॉर्पोरेट घरानों पर निर्भर समझ रहा है। वह केंद्र सरकार पर निर्भर रहना चाहता है, ताकि उसका उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर हाथों हाथ बिक जाए और मिली रकम से वह देनदारी निपटाने, घर खर्च और आगे की फसल की तैयारी कर सके।

यूरोपीय देशों की तर्ज पर नरेंद्र मोदी सरकार देश में ओपन मार्केट प्रणाली लागू करना चाहती है, ताकि यहाँ का किसान उन देशों के किसानों की तरह खुशहाल हो सके। पहले यह जान तो लिया जाए कि क्या यूरोपीय देशों के किसान खुशहाल हैं भी? हैं तो उनकी खुशहाली के पीछे की वजह क्या है? वहाँ की सरकारें कृषि क्षेत्र में क्या-क्या प्रयोग करती है?

यूरोपीय देशों में किसान पूरी तरह से सरकारों पर ही निर्भर है। सरकार उन्हें व्यापक स्तर पर अनुदान देती है, जिससे वहाँ का किसान का कुछ हद तक खुशहाल कहा जा सकता है। पर हमारे यहाँ ऐसी कोई बात नहीं। अनुदान का सवाल कहाँ उठता है। प्राकृतिक आपदा में पूरी फसल चौपट होने पर भी सरकार इतना नहीं देती कि खर्च ही पूरा हो जाए। भगवान भरोसे किसान फिर नयी फसल की तैयारी करता है। विश्व में कहीं भी ओपन मार्केट पूरी तरह से सफल नहीं है। आंशिक तौर पर कुछ देशों में अपवाद स्वरूप ऐसा है, तो इसका कारण वहाँ की कम आबादी और प्रचुर मात्रा में संसाधनों का होना है। पर हमारे यहाँ आबादी का 70 फीसदी वर्ग खेती या इससे जुड़े कामों पर निर्भर है। इतने संसाधन भी नहीं कि ओपन मार्केट सफल हो सके। बिना इसको जाने-समझे हमारे यहाँ ओपन मार्केट सिस्टम लागू करने के लिए हड़बड़ी में तीन कृषि अध्यादेश लाकर एक तरह से हडक़ंप-सा मचा दिया है। यह सच है कि कृषि को ओपन मार्केट लाइन पर डालने का विचार नरेंद्र मोदी सरकार का नहीं है। यह विचार कांग्रेस सरकार का है, जो कभी हिम्मत नहीं जुटा सकी। अब वही कांग्रेस इसका खुलकर विरोध कर रही है।

तीन नये कृषि कानूनों से अन्नदाता वर्ग में बेसहारा होने की बात कैसे घर कर गयी? इसका एकमात्र कारण केंद्र सरकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उत्पाद खरीदने की गारंटी न देना है। किसान गारंटी ही तो माँग रहा है, ताकि पहले की तरह उसका उत्पाद सरकारी रेट पर बिक जाए। उसे सडक़ों पर आकर आंदोलन करने, पुलिस की लाठियाँ खाने, रेलवे ट्रैक पर लेटकर रातें बिताने, भूखे प्यासे रहकर सरकार को कोसने और नेताओं के पुतले जलाने की ज़रूरत ही नहीं है। धान, मक्का, बाजरा और खरीफ की अन्य फसलें तैयार हैं। किसानों के पास कटाई से लेकर खाद्यान्न को मंडियों में ले जाकर बेचने जैसे काम हैं। पर बावजूद इसके वे आंदोलनरत हैं, तो इसकी वजह न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी न देना है।

फैसला समय आने पर

उप-मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के इस्तीफे और सरकार से समर्थन वापस लेने का दबाव बनाया जा रहा है; लेकिन पार्टी की और से किसान आंदोलन पर कोई खास टिप्पणी नहीं की गयी है। दुष्यंत कह चुके हैं कि जब लगेगा कि किसान का उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदा जा रहा है, वह पद छोडऩे और सरकार से अलग होने में समय नहीं लगाएँगे। वह कहते हैं कि किसान का उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जा रहा है, फिर दिक्कत कहाँ है। वे मज़बूती से कहते हैं कि समर्थन मूल्य से कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है; वह रहेगा।

प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री समेत कई केंद्रीय मंत्री इसे स्पष्ट कर चुके हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियाँ किसानों को गुमराह करने का प्रयास कर रही हैं, जिससे आंदोलन इतना आगे बढ़ गया है। वह (जयंत) किसानों के साथ हैं, उनके हिमायती हैं; उनकी पार्टी किसानों की पार्टी है और वो उनसे अलग नहीं जा सकती। जहाँ तक पद छोडऩे की बात है, तो वह समय अभी नहीं आया है। उन्हें और पार्टी को लगेगा कि सरकार ने नये कानूनों के माध्यम से किसानों से समर्थन मूल्य छीन लिया है, तब वह उचित फैसला लेंगे।

दुविधा की स्थिति

किसान आंदोलन की वजह से जेजेपी की स्थिति साँप-छछूंदर जैसी हालत हो गयी है। न उगलते बने, न निलगते। वह किसानों के साथ होती है, तो सत्ता जाती है और सत्ता में रहती है, तो किसान उसकी खिलाफत करते रहेंगे। एक तरफ कुर्सी है, तो दूसरी तरफ किसान; जो पार्टी के लिए बड़ा वोट बैंक है। अभी तक तो पार्टी ने किसान को दरकिनार कर कुर्सी को ही ज़्यादा महत्त्व दिया है। राजनीति के जानकारों की राय में दुष्यंत को कोई जल्दी नहीं है। वह प्रतीक्षा करो और देखो वाली नीति पर चल रहे हैं। लेकिन यह ऊहापोह की ऐसी स्थिति कहीं उनके और पार्टी के लिए भविष्य में घातक साबित न हो! जिस पार्टी की नींव ही किसान और कमेरे वर्ग पर टिकी है, वह इनके आंदोलन से अलग कैसे रह सकती है? इसे राजनीतिक मजबूरी ही कहा जाएगा।