दिल्ली में कम वोटिंग से कयासों का दौर

करीब ५८ फीसदी मतदान, पिछले चुनाव में पड़े थे ६७.१३ फीसदी वोट

दिल्ली में मतदान ख़त्म हो गया। नतीजे ११ को निकलेंगे, लेकिन अपेक्षाकृत कम करीब ५८ फीसदी मतदान (अंतिम आंकड़ा कुछ ज्यादा हो सकता है) ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। पिछले पांच चुनावों का मतदान प्रतिशत देखें तो यह हमेशा बढ़ता रहा, लेकिन अब अचानक नीचे आ गया है। इससे पहले १९९८ में सिर्फ ४८.९९ फीसदी वोट पड़े थे, जबकि पिछले चुनाव में २०१५ में ६७.१३ फीसदी मतदान हुआ था।
यदि चुनाव प्रचार का रुझान देखें तो भाजपा ने माहौल के ध्रुवीकरण की काफी कोशिश की थी। शाहीनबाग, जामिया से लेकर धारा ३७० और नागरिकता क़ानून को उसने चुनाव प्रचार के केंद्र में रखकर पाकिस्तान तक को चुनाव में घसीटा। इसका कितना असर हुआ, यह नतीजों से ही पता चलेगा।
लेकिन अपेक्षाकृत कम मतदान संकेत है कि संभवता चुनाव में ध्रुवीकरण की भाजपा की तुरुप चली नहीं है। भाजपा का वोटर अग्रेसिव माना जाता और वो मतदान में दिखा नहीं।  चेहरा भी सामने नहीं किया, जिसका नुक्सान उसे हो सकता है।
पुराने चुनावों की बात करें तो १९९३ में ६१.७५ प्रतिशत मतदान हुआ और भाजपा सत्ता में आई। उसके बाद आज तक भाजपा दिल्ली की सत्ता हासिल करने के लिए इंतजार कर रही है। उसके बाद शीला दीक्षित दिल्ली की राजनीति के फलक पर आईं और छा गईं।
कांग्रेस सत्ता में क्या आई मानों भाजपा का रास्ता ही बंद हो गया। हालांकि १९९८ में जब कांग्रेस सत्ता में आई तो यह १९९३ से २०१५ के बीच के छह चुनावों का सबसे कम मतदान हुआ था। तब महज ४८.९९ फीसदी वोट पड़े थे और कांग्रेस सत्ता में आई थी। इसी दौर में दिल्ली को बदलने का काम शुरू हुआ और मेट्रो लोगों को मिली।
इसके बाद २००३ के विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ा और ५३.४२ फीसदी वोट पड़े। सत्ता में फिर कांग्रेस आई और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं। इस दौर को भी दिल्ली के विकास की दृष्टि से उत्तम कहा जाता है। हालांकि, इस दौरान भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे।
जब २००८ का विधानसभा हुआ तो केंद्र में यूपीए की सरकार थी जो मनरेगा, आरटीआई जैसी चीजें लाकर चर्चा में थी। इसका लाभ भी कांग्रेस को मिला और शीला दीक्षित की विकास वाली मुख्यमंत्री की छवि भी उसके काम आई। कुल ५७.५८ फीसदी वोट उस चुनाव में पड़े और कांग्रेस ने सत्ता संभाली।
लेकिन दो-तीन साल बीतने के बाद यूपीए सरकार के कुछ मंत्रियों के घोटालों में फंसने  और दिल्ली में शीला सरकार पर भी भ्र्ष्टाचार के आरोप लगने से कांग्रेस के सामने दिक्क्तें आनी शुरू हो गईं। यह वह दौर था जब अण्णा हज़ारे का आंदोलन उत्कर्ष पर पहुंचा और देश का महल ही बदल गया।
लोकसभा चुनाव से एक साल पहले २०१३ में दिल्ली विधानसभा का चुनाव हुआ और कांग्रेस की सत्ता से विदाई हो गयी। भ्र्ष्टाचार इस चुनाव का बड़ा मुद्दा बना और कांग्रेस ही नहीं भाजपा को भी पछाड़कर अण्णा आंदोलन से उपजे और आयकर विभाग के अधिकारी की नौकरी छोड़कर राजनीति में आये अरविन्द केजरीवाल का उदय हुआ जिन्होंने चुनाव से कुछ ही पहले आम आदमी पार्टी (आप) बनाई थी।
इस चुनाव में अच्छे ६५.६३ फीसदी वोट पड़े और आप सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उसने कांग्रेस की मदद से सरकार बनाई। वैसे आप ने पूरे चुनाव में कांग्रेस सरकार के कथित भ्रष्टाचार पर ही निशाना साधा था। लेकिन २०१४ के दिसंबर में कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से दोबारा चुनाव की नौबत आ गयी और केजरीवाल सरकार को इस्तीफा देना पड़ा।
इसके बाद २०१५ में चुनाव हुए। केजरीवाल ने जनता से अपने लिए और विकास के लिए वोटर मांगे। इस बार फिर बम्पर वोटिंग हुई। कुल ६७.१३ फीसदी रेकॉर्ड वोट पड़े। केजरीवाल की पार्टी ७० में से ६७ सीटें जीत गयी जो किसी ने नहीं सोचा था। यहाँ तक कि खुद केजरीवाल ने नहीं।
अब २०२० में मतदान प्रतिशत फिर नीचे आ गया है। करीब ५५ फीसदी मतदान हुआ है जो अंतिम आंकड़ा सामने तक एकाध-दो प्रतिशत ऊपर हो सकता है। इसमें सबसे ज्यादा मतदान उन इलाकों में हुआ है जो नागरिकता आंदोलन के ज्यादा प्रभाव में रहे। नई दिल्ली जैसे जगह में कम मतदान हुआ जिससे संकेत मिलता है कि उन इलाकों में भाजपा के प्रचार का ज्यादा असर नहीं हुआ।
अब मतदान प्रतिशत को लेकर सभी राजनीतिक दलों के नेता अपना-अपना गुना-भाग करने के लिए जुटेंगे। सबके अपने-अपने दावे होंगे लेकिन काम मतदान संकेत यही दे रहा है कि सरकार के खिलाफ ऐंटी इंकम्बैंसी शायद नहीं थी और भाजपा ने जिस तरह चुनाव प्रचार को चलाया उसका ज्यादा असर नहीं हुआ है। कुछ जगह जिस तरह भाजपा के टिकट बदले गए, चर्चा है, कि वहां कार्यकर्ता नाराज थे और वे खुलकर मैदान में नहीं उतरे।
कांग्रेस इस चुनाव में खामोशी धारण किये रही और बहुत से जानकारों का कहना था कि उसे भय था कि यदि वह खुलकर मैदान में उत्तरी तो इससे वोट का जो बटबारा होगा उससे भाजपा को लाभ मिलेगा। कांग्रेस का मकसद इस चुनाव में अपने जीतने से ज्यादा भाजपा को हारने पर फोकस रहा। हालांकि, अभी भी यह नहीं कहा जा सकता है कि कांग्रेस शून्य पर ही रहेगी। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर रही थी।