दिग्विजय की यात्रा

कुछ दिनों के बाद यौगंधरायण ने राजा को याद दिलाया कि अब उसे दिग्विजय करने की तैयारी करनी चाहिए। राजा इस बात से तो सहमत था, लेकिन ऐसा करने से पूर्व उसकी इच्छा थी कि भगवान शंकर की तपस्या करनी उचित है, क्योंकि किसी भी शुभ कार्य को कुशलपूर्वक समाप्त करने के लिए पूजा-पाठ की आवश्यकता होती है। रामचंद्र जी ने सेतुबंध बनाने से पहले रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा का प्रस्ताव किया था। उनकी सारी वानर सेना ने जिस प्रकार उसको स्वीकार कर लिया था, उसी प्रकार राजा उदयन की यह बात उनके मंत्रियों ने मान ली। तब राजा ने अपनी दोनों रानियों और मंत्रियों को लेकर महादेव की तपस्या आरंभ कर दी। अभी तप करते हुए उन्हें तीन दिन ही बीते थे कि महादेव ने राजा से सपने में कहा,”मैं तुम पर प्रसन्न हूं। अब तुुम तपस्या मत करो। तुम्हारी इच्छा शीघ्र की पूर्ण होगी। तुम्हारे एक पुत्र उत्पन्न होगा जो सब विद्याधरों का राजा बनेगा।’’

राजा ने सवेरे उठकर अपने सपने का सारा हाल मंत्रियों को सुनाया। दूसरे दिन सबकी सलाह से व्रत समाप्त कर दिया गया। उसके बाद यौगंधरायण ने उदयन से कहा, ”हे राजा! आप बड़े सौभाग्यशाली हैं। आपके ऊपर महादेवजी की कृपा है। अब अपनी शक्ति से शत्रुओं को जीतकर विजय की लक्ष्मी प्राप्त करें। अपने पुरूषार्थ से प्राप्त की हुई लक्ष्मी ही सदा स्थिर रहती है। आपके पूर्वजों ने जिस लक्ष्मी को अर्जित किया था, वह उनके पुरूषार्थ से ही आपके पास सुरक्षित है। इस बारे में मैं आपको एक कथा सुनाता हूं: पाटलिपुत्र में देवदास नाम का एक बनिया रहता था। उसका पिता बहुत धनी था। पौंड्र देश के एक धनवान बनिए की कन्या से देवदास का विवाह हुआ था। कुछ दिनों बाद उसका पिता मर गया और वह जुए में अपना सारा धन हार गया। यह देखकर उसका ससुर अपनी लड़की को अपने घर ले गया। देवदास को जब कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया, तो उसने अपने ससुर से कुछ रुपया लेकर व्यापार करने का विचार किया। बस वह अपने ससुराल की ओर चल पड़ा। उसके कपड़े फटे हुए और मैले थे। इसलिए जब वह सायंकाल को पौद्धवद्र्धन नगर में पहुंचा, तो संकोच के मारे अपनी ससुराल नहीं गया। एक बंद दुकान के पास ठहर गया। कुछ देर बाद एक बनिया वहां आया और दुकान खोलकर अंदर चला गया। उसके पीछे एक स्त्री भी दुकान में गई। देवदास छिपकर उन दोनों को देख रहा था। दुकान के भीतर दीये के उजाले में जब वह स्त्री पहुंची, तो देवदास चौंक पड़ा। यह तो उसकी पत्नी थी। उसके हृदय को बहुत चोट पहुंची। वह सोचने लगा-पिता के घर में स्वतंत्र लड़कियां इसी प्रकार बिगड़ जाती हैं।

”तभी उसने सुना कि उसकी पत्नी अपने प्रेमी से कह रही थी,’तुम मुझे बहुत प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें एक गुप्त बात बताती हूं। मेरे पति के परबाबा वीरवर्मा ने अपने घर के आंगन के चारों कोनों में चार सोने के घड़े गाड़े थे। उनमें अशर्फियां भरी हुई हैं। उन्होंने यह बात अपनी पत्नी को बताई थी। उनकी पत्नी ने मेरी ददिया सास को यह भेद बताया और मेरी ददिया सास ने मेरी सास  को इसकी सूचना दी। मेरी सास ने मुझसे कहा। यह गुप्त भेद मैंने अपने पति को भी नहीं बताया था, क्योंकि वह जुआ खेलता है और मैं उससे घृणा करती हंू। उसके निर्धन होने पर भी मैंने यह बात उसको नहीं बताई। अब तुम उस मकान को खरीद लो और धन निकाल लो। फिर हम-तुम आनंद से रहेंगे।’’

”ये सारी बातें सुनकर देवदास अपने घर वापस लौट गया और आंगन में गड़े हुए धन को उसने खोद निकाला। कुछ दिनों बाद  उसकी पत्नी का प्रेमी भी व्यापार करने के लिए उस नगर में आया। उसने देवदास से वह मकान मोल ले लिया; लेकिन जब खोदने पर उसे गड़ा हुआ धन नहीं मिला, तो वह देवदास से झगडऩे लगा। बोला,’मकान वापस ले लो और मेरा रुपया लौटा दो।’ देवदास ने उसकी बात  नहीं मानी। इस तरह उनका झगड़ा बढ़ता गया और मामला राजा के यहां पहुंचा। देवदास ने राजा से अपनी  पत्नी का सारा हाल कह सुनाया। राजा ने उसकी पत्नी के प्रेमी बनिए का सब कुछ छीन लिया। देवदास ने भी अपनी पत्नी के नाक-कान काटकर उसे घर से निकाल दिया। उसने दूसरा विवाह कर लिया और सुख से रहने लगा।’’

यह कथा सुनाकर यौगंधरायण ने कहा,”हे राजा! इस तरह अघर्म से प्राप्त किया पैसा पास नहीं ठहरता। इसलिए आप धर्म से लक्ष्मी को प्राप्त कीजिए। राज्य एक विशाल वृक्ष है और लक्ष्मी उसकी जड़ है। आप अपने मंत्रियों को धन और मान से प्रसन्न कीजिए और दिग्विजय करने की तैयारी कीजिए। सबसे पहले अपने पुराने शत्रु काशी-नरेश ब्रहमदत्त को जीतिए। फिर पूर्व की और बढि़ए।

उदयन ने यौगंधरायण की बात मान ली। उसने दिग्विजय के लिए सेनाओं को तैयार रहने की आज्ञा दे दी। वासवदत्ता का भाई गोपालक भी इस दिग्विजय में सहयोग देने के लिए आ गया। राजा ने उसका सम्मान किया और भेंट में उसको विदेह का राज्य सौंप दिया। सिंह वर्मा के ऊपर सेना को सुसज्जित करने का भार था। इस कार्य के लिए उसको चंदेली का राज्य ईनाम में दिया गया। म्लेच्छराज पुलिंदक को भी इस दिग्विजय यात्रा में सहयोग देने के लिए निमंत्रित किया गया। इस तैयारी का समाचार सुनकर उदयन के शत्रु घबड़ाने लगे। यौगंधरायण ने काशी में अपने भेदिए भेजगर राजा ब्रहमदत्त का पता चलाने का प्रयत्न किया। उसके बाद राजा उदयन पदमावती और वासवदत्ता को साथ लेकर एक विशाल सेना के साथ दिग्विजय के लिए चल पड़ा। उधर यौगंधरायण के दूतों ने काशी में जाकर अपना काम शुरू कर दिया। उनमें से एक गुरू बना और बाकी सब चेले। उन चेलों ने सारे नगर में यह बात फैला दी कि उनका गुरू सर्वज्ञ हे। यही नहीं, अगर वह किसी से कह देता था कि जा तेरे घर में आग लग जाएगी, तो चेले छिपकर ठीक समय पर उसके घर में आग लगा आते थे। इस तरह वह सारे नगर में प्रसिद्ध हो गया। काशी-नरेश का एक मित्र भी उससे बहुत प्रभावित हुआ- यहां तक कि उसकी सेवा करते हुए वह चेलों के साथ ही रहने लगा। इस व्यक्ति से ही उन्हें गुप्त बातों का पता चल जाया करता था। जिस मार्ग से राजा उदयन सेना-सहित काशी की ओर आ रहा था, उस मार्ग पर काशीराज के मंत्री योगकँडक ने पानी, फल-फूल और वृक्षों को विषैला बना दिया। उसने ऐसी नर्तकियां उदयन की सेना में भेज दीं, जो सैनिकों को विष देकर मार देनेे की कला में निपुण थीं। यौगंधराध ने यह भेद अपने भेदियों से जान लिया। इसलिए उसने मार्ग के फल-फूल आदि को विष-नाशक औषधियों से शुद्ध करवाया और किसी भी स्त्री का सेना में आना बंद कर दिया। जिन पुरूषों पर उसे संदेह होता था, उन्हें वह जान से मरवा डालता था। इस तरह काशीराज के मंत्री की एक भी चाल न चल सकी। प्रारंभ में राजा ब्रहमदत्त ने उदयन की सेना से युद्ध करने का प्रयत्न किया। किंतु शीध्र ही उसकी अपार शक्ति से वह हताश हो गया। इसलिए उसने उदयन से हार मान ली और भेंट-स्वरूप बहुत-सी सामग्री उसको दी।

इस प्रकार काशी पर विजय पाने के बाद राजा उदयन सेना-सहित पूर्व दिशा के राजाओं को परास्त करता हुआ समुद्र के किनारे आकर रूका। वहां उसने अपना जयस्तंभ स्थापित किया। कलिंग देश के रहने वालों ने उसको अनेक उपहार दिए। फिर उदयन ने महेंद्र पर्वत को जीतकर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। कावेरी नदी को पार करके उसने चोल देश को जीता फिर रेवा नदी के पार बसी हुई उज्जयिनी नगरी में जाकर वहां रुका। वहां के राजा चंडमहासेन ने उसका बहुत स्वागत-सत्कार किया। वासवदत्ता भी अपने पिता से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई। कुछ दिन रहने के बाद उदयन उज्जयिनी की सेना लेकर पश्चिम दिशा की ओर बढ़ा। वहां उसने लाटव देश पर विजय प्राप्त की। फिर वह उत्तर में गया। वहां म्लेच्छों को मारकर उसने सिंधु देश के राजा पर विजय प्राप्त की। फिर उसने पारस के राजा को युद्ध में मारा और हूण देश को अपने आधीन किया। विजय के इन समाचार को सुनकर कामरुप का राजा आप ही उसकी शरण में आ गया। उसने भेंट में बहुत से हाथी दिए।

इस तरह चारों दिशाओं को जीतता हुआ राजा उदयन मगध पहुंच गया। मगध का राजा उदयन का श्वसुर और पदमावती का पिता था। उसने उदयन का बड़ी धूम-धाम से स्वागत किया और बड़ा उत्सव मनाया। वासवदत्ता को फिर से प्रकट रूप में देखकर मगध-नरेश ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। अंत में उत्सव समाप्त होने के बाद उदयन मगध से अपने लावणक नामक देश वापस आ गया।

कथा: सरित्सागर

रचित: सोमदेव

अनुवाद: गोपाल कृष्ण कौल

संपादक: विष्णु प्रभाकर

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