दार्जिलिंग में दो गोरखाओं की लड़ाई से किसे फायदा?

लोकसभा चुनाव चुनाव में पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग की लड़ाई सबसे दिलचस्प मानी जा रही है। पिछले दस वर्षों से भाजपा इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रही है। हालांकि पार्टी ने इस बार मौजूदा सांसद एस.एस.आहलूवालिया की जगह मणिपुरी मूल के गोरखा राजू सिंह बिष्ट को उम्मीदवार बनाया है। विपक्षी पार्टियां इसे स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा बना रही हैं। लेकिन पहाड़ की राजनीति में यह कोई मुद्दा नहीं है,क्योंकि दार्जिलिंग में बाहरी को उम्मीदवार बनाना कोई नई बात नहीं है।  सही मायनों में दार्जिलिंग की लड़ाई भाजपा और तृणमूल के बीच नहीं,बल्कि दो गोरखाओं में हो रही है। ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ के दो गुटों द्वारा भाजपा और तृणमूल कांग्रेस को समर्थन दिए जाने से यहां की लड़ाई रोचक हो गई है। वैसे इस पर्वतीय सीट के परिणाम जो हों, लेकिन इतना तय है कि गोरखा नेता विमल गुरूंग और विनय तमांग का राजनीतिक भविष्य इस बार के नतीजे तय करेंगे।

2017 में बांग्ला भाषा थोपे जाने के सवाल पर साथ मिलकर आंदोलन की शुरूआत करने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता विमल गुरूंग और विनय तमांग की राहें अब जुदा हो गई हैं। जबकि 2014 के चुनाव में ये दोनों नेता भाजपा उम्मीदवार एस.एस आहलूवालिया की हिमायत कर रहे थे। साल 2017 का आंदोलन 104 दिनों तक चला। इस दौरान पहाड़ का संपर्क देश से कट गया। बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसमें डेढ़ दर्जन लोग मारे गए। बंद की वजह से स्थानीय कारोबार और पर्यटन को काफी नुकसान हुआ। लेकिन बगैर किसी ठोस नतीजे के आंदोलन खत्म हो गया। इसके साथ ही गोरखालैंड आंदोलन से जुड़े दोनों बड़े नेता एक दूसरे के खिलाफ हो गए।

गोरखालैंड में ‘गोरखालैंड’ मुद्दा नहीं

उत्तर बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चार जनसभाएं हुईं,लेकिन इस बार उनके भाषणों में गोरखाओं से जुड़े मुद्दे नहीं थे। जबकि 2014 की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने गोरखाओं के सपने को अपना सपना बताया था। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (विनय तमांग गुट) की मानें तो भाजपा ने गोरखाओं को सिर्फ सब्जबाग दिखाया है,उनके लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ है। वहीं ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ (विमल गुरूंग गुट) के मुताबिक काफी अर्से से चल रहे पहाड़ की समस्याओं के स्थायी निराकरण का भरोसा इस बार भाजपा ने दिया है। अपने घोषणा-पत्र में गोरखा समुदाय की 11 जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा किया है। तृणमूल कांग्रेस का समर्थन कर विनय तमांग ने गोरखाओं के साथ विश्वासघात किया है। यह जानते हुए कि तृणमूल सरकार अलग गोरखालैंड के खिलाफ है। विनय तमांग के एजेंडे में अगर गोरखालैंड होता,तो वह कभी टीएमसी से हाथ नहीं मिलाते। बांग्ला भाषा थोपे जाने के खिलाफ सवा तीन महीनों तक पहाड़ पर बंद रहा। राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के खिलाफ दमन-च्रक चलाया। लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कभी हाल-चाल जानने दार्जिलिंग नहीं आईं।

पहाड़ों पर कब किसका प्रतिनिधित्व

दार्जिलिंग लोकसभा का अस्तित्व देश के दूसरे संसदीय चुनाव में आया था। बतौर कांग्रेस उम्मीदवार टी.मेनन ने 1957 में जीत दर्ज की थी। इस संसदीय सीट से कांग्रेस अब तक पांच बार विजयी हुई है। 1971 के चुनाव में माकर््सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को यहां पहली बार कामयाबी मिली और रतनलाल बाह्मणिक विजयी हुए। दार्जिलिंग लोकसभा में सबसे अधिक छह बार माकपा उम्मीदवारों को जीत मिली। 1989 के चुनाव में पहली बार दार्जिलिंग संसदीय क्षेत्र से गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के उम्मीवार इंद्रजीत खुल्लर विजयी हुए थे। जबकि 1967 में निर्दलीय उम्मीदवार एम.बसु को जीत मिली। गोरखाओं की मदद से पहाड़ की चुनावी राजनीति में भाजपा पहली बार 2009 में कामयाब हुई और जसवंत सिंह को जीत मिली। उसके बाद 2014 के चुनाव में एस.एस.आहलूवालिया ने तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार वाइचुंग भूटिया को करीब पौने लाख मतों से पराजित कर जीत दर्ज की। इस बार भाजपा ने यहां राजू सिंह बिष्ट को चुनावी मैदान में उतारा है,जबकि तृणमूल कांग्रेस ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता व दार्जिलिंग के मौजूदा विधायक अमर सिंह राई को अपना उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस की तरफ से माटीगाड़ा-नक्सलबाड़ी विधानसभा क्षेत्र से विधायक शंकर मालाकार मैदान में हैं।

तृणमूल का दार्जिलिंग जीत का सपना

दार्जिलिंग संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस, सीपीएम, जीएनएलएफ, भाजपा यहां तक कि निर्दलीय उम्मीदवार भी जीत चुके हैं। लेकिन तृणमूल कांग्रेस को अभी तक इस पर्वतीय सीट से जीत नहीं मिली है। 1998 से तृणमूल कांग्रेस की दार्जिलिंग विजय कोशिशें जारी हैं। इस बार पहाड़ों पर जैसे हालात बने हैं उससे पार्टी की उम्मीदें बढ़ी हैं। इससे पूर्व तृणमूल कांग्रेस को गोरखाओं के प्रभावी दलों का समर्थन नहीं मिला था। लेकिन इस बार गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (विनय गुट) के बड़े नेता अमर सिंह राई तृणमूल के निशान पर चुनावी मैदान में हैं। गोरखा नेता विनय तमांग के जरिए पहाड़ों पर टीएमसी की पैठ हुई है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस का सफर कितना लंबा चलेगा। यह तो दार्जिलिंग के चुनावी नतीजे तय करेंगे,लेकिन इतना जरूर है कि इन परिणामों का असर सबसे अधिक गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता विनय तमांग के भविष्य की राजनीति पर पड़ेगी।

हिंसा नहीं समस्याओं का हल चाहिए

‘गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ के नेता सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में 1986 में करीब दो वर्षों तक आंदोलन चला। इस दौरान कई लोगों की मौतें हुईं और स्थानीय कारोबार प्रभावित हुआ। गोरखाओं के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं का कद बढ़ता गया। आज गोरखालैंड की लड़ाई लडऩे वाले कभी सुभाष घीसिंग के साथ थे। 2017 में यही लोग साथ मिलकर आंदोलन शुरू किया,लेकिन अब दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं। अगले चुनाव में ये किनका साथ देंगे कोई नहीं जानता। 2017 के आंदोलन से पहाड़ के छोटे कारोबारियों का धंधा चैपट हो गया। ढाई महीने की बंदी का असर बड़े कारोबारियों ने झेल लिया। लेकिन छोटे व्यापार से जुड़े हजारों लोग तबाह हो गए। यही कारण है कि गोरखाओं को आंदोलनों से डर लगता है। हिंसा और आगजनी से गोरखालैंड की समस्याएं हल नहीं होगी। इसलिए गोरखाओं के अधिकारों से जुड़े नेताओं को स्थायी राजनीतिक हल के बारे में सोचना होगा,ऐसा यहां के लोगों का मानना है।

गोरखाओं की राजनीति और हिंदी भाषी

दार्जिलिंग में गोरखाओं से इतर राजनीति नहीं हो सकती। यहां की सियासत गोरखाओं के इर्द-गिर्द ही घूमती है। लेकिन हिंदी भाषी राज्यों खासकर बिहार,उत्तर प्रदेश और राजस्थान के लोगों की संख्या भी कहीं-कहीं निर्णायक स्थिति में हैं। अंग्रेजों के समय से यहां उत्तर भारतीय लोग रहते हैं। चाय बागानों से लेकर होटल-रेस्तरां के कारोबार में इनका ठीक-ठाक दखल है। कभी देश और दुनिया में दार्जिलिंग की पहचान टी,टिम्बर और टूरिज्म से होती थी। लेकिन धीरे-धीरे इसकी पहचान कम हो रही है। यहां के चाय बागान लगातार बंद हो रहे हैं,जो चालू हैं वहां के श्रमिक वेतन विसंगतियों के शिकार हैं। 1986 के आंदोलन में जंगलों को काफी नुकसान हुआ,क्योंकि आंदोलन चलाने के लिए धड़ल्ले से इमारती पेड़ों की कटाई होने लगी। टिम्बर स्मगलिंग पहाड़ों की एक बड़ी समस्या बन चुकी है। गोरखालैंड आंदोलन से जुड़े प्राय: सभी नेता इससे जुड़े हुए हैं। हालांकि इस चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं है। पहाड़ों में पानी की एक बड़ी समस्या है और लोगों को टैंकरों से पानी खरीदना पड़ता है। गंदगी और ट्रैफिक की समस्या भी विकराल होती जा रही है। लेकिन इस पर कभी कोई बात नहीं करता।

डीजीएचसी बरास्ता जीटीए

गोरखालैंड की मांग 1980 में शुरू हुई थी,लेकिन गोरखाओं की राजनीतिक पहचान के लिए संघर्ष 1907 में शुरू हुआ था। 1986 में ‘गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ( जीएनएलएफ) के नेता सुभाष घीसिंग की अगुवाई में दार्जिलिंग में करीब दो वर्षों तक आंदोलन चला। तब विमल गुरूंग और विनय तमांग भी उस आंदोलन का हिस्सा थे। 1988 में पश्चिम बंगाल सरकार और गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के बीच एक समझौता हुआ और, ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल’ (डीजीएचसी) का गठन हुआ। इसके तहत गोरखाओं के लिए  कुछ विशेष प्रावधान किए गए। उसके पहाड़ों पर कई वर्षों तक शांति बनी रही। सुभाष घीसिंग के कजजोर पडऩे पर विमल गुरूंग और विनय तमांग 2007 में ‘गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ से अलग होकर ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’(जीजेएमएम) बनाया। गोरखाओं में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इन्होंने गोरखालैंड की मांग को हवा दी। इसका सीधा असर वहां के पर्यटन और उससे जुड़े लोगों पर पड़ा। तीन वर्षों के आंदोलन के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ से वार्ता के लिए तैयार हुई। 18 जुलाई 2011 को तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदंबरम, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ‘गोरखा जनमुक्ति मोर्चा’ के नेताओं विमल गुरूंग, विनय तमांग और रौशन गिरि साथ समझौता हुआ। इस कऱार के बाद ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल’(डीजीएचसी) को भंग कर ‘गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन बोर्ड’ (जीटीएबी) का गठन किया गया।

दार्जिलिंग लोकसभा सीट का समीकरण

दार्जिलिंग में कुल मतदाताओं की संख्या 14,37,126 है। इसके तहत पहाड़ की तीन विधानसभाएं कलिम्पोंग, दार्जिलिंग और कार्सियांग, जबकि माटीगाड़ी-नक्सलबाड़ी, सिलिगुड़ी, फांसीदेबा और चोपरा मैदानी क्षेत्र की विधानसभा सीटें हैं। पहाड़ों पर कुल मतदाताओं की संख्या करीब छह लाख हैं और शेष मतदाता मैदानी इलाकों में हैं। दार्जिलिंग में हार-जीत में पहाड़ी क्षेत्र की तीन विधानसभाओं की बड़ी भूमिका मानी जाती हैं। इसकी वजह है गोरखा समुदाय के मतदाता। मैदानी इलाकों में अमूमन राजनीतिक दलों के बीच मतों का विभाजन होता है। लेकिन पहाड़ की तीन विधानसभाओं का वोट गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की हिमायत वाली पार्टी को जाता है। इस बार गोजमुमो में दो फाड़ हो चुका है। दस वर्षों से गोरखाओं का एकमुश्त समर्थन पाने वाली भाजपा के समक्ष गोरखा नेता विनय तमांग ने थोड़ी मुश्किलें पैदा की हैं। जीएनएलएफ के अध्यक्ष मन घीसिंग गोरखाओं के बड़े नेता सुभाष घीसिंग के बेटे हैं। दार्जिलिंग में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के अलावा सीपीएम से समन पाठक, कांग्रेस से शंकर मालाकार और जन अधिकार पार्टी से हरका बहादुर क्षेत्री चुनावी मैदान में हैं।