दारू की गंध

झोंटा पकड़के निकाल ई हरजाई को….दारू गारती है कि कोठा खोला है… रात-रात भर भतार लोग आते रहते हैं…।’’ दादी हलक फाड़-फाडकर चीख़ रही थी। समूचा वजूद काँप रहा था मानो बूढ़ी देह में कोई शक्ति सवार हो गई हो।

‘काकी जानती हो,कल मैंने….कल नहीं परसों इसको पचास टक्का दिया…और आज कहती है कि सब वसूल हो गया। पचास टक्का में पाँच बोतल दारू मिलती है-दस टक्के बोतल…!’ झबरू तुरी लडख़ड़ाता हुआ दादी के सामने आया। मुँह से अधजले मुर्दे की गंध आ रही थी। दादी नाक सिकोड़कर उस पर तुनक पड़ी, ‘झबरू चल फूट यहाँ से वरना एक डाँग दूँगी…चल रास्ता नाप यहाँ से …चल पर्र…!’

दादी का रौद्र रूप देखकर झबरू ने रास्ता लिया। कै…कै…करके पेट का कचरा दो-तीन बार उगला और थोड़ी दूर चलकर भाँजने लगा, ‘ई साली हमरा ठगती है…पचास टक्का मुफ्त में आता है क्या…? मजा चखा दूँगा…धर-पकड़ कर दँूगा न सब वसूल हो जाएगा… कौन क्या बिगाड़ लेगा हमरा…!’ झबरू की कर्कश आवाज़ रात की छाती भेदती हुई दूर जाकर गुम हो रही थी। शराबी लोग भी पर्यावरण को दूषित करने में कम नहीं होते। एक तो भोंभें की तरह चिल्लाते हैं। दूसरे जहाँ-तहाँ पेट का कचरा उगल देते हैं, सो अलग।

‘ई हरजाई ने हमरा कुल-खानदान बदनाम करके रख दिया है…तुरी-महरा सबको पिलाती है और रात भर मजा मारती है…! जीना हराम कर रखा है कुलछनी ने…!’ दादी तमतमाती हुई आई और माँ को दो-तीन डाँग जड़ दिया। माँ तनिक हिली-डुली भी नहीं। बर्फ़ की तरह जमी रही वह। जिसकी शीतलता से दादी के अंदर की उफनती ज्वाला शांत हो गई। वह अंटशंट बड़बड़ाती हुई चली गई। उसके पीछे बाबू जी, भैया और भाभी भी हो लिए। भाभी ने बाहर का दरवाज़ा धडा़म से बंद कर दिया।

चारों तरफ सन्नाटा परसने लगा था। माँ के अंदर अब तक जमी ब$र्फ का बाँध वेदना व ग्लानि के ताप से पिघलने लगा। आँसू रिसने लगे और बाँघ टूट गया। वह फफक पडी़। दीवार से टिक कर बैठ गई और आँचल से मँुह छुपाकर हिचक-हिचककर रोने लगी। मैं बरामदे में ही चुपचाप ब$र्फ-सा होकर बैठ गया था। दीरखे पर ढिबरी की लौ केंचुए की तरह रेंग-सी रही थी- अपनी संपूर्ण शक्ति बटोरकर। धीरे-धीरे सन्नाटा साँप की तरह रेंगने लगा था मानो घर से कोई मुर्दा निकला हो। आकाश से चाँद विलुप्त था जैसे मुँह पर कालिख पोतकर छूप गया हो। ठंडी रात में नक्षत्र ठिठुर रहे थे- अपने अस्तित्व को स्थापित रखने के लिए संघर्ष कर रहे थे-मेरी माँ की तरह…!

ढिबरी का मद्धिम प्रकाश अँधेरे को पीते-पीते थकने लगा था। माँ के आँसुओं का सोता सूख गया था। सूजे गालों में आँसुओं की पपडिय़ाँ जम गई थीं। वह दीवार से सटी हुई पलकें बंद कर बैठी थीं जैसे नींद में हों।

माँ के बारे में सोचते-सोचते मेरा मन आद्र्र और बोझिल होने लगा था। मन में आया माँ को उठाकर भीतर ले चलूँ तभी माँ की आर्त आवाज ने मेरी तंद्रा भंग की, ‘अरे! तू इस तरह मेरे साथ तिल-तिल क्यों गलता है…? और तू मुझे भी इस तरह क्यों गलाता हैं…? क्या सोच रहा है तू इतनी रात तक…?’ माँ उठकर मेरे सामने आ गई थी,क्या तू भी अपनी माँ को वही समझता है…वेश्या?’ माँ…! ‘मेरे मुख से अस्फुट स्वर निकला और मैं माँ की छाती में दुबक गया था। आसमान में एक तारा टूटा। उसकी क्षीण प्रभा क्षण में विलुप्त हो गई,। किंतु मेरी तंद्रा भंग कर गई। मैंने एक दीर्घ श्वास लिया और छत पर टहलने लगा। फिर रेलिंग से सटकर आसमान की ओर देखा तो मन में एक टीस-सी उठी-आह !अपने अस्तित्व को स्थापित रखने के लिए संघर्ष करते-करते टूट जाते हैं ये तारे भी आदमी की तरह …! बिलकुल मेरी माँ की तरह …!

मेरी माँ ने भी जीवन भर संघर्ष किया था। वह सारी उम्र दारू गारती रही। दारू से ही हम दोनों माँ-बेटे का गुजर-बसर होता था। तब बाबू जी,दादी और भैया -भाभी एक साथ रहते। केवल हम माँ बेटे अलग ! उस समय मैं पंद्रह-सोलह साल का था। बाबू जी को टी.बी.हो गई थी। वे एक प्राइमरी स्कुल में शिक्षक थे। महीना में दस-बारह दिन ही ड्यूटी करते थे। वेतन के जो भी पैसे मिलते सब दादी और भैया को लाकर देते। दादी घर चलाती थी और भैया-भाभी खेती-बारी सँभालते। एक नौकर भी होता था।

दादी, भैया को बहुत लाड़ करती। मै तो उसे फूटी आँख भी नहीं सुहाता। मेरे लिए कर्मजला और मुँहजला जैसे विशेषणों का प्रयोग करती। मेरा बदन कृश था और रंग तो काला था ही-बिलकुल मिरियल-सा चलता-फिरता कंकाल।

ठीक विपरीत भैया का रंग गोरा और हृष्ट-पुष्ट खूब सुंदर शरीर,घोड़े जैसा। भाभी भी थी-टमाटर की तरह गोल-मटोल लाल। वह पेट से थी सो चेहरा सरसों के फूल-सा खिला रहता। भैया हमसे पंद्रह- सोलह साल बड़े थे। बी.ए. के बाद खेती करने लगे थे। खेती बडी़ लगन से करते।

दरअसल भैया मेरे सौतेले भाई थे। पहली माँ का बेटा। जब पहली माँ का देहांत हुआ उस समय भैया चौदह-पंद्रह साल के थे। बाबू जी की उम्र चालीस के आसपास थी। शिक्षक तो थे लेकिन थे बड़े कामुक! विधुर का जीवन उन्हें नरक लग रहा था। चार-पाँच महीने मे ही कई कारनामे कर दिए। आफत मचा दी थी। वैसे शुरू से ही कई औरतों से उनका प्रेम-प्रसंग चर्चित रहा था। लोग-बाग परदे पीछे विरोध करते थे। लेकिन प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहते थे। गाँव के इकलौते मास्टर जो थे। एक साठ साल की विधवा के साथ रंगे हाथों पकड़े गए। लोगों ने विरोध नहीं, जी भर विनोद किया। कुछेक सुझाव आए,” शादी कर लो, अभी उम्र बहुत है… कितना भटकते फिरोगे… किस-किस गड्ढे का पानी पिओगे?’’

तब मेरी माँ को ब्याह कर लाए। उस समय मेरी माँ सोलह साल की थी। सुंदर-छरहरी। सुख के दिन शुरू हुए ही थे कि भाग्य में वज्र आ गिरा। मेरे नाना बहुत गऱीब थे। बूढ़े बाप की छाती में जवान हो रही बेटी नासूर की तरह चुभ रही थी। तिलक-दहेज कहाँ से जुगाड़ करते जो जोडी का लडका ढूँढते। सो ढाई गुना बड़े वर के साथ बेटी को ठेल दिया।

जब शादी की चर्चा चल रही थी तो माँ पिता की उम्र के वर को देखकर ख़ूब रोई थी कई दिनों तक । तब मेरी नानी ने माँ को समझाते हुए लाड़ से कहा था,’’ पगली तू रोती क्यों रे… तेरे भाग्य में सुख लिखा है… तेरा भाग्य अच्छा है जो ऐसा रिश्ता आ रहा है! तू राज करेगी … मास्टर की बहू कहलाएगी…मास्टरनी।’’

विवाहोपरांत गाँव के लोगों ने खूब खिल्ली उडा़ई। व्यंग्य-बाण छोडे,’’ मास्टर साहब जोरू ब्याह कर लाया है या पतोहू… अरे ये तो उनकी बेटी बराबर है,इससे तो बेटे का ब्याह कर देते। बुढापे में कली का मजा़ लूट रहे हैं… धन्य हो मास्टर जी!’’

औंरतें भी पीछे न थीं। माँ को देखकर तानें कसतीं,’’ बुढऊ के पेटवा के तरे दुबक जाती होगी… ओह दईया…हाय राम !’’

फूल-सी मेरी माँ ने वज्रघात को कैसे सहा होगा? क्या अपना यौवन उसे कभी रास आया होगा? अपने रंग-रूप से वह कभी रिझी होगी.. या फिर पति को रिझाने लिए कभी सजी-सँवरी होगी…। शारीरिक यातनाएँ माँ को सदा उद्वेलित करती रहीं! क्या औरत की यही नियति है? यह कैसी बिडंबना है!

नशे में धुत्त होकर बाबू जी आए और माँ को धड़ाम से खाट पर पटक दिया…। कुछ देर बाद वे उल्टी करने लगे। माँ के कपडों में कचडा़ लग गया था। माँ मुश्किल से बाबू जी के चंगुल से छूटी और वह भी उल्टी करने लगी। पूरे कमरे में दारू की दुर्गंध फैल गई थी। मैं डर से एक कोने में चिपका रहा। बाबू जी सँभलते हुए खाट से उठे और माँ को झाड़ू से मारने लगे। उस दिन बाबूजी ने माँ को मारते-मारते अधमरा कर दिया था। समूचे शरीर में झाड़ू के निसान उग आए थे। कुछ निशान माँ के शरीर में सदा मौजूद रहे अपनी मूक व्यथा कहते हुए।

जब मेरा जन्म हुआ माँ काफी दुबली हो गई थी। विवाह के डेढ़-दो साल बाद ही मेरा जन्म हुआ था। मेरी माँ दादी को कभी सुहाई नहीं, भला मैं क्यों सुहाता? दादी कुढ़कर कहती,’’ पिल्लू जैसा बैटा जना है… जाके किसी गड्ढें में फेंक आ… नमक चटाकर मार डाल ई पिल्लू को….!’’

दादी बाबू जी के दूसरे ब्याह के विरूद्ध थी। घर का काम-काज सँभालने के लिए वह भैया का विवाह करना चाहती थी। दादी की नजरों में भैया जवान हो गए थे। बाबू जी की काली करतूतों के कारण वह भैया से भी भय खाने लगी थी।

लेकिन भैया का चरित्र अच्छा था। मेरे जन्म के दो साल बाद भैया का विवाह हुआ। जब मुझे कुछ बुद्धि आई तो मैं माँ के दुख को कुछ-कुछ समझने लगा था। बाबू जी माँ को प्रताडि़त करते तो मैं उन पर झपट पड़ता। वे मुझे एक और धकेल देते। मैं अपनी पराजय पर हाथ पैर छींटता रहता,आसूँ बहाता रहता। बाबू जी की यातनाओं से मुक्ति पातें ही माँ मुझे अपने आँचल में छुपा लेती और मैं छाती से चिपटकर भींगता रहता …।

भाभी दादी की लाड़ली थी। दादी ने उसे सर पर चढ़ा रखा था। वह माँ को कुछ गिनती नहीं थी। यदि माँ भाभी को थोड़ा-सा कुछ कहती तो दादी चील की भाँति झपट पड़ती। माँ को गरियाने और कोसने लगती। एक दिन माँ आँगन में झाडू लगा रही थी। भाभी ऐंठकर बोली,’’सूझता नहीं सब सरकार-पतार छोड़े जा रही हो…! माँ को बुरा लगा। बोली, ”ऐ बहू-ठीक से बोल,सूझने की बात काहे करती है… तू हमसे छोटी है…।’’ प्रत्युत्तर में भाभी के शब्द बाण चलते कि उससे पहले ही दादी माँ पर टूट पड़ी। झाडू छीनकर माँ को बुरी तरह पीटने लगी। माँ पिटती जा रही थी, चीखती जा रही थी। आह ! कैसी हृदय विदारक थी माँ की चीख़ें, कितना भयावह दृश्य था? मैं दादी पर झपट पडा़ था। उसने मुझे भी दो-तीन झाड़ू लगा दी थी। उसी दिन दादी ने माँ के सारे कपड़े-लत्ते निकालकर फेंक दिए और कुछ बर्तन जो माँ विवाह के समय लाई थी। खाने-पीने के लिए कुछ नहीं मिला। फटे पुराने कपडें, मैले- मटमैले बर्तन और नंग धडंग़ मुझे आँचल में समेटकर बरामदे की टूटी-फूटी कोठरी में सिमट गई थी माँ! कोठरी की दीवारें दरकी हुई थीं-माँ के हृदय की तरह…।

इसी बीच बाबू जी को टीबी हो गई थी। चेहरा अधमरा-सा हो गया। उन पर भैया और दादी का शासन चलने लगा था। इलाज चल रहा था। उनकी कामना और वासना सब विलुप्त हो गई थी। शबाब व शराब दोनों छूट गए। माँ के साथ उनका शारीरिक संबंध भी छूट गया…कदाचित् आत्मिक संबंध तो कभी रहा ही नहीं..।

इधर-उधर करके माँ अपना और मेरा गुजाऱा करने लगी थी। कुछ दिनों बाद माँ ने दारू बनानी शुरू की। मेरी नानी दारू गाऱती थी। माँ ने उसी से सीखा था। दारू गारने से स्थिति में सुधार आने लगा। अच्छी आमदनी होने लगी। मैं स्कूल जाने लगा। अलग हो जाने से अब दादी के जोर-जुल्म कम हुए। माँ की सेहत में सुधार हुआ। चेहरे में लावण्य और लालित्य फूटने लगा। आदमी अपने मन को कब तक कचोंटकर रख सकता है? और मेरी माँ तो अभी जवान थी…।

मेरी माँ को कई नामों से जोड़ा जाने लगा। हमारे समाज में पति से अलग रह रही औरत को कई तरह की उपाधियों से अंलकृत किया जाता है- हरजाई-छिनाल-वेश्या।

मेरे गाँव वाले भी मेरी माँ को अंलकारो से विभूषित करने लगे। लोग चटखारे लेते, ‘‘मास्टरनी शराब में शबाब का नशा डालती हैं, एक बार जो उसकी पी लेगा, वह दूसरे की क्या पीएगा? इसीलिए तो रात-रातभर धंधा चलता है… कोठा खुला रहता है… ढिबरी जली रहती है ..!’’  कुछ लोग मुझे भी हेय दृष्टि से देखते। मैं किशोर हो चला था। सब कुछ समझने लगा था। मै विचलित हो जाता तिलमिला उठता। माँ पर लगाए गए आक्षेप सत्य प्रतीत होने लगते थे। मेरी नजरो मे खीरू चाचा कौंधने लगतें। खीरू चाचा से माँ का लगाव काफी अधिक था वह खीरू चाचा को रोज दारू देती थी। लेकिन मैंने उनसें कभी पैसे लेते नही देखा। झबरू तुरी रोज आता था और बराबर उधार ही पीता था। कभी-कभार ही वह पैसे देता था।

मेरे मन मेे माँ के प्रति शंका व घृणा के कीडे रेंगनें लगते थे। लेकिन अब तक मुझे कोई पुख्ता सबूत न मिला था। सो अपना शेष माँ पर प्रकट न कर पाता। घुट-घुटकर रह जाता। माँ मेरी घुटन को समझती थी। फिर भी मूक बनी रहती थी। वह मेरी शंका से भय खाने लगती थी। शायद माँ सोचती कि जवान हो रहें बेटे को क्या समझाए? क्या बेटे के सामने सतीत्व की परीक्षा देनी पडेगी? और वह घुट कर रह जाती। हम दोनो माँ-बेटे के बीच एक खाई बढ़ती जा रही थी। माँ अपने बेटे से नजरें नहीें मिला पा रहीं थी। वह अपनी नजरों में ही गिरती जा रही थी।

कभी-कभी मेरे मन में आक्रोश की ज्वाला धधक उठती। उस समय समस्त वर्जनाओं और नियंत्रण के बावजूद जी करता, माँ को भला-बुरा कह दूँ..! दारू की हंडिया-चूल्हा-बोतल सब तोड़ दूँ…। खीरू चाचा का सिर फोड़ दूँ और झाबरू को ख़ूब लताड़ू…। पढऩा-लिखना छोड़कर कहीं भाग जाऊँ या माँ को घसीट-घसीटकर खूब पीटूँ और घर से निकाल दूँ…। मन में तरह-तरह की दुर्भावनाएं उठतीं-गिरतीं। दारू की बू से मेरे मन-प्राण मिचलने लगते।

पंरतु माँ के व्यवहार में कही ऐसा भी था जो मन के उमडते उफानों कों बिलकुल शांत कर देता। उस समय मैं उससें नजरों नहीं मिला पाता। तब लगता कहीं से दोषी मैं हूँ। मन के किसी कोने में यह विचार भी कौंधता की माँ को मेरे ही कारण सब सहना पड़ रहा हैं और मैं माँ के चेहरे से टपकती सादगी व शालीनता को अपलक देखता रहता…। माँ के प्रति ऐसा सोचना पाप है-महापाप! और मैं तड़प उठता-फिर माँ दारू क्यों पीती है? इस विष का पान क्यों करती हैं…?

दस-बारह साल की आयु तक मैं माँ के साथ ही सोता था। एक बार आधी रात को माँ ने मुझे अपनी बाँहों में जकड़ लिया और इधर-उधर अविरत चूमने लगी। मेरी नींद उचट गई। मैं घबरा गया, ”माँ-माँ, क्या हुआ? यह क्या कर रही हो…?’’ माँ हड़बडा़कर उठ बैठी, साँसें भांथी-सी चल रही थीं। मैंने उठकर ढिबरी जला दी और सहमे-सहमे पूछा, ”क्या हुआ माँ?’’

”कुछ नहीं बेटा, एक बुरा सपना देख रही थी…!’’ यकायक उसके मोटे-मोटे आँसू लुढ़क आए। वातावरण बोझिल हो गया। सहसा माँ उठी और बोतल से एक गिलास दारू ढालकर गटागट पी गई…! माँ की इन अप्रत्याशित हरकतों को मैं निर्वाक् देखता रह गया! फिर माँ जमीन पर गेंदरा बिछाकर सो गई और उस दिन से माँ जमींन पर ही सोने लगी और रोज रात को सोते समय एक गिलास दारू पी लिया करती थी…।

तब मैं कुछ न समझ पाता था। परंतु आज समझता हूँ तो मन तड़प उठता है- और मेरा पूरा अस्तित्व उस दारू की गंध से सुवासित होने लगता है…!