दायरों से निकलकर तो देखें

यह साल बीतने वाला है। शुभकामनाओं के साथ नये साल का स्वागत करने को हम सभी उत्सुक हैं। यह बदलाव प्राकृतिक है। अगर हम इंसान पल-दर-पल, सेकेंड-दर-सेकेंड, मिनट-दर-मिनट, दिन-रात, हफ्ता-दर-हफ्ता, महीने-दर-महीने, साल-दर-साल और सदी-दर-सदी इसकी गणना-गिनती न भी करें, तो भी समय इसी तरह बीतता जाएगा। समय का बीतना, ऋतुओं का आना-जाना, वनस्पति का उगना और नष्ट होना, नये जीवों का पैदा होना तथा जीवन जीकर मर जाना, हमारी उम्र का बढऩा बदलाव की ही निशानी है। इसी बदलाव की वजह से अरबों-खरबों साल पुरानी प्रकृति आज भी नूतन लगती है। लेकिन क्या हम खुद में ऐसा कोई बदलाव लाते हैं, जिससे हम इंसान भी हमेशा नूतन बने रह सकें? शायद नहीं! क्यों? क्योंकि हम इंसानों ने खुद को अहं, घृणा, ईष्र्या, वैमनस्य, भेद-भाव, अलगाव, दुराव, संताप, प्रलाप, उल्लास, उपहास, उन्माद, परिहास, प्रमाद, अवसाद, आह्लाद, विवादों, जाति-धर्म-वर्ण आदि के खोलों और जीवन की ज़रूरतों वाली कुछ सीमाओं में कैद कर रखा है। यह स्वाभाविक है; लेकिन हम अगर चाहें, तो इस सबसे बाहर निकल सकते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि इन सबसे बाहर निकलना इंसान के लिए इतना आसान भी नहीं है; लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं।

इंसानी फितरत ढालने के ऊपर है। कह सकते हैं कि इंसान का स्वभाव पानी की तरह होता है, उसे जैसा साँचा यानी वातावरण मिलता है, या कहें कि वह जैसा वातावरण अपने लिए चुनता है, उसकी आदतें, उसके कर्म उसी तरह के होते चले जाते हैं। यही वजह है कि हम सबकी सोच, व्यवहार और जीवन जीने के तरीके एक-दूसरे से काफी भिन्न होते हैं। जबकि जीवन सबका एक ही तरह का है। सब एक ही तरह पैदा हुए हैं, जीवन जीने की प्रक्रिया भी एक जैसी ही है और सभी को एक ही तरह मर भी जाना है; लेकिन फिर भी जीने के तरीकों में विविधता और आपसी मतभेद हमें एक-दूसरे से अलग करते हैं। हमें आपस में जोड़े रखने की अगर कोई कड़ी है, तो वह है- प्रेम, रिश्तों और स्वार्थ की कड़ी। एक ईश्वर की संतान होते हुए भी हम एक नहीं हैं; क्यों? क्योंकि सब खुद को सही समझते हैं। कोई भी दूसरे के अस्तित्व को बिना स्वार्थ के स्वीकारने को तैयार ही नहीं है। यही वजह है कि हम एक होकर भी अलग-अलग दायरों में बँधे और बँटे हुए हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि हम न तो ईश्वर को बाँट सकते हैं और न उसकी नश्वर संरचना को। नश्वर संरचना! यह समझने की ज़रूरत है। अगर इसे समझ लिया, तो हम इंसानों में भेद करना बन्द कर देंगे। हमें पूरी प्रकृति अपनी लगने लगेगी और स्वार्थ, स्वहित तथा स्वत्व के भाव से स्वयं को निकालकर हम अपनत्व या कहें कि सर्वस्व के भाव में चले जाएँगे; जहाँ न कोई अपना है और न कोई पराया। तब हम निश्छल, निर्भीक, नि:स्वार्थ, निरपराध, निष्काम, निर्मोही और निमग्न हो जाएँगे। उस एक परमात्मा में निमग्न, निश्छल प्रेम में निमग्न और नि:स्वार्थ परसेवा में निमग्न। तब हम भी प्रकृति की तरह ही नित नूतन, नित आनन्दित और नित प्रसन्नचित रहेंगे। लेकिन यह अवस्था प्राप्त करना आसान नहीं है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े योगी, वैरागी सदियों तक लगे रहते हैं। लेकिन यह अवस्था गृहस्थों में भी कभी-कभी आ जाती है; क्योंकि इसके लिए तन से अधिक मन के वैराग की ज़रूरत होती है। शिशु अवस्था की ज़रूरत होती है, जो मन के चञ्चल होने के बाद वापस पाना असम्भव जैसा हो जाता है।

सवाल आता है कि ईश्वर की नश्वर संरचना कौन-सी है? नश्वर संरचना वह है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकती। ऋषियों और विद्वानों ने इसमें पञ्च तत्त्वों को शामिल किया है, जिसमें जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश शामिल हैं। यह सच है कि सब कुछ नष्ट हो सकता है, पर यह तत्त्व कभी नष्ट नहीं हो सकते और न ही इंसान इनमें से किसी को बाँट सकता है। इसके अलावा कुछ और भी चीज़ें हैं, जिन्हें इंसान नहीं बाँट सकता, जैसे- धूप, प्रकाश, अन्धकार, दिन-रात, जीवन, शारीरिक कष्ट, भाग्य, मृत्यु, अहसास, दर्द आदि। बल्कि इनमें कई तो ऐसी चीज़ें हैं, जो बाँटने से बढ़ती हैं। कहने का मतलब यह है कि इन सबके टुकड़े नहीं किये जा सकते। इसीलिए कहा है कि इंसान को इंसान से भेदभाव, घृणा, ईष्र्या, वैमनस्य आदि कभी नहीं करने चाहिए। ऐसा करना कहीं-न-कहीं ईश्वर का ही अपमान है। कुछ लोग सवाल करते हैं कि अगर कोई इसके ही लायक हो, तब क्या करें? इसके दो भावों के हिसाब से दो उत्तर हैं। पहला यह कि अगर आप उस परम् अवस्था को जा चुके हैं, जो ब्रह्ममय है, तब आपको इस सबसे मतलब ही नहीं रह जाएगा और अगर आप संसार में हैं और सामान्य हैं, तो यह स्वाभाविक है। लेकिन फिर भी जहाँ तक सम्भव हो सके, आपको इन सबसे बचना चाहिए; ताकि आप भी एक पुण्यात्मा होकर ब्रह्ममय हो सकें, अर्थात् ईश्वर के परम् प्रिय हो सकें। कुछ लोग, जो जातिवाद, धर्मवाद और वर्णवाद को मानते हैं, बल्कि मैं कहूँगा कि इस पागलपन में डूबे हुए हैं, वे समझते हैं कि परम्ब्रह्म की अवस्था को हर कोई नहीं जा सकता, यह केवल एक विशेष जाति का जन्मसिद्ध अधिकार है और यह अवस्था उन्हें तब भी प्राप्त होनी है, जब वे कुछ भी- अच्छा, चाहें बुरा करें। मगर यह उनकी सबसे बड़ी मूर्खता है। अगर ऐसा होता, तो उनकी हर कपोल-कथा सिद्ध हो चुकी होती और दूसरे लोगों को कोई ज्ञान भी नहीं होता। लेकिन ऐसा नहीं है। सवाल यह है कि फिर कैसे उस परम्ब्रह्म को प्राप्त किया जाए? इसका जवाब एक ही है कि पहले मन को शिशु अवस्था तक पहुँचाइए, जिसके लिए सबसे पहले आपको मज़हबी दायरों से निकलना होगा, ज़ात-पात के बन्धनों को तोडऩा होगा।