‘दस हजार में टाइपिस्ट तक नहीं मिलेगा’

मनीषा यादव
मनीषा यादव

दिल्ली में सऊदी अरब के दूतावास में स्थायी हिंदी अनुवादक की जरूरत थी. मेरे पास कॉल आई. उस वक्त जिंदगी बुरी तरह से बेपटरी थी. जेब में गिनती के पैसे थे, करने को काम नहीं और रहने को घर नहीं वाली नौबत थी. मैं किसी चमत्कार के इंतजार में था. कॉल आई तो दिल बाग़-बाग़ हो गया. उम्मीद कमाल की चीज होती है. यह आती है और सारी उदासी हवा हो जाती है, खासकर तब जब आप बेहद बुरे दौर से गुजर रहे हों. जिस दिन कॉल आई उसी दिन मैं भोपाल पहुंचा था. एक दोस्त के पास दस-पंद्रह दिन गुजारने का दिल था ताकि कुछ दिन तमाम उलझनों से दूर रहूं. स्टेशन के पास ही दो सौ रुपये में किराए पर कमरा लिया था, जहां मेरा दोस्त मुझे शाम को मिलता और फिर मैं उसके साथ हो लेता. पर किस्मत कहीं और ही ले जाना चाहती थी.

कॉल आने के बाद तो मैं जैसे खुशी से पागल हो गया था क्योंकि मुझे हमेशा यकीन रहता था कि अगर इंटरव्यू तय हो गया है तो नौकरी तो पक्की है. बहरहाल मैंने अपने दोस्त को कॉल करके आने से मना किया और रात की ट्रेन पकड़कर वापस दिल्ली चला आया.

जेब लगभग खाली थी. जेएनयू में दोस्तों के कमरे ही अपना आशियाना थे. वहीं एक दोस्त के पास पहुंचा. नहा-धोकर तैयार हुआ और वसंत विहार में स्थित दूतावास के लिए रवाना हुआ. लगातार सोलह घंटों के सफर के बाद, बिना आराम किए मैं इंटरव्यू के लिए निकल चुका था पर थकान जैसी कोई चीज महसूस नहीं हो रही थी.

मेरे सामने दूतावास का आलीशान भवन था. कला और शिल्प की सैकड़ों निशानियां भवन के बाहर से देखी जा सकती थी. अच्छी तरह तस्दीक कर लेने के बाद सुरक्षाकर्मी ने मुझे अंदर जाने की इजाजत दी. अंदर मौजूद एक-एक चीज मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. चाहे वो फर्श पर बिछी कालीन हो, या रिसेप्शन पर लगी मेज और कुर्सियां, गमले की नक्काशी हो या झूमर की साइज! लग रहा था जैसे किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया हूं. ये शान-ओ-शौकत देखकर मैंने मन ही मन यह विचार करना शुरू कर दिया था कि कितनी तनख्वाह मांगनी है. मुझे दूतावास में पदस्थ संस्कृति विभाग के मुखिया से मिलना था. उनका नाम अरबी लफ्जों से बना था.

इन साहब का दफ्तर बेडरूम की औसतन साइज का तीन गुना तो बेशक था. उन्होंने मुझे भी सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. हिंदी उन्हें आती नहीं थी सो अंग्रेजी में बातचीत शुरू हुई. साहब का पहला सवाल कुछ यूं था- तो राहुल, तुम्हें पता है, तुम यहां क्यों हो? उस आलीशान भवन का असर मुझ पर कुछ ऐसा हुआ था कि मुझे वो साधारण-सा सवाल भी बड़ा दार्शनिक-सा लगा. हालांकि मुझे दार्शनिक जवाब सूझा नहीं- बतौर हिंदी अनुवादक काम करने के लिए. इसके बाद मेरे अनुभवों और शैक्षणिक डिग्रियों पर बात हुई. फिर टेस्ट लिया गया, जिसमें मैं अच्छे नंबर से पास हो गया.

इस बीच यह बताना जरूरी है कि डॉक्टर साहब की अंग्रेजी भी थोड़ी अरबी टोन में थी तो कई बार मुझे उन्हें समझने में भारी मशक्कत करनी पड़ती. इसी टोन में उन्होंने मुझे बताया, तुम्हारी नौकरी पक्की है, तुम्हारी तनख्वाह इतनी है और तुम आज से ही काम शुरू कर दो. मैंने सब कुछ सुना पर तनख्वाह समझने में फेर हुई.

मुझे एचआर के पास ले जाया गया जो भारतीय थे और उन्हें हिंदी आती थी. उन्होंने दस्तखत करने के लिए मेरी और कागजात बढ़ाया तो उस पर तनख्वाह थी दस-हजार रुपये प्रति माह. मेरे तो पैर के नीचे से जमीन खिसक गई. ‘ये तो भारत के प्रकाशकों और सरकारी विभागों से भी गए गुजरे निकले’, मैंने मन ही मन सोचा. ‘दस हजार… सच में’, मुझे यकीन नहीं हो रहा था. मैंने एचआर को कहा कि दस्तखत करने से पहले मैं डॉक्टर साहब से एक बार और मिलना चाहता हूं.

साहब ने कहा, ‘राहुल, मैंने तो तुम्हें पहले ही तनख्वाह बता दी थी और तुमने हामी भी भर दी थी.’ मैंने कहा, ‘सर, आप वाकई दस हजार ऑफर कर रहे थे?’ जवाब आया- हां. मैंने कहा, ‘सर, इतने में आपको हिंदी टाइपिस्ट भी नहीं मिलेगा, अनुवादक तो भूल ही जाइए.’ फिर याद आया, यहां रहकर भी किसी और ही दुनिया में रहने वाले यही तो लोग हैं जिन्हें खाने और रहने के लिए कभी अपने बटुए का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता. इन्हें लगता है दुनिया अब भी वहीं अटकी है जहां पांच और दस रुपये में पेट भर खाना मिल जाता है और जहां दस हजार हैंडसम अमाउंट है. मैं वहां से निकल पड़ा- खुद पर हंसते और झल्लाते हुए.

(लेखक मीडिया से जुड़े हैं और मुंबई में रहते हैं.)