दमन का क़ानून

इस अंक में ‘तहलका की आवरण कथा देशद्रोह के क़ानून और वर्षों से इसका दुरुपयोग कैसे किया गया है; के बारे में है। एक मीडिया हाउस के रूप में हम स्वतंत्र और निडर पत्रकारिता की वकालत करते रहे हैं। हाल के वर्षों में पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए देशद्रोह के तहत मामले दर्ज किये गये हैं। वास्तव में सरकारों द्वारा राजद्रोह के प्रावधानों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया है। एक स्वतंत्र और निडर मीडिया एक जीवंत लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। इसी सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के हाल के दो फ़ैसले आशा की एक किरण जगाते हैं। यह खुशी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार के कामकाज की आलोचना करने के मीडिया के अधिकार के साथ खड़ा हो गया है। पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ प्रधानमंत्री को निशाना बनाने वाली उनकी कथित टिप्पणियों के लिए दर्ज देशद्रोह के मामले को रद्द करते हुए अदालत ने फ़ैसला सुनाया कि ‘केवल जब शब्दों या अभिव्यक्तियों में सार्वजनिक अव्यवस्था या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी पैदा करने की घातक प्रवृत्ति या इरादा हो, तो ही धारा-124(ए) (देशद्रोह) और आईपीसी की धारा-505 (सार्वजनिक शरारत) के तहत क़दम उठाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘एक नागरिक को सरकार द्वारा किये गये उपायों की आलोचना करने या टिप्पणी करने का अधिकार है; की टिप्पणी के साथ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में देशद्रोह के मामले को ख़ारिज करने के एक दिन बाद एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने इस फ़ैसले का स्वागत किया। यह कहते हुए कि ‘यह निर्णय देशद्रोह के मामलों से पत्रकारों की रक्षा के महत्त्व को रेखांकित करता है। एडिटर्स गिल्ड ने ‘स्वतंत्र मीडिया और लोकतंत्र पर राजद्रोह क़ानूनों के ख़राब प्रभाव को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की चिन्ताओं की सराहना की। इसमें कहा गया है- ‘गिल्ड इन कठोर और पुरातन क़ानूनों को निरस्त करने की माँग करता है, जिनका किसी भी आधुनिक उदार लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि औपनिवेशिक युग के क़ानून के दायरे और मापदण्डों की व्याख्या की आवश्यकता है; विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के अधिकार के सम्बन्ध में, जो देश में कहीं भी किसी भी सरकार के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रसारित या प्रकाशित कर सकता है। इस मामले में अदालत ने दो तेलुगु समाचार चैनलों को संरक्षण दिया था, जिन पर आंध्र प्रदेश सरकार के ख़िलाफ़ विचार प्रसारित करने के लिए राजद्रोह क़ानून के तहत मामला दर्ज किया गया था। आंध्र प्रदेश पुलिस ने 14 मई को राज्य की कोविड-19 से निपटने के लिए बनायी गयी प्रबन्धन नीति की निंदा करने के लिए दो पत्रकारों के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा-124(ए), 153(ए) और 505 के तहत प्राथमिकी दर्ज की थी।
यह दो निर्णय अब मीडियाकर्मियों को देशद्रोह के आरोप के साथ पकड़े जाने के डर के बिना अपना काम करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। क्योंकि इस क़ानून का अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडियाकर्मियों के ख़िलाफ़ दुरुपयोग किया गया है और उन पर नियमित अंतराल में देशद्रोह का आरोप लगाया जाता रहा है। हाल में कुछ पत्रकारों के साथ यही हुआ; क्योंकि उन्होंने सत्ता के ख़िलाफ़ टिप्पणियाँ की थीं। जो कोई भी सत्ता के कामकाज से असहमति जताता है, उस पर राजद्रोह क़ानून के तहत मामला बनाया जा सकता है। यह उचित तो नहीं कहा जा सकता। इसमें आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। निश्चित ही ऐसे हालत में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए।

चरणजीत आहुजा